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सोमवार, 29 जून 2020

मेरी पौलेंड यात्रा – 7, अकादमिक संवाद से भरा दिन

विद्यार्थियों से संवाद एवं पारम्परिक कॉफी का स्वाद

मार्ग में काजिमीर विल्किस यूनिवर्सिटी के कुछ भवन पड़े, जिनमें फिजिक्स व मेथेमेटिक्स विभाग प्रमुख थे। विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर भी मार्ग में पड़ता है, जिसका संक्षिप्त इतिहास यहाँ बताना चाहेंगे।

संस्थान 1969 में शिक्षकों के प्रशिक्षण केंद्र के रुप में स्थापित हुआ था, जो विस्तार पाते हुए सन 2005 से विश्वविद्यालय के रुप में प्रारम्भ होता है। इसमें इस समय 7000 विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिन्हें 1500 शिक्षक पढ़ाते हैं। मानविकी, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन, राजनीति शास्त्र, पर्यटन, कम्प्यूटर, गणति, भौतिकी, संगीत, खेल आदि इसके लोकप्रिय पाठ्यक्रम हैं। इसका इंन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतरीन एवं कैंप्स बहुत सुंदर है। कुछ विभागीय कैंपस शहर के अलग-2 स्थानों पर स्थित हैं, विशेषकर मनोविज्ञान विभाग पुल के उस पार पहाड़ी पर है। पुस्तकालय पास ही सड़क के उस पार। इसके ही सामने थोडे आगे सड़क के दूसरी ओर एक बहुमंजिले भवन में ह्यूमेनिटी एवं सोशल साइंस के विभाग मौजूद हैं।

यहाँ के लोग एक दम विंदास एवं खुलापन लिए दिखे, जो हम जैसे पुरातन पृष्ठभूमि के लोगों के लिए थोड़ा चौंकाने वाला नया अनुभव था। वस्त्रों के संदर्भ में महिलाओं में कोई संकोच का भाव नहीं दिखा, जैसे ये इनकी संस्कृति का हिस्सा हों। साथ ही इनकी सरलता-सहजता इस सबको स्वाभाविक बनाती है। भारतीयों के लिए इसमें समायोजित होने में थोड़ा समय लग सकता है, लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ व्यक्ति परिवेश में ढल जाता है।


आज हमारा पत्रकारिता के विद्यार्थियों के साथ पहला इंटरएक्शन था, जो यहाँ के अत्याधुनिक पुस्तकालय के एक कक्ष में हो रहा था। अध्यात्म को लेकर यहाँ के विद्यार्थियों में गहरी रुचि दिखी, क्योंकि यहाँ प्रचलित धर्म तक ही लोकजीवन सीमित है। अध्यात्म के प्रति अधिक चर्चा नहीं होती व इसे व्यैक्तिगत स्तर का विषय मानते हैं, जिस पर अकादमिक विमर्श खुलकर नहीं होता। यहाँ पत्रकारिता विभाग की इरेस्मस समन्वयक डॉ. अन्ना से रोचक संवाद हुआ। यहाँ की संस्कृति, लोकप्रचलन, रहन-सहन, जीवनशैली आदि की मोटा-मोटी जानकारी मिली।

साथ ही यहाँ की चाय की चर्चा जरुर करना चाहेंगे, जो कुछ सुखी जड़ी-बूटियों में उबलते पानी व कुछ शक्कर मिलाकर तैयार हुई थी। हम इसको यहाँ का विशिष्ट उपहार मानकर कुकीज के साथ गटकते रहे, हालाँकि स्वाद में यह हमारे बिल्कुल अनुकूल नहीं थी। एसे अनुभव आगे भी होते रहे। ब्रेक के बाद यहाँ छात्र-छात्राओं से पुनः चर्चा होती है एवं ग्रुप फोटो के साथ आज का सत्र समाप्त होता है, इसके बाद हम मुख्य कैंपस में वाईस रेक्टर प्रो. मैको से मिलते हैं, जिनसे पिछले कल हम उनकी थ्री-डी प्रिंटिंग लैब में मिल चुके थे।

वाइस रेक्टर, प्रो. मारेक मैको एक सज्जन, योगा अभ्यासी व्यक्ति हैं, जो पिछले दस वर्षों से योगाभ्यास कर रहे हैं। इनकी शाँत, धीर-गंभीर मुद्रा एक योगी का अहसास जगाती है और साथ ही इनकी सरलता, गंभीरता एवं प्रमुदता हमें कहीं गहरे प्रभावित करती है। अपने पद का अहंकार इन्हें कहीं छू तक नहीं पाया है, ये स्पष्ट झलकता रहा। यहीं आज का लंच इनके साथ होता है। शुरुआत अण्डे की स्लाइस से भरे सूप से होती है, जिसे देखकर हम चौंक जाते हैं, हमारे लिए यह मांसाहारी डिश बन गयी थी, जबकि ये इसे शाकाहारी मानते हैं। इसके स्थान पर दूसरी शाहाकारी डिश आती है और चाबल के साथ मिक्स वेज का लुत्फ लेते हैं, जो एक नया अनुभव रहा।

आज की शाम प्रो. क्रिस्टोफर के साथ बीती, जो यहाँ विजिटिंग प्रोफेसर हैं। प्रो. क्रिस्टोफर देवसंस्कृति विश्वविद्यालय आ चुके हैं, और यहाँ के दो माह के प्रवास को अपने जीवन का रुपांतरणकारी अनुभव मानते हैं। ये अब पूरी तरह शाकाहारी हो गए हैं और परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री रामशर्माजी की दो पुस्तकों - हारिए न हिम्मत और मैं कौन हूँ, का पोलिश भाषा में अनुवाद कर चुके हैं।

इनके साथ शहर का भ्रमण करते हुए यहाँ के लोकप्रिय कॉफी हाउस पहुँचते हैं, जहाँ यहाँ की पारम्परिक कॉफी का स्वाद चखते हैं। इसमें विटामिन-सी से भरी खट्टी चैरी के दाने पड़े थे। चाय व कॉफी के साथ दूध डालने की परम्परा यहाँ नहीं है। यहाँ चाय हल्की, लेकिन कॉफी कडक रहती है, जिसमें शहद का उपयोग करते हैं। कॉफी के साथ चीज केक की व्यवस्था हुई, जिसमें शहद से सजावट दिखी। हवा में लटके फुलों से गमलों के बीच हमारा नाश्ता होता है, यहाँ के खान-पान व संस्कृति की चर्चा के साथ देवसंस्कृति की यादें ताजा होती हैं। यहाँ के प्राकृतिक परिवेश में विताए कुछ पल हमेशा याद रहेंगे।

बापसी में शहर के भव्य एवं विशाल चर्च के भी दर्शन किए, जहाँ ईसा मसीह के 14 फोटो दिवार में टंगे थे, जिसमें 14 ढंग से ईसा के आत्म-बलिदान के दृष्टांतों को दर्शाया गया था। रास्ते में पार्क में नॉबेल पुरस्कार विजेता, पोलिश साहित्यकार एवं पत्रकार हेनरिक सेन्कविच के दर्शन हुए व इनका परिचय पाया। इस तरह आज का दिन अकादमिक गतिविधियों से भरा रहा, जिसका शुभारम्भ ऐतिहासिक शहर तोरुण के दर्शन एवं समाप्न बिडगोश की पारम्परिक कॉफी के स्वाद के साथ हुआ।      बिडगोश में हमारा प्रवास अंतिम चरणों की ओर बढ़ रहा था। अगले ब्लॉग में प्रस्तुत है, पोलैंड यात्रा, भाग-8, अंतिम दिनों की कुछ दिलचस्प यादें।

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

यात्रा वृतांत - मेरी पोलैंड यात्रा, भाग 5


काजिमीर विल्की यूनिवर्सिटी कैंपस में पहला दिन


आज हमारा विश्वविद्यालय का पहला दिन था। अपने आवास से मुश्किल से आधा किमी पैदल चलकर हम विश्वविद्यालय गेट पर पहुँचते हैं। इसके साथ ही बोटेनिक्ल गार्डन सटा है, जो बाहर से देखने पर गगनचूम्बी वृक्षों एवं हरियाली से लैंस है। बीच-बीच में फूलों की क्यारियाँ अपनी सतरंगी छटा बिखेर रही थी। इसको फुर्सत में देखने व अवलोकन का मन बन चुका था। 
खेर अभी हम गेट से परिसर में प्रवेश करते हैं। विश्वविद्यालय का यह मुख्य परिसर है, जहाँ यूनिवर्सिटी का इंटरनेशनल रिलेशन विभाग स्थित है। विभाग की प्रमुख मेडेम अनिला से हमारी ऑफिशियल मुलाकात यहीं होनी थी। हालाँकि फोर्मल मुलाकाल पिछले कल उनके परिवार संग रुबरू रेस्टोरेंट में हो चुकी थी। उनकी सहयोगी मेडेम काल्का हमें यहाँ तक आने का रास्ता कल बता चुकी थी। इनसे भी मुलाकात होनी थी।
प्रकृति की गोद में बसा हुआ कैंपस बहुत ही खूबसूरत लग रहा था। चेस्टनेट के पेड भी कतार में सजे मिले, रंग-बिरंगे फूलों के साथ क्यारियाँ सजीं थी। क्रिसमस ट्री एवं देवदार के पेड़ों के बीच यहाँ के पारम्परिक शैली में बने भव्य भवन नए प्रदेश एवं परिवेश में प्रवेश का अनुभव दे रहे थे। अपने होस्ट से पहली ऑफिश्यल इंटरएक्शन की उत्सुक्तता स्वाभाविक थी।


बोटेनिक्ल गार्डन की साइड से युनिवर्सिटी कैंपस में प्रवेश होता है, हरे-भरे कैंपस के बीच पारम्परिक भवनों का संयोजन बहुत सुन्दर लग रहा था। यहाँ के शहरों की तरह कैंपस की स्वच्छता और सुव्यवस्था हर ओर नजर आ रही थी। भवन के चारों और तथा मार्ग में क्रिस्मस ट्री के छोटे-बड़े पौधे यहाँ की सुंदरता में चार-चाँद लगा रहे थे। प्रकृति की गोद में कैंपस की स्थिति हमें अपने घर का शीतल अहसास दिला रही थी। निश्चित रुप में इस ठण्डे इलाके में ऐसे वृक्ष किसी हिल-स्टेशन का अहसास दिला रहे थे।

अंतर्राष्ट्रीय संपर्क विभाग के भवन के गेट पर हमें चैरी का पेड़ मिला, जिसमें अभी चैरी के फूल झड़ चुके थे, नन्हीं-नन्हीं चैरियाँ हरे पत्तों के बीच से झाँकती दिख रहीं थी। रास्ते के दोनों ओर रंग-बिरंगे सुंदर फूल खिले थे। भवन में प्रवेश के बाद दूसरी मंजिल पर हम कमरे में प्रवेश करते हैं। मेडेम काल्का से मुलाकात होती है, वे अपनी बॉस अनिला मेडेम से उनके चैंबर में मिलवाती हैं। गर्मजोशी के साथ स्वागत होता है। मैडेम एनिला एक डायनमिक लेडी हैं, साथ ही मस्तमौला एवं व्यवहारकुशल। ये देवसंस्कृति पधार चुकी हैं व मुलाकात से यहां से जुड़ी पुरानी यादों को आज ताजा अनुभव कर रही थी। 
फिर काल्का मेडेम हमें अपनी गाड़ी में बिठाकर स्थानीय बैंक तक ले जाती हैं, जहाँ इरेस्मस स्कोलर्शिप की राशि को इनकैश किया जाना था।

शहर की सुंदर सडकों के बीच हम कुछ ही मिनट में कई चौराहों को पार करते हुए शहर के एक एकांतिक छोर तक पहुँच चुके थे, जिसके दायीं ओर ट्रेन रुट था व बीच में चीड़ के घने जंगल, जिनका जिक्र हम बिडगोश हवाई पट्टी पर कर चुके हैं। हमें इसकी सघन हरियाली खासी मनभावन एवं प्रशांतक लगी। थोड़ी ही देर में एक नवनिर्मित भवन के सामने पार्किंग में गाड़ी रुकती है। भवन यहाँ का बैंक था। भवन के अंदर खिड़कियों में लगे बड़े-बड़े सीसों से बाहर का प्राकृतिक नजारा स्पष्ट दिख रहा था। भवन का प्रकृति के साथ इतना सुंदर संयोजन हमें अंदर से आल्हादित कर रहा था।
देख हम सोचते रहे कि भारतीय शहरों में हम इस मामले में कितने लापरवाह रहते हैं। हमारे शहरों व कस्वों के भवन निर्माण में प्रकृति, हरियाली, पेड़ों के लिए कोई स्थान नहीं रहता। यहाँ भवन के अंदर जो स्पेस दिया गया था व जो स्वच्छता दिखी, लगा अध्यात्म का पहला पाठ – स्वच्छता एवं सुव्यवस्था यहाँ के लोग सीख चुके हैं। बस इनको आगे की गहराई में उतरना बाकि है।
बैंक से पैसा निकालने के बाद हम वाईस रेक्टर प्रो. मैको से मिलने बाले थे। इनके दर्शन हम देवसंस्कृति विवि में कर चुके थे, जब से पूरे डेलीगेशन के साथ दो-तीन साल पहले आए थे। धीर-गंभीर, ऊँचा कद, सुगठित शरीर एवं एक जेंटलमेन लुक – अक्स अभी ही हमारे जेहन में था। आज किस रुप में इनसे मुलाकात होने वाली है, उत्सुक्तता थी। क्योंकि वाईस रेक्टर हमारे यहाँ के वाईस चांस्लर जैसा सीनियर अकादमिक पद होता है।
इनसे हमारी मुलाकात विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग एवं कम्प्यूटिंग कैंपस में होती है। जब हम भवन में पहुँचे तो प्रो. मैको प्रयोगशाल में यहाँ के वैज्ञानिकों के साथ काम कर रहे थे।
अपनी बर्दी में सफेद गाउन ओढ़े एक वैज्ञानिक, एक जैंटलमेन अपनी मासूम मुस्कान के साथ सामने खड़ा था व गर्मजोशी के साथ हमारा स्वागत कर रहा था। ये वैज्ञानिक के साथ एक योगी भी हैं, जो कई वर्षों से योगाभ्यास कर रहे हैं। इनसे मिलने के बाद समझ में आया कि यहाँ शोध को कितना महत्व दिया जाता है। प्रयोगशाला में ये अकादमिक अधिकारी नहीं होते, एक वैज्ञानिक की भाँति दतचित्त होकर अपने अनुसंधान में अपने छात्रों एवं सह वैज्ञानिको के साथ कुछ नए अन्वेषण में मग्न होते हैं।

इस बक्त इनका थ्री–डी प्रिंटिंग को लेकर महत्वपूर्ण प्रयोग चल रहे था, जिसे ये स्थानीय अस्पताल में दिव्यांग बच्चों की आवश्यकता को देखते हुए तैयार कर रहे थे। ऐसे ही इन्होंने तमाम सफल प्रयोग दिखाए जिन्हें चिकित्सा  से लेकर शिक्षा एवं इंडस्ट्री की माँग के हिसाब से तैयार किया गया था। बाद में पता चला कि प्रो. मैको अपनी फील्ड के जाने-माने वैज्ञानिक हैं व पौलेंड में अपने विषय़ के शीर्ष वैज्ञानिक एवं शोधकर्ता के रुप में प्रतिष्ठित हैं। इनकी कार्य एवं व्यक्तित्व में हमें वैज्ञानिक अध्यात्म की झलक मिल रही थी, जहाँ एक वैज्ञानिक आध्यात्मिक जीवन दृष्टि एवं मूल्यों के साथ शोध में संलग्न होता है तथा एक योगी एक वैज्ञानिक सी प्रयोगधर्मिता के साथ सत्य का शोध-अनुसंधान कर रहा होता है।
प्रयोगशाला में इनके कार्य को देखने के बाद हम इनके विभागीय ऑफिस में गए। जबकि इनका वाईस-रेक्टर के ऑफिस में इनसे मुलाकात कल होने वाली थी, जहाँ इनके साथ लंच का भी प्रावधान रखा गया था।

प्रो. मैको से मुलाकात के बाद हम यहाँ के सबसे बड़े माल में जाते हैं, जो कई मंजिला था। इसमें शायद ही कुछ ऐसा हो जो यहाँ न मिलता हो। यहाँ एक काउँटर पर करेंसी एक्सचेंज करते हैं, क्योंकि जो पैसे बैंक से निकाले थे, वे यूरो में थे, जबकि यहाँ खर्च के लिए हम पोलैंड की करेंसी ज्लोटी में आवश्यकता थी। कार पार्किंग तक आते-आते हम मॉल का विहंगावलोकन करते रहे, जहाँ अगले दिनों फुर्सत में एक दिन यहाँ आकर यहाँ से कुछ परचेजिंग करनी थी।
मैडेम काल्का का पग-पग पर अपनी गाड़ी में कैंपस का भ्रमण एवं आवश्यकताओं का ध्यान हमें गहरे छू रहा था। अपने कर्तव्य के प्रति सजग एवं निष्ठ काल्का मैडेम हमें एक सुगड़ महिला प्रतीत हुई, अपने केयरिंग एवं जेंटल अंदाज के साथ बड़ी बहन जैसा फील दे रही थी, हालांकि उम्र में शायद वो हमसे छोटी ही रही होंगी।
बापसी में काल्का मैडेम हमें बोटेनिक्ल गार्डन पर उतारती हैं, जिसे देखने की इच्छा हम प्रातः जाहिर कर चुके थे। गेट में प्रवेश करते ही पहले कृत्रिम झील के दर्शन होते हैं, जिसके किनारे पेड़ के कटे ठूंठों की सुंदर बैठकें बनी थी। झील के किनारे व झील में पक्षी चहचहा रहे थे।
गगनचूम्बी देवदार के वृक्षों के बीच यहाँ का एकांत-शांत परिवेश हमें स्वर्ग का अहसास दे रहा था। पार्क के हर कौने में फूलों से लदी झाड़ियाँ हमारा स्वागत कर रही थीं। एक क्यारी में नीले फूलों के गुच्छ हमारे हिमाचल में उगने वाले फूलों की याद दिला रहे थे, जिसके नीले खुशबूदार गुच्छे हमें बचपन में प्रमुदित करते थे।
कुछ फूल तालाब में सजे थे, तो छोटे आर्किड के फूल अपनी ही रौनक बिखेर रहे थे। बुजुर्ग, युवा एवं बच्चे सभी पार्क में घूम रहे थे व यहाँ के एकांत-शांत एवं शीतल परिवेश का आनन्द ले रहे थे।
इस तरह आज का हमारा सफर पूरा होता है। बापसी में रास्ते के स्टोर से आवश्यक फल सब्जी, दूध एवं ब्रेड आदि लेते हैं व अपने विश्रामस्थल पहुँचते हैं। कल विभाग में परिचय एवं प्रेजन्टेशन का क्रम शुरु होना था और फुर्सत के पलों में पड़ोस के ऐतिहासिक शहर तोरुन के दर्शन भी करने थे, जो महान वैज्ञानिक कोपर्निक्स की जन्म स्थली एवं कार्यभूमि रहा है।
    अगली ब्लॉग पोस्ट यहाँ के यात्रा वृतांत, पोलैंड का छिपा नगीना - तोरुण शहर को पढ़ सकते हैं।

सोमवार, 26 अगस्त 2019

यात्रा वृतांत - मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-4


विदेशी धरती में देशी जायके से रुबरु


आज रविवार का दिन था। दिन भर प्रेजन्टेशन की तैयारियाँ चलती रहीं। आज की शाम बिडगोश शहर के एकमात्र भारतीय रेस्टोरेंट - रुबरु के नाम थी, जिसके दर्शन हम पिछले कल भ्रमण के दौरान मिल्ज टापू में कर चुके थे। काजिमीर यूनिवर्सिटी की इंटरनेशल रिलेशन विभाग की मेडेम जोएना काल्का हमें लेने अपनी गाड़ी में आती हैं। यहाँ आने से पूर्व मेल्ज के माध्यम से मैडेम का शाब्दिक परिचय हो चुका था। भारत में काल्का शब्द काली माता से जुड़ा हुआ है, जैसे चंडीगढ़ शिमला के बीच काल्का मंदिर व शहर, बैसे ही दिल्ली में काल्का मंदिर प्रख्यात है। गुरु गोविंद सिंहजी की आत्मकथा विचित्र नाटक में भी काल्का आराधना का रोमाँचक जिक्र मिलता है। खैर, इन भावों के साथ मैडेम का नाम आसानी से हमें याद था, आज प्रत्यक्ष मैडेम का परिचय हो रहा था, जो एक सरल, सुगड़, सजग एवं सज्जन महिला निकली। हमारे प्रवास के अंतिम पड़ाव तक जरुरत पड़ने पर इनका भावभरा सहयोग साथ रहा। शहर की स्पाट, सुंदर सड़कों के बीच कुशलतापूर्वक ड्राइविंग करती हुई मेडेम काल्का हमें अपने गन्तव्य की ओर ले जा रही थी। पिछले दो दिनों में जिस मार्ग को हम पैदल तय कर रहे थे, आज गाड़ी में बैठकर उसका विहंगावलोकन हो रहा था।
रुबरु में जाने से पहले गाड़ी को पार्क करना था। लेकिन शहर में इस समय पार्किंग स्थान बुक थे। उचित पार्किंग स्थान की खोज में हमने मेडेम को टापू की तीन परिक्रमा करते हुए देखा, जो यहाँ पार्किंग के अनुशासन की बानगी पेश कर रहा था, जिससे हम कुछ सीख सकते हैं। अपने यहाँ तो पार्किंग के ऐसे अनुशासन की बात तो दूर, नो पार्किंग जोन में ही पार्किंग करना जैसे चलन बन चुका है। पार्किंग के संदर्भ में यहाँ का सार्वजनिक अनुशासन हमें अनुकरणीय लगा।
रुबरु में काल्का मेडेम की बॉस मैडेम एनिला बेकर (इंटरनेशनल विभाग की हेड़) अपने पति आरेक व दो बेटों के संग इंतजार कर रही थीं। मेडेम एनिला देवसंस्कृति विवि आ चुकी हैं व भारतीय व्यंजनों का स्वाद चख चुकी हैं व इनकी मुक्तकँठ से प्रशंसा करती रही हैं। आज मेडेम सपरिवार हमको यहाँ के भारतीय स्वाद से रुबरु करा रहीं थी। मेडेम बहुत मिलनसार, खुशमिजाज, स्मार्ट एवं कड़क महिला हैं, पति भी उतने ही बातूनी, मस्तमौला एवं मजेदार। दोनों बेटे पहली बार मिलने के कारण थोड़ा गंभीर व संकोच कर रहे थे, डीलडोल में उमर से अधिक ऊँचे व भारी भरकम थे। आज पहली बार पता चला कि यहाँ आहार में माँसाहार का चलन कितना आम है। शायद ही कोई वाशिंदा हो जो पूर्णत्या शाकाहारी हो। यहाँ तक कि सलाद में तक मछली को स्टफड पाया। लगा शायद यहाँ की जरुरत के हिसाब से भोजन का चलन रहा होगा, ठंड़ा इलाका होने के कारण यहाँ तापमान माइनस 10-15 तक रहता है, क्योंकि अधिकाँश समय यहाँ शाकाहारी सब्जियां, अन्न, दाल आदि कम मात्रा में उपलब्ध रहते हैं। फिर इनके पूर्वज स्लाव भी ठंड़े इलाकों से आए, तो परम्परागत रुप में ऐसे आहार के चलन को समझने की कोशिश कर रहा था।
प्रीतिभोज के साथ पोलैंड व भारत के खानपान व दर्शन की चर्चा होती रही। पहली बार एग्नोस्टिक से हमारा परिचय हो रहा था। आरेक स्वयं को एग्नोस्टिक मान रहे थे। कभी वे यहाँ के प्रचलित चर्च में कुछ माह-साल मोंक तक रह चुके हैं, व अन्य धार्मिक एवं आध्यात्मिक मार्गों को भी आज्माँ चुके हैं, लेकिन सबसे मोहभंग के बाद अब वे एग्नोस्टिक हो चुके हैं। सब धार्मिक परम्पराओं का सम्मान करते हैं, लेकिन किसी में अधिक आस्था ऩही रखते। हमारे लिए यह एक नया व रुचिकर प्रसंग था। ऐसा भी होता है व क्यों होता है, जानने-समझने की हम कोशिश कर रहे थे।
रुबरु का मालिक तो पोलिश ही था, बात करने पर पता कि वेटर व शैफ देशी ही है, हमने मिलने की इच्छा जाहिर की तो, कुछ ही मिनट में चिरंजीवी शर्मा हमारे सामने थे, नेपाली मूल के बेटर व शैफ, जो पिछले कुछ वर्षों से यहाँ काम कर रहे हैं। पोलैंड के बड़े शहरों में रुबरु रेस्टोरेंट की श्रृंखला है, पता चला कि यहाँ के पास के शहर तोरुन में भी रुबरु रेस्टोरेंट है, जिसमें इनके मित्र काम करते हैं, जहाँ अगले दिनों हम विजिट करने वाले थे।
यहाँ तृप्तिदायक भोजन करने के बाद हम फिर टापू के बीच बर्दा नदी को पार करते हुए औपेरा नोएवा में पहुँचे, जो शहर का मुख्य कलाकेंद्र है, जो पता चला कि वर्षों की मशक्कत के बाद भारी-भरकम बजट में तैयार किया गया है व आज इस आधुनिक शहर की सांस्कृतिक पहचान है।
शहर के संभ्रांत परिवारों को यहाँ पधारते देखा। संडे के दिन यहाँ विशेष चहल-पहल रहती है। मेडेम काल्का की फैमिली भी यहाँ जुड़ चुकी थी, इनके प्रोफेसर पति व तीन प्यारी एवं सुसंस्कृत बेटियों के साथ। यहाँ थियेटर नुमा भवन में जैसे हम बाल्कोनी में थे। नीचे स्टेज पर कार्यक्रम लगभग दो घंटे चला। भाषा तो समझ में नहीं आयी (मूल फ्रेंच में लिखा गया था व पोलिश में अनुदित हो रहा था), लेकिन भावों की गहनता एवं संगीत की सुर लहरियों को अनुभव करते रहे। संगीत टीम में दर्जनों लोग शामिल थे, और थियेटर में 100 से अधिक कलाकार नाटक को अंजाम दे रहे थे। कहानी कुछ-कुछ प्रेमी, शैतान व दैवीय शक्तियों के बीच के संघर्ष को दर्शा रही थी। शैतान का प्रलोभन, पात्र के भाव की पावनता व दैवीय सहयोग आदि इसका विषय लगे। किसी प्रख्यात नाटककार के उपन्यास का यह नाटय रुपांतरण हो रहा था।
यहाँ उच्च घराने के लोग ही अधिकांशतः लोग पधारे थे। उनको नाटक कितना समझ आता है, क्या भाव लेकर जाते होंगे, कह नहीं सकते। लेकिन उनके सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा अवश्य लगा। संगीत, संस्कृति, कला से जुड़ने का एक प्रयास प्रतीत हुआ। इसी मिल्ज टापू में पिछले कल भी ऐसे ही कला केंद्र व म्यूजियम हम कल देख चुके थे, जिससे लगा कि यहाँ अपनी संस्कृति, कला आदि को महत्व दिया जाता है, जिन्हें अपनी जड़ों से जुड़े रहने के प्रयास क रुप में देखा जा सकता है।
इसी बीच अध्यात्म पर भी गहन चर्चा होती रही। लगा धर्म का पारंपरिक रुप यहां भी दम तोड़ रहा है। मालूम हो कि पोलैंड विश्व का सबसे बड़ा कैथोलिक चर्च आवादी वाला देश है, जो लगभग कुल आबादी के 87 फीसदी हैं। लेकिन लगा कि विज्ञान और आधुनिकता में पली-बढ़ी पीढ़ी को प्रचलित धर्म अपने पारम्परिक तौर-तरीकों से संतुष्ट नहीं कर पा रहा। हमारी जिज्ञासा धर्म के आध्यात्मिक स्वरुप को समझने की अधिक थी, जिस पर गहराई से चर्चा के लिए कोई व्यक्ति भी नहीं मिला। इतना स्पष्ट था कि धर्म का पारम्परिक स्वरुप प्रबुद्ध वर्ग पर पकड़ खो रहा है, फिर धर्म में जैसे भारत में गढ़बढ़ झाला चल रहा है, कुछ ऐसा ही यहाँ भी दिखा। शायद यह एक वैश्विक समस्या है, जहाँ धर्मक्षेत्रों में विकृतियों का प्रवेश एवं नाना प्रकार की शौषण की घटनाएं इसके पावन स्वरुप को धुमिल कर रही हैं।
रास्ते में आईसक्रीम पार्लर में आइसक्रीम का लुत्फ लिए। यहाँ सभी के बाल भूरे व सफेद होते हैं, क्या बुढ़े, क्या जवान या बच्चे। काले बाल तो अपवाद रुप में ही किसी के होते हों। पार्लर में बुढी अम्माओं को भी बनठनकर आइसक्रीम का आनन्द लेते देखा। यहाँ के लोकजीवन को देख जीवन के उच्च जीवन स्तर की झलक स्पष्ट दिख रही थी। हम एक विकसित देश के आठवें सबसे बड़े शहर में थे। तेजी से विकसित होता देश यूरोप में अपना महत्वपूर्ण स्थान गढ़ रहा है।
नदी के किनारे बने विश्राम स्थलों में लोग प्रकृति का पूरा आनन्द ले रहे थे। पास में बह रही बर्दा नदी से निकली जलधार, ऊपर आकाश छूते हरे-भरे पेड़, चारों और प्रकृति के सुरम्य आँचल में बसा शहर, लोक प्रकृति से एकात्म, लयबद्ध जीवन का आनन्द ले रहे थे। पूरा नजारा चित्त को आल्हादित कर रहा था। देश-परिवेश कोई भी हो प्रकृति तो प्रकृति ठहरी, माँ की तरह वह जैसे अपनी गोद में आए शिशुओं को दुलार रही थी, परमेश्वर का सुमधुर संगीत सुनाकर अपने शिशुओं के जीवन को शांति-सुकून व आनन्द से रंग घोल रही थी।
इस तरह आज की शाम रुबरु व ओपेरा नोएवा के नाम रही, रात के 9 बज चुके थे, लेकिन यहाँ तो यह ढलती शाम का समय था। 9,30 बजे तक यहाँ अंधेरा छाता है। वापसी में मेडेम एनिला अपनी कार में हमें हमारे विश्राम स्थल पर छोड़ती हैं। कल यूनिवर्सिटी में मिलने के वायदे के साथ विदाई होती है, जो हमारा कैंपस में पहला विजिट होने वाला था, जिसका हमें बेसव्री से इंतजार था। (शेष अगली पोस्ट में....)
अगली पोस्ट नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -
 
पोलैंड यात्रा की पिछली पोस्ट नीचे पढ़ सकते हैं -
 
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-1, (दिल्ली से बिडगोश वाया फ्रेंक्फर्ट)
 
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-2, (बिडगोश शहर का पहला दिन, पहला परिचय) 

मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-3, (बिडगोश शहर के ह्दय क्षेत्र में पहली शाम)
 

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पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...