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रविवार, 31 मार्च 2019

यात्रा वृताांत - लैंसडाउन : प्रकृति की गोद में बसा स्वप्निल सौंदर्य


आपके सुकून भरे पलों की तलाश पूरी हो सकती है यहाँ

यदि आप प्रकृति की गोद में कुछ सुकून भरे पलों की तलाश में हैं और वह भी हिमालय की किन्हीं एकांत-शांत वादियों में अपने शहर के पास, तो आपकी खोज लैंसडाउन में पूरा हो सकती है। दिल्ली और हरिद्वार से महज 5 घंटे का सफर आपको यहाँ पहुँचा देता है। रास्ता कोटद्वार शहर से होकर गुजरता है। हरिद्वार से कोटद्वार के बीच का लालढांग कस्बे एवं बीच में कार्बेट पार्क से होता हुआ रास्ता स्वयं में प्राकृतिक दृश्यों से भरा हुआ है।
मार्च-अप्रैल माह में गैंहूं की पक रही फसल से लहलहाते खेत अपने भूरे, हरे रंग के पैटर्न के साथ एक अद्भुत नजारा पेश करते हैं। साथ में हरी-भरी सब्जियों से भरे खेत आंखों को शीतलता देते हैं। आम के वृक्षों के बौर, कुछ अन्य तराई के फलों के रंग-बिरंगे फूल वसंती आभा लिए रास्ते भर आपका स्वागत करते हैं। पृष्ठभूमि में गढ़वाल हिमालय के पहाड़, उनमें फूल रहे जंगल, फूट रहीं ताजा कौंपलें एक बहुत ही सुंदर नजारा पेश करते हैं।
यही नजारा कोटद्वार के बाद लैंसडाउन तक लगभग 40 किमी की मोड़दार चढाई के साथ एकदम साथ नजर आता है। इसमें पहाड़ की चढ़ाई के साथ कुछ नए आकर्षण जुड़ते जाते हैं, जिनमें एक है नीचे घाटी में बहती मालिनी नदी, जिसका पानी इस सीजन में घुटने जितना ही दिखता है, लेकिन इसके किनारे फल-फूल रहे लोकजीवन की सक्रियता को निहारा जा सकता है।
कहीं किसान इसके किनारे खेती कर रहे हैं, तो कहीं मछुआरे मच्छली पकड़ रहे, कहीं कपड़े धुल रहे हैं तो कहीं इसके किनारे भेड़-बकरियाँ-गाय-घोड़े आदि चर रहे हैं तो कहीं इसके किनारे तम्बू लगे हैं, रिजॉर्ट बने हैं, टूरिस्ट कैंप चल रहे हैं। कहीं इसके किनारे पूरे गाँव आबाद हैं।
कोटद्वार से चढ़ाई शुरु होते ही मालिनी नदी के वाँए तट पर प्रसिद्ध सिद्धबली मंदिर ध्यान आकर्षित करता है, जो एक टीले पर स्थित है। इसे हनुमानजी का चमत्कारी मंदिर माना जाता है। इस मंदिर की मान्यता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें भंडारा करवाने के लिए 2025 तक की बुकिंग हो चुकी है।
आगे ग्यारह किमी दूरी पर मालिनी नदी के तट पर सड़क किनारे खड़ा माँ दुर्गा का मंदिर है। रास्ते में आगे एक छोटा कस्बा आता है। इसके आगे सड़क के दोनों और साल के जंगल सफर को सुकूनदायी बनाते हैं।
कुछ देर बाद रास्ते में चीड़ के जंगल शुरु हो जाते हैं, जो देखने में बहुत खराब तो नहीं लगते, किंतु पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल भी नहीं माने जाते। सरकार ने किस योजना के तहत इनके जंगलों से पहाड़ों को पाट रखा है, ये तो वे ही जाने, लेकिन इनका रिप्लेसमेंट अन्य वेहतरीन वृक्षों से हो सकता है। और शायद सरकार इस दिशा में कुछ काम भी कर रही है।
जितना हम पहाड़ों में ऊपर चढ़ते जाते हैं, नीचे घाटी का विहंगम दृश्य एक दूसरे ही भावलोक में ले जाता है। इस पर दूर घाटियों में एकांत-शांत स्थल पर बसे पहाड़ी गाँबों को देखकर मन कल्पना के पंख लगाकर उड़ान भरने लगता है। रास्ते में रीज पर बसा एक पहाड़ी गाँव बहुत ही लुभावना नजारा पेश करता है।
इस रास्ते में जल स्रोत्रों का अभाव थोड़ा अजीव लगा, नालों में नमी के साथ सफेद और पीले जंगली फूलों के गलीचों को बिच्छे देखा, यह नजारा पूरी राह कई स्थानों पर दिखा, व देखने में अच्छा लगा।
लैंसडॉन से पहले बांज के नन्हें पेड़ नजर आना शुरु होते हैं, चीड के पेड़ विरल हो जाते हैं।
लैंसडॉन में प्रवेश करते ही बाँज के बड़े पेड़ दिखना शुरु होते हैं और सुर्ख लाल फूलों से लदे बुराँश के सुंदर पेड़ भी, जो हिमालय की बर्फिली उंचाईयों में पहुँचने का अहसास देते हैं। मार्च-अप्रैल माह में बाँज की नई पत्तियाँ उग रही होती हैं, ऐसे में इनके भूरे, हल्के हरे रंग के  चमकीले पत्ते एक अलग ही ताजगी भरा मखमली अहसास दिलाते हैं, जिसे सैलानी बखूवी अनुभव कर सकते हैं।

लैंसडाउन की निर्मल एवं शीतल आवोहवा बहुत ही सुकूनदायी लगती है। लगता है कि हम किसी शांत-एकांत हिल स्टेशन में पहुँच गए हैं। इस कस्बे की खासियत है इसका आर्मी केंटोनमेंट क्षेत्र में होना। गढ़वाल राइफल्ज का यह केंद्र है, जिसके चलते अन्य हिल स्टेशनों की तरह अनावश्यक जन हस्तक्षेप, भव निर्माण, एन्क्रोचमेंट आदि के अभिशाप से यह मुक्त है, जो इसे एक प्राकृतिक, स्वच्छ और मनभावन हिल स्टेशन बनाता है। एक अनुशासन एवं सुरक्षा का माहौल इसकी एक अतिरिक्त विशेषता अनुभव होती है।
यहाँ का भुल्ला ताल एक मानव निर्मित झील है, जिसमें वोटिंग का आनन्द लिया जा सकता है। इसके चारों और बैठने आराम करने की छायादार सुबिधा है। बाँज बुराँश के पेड़ों से यह क्षेत्र आच्छादित है, जिस कारण झील के किसी भी कौने में बैठकर प्रकृति की नीरव शांति में अंतर संवाद के विशिष्ट पलों को अनुभव किया जा सकता है। झील में तैर रहे बत्खों के झुंड़ को निहारना स्वयं में एक मजेदार अनुभव रहता है। झील के शुरुआती कोर्नर में खाने-पीने की भी उचित व्यवस्था है।
टिप-एन-टॉप यहां से ऊपर चोटी पर दर्शनीय बिंदु है, जहाँ से दूर घाटी का अद्भुत नजारा देखा जा सकता है। इसके नीचे व किनारे बाँज, बुराँश व देवदार के घने जंगल बसे हैं, जिसके बीच का पैदल सफर पैसा बसूल ट्रिप सावित होता है। 

रास्ते में चर्च के पास ही गाड़ी खड़ी कर पैदल यात्रा का आनन्द लिया जा सकता है। देवदार-बुराँश के जंगल के बीच स्थित चर्च में शांत चित्त होकर दो पल प्रार्थना के विताए जा सकते हैं। 

टिप-एन-टॉप पर चाय, नाश्ते व भोजन आदि की व्यवस्था है। इसके आगे संतोषी माता का मंदिर पड़ता है। समय हो तो यहाँ के दर्शन किए जा सकते हैं। ऐसे ही लैंसडाउन मार्केट से नीचे कालेश्वर शिव मंदिर है, तो यहाँ से 38 किमी दूर ताड़केश्वर शिव का मंदिर, समय हो तो इन धार्मिक स्थलों को जोडकर आध्यात्मिक पर्यटन का लाभ उठाया जा सकता है।
लैंसडाउन मुख्यतः गढ़वाल राइफल्ज की छावनी है। अतः रविवार को छोड़कर वाकि दिन यहाँ के वार मैमोरियल एवं रेजीमेंट म्यूजियम में यहाँ के गौरवपूर्ण इतिहास की झलक पायी जा सकती है। पास में ही पैरेड़ ग्राउंड के दर्शन किए जा सकते हैं, जो स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी कई गतिविधियों का गवाही रहा है। यहाँ सेना द्वारा किए जा रहे रचनात्मक कार्यों को भी देखा जा सकता है।
कम ही लोगों को पता होगा कि यहाँ सेना उफरैंखाल के प्रख्यात पर्यावरणविद श्री सच्चिदानन्द भारतीजी के मार्गदर्शन में जल एव वन संरक्षण के मॉडल को लागू किए हुए हैं।  अभी इसको लागू किए दो-तीन साल ही हुए हैं, लेकिन इससे परिणाम उत्साहबर्धक देखे जा रहे हैं। पीर बाबा मजार साईड के पुराने धोबीघाट क्षेत्र में सूखा जल स्रोत रिचार्ज हो रहा है। ऐसे ही नए धोबीघाट में भी इसके प्रयोग के चलते जल स्रोत्र रिचार्ज हो रहे हैं।
छावनी बोर्ड के उपाध्यक्ष डॉ. नैथानीजी के मार्गदर्शन में हम संक्षिप्त समय में ही बहुत कुछ देख पाए। हालाँकि हमारा पत्रकारिता के विद्यार्थियों के साथ सम्पन्न यह टूर संयोग से रविवार के दिन पड़ा, जिसके कारण हम इसके पूरे दिग्दर्शन नहीं कर पाए।
इस भ्रमण में लैंसडाउन से सतही लेकिन दिल को छूने वाला परिचय हुआ, लगा जैसे यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता गहरे रुह में समा गयी है। अभी तक यह हिल स्टेशन कैसे अपनी पहुँच से दूर रहा, इस पर ताज्जुक होता रहा।
सार रुप में लैंसड़ाउन अभी प्राकृतिक रुप से संरक्षित पहाड़ी कस्वा है, जहाँ अपने यार-दोस्तों व परिवार के साथ क्वालिटी समय विताया जा सकता है। एक दिन में इसके साथ न्याय नहीं हो सकता है, कम से कम दो दिन में इससे जुड़े स्थलों को एक्सप्लोअर किया जा सकता है। यहाँ के टिप-इन-टॉप से सनराईज एवं सनसेट का नजारा बेहतरीन रहता है।
बरसात के दिनों में यहाँ बादलों के फाहों के बीच के सौंदर्य को एक अलग ही अंदाज में निहारा जा सकता है। रुकने के लिए यहाँ गढ़वाल मंडल के गेस्ट हाउस एवं अन्य होटलों की व्यवस्था है, जिनकी ऑनलाइन बुकिंग की जा सकती है।
समुद्र तल से लगभग 5600 फीट की ऊँचाई पर बसा यह हिल स्टेशन अंग्रेजों द्वारा 1887 में वसाया गया था। आज सेना की देख-रेख में होने के कारण इस हिल स्टेशन का प्राकृतिक सौंदर्य बर्करार है, जो किसी भी प्रकृति प्रेमी और शाँत-एकांत स्थल की तलाश में भटक रहे पथिक की मुराद पूरी करने में सक्षम है।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

जंगलीजी का मिश्रित वन – एक अद्भुत प्रयोग, एक अनुकरणीय मिसाल

जंगल में मंगल रचाने की प्रेरक मुहिम

जंगल तो आपने बहुत देखे होंगे, एक खास तरह की प्रजाति के वृक्षों के या फिर बेतरतीब उगे वृक्षों से भरे बीहड़ वन। लेकिन उत्तराखण्ड के कोटमल्ला, रुद्रप्रयाग में स्थित जंगलीजी का मिश्रित वन इनसे हटकर जंगल की एक अलग ही दुनिया है, जहां लगभग साठ किस्म के डेढ़ लाख वृक्ष लगभग चार हैक्टेयर भूमि में फैले हैं। यह सब जंगलीजी के पिछले लगभग चालीस वर्षों से चल रहे भगीरथी प्रयास का फल है। चार दशक पूर्व बंजर भूमि का टुकड़ा आज मिश्रित वन की एक ऐसी अनुपम मिसाल बनकर सामने खड़ा है, जिसमें आज के पर्यावरण संकट से जुड़े तमाम सवालों के जवाब निहित हैं।

यहां पर हर ऊंचाई के वृक्ष उगाए जा रहे हैं। जिन्हें सीधे धूप की जरूरत होती है, वे भी हैं, इनकी छाया में पनप रहे छायादार पेड़ भी। और जमीं की गोद में या जमीं के अंदर पनपने वाले पौधे भी इस वन में शुमार हैं। इनमें 25 प्रकार की सदाबहार झाड़ियां व पेड़, 25 प्रकार की जड़ी-बूटियां व अन्य कैश क्रोप्स हैं। मिश्रित वन के इस प्रयोग ने जंगल में ऐसा वायुमंडल तैयार कर रखा है कि यहां 4500 फीट की ऊंचाई पर 7000 से 9000 फीट व इससे भी अधिक ऊंचाई वाले उच्च हिमालयन पौधे बखूबी पनप रहे हैं। बांज, काफल, देवदार से लेकर रिंगाल व रखाल (टेक्सस बटाटा) के पौधों को यहां विकसित होते देखा जा सकता है।

यहां ऐसी तमाम तरह की पौध व जड़ी-बूटियां उगाई जा रही हैं, जो आर्थिक स्वावलम्बन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। छोटी इलायची, बड़ी इलाचयी, चाय पत्ती, तेज पत्र जैसे उपयोगी मसाले व उत्पाद यहां बड़े वृक्षों की छाया तले पनप रहे हैं। जमीं पर हल्दी, अदरक जैसी नकदी फसलें क्विंटलों की तादाद में तैयार हो रही हैं, जो विशुद्ध रूप में ऑर्गेनिक होने की वजह से मार्केट में खासा दाम रखती हैं।

वन में स्टोन व वुड टेक्नोलॉजी के माध्यम से हवा में टंगे पत्थरों एवं बांस के पोले डंडों में मिट्टी व काई जमाकर तथा इन पर फर्न व ऑर्किड जैसे पौधों को हवा में उगाकर माइक्रो-क्लाइमेट तैयार किया जा रहा है। इनसे जो नमी व ठंडक पैदा होती है, इसे हवा के झौंके पूरे वायुमंडल में बिखेरते हैं। आश्चर्य नहीं कि मई-जून माह की यहां का हरा-भरा शांत एवं शीतल वातावरण प्रकृति प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है।

पशु-पक्षी इस वन के सूक्ष्म परिवेश की शांति व सकारात्मक ऊर्जा को अनुभव करते हैं और अपने रहने के लिए अनुकूल परिवेश पाते हैं। यहां डेढ़ सौ से अधिक पक्षियों का बसेरा है। फरवरी-मार्च माह में इनकी संख्या में विशेष इजाफा रहता है, जब दूरदराज से माइग्रेटरी पक्षी यहां आते हैं। जंगलीजी के पर्यावरण विज्ञान में स्नात्कोत्तर सुपुत्र देव राघवेंद्र इस दौरान पक्षी प्रेमियों के लिए वर्ड वाचिंग व फोटोग्राफी के सत्र भी चलाते हैं। यहां पधारे अनुभवीजनों का कहना है कि यहां के वन की नीरव शांति में स्वच्छंद भाव में विचरण कर रहे पक्षियों की मस्ती भरी चहचहाहट व कीट-पतंगों की झिंगुरी तान के बीच आंख बंद कर कुछ मिनटों का ध्यान किसी नाद योग से कम नहीं लगता।

जंगली जानवर भी यहां आते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से वन के चारों ओर कांटेदार झाड़ियों का बाड़ा लगाया गया है, जिसके कारण एक ओर वन्य जमीन का भू-अपरदन व स्खलन नहीं होता, साथ ही जंगली जानवरों से फसलों के अनावश्यक नुकसान से वचाव होता है। जंगलीजी का मानना है कि जितना अधिक हम वनों में फलदार वृक्ष लगाएंगे, उतने ही वन्यजीव वहां रहेंगे व मानवीय बस्तियों में अनावश्यक हस्तक्षेप की घटनाओं में कमी आएगी।

पहाड़ों में गर्मी के मौसम में आग की जो ज्वलंत समस्या हर वर्ष विकराल रूप ले रही है, इस त्रासदी का भी मिश्रित वन एक प्रभावी समाधान है। इसी मिश्रित वन के समानान्तर यहां सड़क के ऊपर वन विभाग का चीड़ का जंगल है, जो भू-अपरदन की समस्या से ग्रस्त है और गर्मी के मौसम में कब एक चिंगारी इस जंगल में दावानल का रूप ले ले, कुछ कह नहीं सकते। वहीं, सड़क के नीचे जंगलीजी का मिश्रित वन अपनी हरियाली व नमी के चलते ऐसी सम्भावनाओं से दूर है। जंगलीजी के अनुसार जब तक हमारी जैव-विविधता सुरक्षित व संरक्षित नहीं होगी, तब तक हिमालय और गंगा को बचाने की बातें दूर की कौड़ी बनी रहेंगी और जैव-विविधता का पुख्ता आधार मिश्रित वन ही हैं।

इस मिश्रित वन का एक महत्वपूर्ण वाइ-प्रोडक्ट है वन के बीच फूट रहा जल स्रोत्र, जिसका जल इतना स्वादिष्ट व शीतल है कि मिनरल वाटर इसके सामने फीका है। दशकों के पुरुषार्थ से पनपे इस जल स्रोत का जल अमृत-सा प्रतीत होता है। आज जब पहाड़ों में सूखते जलस्रोतों की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, ऐसे में यह प्रयोग प्रत्यक्ष समाधान है, जिसका एक ही संदेश है उपयुक्त वृक्षों का अधिक से अधिक रोपण किया जाए। जल स्रोत व मिश्रित वन के रहते आज गांव की महिलाओं को पशुओं के लिए चारे व पानी के लिए दूरदराज के जंगलों में भटकना नहीं पड़ता।

1974
में जब बीएसएफ का एक जवान जगत सिंह चौधरी रुद्रप्रयाग स्थित कोटमल्ला गांव में अपने घर आया और गांव की महिला को घास व पानी के लिए जंगल में भटकते और पहाड़ से गिरकर चोटिल होते पाया तो युवा हृदय संवेदित व आंदोलित हो उठा था कि इस समस्या का कोई हल ढूंढ़ना है। यहीं से गांव की बंजर भूमि में पौधरोपण का क्रम शुरू होता है। 1980 में पूर्व सेवानिवृत्ति लेकर जगत सिंह पूरी तरह से इस कार्य में जुट जाते हैं। शुरू में गांववासियों को जगत सिंह का यह जुनून पागलपन लगा, लेकिन दशकों के श्रम के बाद जब जंगल हरी घास व वृक्षों के साथ लहलहाने लगा तो गांववासियों की धारणा बदलने लगी। पहली बार 1993 में जब किसी पत्रकार की नजर जगत सिंह के जंगल पर पड़ती है तो यह प्रयोग अखबार की सुर्खी बनता है।

बंजर भूमि में पनपते हरे-भरे वन को देखकर गांववासियों को जंगली होने का महत्व समझ आया और जंगली नाम से इन्हें पुरस्कृत किया। आज जंगली उपनाम जगत सिंह चौधरी की पहचान हैै। पर्यावरण के क्षेत्र में अपने योगदान के चलते जंगलीजी आज उत्तराखण्ड के ग्रीन अम्बेसडर हैं, पर्यावरण से जुड़े तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं। पुरस्कार से प्राप्त राशि को जंगलीजी स्थानीय युवाओं को इसमें नियोजन करते हुए वन के विकास में लगा रहे हैं। उत्तराखण्ड सहित पड़ोसी पहाड़ी राज्यों व देश के विभिन्न क्षेत्रों में इनके प्रयोग को आजमाया जा रहा है। इनके पुत्र देव राघवेंद्र पिता के कार्य़ को वैज्ञानिक आधार पर आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं।
इसी सप्ताह उत्तराखण्ड सरकार ने जंगलीजी को अपने वन विभाग का ब्रांड अम्बेसडर नियुक्त किया है, जिनके मार्गदर्शन में उत्तराखण्ड के हर जिले में मिश्रित वन का एक-एक मॉडल वन तैयार किया जाएगा।

पूछने पर कि ऐसे प्रयोग के लिए धन व साधन कैसे जुटते हैं, जंगलीजी का सरल-सा जवाब रहता हैप्रकृति से जुड़कर नि:स्वार्थ भाव से कार्य करो, बाकी प्रकृति पर छोड़ दो। नि:संदेह रूप में ऐसे संवेदनशील हृदयों से ही आज की पर्यावरणजनित समस्याओं के समाधान फूटने हैं, क्योंकि प्रकृति को अनुभव किए बिना पर्यावरण संरक्षण की बातें अधूरी रहेंगी। ऐसे में हम जड़ों का उपचार किए बिना महज पत्तियों व टहनियों को सींचने की कवायद कर रहे होंगे। (दैनिक ट्रिब्यून, चण्डीगढ़, 9 जूलाई,2018 को प्रकाशित)
 
इस क्षेत्र से जुड़े यात्रा वृतांत आप पढ़ सकते हैं - हरियाली माता के देश में भाग-1
 

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

यात्रा वृतांत-सुरकुंडा देवी का वह यादगार सफर, भाग3


गढ़वाल हिमालय के सबसे ऊँचे शक्तिपीठ के दिव्य प्राँगण में


कद्दुखाल से सुरकुंडा देवी तक 3 किमी का ट्रेकिंग मार्ग है, जहाँ हमें 8000 फीट से लगभग 10000 फीट ऊँचाई तक का आरोहण करना था। पूरा रास्ता पक्का, पर्याप्त चौड़ा और सीढ़ीदार है, प्रायः हल्की चढ़ाई लिए समतल, लेकिन बीच-बीच में खड़ी चढ़ाई भी है। जो चल नहीं सकते, उनके लिए घोड़े-खच्चरों की भी व्यवस्था है, लेकिन हमारे दल में कोई ऐसा नहीं था जिसे इनकी जरुरत पड़ती। पहाड़ को चढ़ने का सबका उत्साह और जोश देखते ही बन रहा था। अगले ही कुछ मिनटों में दल का बड़ा हिस्सा दृष्टि से औझल हो चुका था, कुछ ही पथिक साथ में बचे थे।


लगभग आधा पौन घंटे की चढ़ाई के बाद दम फूल रहा था, सो यहाँ एक बड़े से बुराँश पेड़ की छाया तले रेलिंग के सहारे खड़े हो गए, कुछ दम लिए, जल के दो घूंट से सूखे गले को तर किए और फिर आगे चल दिए। इन विशिष्ट पलों को यादगार के रुप में कैमरे में केप्चर किए।


इस रास्ते की खासियत ये बुराँश के पेड़ भी हैं, जो पर्याप्त मात्रा में लगे हैं। गुच्छों में लगी लम्बी हरि पत्तियाँ इनकी पहचान है। अप्रैल-मई माह में इनमें सुर्ख लाल रंग के फूल लगते हैं, जिनसे तैयार किया गया जूस औषधीय गुणों से भरपूर रहता है, विशेषरुप से ह्दय के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी।
इसी रास्ते में खट्टे-मीठे जंगली फलों की झाडियां भरपूर मात्रा में लगी हैं, बल्कि बीच में तो सड़क इन्हीं से घिरी हुई दिखीं। इनमें कांटेदार पत्तों बाली दारू हल्दी(शाम्भल), आंछा आदि विशेषरुप में दिखी। कुछ नए पौधे व झाड़ियां भी थीं। लगा, इनके जानकार किसी जड़ी-बूटी विशेषज्ञ के साथ इस इलाके की यात्रा यहाँ की दुर्लभ वनस्पतियों पर रोचक प्रकाश डाल सकती है।
काफिले के साथ बीच में मुख्य मार्ग से हटकर हमनें कुछ चढ़ाईदार शॉर्टकट्स भी मारे, जिसकी राह में वाचा घास के दर्शन हुए। इसको देखते ही जैसे बचपन आंखों के सामने तैर उठा, जब हमारे नानाजी अपने कपड़े की थैली से लोहे की कमानी निकालकर चकमक पत्थर पर चोट मारते और इसकी चिंगारी वाचा घास को सुलगा देती, जिसे चिल्म की तम्बाकू पर रखकर आग सुलगते हुए उनकी चिल्म तैयार हो जाती। तब नानाजी यह घास स्थानीय जंगलों से लाते थे। यहाँ यह अग्नि प्रज्जवल्क घास हमें प्रचुर मात्रा में ढलानों में उगी दिखी। लगा नहीं कि यहाँ कोई इसके इस गुण, धर्म व प्रयोग से परिचित है, क्योंकि यह निर्बाध रुप से ढलानों पर फैली थी।
रास्ते में चाय-नाश्ते आदि की व्यवस्था ढाबों में थी, लेकिन आज समय अभाव के चलते यहाँ रुकने की गुंजाइश नहीं थी। बाकि, साथ में रखी पानी की बोटल से काम चल रहा था। जहाँ थक जाते दो पल दम भरते और आगे चल देते। रास्ते में हमें हर उमर के सैलानी, तीर्थयात्री मिले, जिनमें बच्चे, बुढ़े, जवान, कप्पल, स्टुडेंट व प्रौढ़ शामिल थे। सबसे आश्चर्य नन्हें बच्चों को पैदल ट्रैकिंग करते हुए देखकर हुआ, जिनमें एक-ड़ेढ़ साल से लेकर 3 साल तक के बच्चे दिखे। इनको देखते ही मन रोमाँचित हो उठता, इनके जीवट को सलाम करते हुए इनसे हेंडशैक करते, इनको टॉफियाँ देते और लगता कि येही दुर्गम शिखरों पर शौर्य एवं जीवट का झंड़ा फहराने वाले भावी कर्णधार हैं।
मंजिल के लगभग अंतिम शॉर्टकट के दौरान रास्ते में हमें हेलीकॉप्टर के दर्शन हुए, जो घाटी में हमसे काफी नीचे उड़ रहे थे। अहसास हुआ, जिन हेलीकॉप्टर को हम मैदान में नीचे से निहारते हैं, आज वो हमसे कितना नीचे हैं और जैसे वो हमको निहार रहे हों। लगा, यह ऊँचाईयों के साथ दोस्ती का परिणाम था। जितना हम ऊँचाईयों का संग-साथ करते हैं, उतना ही निचाईयां पीछे छूटती जाती हैं और अनायास ही हम ऊच्चता एवं महानता के संवाहक बन जाते हैं।
लेकिन अपनी उच्चता का मुगालता पालने की भी जरुरत नहीं। प्रभु की सृष्टि में हर इंसान व प्राणी अपनी मौलिक विशेषता के बावजूद अधूरा है और सबको मिलकर ही सर्वसमर्थ पूर्ण सत्ता बनती है। इन्हीं क्षणों में टीम के जागरुक सदस्यों ने  सर पर काफी ऊँचाईयों में मंडराते हुए ड्रोन कैमरे की ओर ईशारा किया। लगा सब प्रभु की माया है, हेलीकोप्टर नीचे और ड्रोन कैमरा हमारे ऊपर, हम बीच में कहीं। काहे का तथाकथित महानता का मुगालता-काहे का दंभ, काहे की तुलना और काहे का कटाक्ष। हम तो माता के दर्शन के लिए निकले थे, मंजिल पास थी, सो उस पर ध्यान केंद्रित कर सामने खड़ी मंजिल की ओर बढ़ चले।
हम उस बिंदु पर थे, जहाँ से उड़न खटोले का काम चल रहा था। अगले कुछ ही महीनों में इसके तैयार होने के आसार हैं। कमजोर, बुजुर्ग और बीमार लोगों के लिए यह सुविधा वरदान सावित होने वाली है, जो पैदल चलकर या खच्चरों पर बैठकर यहाँ तक नहीं आ सकते। साथ ही यह भी लगा कि इस सुविधा के चलते कई स्वस्थ-सक्षम किंतु आरामतलब लोग इस राह के रोमाँच व सुंदर नजारों से बंचित रह जाएंगे। 

सुरकुंडा देवी के दिव्य प्रांगण में
जुत्ताघर में जुता उताकर हम मंदिर के पावन परिसर में प्रवेश किए। आगे पहुँचे हुए सदस्य सब इधऱ-उधर तितर-बितर हो चुके थे। हम मंदिर की परिक्रमा कर मंदिर में प्रवेश किए, माता का दर्शन किए, आशीर्वाद लिए और बाहर मंदिर के पीछे एक कौने पर आसन जमाकर बैठ गए। सामने बर्फ से ढकी हिमालय की विराट ध्वल श्रृंखलाएं अपने दिव्य वैभव के साथ अटल तपस्वी जैसी खड़ीं थी, उस ओर मुंह कर कुछ पल चिंतन-मनन व ध्यान के विताए। 
हमारे विचार से सुरकुंडा शक्तिपीठ से हिमालय का पावन सान्निध्य इस स्थल को विशिष्ट बनाता है। यहाँ विताए कुछ पल बैट्री चार्ज जैसा अनुभव रहते हैं।
काफिले का फोटो और सेल्फी अभियान जारी था। आग्रह पर हम भी बीच में शामिल हो गए और अंत में सबको बटोरकर एक ग्रुफ फोटो के बाद भगवती को अपना भाव निवेदन करते हुए बापिस चल दिए।
ज्ञातव्य हो कि सुरकुंडा माता वह शक्तिपीठ है, जहाँ सती माता का सर व कंठ बाला हिस्सा गिरा था, इसलिए इसका नाम सरकंठ पड़ा, जो क्रमशः बदलते-बदलते सुरकुंडा हो गया। यहाँ नवरात्रियों व ज्येष्ठ माह के गंगा दशहरा के दौरान विशेष भीड़ रहती है। आज यहाँ भीड़ उतनी अधिक नहीं थी। 
मंदिर परिसर में हनुमान, शिव-परिवार सहित अन्य देवी-देवताओं के विग्रह स्थापित हैं, जो हिमालय की पृष्ठभूमि में विशिष्ट भाव जगाते हैं।
     मंदिर का नवनिर्माण पिछले ही वर्षों हुआ है, जो एक विशेष शैली में है। इस शैली का मंदिर हम पहली वार देखे। यह इस क्षेत्र के सबसे ऊँचे शिखर पर स्थापित है, जहाँ से देहरादून, ऋषिकेश, प्रतापनगर एवं चकराता साइड के सुंदर दृश्यों को निहारा जा सकता है। मौसम साफ होने पर कुंजादेवी, चंद्रबदनी सहित केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री क्षेत्र की समस्त चोटियों के दर्शन किए जा सकते हैं। 
सामने बर्फ से ढकी सफेद चोटियों के दर्शंन तो हमें भी हो रहे थे, लेकिन ये कौन सी चोटियां हैं, बताने वाला यहाँ भी कोई नहीं मिला, सो इस अनुतरित प्रश्न के साथ हम बापिस चल पड़े।
बापसी का रास्ता
इस जिज्ञासा के साथ हम बापिस कद्दुखाल तक नीचे उतरे। उतरने में अधिक समय नहीं लगा। चढ़ाई जहाँ लगभग 2 घंटे में तय हुई थी, उतराई महज पौने घंटे में पूरी हो गयी। उतराई में हम अघोषित नियमानुसर सबसे आगे थे। रास्ते में बुराँश के पेड़ हमें विशेष रुप में प्रभावित करते रहे, लगा कि अप्रैल-मई में फूलने पर इनके सुर्ख लाल फूलों से गुलजार इनके जंगल कितने सुंदर लगते होंगे।
जहाँ थोड़ा दम भरना होता, वहाँ खड़ा होकर नीचे की घाटी के विहंगम दृश्य को निहारते, जो स्वयं में अद्भुत, मनोरम एवं बेजोड़ हैं। लगता इन्हें निहारते हुए यहीं ठहर जाएं, लेकिन समय की सीमा इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। 
पूरा काफिला धीरे-धीरे उस बिंदु तक आ रहा था, जहाँ से ट्रेक शुरु हुआ था। यहाँ भूखे खच्चर सड़क किनारे घास चर रहे थे।
नीचे कद्दुखाल उतरकर पूरे समूह ने भोजन किया। महज 60 रुपए में पूरी थाली और गर्मागर्म रोटियाँ। भूख लगने पर भोजन का आनन्द कई गुणा बढ़ गया था। बाहर छत से नीचे घाटी का नजारा देखने लायक था। यहाँ तेज हवा चल रही थी, ठंड़ काफी बढ़ चुकी थी, बंद पड़े स्वाटर-जैकेट अब काम आ रहे थे। साथ में दूसरे पाठयक्रमों के बच्चों के साथ धीरे-धीरे जान-पहचान हो रही थी और इनकी बालसुलभ जिज्ञासाओं का समाधान करते-करते एक आत्मीयतापूर्ण भाव स्थापित हो चुका था तथा कुछ नाम याद भी हो गए थे। पूरे ग्रुप का अनुशासन व सहयोग काबिले तारीफ रहा। पूरा ट्रिप एक यादगार सफर के रुप में कई सुखद अनुभवों के साथ स्मृतिपटल पर अंकित रहेगा।
ढलती शाम और अंधेरे में बापसी का सफर
शाम को साढ़े चार तक हम कद्दुखाल से चल चुके थे। ढलती शाम के साथ सफर आगे बढ़ रहा था। रास्ते में अँधेरा हावी हो चुका था। रात को सेलुपानी स्थान पर बस चाय के लिए रुकी। आधी सवारियाँ दिन भर की ट्रेकिंग से थकी निद्रादेवी की गोद में थीं। आगे रास्ते में कब हेंवल नदी पार हो गयी और आगराखाल पहुँचे, पता ही नहीं चला। अंधेरा होने के कारण बापसी में कुंजापुरी के दर्शन अब संभव नहीं थे। 
यहाँ से नीचे डोईबाला और ऋषिकेश साइड के मैदानी इलाकों की शहरी रोशनियाँ ऐसे जगमगा रहीं थीं, जैसे कि दिपावली का नजारा हो। जब हम नरेंद्रनगर से नीचे उतर रहे थे, तो नीचे देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे आसमान के तारे जमीं पर उतर आए हों।
शहर के रोशन नजारे को निहारते हुए हम क्रमशः 8 बजे तक ऋषिकेश पहुँचे और अगले आधे घंटे में देसंविवि के गेट पर थे। इस तरह पूरे 12 घंटे में हम सुरकुंडा देवी का यह यादगार सफर पूरा कर रहे थे
पहली बार दिन के उजाले में तय किया गया यह रास्ता हमारे ऑल टाइम फेवरेट रास्तों में शुमार हो चुका है। शायद इसका प्रमुख कारण इतना नजदीक से बर्फ से ढके हिमालय के दीदार थे, जो दूर होते हुए भी हमें बहुत पास लगे और हिमालय की गोद में सफर के अनुभव हमें कहीं गहरे अपने अंदर भावों की सुरम्य घाटियों व शिखरों के बीच विचरण के रोमाँचक अहसास जगा रहे थे, जो यात्रा वृतांत की तीन कड़ियों के रुप में आपके सामने प्रस्तुत हैं।
इस यात्रा के पहले दो भाग यदि न पढ़े हों, तो नीचे लिंक्स पर देख सकते हैं -

सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-1 (ऋषिकेश-नरेंद्रनगर-चम्बा)

सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-2 (चम्बा, कानाताल,कद्दुखाल)

 
 

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