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बुधवार, 29 जुलाई 2015

बस एक ही खासियत देखता हूँ इस अंधियारे में

हिम्मत नहीं हारा हूँ अभी
लिए अंतिम विजय की आश, खुद पर अटल विश्वास

एक ईमानदार कोशिश करता हूँ रोज खुद को गढ़ने की, 
लेकिन अभी, आदर्श से कितना दूर, अज्ञात से कितना मजबूर।

लोग कहते हैं कि सफल इंसान हूं अपनी धुन का, 
दे चुका हूँ कई सफल अभियानों को अंजाम,
 सफलता की बुलंदियों पर खुशियों के शिखर देखे हैं कितने,
लगा जब मुट्ठी में सारा जहाँ।

फिर सफर ढलुआ उतराई का, सफलता से दूर, गुमनामी की खाई,
सफलता का शिखर छूटता रहा पीछे, मिली संग जब असफलता की परछाई,
मुट्ठी से रेत सा फिसलता समय, हाथ में जैसे झोली खाली,
ठगा सा निशब्द देखता हूँ सफलता-असफलता की यह आँख-मिचौली।


ऐसे में, सरक रही, जीवन की गाड़ी पूर्ण विराम की ओर,
दिखता है, लौकिक जीवन का अवसान जिसका अंतिम छोर,
सुना यह एक पड़ाव शाश्वत जीवन का, बाद इसके महायात्रा का नया दौर,
क्षण-भंगुर जीवन का यह बोध, देता कुछ पल हाथ में शाश्वत जीवन की ढोर।

जीवन की इस ढलती शाम में, माना मंजिल, अभी आदर्श से दूर, बहुत दूर,
एक असफल इंसान महसूस करता हूँ खुद को, आदर्श के आयने में,
आदर्श से अभी कितना दूर, अज्ञात से कितना मजबूर।
बस एक ही खासियत पाता हूँ इस अंधियारे में, टिमटिमा रहा जो बनअंतर में आशादीप,

हिम्मत नहीं हारा हूँ अभी, लिए अंतिम विजय की आश, खुद पर अटल विश्वास।




गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

आदर्शों का यह पथ आत्म-बलिदानी



श्रद्धा की तासीर रूहानी

श्रद्धा एक चीज अनमोल, जिसकी तासीर रुहानी,
यह कभी माँगी न जाए, आदशों की सहज दीवानी,
श्रद्धा गहन अंतराल में प्रवाहित एक झरना,
आदर्शों की खातिर जूझना, जीना-मरना।

श्रद्धा न बिके बाजारों में, मंच-गली-चौबारों में,
सबकुछ खोकर सबकुछ पाने का हुनर यह,
खिले यह बलिदानी गलियारों में,
कुर्बान होते जहाँ अपने गुमनाम अँधियारों में।


श्रद्धा पलती खेत खलिहानों में,
तपे जहाँ जीवन मौसम सर्द अंगारों में।
श्रद्धा बरसती नींव के हर उस पत्थर पर,
जो पल-पल मिट रहा ईष्ट के ईशारों पर।

कबसे सुनता आया हूँ जमाने की ये बातें,
व्यवहारिक बनों, आदर्शों से पेट नहीं भरता,
सच है कि आदर्शों से परिवार नहीं पलता।

लेकिन, सोचो, क्या हम यह खुली सांस ले पाते,
अगर भगत सिंह, बिस्मिल, आजाद, सुभाष न होते।
आती क्या विदेशी हुकूमत को उखाड़ने वाली आँधी,

अगर न होते साथ आदर्शों के मूर्ति फकीर गाँधी।


सोचो अगर रामकृष्ण, महर्षि अरविंद-रमण न होते,
क्या इस कलयुग में सतयुगी प्रसून खिलते।
सोचो अगर स्वामी विवेकानन्द न होते,
क्या इतने दिए श्रद्धा-आदर्शों के जलते।
सोचो अगर युगऋषि आचार्य श्रीराम न होते,
क्या ऋषियों के सूत्र गृहस्थ में ग्राह्य बनते।


सारा इतिहास रोशन, इन्हीं संतों, सुधारकों, शहीदों की कहानी,
तभी इस माटी में दम कुछ ऐसा, जो हस्ती मिटती नहीं हमारी।

नहीं यह महज महापुरुषों, नायकों की कथा-व्यानी,
यह हर इंसान, नेक रुह की संघर्ष कहानी,
अंतर में जहाँ टिमटिमा रहा दीया श्रद्धा का,
आदर्शों की कसौटी पे कस रही रुह दीवानी,
श्रम-सेवा, संयम-त्याग का ले खाद पानी,
धधक रहा जहाँ जज्बा आत्म-बलिदानी।
आदर्शों की खातिर जीने-मरने की यह कहानी।







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