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गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

यात्रा वृतांत - जब आया बुलावा बाबा नीलकंठ महादेव का, भाग-1


नीलकंठ महादेव ऋषिकेश-पौढ़ी गढ़वाल क्षेत्र का एक सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थल है, जो अपनी पौराणिक मान्यता, प्राकृतिक मनोरमता और धार्मिक महत्व के कारण पर्यटकों, खोजी यात्रियों, श्रद्धालुओं एवं प्रकृति प्रेमियों के बीच खासा लोकप्रिय है। 2003 में देसंविवि बायो-इंफोर्मेटिक्स ग्रुप के साथ सम्पन्न पहली यात्रा के बाद यहाँ की पिछले पंद्रह वर्षों में विद्यार्थियों, मित्रों व परिवारजनों के साथ दर्जन से अधिक आवृतियाँ पूरी हो चुकी हैं। हर बार एक नया रोमाँच, नयी ताजगी, नयी चुनौतियाँ, नए सबक व कृपावर्षण से भरे अनुभव जुड़ते जाते हैं।

आज फिर यात्रा का संयोग बन रहा था, कहीं कोई योजना नहीं थी। जिस तरह कुछ मिनटों में इसकी रुपरेखा बनीं, लगा जैसे बाबा का बुलावा आ गया। रास्ते में पता चला कि आज के ही अमावस्य के दिन ठीक 8 वर्ष पूर्व एमजेएमसी बैच 2010-12 के साथ यहाँ की यात्रा सम्पन्न हुई थी। आज पूरी टीम को शामिल न कर पाने का मलाल अवश्य रहा, लेकिन इसकी भरपाई किसी उचित अवसर पर पूरा करेंगे, इस सोच के साथ हल्के मन के साथ यात्रा पर आगे बढ़े। इस बार की यात्रा इस मायने में नयी थी कि हम पहली वार इस ट्रेक पर हरिद्वार चंड़ीपुल से होकर चीलारेंज से प्रवेश कर रहे थे, जो प्राकृतिक सौंदर्य से जड़ा हुआ एक बहुत ही सुंदर, एकांतिक एवं रोमाँचक मार्ग है। गंग नहर और राजाजी टाईगर रिजर्व से होकर घने जंगलों से गुजरता जिसका रास्ता स्वयं में बेजोड़ है।

चीला रेंज से होकर सफर – चंड़ी चौक से होकर बना चंड़ी पुल क्षेत्र का सबसे लम्बा पुल है, जहाँ से गंगाजी का विहंगम दृश्य देखने लायक रहता है। कुंभ के दौरान इसके दोनों ओर बसे बैरागी द्वीप में तंबुओं की कतार देखने लायक रहती है। इसके वाईं ओर दिव्य प्रेम सेवा मिशन का कुष्ठ आश्रम पड़ता है, जो सेवा साधना की एक अनुपम मिसाल है। 
पुल से आगे की सड़क नजीबावाद, हल्दवानी-पंतनगर, अल्मोड़ा-नैनीताल की ओर जाती है अर्थात, यह कुमाऊँ क्षेत्र में प्रवेश का द्वार है। यहाँ से बाईं ओर मुड़ते ही कुछ दूरी पर गंगाजी एवं नीलपर्वत के बीच ऐतिहासिक सिद्धपीठ दक्षिणकाली मंदिर आता है, जिसकी स्थापना बाबा कामराजजी द्वारा लगभग 800 वर्ष पूर्व की गयी थी, यह सदियों से तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र रहा है।
यहीं से दायीं ओर पहाड़ी पर स्थापित चंड़ीदेवी माता का मंदिर है, जो लगभग 1.5 किमी ट्रेकिंग का सफर है। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी मेंं इसकी स्थापना की थी। पहाड़ी पर उड़नखटोला से भी पहुँचने की भी उम्दा व्यवस्था है।

रास्ता आगे घने जंगल में प्रवेश करता है, यह राजाजी टाइगर रिजर्व का क्षेत्र आता है। हरे-भरे आच्छादन के बीच बलखाती मोड़दार सड़कें इसकी विशेषता हैं। रास्ते में हरिद्वार बैराज से आता मार्ग पड़ता है, जो सिर्फ सरकारी व छोटे वाहनों के लिए खुला होता है। यहां से आगे रास्ते में नांले पड़ते हैं, जो इस मौसम में कलकल बह रही जलराशि से गुलजार थे।
प्रायः इस राह में हिरनों के झुंड़ मिलते हैं, मोर के दर्शन भी सहज ही होते हैं, जो आज संयोगवश नहीं हो पाए। कुछ ही देर में राजाजी नेशनल पार्क का गेट आता है। ऑफ सीजन होने के कारण आज यहाँ माहौल शांत था।
यहाँ सीजन में सफारी जीपें और पालतु हाथियों के झुंड रहते हैं। रिजर्व के जंगल में जीप सफारी का लगभग 33 किमी सफर बेहद रोमाँचक रहता है, जब घने जंगल से होते हुए उतार-चढ़ाव भरे नदी-नालों व घाटियों के बीच चीतल, साँभर, हाथी, मोर, यहाँ तक कि बाघ जैसे जंगली जानवरों तथा पक्षियों को नजदीक से देखने का मौका मिलता है।
कुछ ही मिनटों में हम चीलारेंज के बिजली घर से होकर गुजर रहे थे। सुरक्षाकारणों से यहाँ फोटोग्राफी मना है। यहाँ बिजलीघर से गिरती वृहद जलराशि और नहर के रास्ते इसका निकास, सब दर्शनीय रहता है। इसको नीलधारा कहते हैं, जो आगे घाट नम्बर 10 के पास सप्तसरोवर की ओर से आ रही गंगा की धारा में मिलती है, जहाँ गंगाजी हरिद्वार क्षेत्र में अपने शुद्धतम रुप में प्रकट होती हैं।

इस बिजली घर से आगे का नजारा नहर के किनारे बढ़ता है, जो स्वयं में एक मनभावन सफर रहता है। नहर के किनारे हरे-भरे वृक्ष, इनकी पृष्ठभूमि में घने जंगल, वायीं ओर गंगाजी की जलधार और उस पार घाटी का नजारा तथा शिवालिक पर्वत श्रृंखलाएं – सब मिलकर सफर का खुशनुमा अहसास दिलाते रहते हैं।
आगे रास्ते में गंगाभोगपुर तल्ला गाँव पड़ता है, बीच में खेत और लगभग वृताकार में इनको घेरे घर, एक अद्भुत नजारा पेश करते हैं। यहाँ दिव्य प्रेम सेवा मिशन द्वारा संचालित कुष्ठ आश्रम के व स्थानीय बच्चों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है। गांव को एक आदर्श गाँव का रुप देने के प्रयास यहाँ देखे जा सकते हैं।

आगे पुल पारकर दायीं ओर गंगाभोगपुर मल्ला से रास्ता गुजरता है। यहाँ से सीधा रास्ता बिंध्यवासनी मंदिक तक बाहन से होकर जाता है, लेकिन आगे नीलकंठ के लिए यहाँ से पैदल ही चलना पड़ता है। लेकिन हमारा सफर पूरी तरह से जीप सफारी का था, सो हम नहर के वांएं किनारे ऋषिकेश बैराज तक नहर के किनारे आगे बढ़ते रहे। बीच में बरसाती नाला पड़ता है, जिसे हम कई वर्षों से बरसात में यातायात को ध्वस्त करते देख रहे हैं, अभी पुल नहीं बन पाया है। आज भी हम इसी के बीच बनी कच्ची सड़क से बहते पानी के बीच सड़क पार किए।
थोड़ी देर में ऋषिकेश बैराज आती है, जहाँ गंगाजल का एक हिस्सा नहर से होकर चीलारेंज की ओर बहता है तो शेष हिस्सा गंगाजी की मुख्यधारा से होकर वीरभद्र, रायावाला से होकर सप्तसरोवर के आगे घाट नम्बर10 पर नीलधारा में मिलता है। यहाँ तक नहर के किनारे का सफर सचमुच में बहुत ही अद्भुत रहता है, यथासंभव इसके मनोरम दृश्य को अपने मोबाईल में कैप्चर करते रहे।

बैराज के थोड़ी दूरी पर दाईं ओर का सीधा पगड़ंडी वाला मार्ग पहाड़ी की रीढ़ पर बसे गंगादर्शन ढावा तक जाता है, लेकिन घने जंगल, खुंखार जानवरों व बरसात में ध्वस्थ पगडंडियों के चलते यह पर्यटकों के लिए बंद रहता है। क्षेत्रीय लोग हालांकि अपने रिस्क पर अपने अनुभव के आधार पर इस मार्ग से आवागमन करते रहते हैं। 
आज से ठीक आठ वर्ष पूर्व हम अमावस्य की घुप अंधेरी रात में पूरे काफिले के साथ इसी मार्ग में लगभग दो-अढाई घंटे भटकते हुए बाहर निकले थे, जिसका वर्णन अगली पोस्ट के अंत में करेंगे।

यहाँ से आगे की सड़क घने जंगल से होकर गुजरती है। रास्ते भर कहीं नाले, तो कहीं झरने हमारा स्वागत करते रहे। हरा-भरा घना जंगल हमारी राह का सहचर रहा। वन गुर्जरों की वीरान बस्ती के दर्शन भी राह में हुए, जिनका जीवन दूर से देखने पर बहुत रोचक लगता है।
रास्ते में रामझूला से नीलकंठ के पैदल मार्ग के दर्शन हुए। लंगूरों के झुंड यहाँ इकट्ठा थे। ये शांत एवं सज्जन जंगली जीव यात्रियों के हाथों से चन्ना खाने के अभ्यस्थ हैं। ये झुंडों में रहते हैं, इनसे यदि भय न खाया जाए, तो इनकी संगत का भरपूर आनन्द उठाया जा सकता है।

लक्ष्मण झूला का नजारा – यहाँ से पार करते ही कुछ मिनटों में हम ऐसे बिंदु पर पहुँचे, जहाँ से रामझूला तो पीछे छुट चुका था लेकिन लक्ष्मण झूले का नजारा प्रत्यक्ष था। यह क्षेत्र आजकल योग एवं अध्यात्म केपिटल के रुप में प्रख्यात है, जहाँ विदेशी पर्याप्त संख्या में शांति की खोज में भारतीय अध्यात्म, चिकित्सा एवं योग का अपनाते देखे जा सकते हैं।
लक्ष्मण झुले के ईर्द-गिर्द पूरा शहर बसा है, एक के ऊपर, दूसरे कई मंजिलों ऊँचे भवनों का नजारा हतप्रत करता है, लगता है जैसे कंकरीट का जंगल खड़ा हो चुका है। इन भवनों के जमघट के बीच बढ़ती जनसंख्या का दबाव, मानवीय लोभ, बेतरतीव पर्यटन और प्रकृति के साथ खिलवाड़ की विसंगतियाँ प्रत्यक्ष दिखती हैं।
पृष्ठभूमि में कुंजा देवी की चोटी, पहाड़ों से होकर जा रही सड़कें हमें नीरझरना-कुंजापूरी के सफर की याद दिला रही थी। कुछ यादगार स्नैप्स के साथ सफर आगे बढ़ता है।

गंगा किनारे सफर का रोमाँच – लक्ष्मण झूला को पार कर हम गंगाजी के किनारे आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में बानर सेना के दर्शन बीच-बीच में होते रहे। लगा कि यात्रियों के द्वारा दया एवं कौतुकवश इनको दिए जा रहे चारे के कारण इनकी आदतें कितना बिगड़ चुकी हैं। दिन भर जंगलों में उछल-कूद व भोजन की खोज  की बजाए, अब ये सड़क के किनारे ठलुआ बैठकर, भिखारी की तरह भोजन के इंतजार में रहते हैं।
रास्ते में दायीँ ओर की पहाडियों से आ रहे नालों व झरनों में पानी की प्रचुरता एक सुखद एहसास दिला रही थी, लगा इस वर्ष सितम्बर माह में लगातार हुई बारिश यहाँ भी फलित हुई है। क्षेत्र के जलस्रोत पूरी तरह से रिचार्ज हो चुके हैं। वायीं ओर गंगाजी की ओर दनदनाते हुए वह रहे पहाड़ी नाले रास्ते भर इसकी झलक दिखा रहे थे।

हेंवल नदी के किनारे – रास्ते में गंगाजी से हटते ही गढ़वाल हिमालय से आने वाली हेंवल नदी भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रही थी। आज इसमें भी भरपूर जलराशि दिख रही थी। इसके नीलवर्णी जल में लोग पूरी मोजमस्ती करते दिखे। इसकी पानी इतना साफ था कि इसके तल के दर्शन तक स्पष्टतयः हो रहे थे। इसके किनारे बसे गाँव व कैंपिक साइट्स के दृश्य बहुत संदुर दिखते हैं, मन कर रहा था कि कभी फुर्सत में यहाँ की शांत वादियों में कुछ दिन विता सकते हैं, खासकर नदी के उस पार के जंगल में एक गुफा तलाशकर।

मौनी बाबा, मायादेवी के चरणों में – अब रास्ता पहाड़ियों की चढ़ाईयों को पार कर रहा था, सड़क के किनारे बनी चट्टियां चाय-नाश्ता के लिए यात्रियों का इंतजार व स्वागत कर रही थी। हम कुछ ही मिनटों में पहाडियों के चरणों में थे, जिसके शिखर पर मंदिर की पताका लहरा रही थी। पता चला कि ये महामाया का मंदिर है, जहाँ तक चढ़ने के लिए कई सौ सुंदर सीढ़ियाँ की सड़क बनीं हैं। 
इसी के पास सड़क के किनारे मौनी बाबा की कुटिया का बोर्ड मिला। यहाँ तो हम नहीं जा पाए, लेकिन रामझूला से नीलकंठ पैदल मार्ग पर चट्टान की गोद में बसे मौनी बाबा के आश्रम की याद बरबस ताजा हो गयी, जहाँ कभी तीर्थयात्रियों के लिए चाबल-कड़ी का भंडारा चौबीस घंटे चलता रहता था।
अब हम नीलकंठ क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे। नीलकंठ महादेव महज 5 किमी दूर थे। उस पार पहाड़ों की गोद में बसे गाँव, सीढ़ीदार खेतों में पक रही धान की फसल सफर के आनन्द में एक नया रोमाँच घोल रही थी।  
यात्रा वृतांत का अगला भाग आप इसके खण्ड-2, पर्वत की गोद में बाबा का कृपा प्रसाद में पढ़ सकते हैं। 

रविवार, 23 अगस्त 2015

यात्रा वृतांत - सावन में नीलकंठ महादेव - प्रकृति की गोद में श्रद्धा-रोमांच का अनूठा संगम



मिले मन को शांति, हरे चित्त का संताप 

नैक से जुड़ी लम्बी तैयारी, थकाउ पारी और काल की छलना पलटवारी के बीच जीवन का ताप कुछ बढ़ चला था, सो प्रकृति की गोद में चित्त को हल्का करने का मन बन गया था। ऐसे में स्वाभाविक ही कालकूट का शमन करने बाली नीलकंठ महादेव की मनोरम वादी की याद आ गई और लगा कि बुलावा आ गया। सावन में कांवर लिए यात्रा की इच्छा अधूरी थी, सो वह भी आज अनायास ही पूरी हो रही थी। कुछ ऐसी ही इच्छा लिए राह को प्रकाशित करते दीपक हमारे सारथी बने। और हम अपनी स्कूटी सफारी में नीलकंठ महादेव के औचक सफर पर निकल पड़े।

दोपहर को अचानक प्रोग्राम बन गया था और तीन बजे हम चल दिए और लगभग दो घंटे बाद शाम पाँच बजे तक हम नीलकंठ महादेव पहुंच गए। रास्ते का सफर प्रकृति के सुरम्य आंचल में रोमाँच से भरा रहा, जितना गहरा हम इसके प्राकृतिक परिवेश में प्रवेश करते गए, उतना ही हम इसके आगोश में खोते गऐ और सहज ही मन शांत होता गया और संतप्त चित्त को एक हीलिंग टच मिलता गया।

देसंविवि से यात्रा रेल्वे फाटक पार करते हए निर्मित हो रहे फोर लेन हाइवे से होती हुई नेपाली फॉर्म, श्यामपुर फाटक से आगे बढ़ी। वीरभद्र-आइडीपीएल से रास्ता दाईं ओर मुड़ता है, यहाँ से बढ़ते हुए आगे बैराज पहुँचे। रास्ते में सामने नीलकंठ की पहाडियां मंजिल का सुमरण करा रही थी। आज तो इन पहाडियों पर बादल भी छाए थे, सो यह निमंत्रण कुछ अधिक ही मनमोहक लग रहा था। बैराज से गंगाजी की एक धारा नहर से होते हुए चीला डैम की ओर मोड़ी गई है, जिससे बिजली तैयार की जाती है। बाकि जल बैराज से सीधा गंगा जी की मुख्य धारा में गिरता है। यही जल आगे हरिद्वार में सप्तसरोवर क्षेत्र से बढ़ता हुआ घाट नं.10 पर नीलधारा में मिलकर हरकीपौड़ी की ओर बढ़ता है। गर्मी में बैराज का सारा जल नहर में ही सिमट जाता है, कुछ बुंदे ही मुख्यधारा में बचती हैं। अतः तब सप्तसरोवर का जल मुख्यता देहरादून से गंगाजी में मिलने वाली टोंस नदी का रहता है। इस सीजन में गंगा जी को पूरे बेग के साथ मुख्यधारा में बहते हुए देखकर एक सुखद अनुभूति हुई।

बैराज से एक सड़क मार्ग सीधा नीलकंठ के लिए जाता है, जो घने जंगल से होकर गुजरता है और आगे सीधी खड़ी चढ़ाई लिए हुए है। यह राजाजी नेशनल पार्क का हिस्सा है और इसे खतरनाक माना जाता है। अतः इसके प्रवेश में ही बन विभाग द्वारा जंगली जानवरों के खतरे से सचेत किया गया है। सड़क आगे गंगा जी के वाईं ओर से रामझूला की ओर बढ़ती है। सघन बनों के बीच टेड़ी-मेड़ी सड़क वाहन चालकों की अच्छी-खासी कसरत कराती है। रास्ते में हर दस कदम पर बरसाती नाले बहते मिले और साथ साथ छोटे-बढ़े झरने। इनका कलकल निनाद पूरे रास्ते भर बन से गुंजता मिला, जिसे सुनकर लगता कि जैसे की प्रकृति के गर्भ से अनहद-नाद गूंज रहा हो।

इसी रास्ते में आगे हमें बंदर बहुतायत में मिले। इंसान व वाहनों से वेखौफ ये रास्ते में आराम से बैठे थे, जैसे यह इनका अपना ही घर परिवार हो। यात्री कुछ ब्रेड बिस्कुट श्रद्धावश फैंकते रहते हैं, वही इनका प्रमुख प्रलोभन रहता है। मार्ग में हर मोड़ पर कोई वाहन आता जाता मिल रहा था, लगा सावन का सैर सपाटा अभी थमा नहीं है। ज्ञातव्य हो कि नीलकंठ कांवड़धारियों का एक लोकप्रिय तीर्थ स्थल है। जिसमें सावन के दौरान रोज लाखों लोग गंगाजल चढ़ाते हैं। सिलसिला अभी तक थमा नहीं दिखा। कुछ वाइक्स में तो कुछ जीप-टैक्सियों व अन्य वाहनों में जाते दिखे। रास्ते में ही रामझूले से आता पैदल मार्ग मिला, जिसमें तीर्थयात्री पर्याप्त संख्या में अपने इष्टधाम की ओर बढ़ रहे थे व कुछ बापिस लौट रहे थे।

रास्ते में ही गुजरों की वस्ती मिली। गौलतलब हो कि गुजर खानावदोश लोग हैं, जो भैंस पालते हैं और इनके दूध-घी से अपनी गुजर बसर करते हैं। सर्दियों में ये निचले क्षेत्रों में चले जाते हैं। इनकी बस्ती आबाद दिखी। रास्ते में मोर पक्षियों का दल मिला। पहली वार इतनी संख्या में इन्हें देख मन प्रफुल्लित हुआ। थोड़ी ही देर में हम थोड़ी उँचाई में थे व सामने लक्ष्मण झूले की ओर से गंगाजी व नीचे ऋषिकेश के दर्शन हो रहे थे। दृष्य बहुत ही विहंगम व अवलोकनीय था। काफी दूर तक इस सुंदर नजारे का आनंद लेते रहे। पृष्ठभूमि में बादलों से ढकी हिमालय की पर्वतश्रृंखला व इनमें सबसे ऊँची चोटी पर कुंजा देवी के दर्शन हमें यहाँ से प्रत्यक्ष थे। रास्ते भर दनदनाते नाले व झरने बहुतायत में कदम-कदम पर स्वागत करते मिले व यात्रा को खुशनुमा बनाते रहे। आश्चर्य नहीं की यात्रीगण इनके किनारे अपने वाहन खड़ा कर इनमें स्नान से लेकर जल क्रीडा-क्लोल का पूरा आनन्द ले रहे थे।

थोड़ी ही देर में हम लक्ष्मणझूला से गुजरे। यहाँ खड़ी टेक्सियां यात्रियों को जीप सफारी के लिए आमंत्रण दे रही थी। यहाँ के कई मंजिला मंदिरों को पार करते हुए जल्द ही हम गंगाजी के एकदम किनारे आगे बढ़ रहे थे। गंगाजी पूरे बेग में हिमालय से उतरी भगीरथी, मंदाकिनी और अल्कनंदा की बरसाती धाराओं को समेटे महाबेग के साथ बढ़ती भयमिश्रित श्रद्धा का नजारा पेश कर रही थी। रास्ते में सड़क अपना असली परिचय देना शुरु कर चुकी थी। हर दस कदम पर गढ़ों की भरमार चालक की परीक्षा ले रही थी और सवारी को भी संभलकर बैठने का मौन-मुखर संदेश दे रही थी।

रास्ते में वाइं ओर से उसपार के नेशनल हाइवे से जोड़ता पुल मिला। आगे सड़क के किनारे योगा केंद्रों की भरमार मिली। पता चला कि यहाँ विदेशी पर्यटक शांति की खोज में यहाँ पर एकांत में स्थित योगा संस्थानों मेंं आते रहते हैं। कुछ किमी तक गंगाजी के किनारे आगे बढ़ते रहे, उसपार समांनांतर सडक पर देवप्रयोग की ओर बाहन बढ़ रहे थे, और इस ओर हम गंगाजी की धारा के विपरीत नीलकंठ की ओर। थोड़ी ही देर में रास्ता गंगाजी की धारा से मुडते हुए दाईं ओर से ऊपर चढ़ रहा था। वाईँ ओर से हिम्बल नदी का निर्मल नीला जल बहुत शांति सकून दे रहा था। इसके किनारे बसे धान के हरे खेत और गांव बहुत ही सुंदर  लग रहे थे, जिन्हें हम यथासंभव कैमरे में कैद कर रहे थे।

बारिश की हल्की बुंदे लगा हमारा स्वागत अभिसिंचन कर रही थीं। लेकिन जब बारिश और तेज हो चली, तो हम अपना-अपना रेनकोट, विंडचीटर आदि पहन कर आगे की चढ़ाई पार करते चले। रास्ते भर हर दिलकश नजारों को कैद करता कैमरा अब बंद हो चुका था। अब तक की यात्रा का सुहाना सफर अब तेज हो रही बारिश के साथ चुनौतीपूर्ण रोमांच में बदल चुका था। सड़कों में गढ़े रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। हर मोड़ पर दनदनाते नाले स्वागत कर रहे थे, बढ़ती बारिश के कारण इनका वेग चरम पर था और पानी का रंग कहीं लाल, कहीं काला, कहीं गेरुआ रंग लिए था। कहीं-कहीं नालों के कारण बने गढ़े इतने खतरनाक थे की थोडी सी भी चालक की असावधानी और नौसिखियापन एडवेंचर को मिस-एडवेंचर में बदल सकता था। साथ ही भूस्खलन के कारण मार्ग में फैली चिकनी मिट्टी ड्राइविंग स्किल का पूरा इम्तिहान ले रही थी।

बारिश का सिलसिला कहीं थमता, फिर शुरु होता। इस बीच रास्ते में आसमान छूती पहाडियां, इन पर छाई धुंध, दूर इनको कवर करती दूसरी कई पहाडियां बरबस ही ध्यान खींच रही थी। कैमरा बंद होने के कारण मोबाइल कैमरे से ही इनको यथासंभव केप्चर करते रहे। बारिश तेज हो चुकी थी। और हम नीलकंठ के स्वागत गेट को पार कर चुके थे। अब महज 6 किमी बाकि थे। लगभग 3 किमी के बाद गाडियों की भीड़ दिखी और पुलिस का दल। हम बारिश से बचने के लिए स्कूटी को मंदिर के समीप तक ले जाने की सोचे थे किंतु यातायात के पुलिस नियमों का पालन करते हुए वाहन यहीं रोकना पड़ा।

आगे का 3 किमी पैदल सफर धुंआधार बारिश के बीच पूरा हुआ। रुकने का कोई बिकल्प नहीं था, क्योंकि आज ही एक घंटे के अंदर अंधेरे से पहले नीचे उतरना था। इसलिए पुलिस की रोक टोक व यातायात के अमानवीय नियमों पर पर्याप्त आक्रोश उबल रहा था, और नीलकंठ महादेव की इच्छा अभी समझ से परे थी। अब बारिश से बचने का विचार त्याग चुके थे और पूरी तरह भीगते हुए बारिश का आनन्द लेते हुए मंजिल की ओर बढ़ते रहे। रास्ते भर खाली सड़क को देखकर मन के तर्क को ओर बल मिल रहा था कि स्कूटी जैसे दुपहिया वाहन को तो कहीं भी खड़ा किया जा सकता था, इसमें ट्रेफिक जाम जैसी कोई बात ही कहां थी। फिर मंदिर गेट पर ही कई दुपहिया वाहनों को खड़ा देख तर्क ओर पुष्ट हुआ।

जाने पहचाने मार्ग से हम मंदिर परिसर में प्रवेश किए। विष्णुकूट, ब्रह्मकूट और मणिकूट पर्वत से झरती मधुमता और पंकजा नदियां बरसाती बेग के साथ झर रहीं थी, दोनों संगम स्थल पर मिलकर नीचे कोलाहल करती हुई बढ़ रही थी। मंदिर गेट पर जूता उतार, दुकान से गंगाजल प्रसाद आदि लिए। स्थानीय दुकानदार को अपनी पार्किंग और भीगने की कथा-व्यथा वताई। जबाव तुरंत हाजिर था कि भोले के दरवार में 1-2 किमी पैदल चलकर आना तो अच्छी बात है, तप-पुण्य का कार्य है, इससे उनका सुमरण भक्ति ओर प्रगाढ़ होती है। दुकानदार का यह आस्थापूरित विचार हमें देववाणी जैसा लगा और हमारे मन का गुबार आधा शांत हो चुका था। अब तक की घटना को प्रभु इच्छा मान शांत मन से मंदिर में प्रवेश किए। पूर्जा अर्चना कर संगम को पार कर चाए की दुकान में ठौर ठिकाना बनाए।

भीगने की ठंड़क को गर्म चाय की चुस्की के साथ दूर करते रहे। इसके साथ ही कुछ पल आत्म चिंतन-मनन के बीते। जीवन दर्शन इस सफर के साथ कुछ ओर स्पष्ट हो चला। अपना चाय नाश्ता कर हम बापिस अपने वाहन की ओर चल दिए। समय का अभाव था सो आज यहींं से बापिस लौटना था। ज्ञातव्य हो कि यहीं से लगभग 2 किमी की दूरी पर पहाड़ी पर बसा माँं पार्वती का, भुवनेश्वरी मंदिर है। उसके लगभग 2 किमी आगे कार्तिकेय की तपःस्थली झिलमिल गुफा है, जो स्वयं में दर्शनीय स्थल है। मान्यता है कि गुरुगोरखनाथ जी ने यहीं शावर मंत्रों को सिद्ध किया था। यहीं से लगभग 1 किमी आगे गणेश गुफा है। इस तरह पूरा शिव परिवार यहाँ 5 किमी के दायरे में बसा है। इसी रास्ते में गंगा दर्शन ढावा है, जहाँ से नीचे गंगा जी व हरिद्वार पर्यन्त दृश्यों का विहंगावलोकन किया जा सकता है। यदि 1-2 घंटे और होते तो इनको भी अवश्य घूम लेते। समयाभाव के कारण इस इच्छा को अगली यात्रा के लिए छोड़ आए।

अब तक भीगे कपड़े सूख रहे थे। मौसम देखकर आश्चर्यचकित थे की अब बारिश का नामोनिशान नहीं था, बारिश थम चुकी थी। मौसम बहुत ही सुहावना लग रहा था। सामने गांव, संग हरे भरे खेत ओऱ पीछे पहाडियों में छाई धुंध व बादल के उड़ते फाहे एक आलौकिक एवं स्वर्गोपम दृश्य का सृजन कर रहे थे। रास्ते भरे इनको निहारते हुए आगे बढ़ते रहे व इनके साथ कुछ यागदार फोटो लिए। अबतक बारिश में भीगने का गम छूमंतर हो चुका था। स्कूटी को 3 किमी पहले खड़ा करने का आक्रोश शांत हो चुका था। तीर्थ स्थल का चित्त प्रशांतक प्रताप प्रत्यक्ष था और भोले बाबा की लीला कुछ समझ में आ रही थी। लगा सब एक सबक भरी परीक्षा थी, जो हमें सकारात्मक सोच व तर्क-आस्था के अंतर का पाठ सिखा गई। 3 किमी उतराई के बाद हम पार्किंग पहुँचे। 


स्कूटी में चढ़कर रास्ते भर फोटो खींचते हुए नीचे उतरे। चढ़ाई में बारिश के कारण जहाँ फोटो नहीं खेंच पाए थे वह कमी पूरी हो रही थी। प्रकृति का न्याय साफ दिख रहा था। आधा-पौना घंटे बाद अंधेरा गहरा हो रहा था। गढ़ों से भरी सड़क को पार करते हुए शीघ्र ही हम गंगाजी के किनारे पहुंच चुके थे। और थोड़ी ही देर में पुल पार करते हुए दाईं ओर बद्रीनाथ-हरिद्वार नेशनल हाइवे पर थे। रात के 8 बज चुके थे। लक्ष्मणझूला रामझूला पार करते हुए हम ऋषिकेश पहुंचे। आगे हरिद्वार तक भारी ट्रेफिक के बीच रात के 9 बजे देसंविवि पहुंचे।  
  
इस तरह 6 घंटे का यह श्रद्धा और रोमांच से भरा सफर पूरा हुआ। थकान तन पर अवश्य हावी थी, लेकिन मन संताप से हल्का मस्त मग्न था और सफर के एडवेंचर भरी सुखद समृतियों की जुगाली कर रहा था। इन्हीं को सुमरण करते हुए कलमबद्ध यात्रा वृतांत आपके सामने प्रस्तुत है। 
(अगर आपका कोई सुझाव या फीडबैक हो तो अवश्य सूचित करें, जानकार प्रसन्नता होगी व आवश्यक सुधार कर सकेंगे।)
    यदि नीलकंठ महादेव के संदर्भ में और अधिक जानकारी लेनी हो व इसके सभी ट्रैकिंग मार्ग को जानना हो तो हमारी पिछली ब्लॉग पोस्ट श्रद्धा और रोमाँच का अद्भुत संगम को पढ़ सकते हैं।

गुरुवार, 15 मई 2014

नीलकंठ महादेव – श्रद्धा और रोमाँच का अनूठा संगम

- नीलकंठ महादेव मंदिर, ऋषिकेश
हरिद्वार के समीप, ऋषिकेश क्षेत्र का भगवान शिव से जुड़ा सबसे प्रमुख तीर्थ स्थल। स्थल का पुरातन महत्व, प्राकृतिक सौंदर्य और मार्ग की एकांतिकता, यात्रा को श्रद्धा और रोमाँच का अद्भुत संगम बना देती है, जिसका अपना आध्यात्मिक महत्व है।

पुरातन पृष्ठभूमि – पौराणिक मान्यता है कि जब भगवान शिव ने समुद्र मंथन के बाद कालकूट विष को कण्ठ में धारण किया तो वे नीलकंठ कहलाए। विष की उष्णता के शमन हेतु, शिव इस स्थल पर हजारों वर्ष समाधिस्थ रहे। उन्हीं के नाम से इसका नाम नीलकंठ तीर्थ पड़ा।

भौगोलिक स्थिति – यह स्थान समुद्र तल से 5500 फीट(1300 मीटर) की ऊँचाई पर स्थित है और गढ़वाल हिमालय की ब्रह्मकूट, विष्णुकूट और मणिकूट पर्वत श्रृंखलाओँ के बीच पंकजा और मधुमति नदियों के संगम पर बसा है।

मंदिर – मंदिर सुंदर नक्काशियों से सजा है, जिसमें समुद्र मंथन का दृश्य अंकित है। मंदिर में दक्षिण भारत का वास्तुशिल्प स्पष्ट है। मंदिर परिसर में शिवलिंग के साथ अखंड धुना भी विद्यमान है, जो अनादि काल से अनगिन सिद्ध-संतों की साधना का साक्षी रहा है। पीपल का अति विशाल एवं वृहद वृक्ष स्थल की पुरातनता की साक्षी देता है, जिसमें श्रद्धालु अपनी मन्नत का धागा बाँधते हैं और पूरा होने पर उसे निकालते हैं।

यात्रा मार्ग – नीलकंठ की यात्रा के चार मार्ग हैं, जिनमें दो प्रचलित हैं -

पहला, मोटर मार्ग – सबसे सरल मोटर मार्ग ऋषिकेश में गंगाजी के पार रामझूला या लक्ष्मण झूला से होकर जाता है। वहाँ से 45-50 किमी की यात्रा महज डेढ़ दो घंटे में पूरी हो जाती है। रास्ते में गंगाजी का पावन तट, आगे हिम्बल नदि के किनारे बसे गाँव का मनोरम दृश्य, बलखाती सर्पीली सड़कें, निकटवर्ती घाटियाँ, पहाड़ी गाँव व शिखर पर स्थित मंदिर के दृश्य यात्रा को यादगार बनाते हैं।


दूसरा, ट्रेकिंग मार्ग -  यह अपेक्षाकृत कठिन पैदल मार्ग है, जो रामझूला के पार, स्वर्गाश्रम से होकर जाता है। 7-8 किमी का यह ट्रैक मार्ग भी नयनाभिराम दृश्यावलियों से भरा है। चढ़ाई झर-झऱ बहते पहाड़ी नाले के किनारे से जाती है। मार्ग में सज्जन, शर्मीले व दोस्ताना लंगूरों का सामना सहज है, जो चन्ना खाने के लिए यात्रियों से हिलमिल जाते हैं। थोड़ा चढ़ाई पर नीचे गंगाजी के किनारे बसे ऋषिकेश शहर का विहंगम दृश्य दर्शनीय रहता है। सामने उत्तर की ओर शिखर पर बसा कुंजा देवी का मंदिर आश्चर्यचकित करता है। 4-5 किमी की चढ़ाई पार होते ही पहाड़ी के दूसरी ओर नीचे घाटी में नीलकंठ महादेव की झलक मिलती है। ढलती शाम के साथ परिसर से झिलमिलाती रोशनी में यहाँ एक स्वर्गीय दृश्य का सृजन होता है। 2 किमी की ढलान के बाद पहले भैंरो मंदिर आता है और फिर नीलकंठ महादेव।

तीसरा, शॉर्ट कट मार्ग – ऋषिकेश बैराज से होकर जाने वाला यह मार्ग सबसे छोटा किंतु सबसे खतरनाक है। खतरनाक इस मायने में कि यह घने जंगल से होकर जाता है, जिसमें कहीं भी हाथी, गुलदार, बाघ व अन्य वन्य पशुओं से साक्षात्कार हो सकता है। अतः बैराज में प्रवेश द्वार पर अंधेरे में या अकेले इसे पार न करने की चेतावनी दी जाती है। खड़ी चढ़ाई से भरा यह रास्ता प्रायः स्थानीय वासियों या एडवेंचर प्रेमियों द्वारा पसंद किया जाता है। महज 2-3 घंटे में यह पार हो जाता है। रास्ते में बहते नालों-झरनों व हरे-भरे घने जंगल के बीच से होकर निकलता मार्ग एक रोमाँचक अनुभव दे जाता है। ऊपर यह रास्ता गंगा दर्शन ढावा के पास मिलता है, जो झिलमिल गुफा और भुवनेश्वरी मंदिर के बीच स्थित है। यहाँ से नीचे गंगाजी की धाराओं का विहंगम दृश्य अवलोकनीय रहता है और सुदूर हरिद्वार तक का विस्तार दूर्बीन से देखा जा सकता है।

चौथा, सबसे लम्बा ट्रेकिंग मार्ग – भोगपुर गाँव व विंध्यवासनी से होकर जाने वाला सबसे लम्बा ट्रेकिंग मार्ग है, और शायद सबसे रोमाँचक भी। प्रायः शिवरात्रि में कांबड़धारी शिवभक्त इस रास्ते से वापिस आते हैं। चीलारेंज की नीलधारा नहर के किनारे भोगपुर गाँव से इसका प्रवेश होता है। 3-4 किमी के बाद पहाड़ की चोटी पर बसा मनोरम विंध्यवासनी मंदिर आता है। यहाँ तक वाहनों के लिए कच्चा मार्ग है। यहाँ से आगे 12-14 किमी पैदल ट्रैकिंग करनी पड़ती है। रास्ते में पहाड़ी नदी के किनारे 4-6 किमी तक मैदानी रास्ता चलता है। दोनों ओर अर्जुन व भोजपत्र के घने वनों से ढकी पहाड़ियाँ सफर को रोमाँचक बना देती हैं। 4-6 किमी के बाद चढ़ाई शुरु होती है। 2-3 किमी के बाद पहाड़ी बस्तियाँ आती हैं। यहीँ देवली इंटर कालेज रास्ते में पड़ता है। यहाँ वाईँ ओर से गाँव से होकर झिलमिल गुफा की ओर चढ़ाईदार रास्ता जाता है। पहाड़ी नाले, सुंदर गाँव, वहाँ के सीधे-सादे व मिलनसार लोगों के बीच 3-4 किमी के बाद झिलमिल गुफा आती है। इसे शिवपुत्र कार्तिकेय की तपःस्थली माना जाता है। मान्यता यह भी है कि यहाँ गुरु गोरखनाथ ने शाबर मंत्रों को साधा था। गुफा उपर से खुली है, लेकिन आश्चर्य जनक तथ्य इससे जुड़ा यह है कि कितनी भी बारिश हो, गुफा में रमायी गई धुनी में पानी नहीं गिरता। यहाँ कई गुफाएं हैं। जहाँ पर स्थानीय साधु-संतों की अनुमति से ध्यान-साधना के कुछ यादगार पल बिताए जा सकते हैं।
मंदिर के ही आगे गणेशजी का मंदिर है। जिसे लगता है पिछले की कुछ वर्षों में रुपाकार दिया गया है। यह इस घाटी के अंतिम छोर पर है, जहाँ से आगे के घने वनों व सुदूर घाटी के दर्शन किए जा सकते हैं।
झिलमिल गुफा से नीलकंठ की ओर रास्ते में 2-3 किमी की दूरी पर भुवनेश्वनरी माता का मंदिर पड़ता है। यह पहाड़ी पर स्थित है। मान्यता है कि जब भगवान शिव समाधिस्थ थे तो माता पार्वती यहीं पर उनकी समाधि खुलने का इंतजार करती रही। मंदिर से थोड़ा नीचे खेत में, पीपल के पेड़ के नीचे शीतल व निर्मल जल की एक बावड़ी भी है। मान्यता है कि माँ पार्वती इसी जल का उपयोग करती थीं।
मार्ग में पौढ़ी-गढ़वाल की सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं व घाटियों के साथ इनमें बसे गाँव, क्षेत्रीय फसलें, घर-परिवार, रहन-सहन व संस्कृति का दर्शन, रोमाँच के साथ एक ज्ञानवर्धक अनुभव बनता है।
भुवनेश्वरी मंदिर से ढलान के साथ 2 किमी की दूरी पर नीचे घाटी में नीलकंठ महादेव का मंदिर स्थित है। मंदिर के नीचे प्राकृतिक झरना बह रहा है, जिसमें स्नान यात्रियों की थकान को छूमंतर कर देता है। हालाँकि तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या के साथ इसका जल प्रदूषित हो चला है, जिस पर ध्यान देने की जरुरत है। 


इस तरह से पूरा शिव परिवार, नीलकंठ महादेव के इर्द-गिर्द 4-5 किमी के दायरे में बसा है। तीर्थयात्री अपनी रुचि, क्षमता व समय के अनुरुप किसी एक मार्ग का चयन कर सकता है।

आगमन हेतु निकटम स्टेशन -

यहाँ आने के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश है, जहाँ से यह 32 किमी की दूरी पर है। हवाई मार्ग से जोली ग्रांट, देहरादून निकटम एयरपोर्ट है, जो यहाँ से 49 किमी है। पैदल यात्रियों के लिए यह रामझूले को पार कर 22 किमी की दूरी लिए है। हरिद्वार से महज एक दिन में सुबह जाकर शाम तक वापिस आया जा सकता है। ट्रेकरों के लिए क्षेत्र के व्यापक अवलोकन  के लिए दो दिन पर्याप्त होते हैं।

ठहरने की व्यवस्था – नीलकंठ में ठहरने व भोजनादि की उचित व्यवस्था है। मंदिर परिसर में मंदिर की ओर से धर्मशाला है। पास ही कालीकम्बली व अन्य धर्मशालाएं हैं।

मौसम – बारह महीने इस स्थल की यात्रा का आनंद लिया जा सकता है। हालाँकि मार्च से अक्टूबर सबसे बेहतरीन माने जाते हैं। वर्ष में दो बार यहाँ विशेष भीड़ रहती है। फरवरी-मार्च में महाशिवरात्रि तथा साबन में जुलाई-अगस्त के दौरान शिवरात्रि के अवसर पर लाखों कांवड़धारी शिवभक्त यहाँ शिव आराधना के लिए आते हैं।

इस तरह नीलकंठ महादेव श्रद्धालुओं, प्रकृति प्रेमी, खोजी घुमक्कड़ों को वर्ष भर आमंत्रण देता रहता है। यहाँ की शाँत प्रकृति की गोद में लाखों यात्री जहाँ अपार सुकून पाते हैं, वहीं भावपूर्ण की गई इस सिद्धक्षेत्र की यात्रा, जीवन के पाप-ताप व संताप को हरने वाली है। हो भी क्यों न, आखिर हजारों वर्ष यहाँ समाधिस्थ रहकर नीलकंठ महादेव ने कालकूट का शमन जो किया था।
 
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