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रविवार, 22 मार्च 2020

मेरा गाँव मेरा देश – मौसम वसन्त का, भाग-2



सर्दी के बाद वसंत की वहार
  खेतों के कौने में नरगिस के पुष्पगुच्छ चांदी की थाल में सजी सोने की कटोरियों सा रुप लिए सबको मंत्रमुग्ध करते। इनके दर्शन जहाँ मन को एक नई ताजगी देते, वहीं उनकी मादक खुशबू मस्तिष्क में एक अद्भुत अनुभव का संचार करती। 
 नरगिस के साथ खेतों के बीचों बीच मदोहुला(ट्यूलिप) के फूल एक अलग ही रंगत बिखेर रहे होते। इनके लाल, पीले, गुलावी, सफेद रंगों के मिश्रण से सजी फूलों की वारात खेत में खुशनूमा रौनक लाती।


फलदार पेड़ों में सबसे पहले आलूबुखारा व प्लम आदि के पेड़ सफेद फूलों से लदना शुरु हो जाते। प्लम के सफेट फूल आकार में छोटे किंतु गुच्छों में एक अलग ही सात्विक आभा लिए होते। प्लम के बगीचे दूर से ऐसे लगते जैसे घाटी ने सफेद चादर ओढ़ ली हो। इसके साथ चैरी के फूल नए रंग घोलते। 

     घर के आस-पास खुमानी के पेड अपनी गुलाबी-स्वर्णिम आभा के साथ आँगन, खेत, गाँव एवं घाटी को नयनाभिराम सौंदर्य का अवदान देते। दूर से ही देखने पर, घाटी के आर-पार इनके दर्शन सुखद अनुभूति देते।
इनके साथ बादाम के पेड़ तो और भी मुखर रुप में अपनी बासन्ती आभा को प्रकट करते, जिन पर मधुमक्खियाँ मंडरा रही होती इनका मधुर गुंजार इनकी मस्ती भरी खुशी को प्रकट करता, जिसमें दर्शक एवं श्रोता भी शुमार होकर एक नए लोक में विचरण की अनुभूति पाता।


घरों की छत्त की दिवारों में लगे पारम्परिक मड़ाम या ढंढोर (मधुमक्खी के लिए बने लकड़ी के चौकोर घर) के छिद्रों में देशी मधुमक्खियों की सेना अंदर-बाहर निकलती, गुंजार के साथ वसन्त की घोषणा करती। मालूम हो कि मधुमक्खियाँ फूलों में प्राकृतिक रुप में पोलिनेटर का काम करती हैं, जिसके कारण बगीचों में फलों का उत्पादन निर्धारित होता है। 

यदि पोलीनेशन सही न हो तो, फलों की पैदायश एक दम गिर जाती है। इसका महत्व जानते हुए आजकल तो बगीचों में कृत्रिम मधुगृहों को तक सजाया जा रहा है तथा विदेशों से आयातित मधुमक्खियों की तक इस कार्य में सेवा ली जा रही है।

     हमारी स्कूल की परीक्षाएं ऐसे ही वातावरण में घर की स्लेट(पोट) से ढ़की हल्की ढ़लानदार छत्त पर बैठकर मुधमक्खी के बने मड़ाम (घर) के पास बैठ कर बीतती, जहाँ मधुमक्खियाँ छत के चारों ओर के खुमानी, बादाम, चैरी, प्लम, सेब आदि के फूलों से पराग लाकर यहाँ इकट्ठा करतीं। इनके पैरों में लगे परागण साफ दिखते, जिन्हें ये अपने छत्त में इकट्ठा कर शहद तैयार करती। ऐसे प्राकृतिक परिवेश में हवा में तैरती फूलों की खुशबू के बीच मन सहज रुप में एकाग्र होता।

     इसी क्रम में नाशपाती के पेड़ों पर सफेद रंग के फूल आते और सबसे अन्त में आते सेब के फूल, जिनकी रंगत, सौंदर्य शायद अब तक वर्णित सभी फूलों की विशेषता को समेटे  हुए रहते। लाल, गुलाबी तथा कुछ सफेद रंगत लिए इनके फूलों से सजे बगीचों की एक अलग ही आभा रहती, क्योंकि गाँव-घाटी में सबसे अधिक बाग सेव के ही थे, सो इनकी रंगत सबसे लम्बी एवं व्यापक रहती।

इनके साथ कुछ पेडों के फूल अपनी अलग ही पहचान रखते, जैसे गलगल। इसके पेड़ के छोटे किंतु सुंदर फूल विशिष्ट खुशबू लिए रहते। इनके साथ अखरोट के बौर कुछ आम जैसे होते, लेकिन इसके गुच्छे हरा-भूरा रंग लिए नीचे लटके हुए होते।
कोहू, बाँज, देवदार, रई तौस जैसे सदावहार पौधों में इस सीजन में फूलों की जगह पत्तियों की नई कौंपलें निकलती, जिनकी चमकदार एवं कोमल पत्तियों की एक अलग ही आभा होती। इसी तरह जंगली अंजीर(फागड़ा) एवं जापानी के फूल अपनी सौम्य उपस्थिति दर्ज करते। जापानी पेड़ के नीचे खेत के किनारे नीले रंग के खुशबूदार फूल शीतलता का आलौकिक अहसास देते।

इनके साथ पहाड़ की ऊँचाईयों पर फूलने वाले बुराँस के फूलों के बिना वसन्त की बात अधूरी रहेगी। पहाड़ की ऊँचाईयों में बुराँश के सुर्ख लाल फूल अपनी अलग ही आलौकिक रंगत लिए होते, जिन्हें पहाहों की शान कहा जा सकता है। हालाँकि हमरा घर घाटी की तलहटी में होने के कारण हमारी इन तक सीधी पहुँच नहीं थी, लेकिन जब कोई घर का बड़ा-बुजुर्ग जंगल से बुराँश के फूल तोड़कर लाता, तो बच्चों के लिए यह एक कौतुक का विषय रहता। क्योंकि इसके बड़े-बड़े लाल फूलों का गुच्छा और चमकदार मोटे हरे पत्तों के गुच्छे घाटी के बाकि फूलों से एकदम भिन्न रहते। 
साथ ही वसन्त के आगमन के साथ पहाड़ों की ऊँचाईयों में जमीं बर्फ पिघलना शुरु होती, जिससे गाँव के नाले रिचार्ज हो जाते व झरने अपने पूरे श्वाव पर रहते। नाले के किनारे बनी कृत्रिम झीलों में स्नान का अपना ही आनन्द रहता और गाँव का नाला दनदनाते हुए नदी तक बहता। 


शुक्रवार, 20 मार्च 2020

मेरा गाँव मेरा देश – मौसम वसन्त का, भाग-1


सर्दी के बाद वसंत की वहार

मैदानों में वसन्त का मौसम समाप्त हो चला, आम के बौर अपने चरम पर हैं, लेकिन चारों और पेडों में फूलों का अभाव थोड़ा खटकता है। गंगा तट पर खाली सेमल के विशाल वृक्षों में लाल फूलों को देखकर तसल्ली कर लेते हैं। वसन्त का वह फील नहीं आता, जिनसे बचपन की यादें डूबी हुई हैं, जब घाटी-गाँव में ठण्डी हवा के बीच तमाम पेड़ों की कौंपलें एक-एक कर फूट रही होती और रंग-बिरंगी सतरंगी छटा घाटी के माहौल में एक अद्भुत सौंदर्य एवं मोहकता की सृष्टि कर रही होती। आज इन्हीं यादों के सागर में डुबकी लगाकर बचपन से दूर गंगा तट से उन यादों को ताजा कर रहे हैं, जो वालपन के अनुभव का हिस्सा रही हैं।

मालूम हो कि ठण्ड में प्रकृति सुप्तावस्था में रहती है। हाड़कंपाती ठण्ड के बाद जब ऋतु करवट लेती है, तो वसन्त का मौसम दस्तक देता है। इसी के साथ जैसे ठंड़ में अकड़ी-जकड़ी प्रकृति अंगड़ाई लेती है। प्रकृति के हर घटक में एक नई चैतन्यता का संचार होता है। हमारे पहाड़ी गाँव-घाटी में वृक्षों में कौंपलें फूटना शुरु हो जाती, जिनसे एक-एक कर नाना प्रकार के पेड़ों से रंग-बिरंगे फूल खिलने शुरु हो जाते।
इसी के साथ हर गाँव के अपने देवता के लिए प्रख्यात इस देवभूमि में देवउत्सवों की श्रृंखला शुरु हो जाती, जिसमें बनोगी फागली, फाडमेह एवं गाहर फागली गाँव के प्रचलित देव उत्सव कुछ अन्तराल में मनाए जाते।

इनके साथ मेले-जात्रों की श्रृंखला वसन्त ऋतु के ही दौर में उल्लासपूर्वक मनाए जाते। गाँव का जबाड़ी मेला या स्यो-जाच, गाहर का बिरसु, काईस बिरसु एवं शाड़ी जाच आदि इसी दौर के सामूहिक लोक उत्सव रहते। इसी बीच में रंगों का उत्सव होली पड़ता।



यह समय बागवानी के हिसाब से भी विशिष्ट रहता। इसी बीच सेब व अन्य फलों के पौंधों के चारों ओर तौलिए बनाए जाते, उनमें खाद-पानी की व्यवस्था की जाती। इसके साथ यह ग्राफ्टिंग का सीजन रहता, जिसमें नयी कलमें लगाई जाती, क्योंकि इस वक्त पेड़ों की कोशिकाओं में सैप या जीवन रस अपने तीव्रतम गति में दौड़ रहा होता है।
मार्च-अप्रैल का माह गाँव की भेड़-बकरियों की देखभाल करने वाले पूर्णकालिक फुआलों के लिए विशेष रहता। आज इनकी संख्या बहुत घट चुकी है तथा हिमाचल के चम्बा क्षेत्र में इनका समुदाय गद्दी नाम से लोकप्रिय है।

वे पूरी तैयारी के साथ भेड़ बकरियाँ के झुण्डों के साथ पड़ोसी जिला लाहौल-स्पीति की ओर कूच करते, जहाँ उनके चरने के लिए निर्धारित हरी घास से भरे बुग्याल इंतजार कर रहे होते तथा यहाँ कई दिनों की यात्रा के बाद नदी, पहाड़, दर्रों को पार करते हुए ये वहाँ पहुँचते और फिर अगले कुछ माह वहीं वास करते। प्रवास के इस काल के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री, राशन व अन्य सामान ये घोड़ों पर लादकर चलते। भेड़-बकरियों की रक्षा के लिए गद्दी, भोटिया या पहाड़ी कुत्तों का झुण्ड साथ में रहता।

मार्च माह की एक विशेषता बादलों की गड़गड़ाहट रहती, जिनके बीच गुच्छियाँ का सीजन भी शुरु हो जाता। यह मान्यता है कि बादलों के विस्फोट के बीच इनके बीज फूटते हैं व गुच्छी (मोरेल मशरुम) पनपना शुरु हो जाती हैं। खेत में निर्धारित स्थानों पर हम सुबह-सुबह इनको खोजने निकल पड़ते। कई बार इनके दर्शन गुच्छों में होते, तो कभी इक्का-दुक्का। 

इनके मिलने पर होने वाले विस्मय एवं खुशी के भाव देखते ही बनते। फिर घर में लाकर एक धागे में पिरोकर इनकी माला को सुखाने के लिए दिवारों पर रखते। बाजार में इनका अच्छा खासा दाम रहता। लेकिन बहुधा अधिक मात्रा में मिलने पर ताजा गुच्छी की सब्जी बनाकर खाते।

खेतों में गैंहूं, जौ की फसल पनप रही होती। साथ ही मटर, चना आदि दालों की फसलें लहलहाने लगती। सरसों के खेत तो अपनी वासन्ती आभा के साथ जैसे ऋतु दूत बनकर वसन्त के आगमन की दिगन्तव्यापी उद्घोषणा कर रहे होते। 

इसके साथ गैंहू के खेत के कौने में सजे जंगली फूल तथा पॉपी के काले धब्बे लिए सुर्ख लाल फूल हरे भरे खेतों के सौंदर्य में चार चाँद लगाते। ऐसे खेतों की गोद में बीते बालपन की अनगिन यादें सहज ही मन को प्रमुदित करती हैं, जैसे चित्त भाव समाधी की अवस्था में विचरण कर रहा हो।

यही दौर यहाँ सब्जी उत्पादन का भी होता। सब्जी की पनीरी बाजार से खरीद कर खेतों में रोपी जाती, जो अगले दो-तीन माह में कैश क्रोप के रुप में मेहनतकश किसानों का आर्थिक सम्बल बनती।(जारी)

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