यात्रा वृतांत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
यात्रा वृतांत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

यात्रा वृतांत - कोरोना काल में हमारी पहली रेल यात्रा

हरिद्वार से सतना वाया लखनउ-चित्रकूट


मार्च 2021 का तीसरा सप्ताह, कोरोना काल के बीच यह हमारी पहली रेल यात्रा थी। देसंविवि से हरिद्वार रेल्वे स्टेशन के लिए ऑटो में चढ़ते हैं, ऑटो के रेट 20 रुपए से बढ़कर 30 रुपए मिले। लगा कोरोना की आर्थिक मार सब पर पड़ रही है। कोरोनाकाल के साथ कुछ असर कुंभ का भी रहा होगा। गंगाजी की पहली धारा को पार करते ही टापुओं में तम्बुओं की सजी कतारों व विभिन्न नगरों को सजा देखकर कुम्भ की भव्य तैयारियों का अहसास हो रहा था, हालाँकि इस बार इसका विस्तार सिमटा हुआ दिखा। नहीं तो सप्तसरोवर से लेकर आगे ऋषिकेश पर्यन्त गंगा किनारे टापुओं में कुंभ नगर बसे होते, जिसके हम वर्ष 1998 और 2010 के हरिद्वार कुंभ के दौरान साक्षी रहे हैं। हाल ही में बने फ्लाइ ऑवर, इनकी दिवालों पर उकेरी गई रंग-बिरंगी सुंदर कलाकृतियों के बीच गंगनहर को पार करते हुए ऑटो-रिक्शा रेल्वे स्टेशन तक पहुँचाता है।

रेल्वे स्टेशन में प्रवेश साइड से हो रहा था। मुख्य द्वार से प्रवेश बन्द था। इसके गेट पर पुलिस की चाक चौबंद व्यवस्था दिखी। कोरोनाकाल में प्रशासन की इस सजगता एवं सावधानी को समझ सकते हैं। अधिकाँश लोग मास्क पहने दिखे, लेकिन कुछ इससे बेपरवाह भी मिले। हमारी ट्रेन स्टेशन पर खड़ी थी। हम निर्धारित समय से आधा घण्टा पहले पहुँच चुके थे। खाली समय में अंकल चिप्स और चाय के साथ रिफ्रेश होते हैं।

कोरोना काल के बीच हमारी पहली रेल यात्रा की उत्सुकता स्वाभाविक थी। मैं अपनी मिसेज के साथ ससुराल जा रहा था, जिसका संयोग अठारह वर्षों के बाद बन रहा था। यह हमारी चौथी यात्रा थी। पिछली यात्राओं में सतना के साथ आसपास चित्रकूट, मैहर, रामवन जैसे दर्शनीय तीर्थस्थल देखे थे। इस बार कोरोना काल के बीच ऐसी यात्राओं की संभावना कम थी, लेकिन कुछ यादगार लम्हे बटोरने का मन तो घुम्मकड़ दिल बना चुका था, जिसका वर्णन आप अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

ठीक चार बजकर बीस मिनट पर हमारी ट्रेन - हरिद्वार-जबलपुर फेस्टिवल स्पेशल चल पड़ती है, जो अगले दिन सुबह साढे आठ बजे सतना स्टेशन पहुँचाने वाली थी। हरिद्वार से सतना सीधे यही एक ट्रेन है, बाकि दिल्ली से होकर इलाहावाद तक जाती हैं और फिर दूसरी ट्रेन पकड़नी पड़ती है। फेस्टिवल ट्रेन हरिद्वार से सतना-जबलपुर की सवारियों के लिए वरदान से कम नहीं, लेकिन इसकी एक कमी भी है। यह सप्ताह में एक ही बार चलती है। गुरुवार को हरिद्वार से छूटती है और गुरुवार को ही वापिस पहुँचती है अर्थात बुधवार को जबलपुर से वापिस आती है।

इस तरह दोपहर 4 बजकर 20 मिनट के बाद शाम 7 बजे तक, अंधेरा होने से पहले के दो-अढ़ाई घण्टे पहले दिन के उजाले में और फिर ढलती शाम के साथ बीते। रास्ते में लक्सर, नजीबाबाद, मुरादाबाद आदि स्टेशन पड़े। छोटे कस्बों, गाँव और खेतों के बीच सफर आगे बढ़ता रहा। खेतों में गन्ने की खेती वहुतायत में दिखी, साथ में गैंहूँ की फसल भी पक रही थी। गन्ना कहीं कट रहे थे, कुछ ट्रैक्टरों में लदे थे तथा कहीं-कही गन्ने की बुआई तक होते दिखी। 

कुछ खेतों में पराली जल रही थी, तो कुछ खेतों में राख का काला रंग इसकी चुगली कर रहा था। खेतों की मेड़ पर सफेदा के पेड़ दिखे। पाप्लर के पेड़ों का चलन कम मिला। मवेशियों में भैंस और बकरियों के दर्शन अधिक हुए, गाय कम दिखीं। हालाँकि बैलगाड़ियों के दर्शन होते रहे।

जल स्रोत के नाम पर ज्वालापुर के पास गंगनहर के दर्शन होते हैं। आगे रास्ते में एक नदी भी पड़ी, जो मौसमी अधिक लगी। लम्बे पुल से होते हुए हम इसको पार किए। 

रास्ते में तालाबों-पोखरों का रुका हुआ जल कई जगह मिला। कहीं कहीं कारखानों का गंदला जल खेतों के किनारे बहता दिखा, जिसका विषाक्त स्वरुप देखकर चिंता हो रही थी कि यह मिट्टी, फसलों व जीव-जंतुओं पर क्या असर डाल रहा होगा। रास्ते में खेतों की सिंचाई भी होती दिखी। कहीं-कहीं पानी उगलते मोटर-पम्पों के आसपास बच्चों व युवाओं को खेलते व जलक्रीड़ा करते देखा।

आम के बगीचे कहीं-कहीं खेतों के बीच खड़े दिखे। फलों का चलन इस रूट पर कम दिखा। कुछ जगह हरे-भरे बाग मिले। कुछ में छोटी पौध तैयार हो रही थी। सब्जियों के नाम पर कुछ स्थानों पर पत्ता गोभी के खेत दिखे। यहाँ कैश क्रोप का भी अधिक चलन नहीं दिखा। रास्ते में नदियों के किनारे सब्जी उत्पादन वहुतायत में होते दिखा।

रेल्वे क्रॉसिंग पर फाटक के दोनों ओर इंतजार करते लोग बीच-बीच में मिलते गए। लोगों की भीड़ को देखकर लगा कि कोरोना काल में भी जीवन गतिशील है। गुरुवार की हाट भी शाम के समय रास्ते में सजी दिखीं। खेतों में काम करते किसान, निराई-गुड़ाई करती महिलाएं, फसल काटते व ढोते लोग, खेतों में खेलते बच्चे-युवा सब मिलाकर एक प्रवाहमय लोक जीवन के दर्शन करा रहे थे।

ढलती शाम के साथ सूर्य भगवान अस्तांचल की ओर बढ़ रहे थे। सूर्यास्त की लालिमा ढलती शाम का सुंदर नजारा पेश कर रही थी। पक्षी जहाँ अपने आशियानों की ओर आकाश में उड़ान भर रहे थे। खेतों में अलसाए अंदाज में काम कर रही महिलाएं व किसान, खेतों की पतली पगडंडियों के संग घर बापिस लौट रहे थे और ये सब मिलकर ग्रामीण जीवन के रोमाँचक भाव जगा रहे थे।

इस बीच ट्रेन में चाय-कॉफी, बिस्कुट-नमकीन की फेरी लगती रही। चाय के साथ बीच-बीच में रिफ्रेश होते रहे। डिब्बे में सवारियाँ कम ही थी। कोरोना काल का असर साफ दिख रहा था। पूरे डिब्बे में मुश्किल से 10-15 सवारियाँ रही होंगी। मास्क व सोशल डिस्टेंसिंग के प्रति जागरुकता का अभाव दिखा। कहने पर कुछ लोग मान जाते। वहीं कुछ इस पर बुरा मान जाते व बड़बड़ाते हुए आगे बढ़ते।

ट्रेन एप्प व्हेयर इज माई ट्रेन से आ रहे व पीछे छूट रहे स्टेशनों का पता चल रहा था। ज्वालापुर से ही ट्रेन समय पर थी व कहीं-कहीं कुछ एडवांस में भी पहुँच रही थी। बीच में थोडा लेट भी हो जाती। अगले दिन तक इसे कवर करते हुए आधा घण्टा ही लेट रही। दौड़ती ट्रेन की स्पीड में फोटो कैप्चर करना मुश्किल हो रहा था, जो ब्लर्र(धूंधले) आ रहे थे। इसलिए जहाँ ट्रेन थोड़ा धीमे होती, वहाँ फोटो खींचते। ऐसे लगता जैसे बीच-बीच में ट्रेन हमें मौका दे रही हो। जब रेल रफ्तार पकड़ती तो बाहर दृश्यों को निहारते हुए इनके विविधपूर्ण रंग व रुप को ह्दयंगम करते रहते।

पूरे रेल रुट में दोनों ओर के खेतों को देखकर लगा कि यहाँ की भूमि पर्याप्त उर्बर है। लहलहाती फसल एवं यहाँ के हरे-भरे आँचल को देख खुशहाल ग्रामीण आँचल का अहसास होता रहा। हालाँकि इनसे जुड़े कई सबाल भी जेहन में उठते रहे, लेकिन ट्रेन में ऐसा कोई किसान, युवा या प्रबुद्ध लोकल सवारी नहीं दिखी, जिससे इन विषयों पर कुछ समाधानपरक चर्चा होती। लगा अभी ऐसी चर्चा का समय नहीं आया होगा, अगली किसी यात्रा में शायद ऐसा संयोग बने।

रात को आठ बजे के करीव हम मुरादाबाद पहुँच चुके थे। अब बाहर के नजारे नदारद थे। अतः खाली समय में साथ ले गई पुस्तकों का स्वाध्याय करते रहे। इसी बीच घर से पैक किया डिनर करते हैं। रात 9,30 बजे तक बरेली शहर पार होता है। कुछ देर में नींद के झौंके आने लगते हैं। सो अपने साइड अप्पर बर्थ में बिस्तर जमाकर लेट जाते हैं। मालूम हो कि रेलवे की ओर से कोविड काल में चादर, कम्बल व तकिए आदि नहीं मिलते। अपने साथ ले गए कपडों से काम चलाना पड़ता है। रात को 1,30 बजे ट्रेन लखनऊ पहुँच चुकी थी। थोड़ा चेंज के लिए कौतुहलवश बाहर निकलते हैं, स्टेशन पर सवारियों को ढोता इलेक्ट्रिक वाहन देखकर आश्चर्य हुआ, जो इन्हें स्टेशन पर ईधर से ऊधर ले जा रहा था। ऐसे वाहन के दर्शन हम फ्रेंक्फर्ट एयरपोर्ट पर कर चुके थे। यहाँ ऐसे ही कुछ वाहन का दर्शन कर अच्छा लगा, कि भारतीय रेलवे धीरे-धीरे अपग्रेड हो रही है।

सुबह 6 बजे भोर होते-होते हम उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर की ओर पहुँच चुके थे। बाहर के नजारे पिछले दिन से एक दम अलग थे। बांदा पहुँचते पहुँचते सुबह हो चुकी थी। आगे रास्ते में गैंहूं की फसल सुखी व भूरी दिखी, जो लगभग पक चुकी थी। कई जगह तो यह कट चुकी थी व कई जगह कटकर कतारों में इसकी ढेरी लगी थी। लगा कि फसल के पकने का सिलसिला दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमिक रुप में होता है। इस सीजन में आम दक्षिण में पक रहे होते हैं, जबकि उत्तरी भारत में बौर निकले होते हैं।

खेतों में काट कर रखी गैंहूँ की पकी फसल

अब साइड में पहाड़ के दर्शन भी शुरु हो गए थे। इनके दर्शन करते हुए 8 बजे हम चित्रकूट पहुँचते हैं। रास्ते में पलाश के गुलावी-लाल फूलों से लदे पेड़ तथा इनके जंगलों के नजारों को रोमाँचित भाव से निहारते रहे। यह हमारे लिए एक नया अनुभव था। यथासंभव इनको केप्चर करते रहे, लेकिन ट्रेन की तेज रफ्तार के कारण अधिकाँश फोटो धुँधले निकले। ट्रेन के धीमें होने पर कुछ काम के फोटो हाथ लगे। जो भी हो पहाड़ों की गोद में इनके जंगलों के बीच सफर एक यादगार अनुभव रहा, जिसका भरपूर आनन्द लेते रहे।

ट्रेन लगभग आधा घंटा लेट थी, सो 9 बजे के आसपास सतना में प्रवेश होता है। सीमेंट फेक्ट्रियों के दर्शन शुरु होते हैं। रास्ते में फ्लाइऑवर पार करते ही रेल्वे स्टेशन आता है। स्टेशन पिछले 18 सालों में पूरी तरह से अपग्रेड हो चुका है। साफ सूथरा और एकदम नया। कोविड को लेकर किसी तरह का कोई भय बाहर नहीं दिखा। कोई रिक्शा व ऑटोवाला मास्क नहीं पहने था। पूछने पर जबाव मिला कि यह मप्र का सबसे कम प्रभावित शहर है और सबसे सुरक्षित भी। खैर इस दावे को जाँचने का हम नवांगुतक के पास कोई पैमाना नहीं था। थोडी देर में मास्क पहने हमारे बड़े साले साहब शैलेंद्र भाई साहब आते हैं। समझ आया कि कोरोना जिस तेजी से फैल रहा है, सावधानी आवश्यक है। भाई साहब अपने वाहन में हमें गन्तव्य स्थल की ओर ले जाते हैं। शहर के बीच गुजरते हुए पुरानी यादें ताजा होती हैं, जिसको आप सतना शहर एवं आसपास के दर्शनीय स्थल की अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

रविवार, 28 फ़रवरी 2021

हरिद्वार से चण्डीगढ़ वाया हथिनीकुँड

गाँव-खेत-फ्लाइऑवरों व नहरों के संग सफर का रोमाँच


हरिद्वार से चण्डीगढ़ लगभग दो सवा दो सौ किमी पड़ता है, जिसके कई रूट हैं। सबसे लम्बा रुट देहरादून-पोंटा साहिब एवं नाहन से होकर गुजरता है। दूसरा बड़ी बसों का प्रचलित रुट वाया रुढ़की-सहारनपुर-यमुनानगर-अम्बाला से होकर जाता है। छोटे चौपहिया वाहनों के लिए शोर्टकट रुट वाया हथिनीकुंड वैराज से होकर है, जिस पर दिन के उजाले में सफर का संयोग पिछले दिनों बना। फरवरी माह के तीसरे सप्ताह में सम्पन्न यात्रा कई मायनों में यादगार रही, जिसे यदि आप चाहें तो इस रुट का चुनाव करते हुए अपने स्तर पर अनुभव कर सकते हैं।

इस रुट की खासियत है, गाँव-खेतों, छोटे कस्वों एवं गंगा-यमुना नदी की नहरों के किनारे सफर, जिसमें कितनी तरह की फसलों, फल-फूलों व वन-बगानों से गुलजार रंग-बिरंगे अनुभव कदम-कदम पर जुड़ते जाते हैं। साथ में मिलते हैं लोकजीवन के अपने विविधतापूर्ण मौलिक रंग-ढंग, जो अपनी खास कहानी कहते प्रतीत होते हैं।



हरिद्वार से बाहर निकलते ही गंगनहर के किनारे सफर आगे बढ़ता है। महाकुंभ 2021 के लिए बने नए फलाई-ऑवर के संग सफर एकदम नया अनुभव रहा, क्योंकि सड़क पहले से अधिक चौड़ी, सपाट, सुंदर और सुव्यवस्थित हो गई हैं, साथ ही एक तरफे ट्रैफिक के चलते काफी सुरक्षित एवं आरामदायक भी। फिर फ्लाई-ऑवर के टॉप से नीचे शहर, गंगा नदी इसके मंदिर-आश्रमों एवं चारों ओर दूर पहाड़ियों के दृश्यों के नजारे स्वयं में दर्शनीय लगे।

गुरुकुल कांगड़ी विवि से होकर ज्वालापुर को पार करते ही सफर शहर के बाहर गंगाजी की छोटी सी धारा (नहर-कुल्ह) के संग आगे बढ़ता है और फिर आता है उत्तराखण्ड संस्कृत विवि और थोड़ी देर में बहादरावाद, जहाँ वाईं ओर सड़क रुढ़की के लिए मुड़ जाती है, लेकिन हमारा रुट दायीं ओर से होकर गंग नहर के संग आगे बढ़ता है, कुछ देर में नहर को पार कर हम भगवानपुर की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में खेत-खलिहानों के दर्शन शुरु हो जाते हैं। बीच-बीच में छोटे कस्बे आते रहे, नाम तो सही ढंग सें याद नहीं, हाँ बीच में बोर्ड देख पता चला कि पिरान कलियर से दो किमी दूरी पर आगे बढ़ रहे थे। मालूम हो कि पिरान कलियर शरीफ, सूफी संत अलाउद्दीन अली अहमद साबिर को समर्पित दरगाह है, जो हिन्दु और मुस्लिम दोनों के लिए महान आध्यात्मिक ऊर्जा का स्थान माना जाता है।

आगे मार्ग में मुस्लिम बहुल आवादी के दर्शन मिले। खेतों में गैंहूं की फसल तैयार हो रही थी, बीच में जौ की खेती भी दिखी। इसके साथ कहीं-कहीं सरसों के खेत कहीं खालिस पीला रंग लिए हुए थे, तो कहीं गैंहूं के बीच हरा पीला रंग लिए अपनी खास उपस्थिति दर्शा रहे थे। 


गन्ने की खेती भी रास्ते भर होती दिखी, कहीं ट्रैक्टरों में गन्ने को लादकर फेक्ट्री में ले जाया जा रहा था तो कहीं सड़क के किनारे गन्ने से ताजा गुढ़ बनते कई ठिकाने दिखे, जो अपनी धुँआ उगलती भट्टियों के साथ बिखरती मिट्ठी खुशबू के साथ अपना परिचय दे रहे थे।

बीच-बीच में आम के बगीचे मिले। इस सीजन में भी आम के फलों को देखकर आश्चर्य हो रहा था, जो सड़क के किनारे दुकानों पर सजे थे। इस बेमौसमी फल के साथ कुछ स्थानों पर अखरोटों से सज्जे ठेले भी दिखे, जिन्हें टोकरियों में सजाया गया था व इन पर काश्मीर के कागजी अखरोट होने के लेबल लगे थे।


सफेदे के पेड़ तो खेत की बाउँडरी पर बहुतायत में दिखे, लेकिन इनके साथ जो अधिक सुंदर लग रहे थे, वे थे पॉपलर के पेड़, जिन्हें खेतों के बीच कतारबद्ध उगाया गया था। आसमान को छूते इनके सीधे खडे पेड़ कौतुहल जगा रहे थे कि इनका क्या मकसद रहता होगा। पता चला कि इन्हें माचिस की तिल्लियों से लेकर प्लाईवुड व पैंसिल के लिए उपयोग किया जाता है, इससे कागज भी तैयार होता है और इनकी फसल किसानों के लिए आमदनी का बेहतरीन स्रोत्र रहती है। यह बहुत तेजी से बढ़ने वाला पौधा है, जो 50 से 165 फीट तक ऊँचाई लिए होता है, जो 5 से 7 साल में 85 फीट व इससे अधिक ऊँचाई पा लेता है। रास्ते में इनकी लकड़ी के लट्ठों से लद्दे ट्रैक्टर एवं ट्रकों को देखकर इसके व्यापार की झलक भी मिलती गई।

इस तरह कई खेत, कस्वे व गाँवों को पार करते हुए सफर आगे बढ़ता रहा। एक दूसरी नहर रास्ते में मिलती है, जिसका जल आसमानी नीला रंग लिए काफी निर्मल दिख रहा था। रास्ते में मिली गंग नहर जहाँ काफी गहरी थी, वहीं यह नई नहर उथली थी, लेकिन अपने दोनों ओर की दृश्यावलियों के साथ अधिक सुंदर एवं भव्य लग रही थी।


अगले लगभग आध-पौन घंटे तक इसके किनारे सुखद सफर आगे बढ़ता रहा, यथासंभव इसके सुंदर नजारों को कैप्चर करते रहे और उस पार बसे गाँव, घर, खेत, बगीचों को निहारते हुए सफर का आनन्द लेते रहे।

अब तक हम इसके उद्गम स्रोत्र की ओर पहुँच चुके थे, आवादी विरल हो चुकी थी, नदी के तट व नहरों के निकास मार्ग दिखे, जिनमें कुछ सूखे प़ड़े थे, तो कुछ में पानी बह रहा था। हम हथिनीकुंड बैराज की ओर बढ़ रहे थे। इसके उत्तर में जल सरोवर के रुप में एकत्र था, लेकिन जालीदार दिवार के कारण इसकी पूरी झलक नहीं मिल पा रही थी। वायीं ओर जल ना के बराबर था, ऐसा लग रहा था कि बाढ़ की स्थिति में ही इससे जल छोड़ा जाता होगा। अगले मुहाने पर जल नीचे एक नहर के रुप में बाहर छोडा गया था, जो आसमानी रंग लिए अपनी निर्मलता का सुखद अहसास दिला रहा था। बाँध के छोर पर एक ऊँट के दर्शन हमें थोड़ा चकित किए। अब हम इसके किनारे दायीं ओर से नीचे बढ़ रहे थे। लगभग आधा किमी तक हम नहर के किनारे दायीं ओर से बढ़ते गए, सुंदर नजारों का शीतल व सुखद अहसास लेते रहे। आश्चर्य़ हुआ कि दिल्ली में गंदे नाले का रुप लिए यमुनाजी यहाँ कितनी साफ व निर्मल थी।



मालूम हो कि हथिनी कुंड बैराज पोंटा साहिब की ओर से आ रही यमुना नदी पर बनी हुई है। इसका जल यमुना नदी के अतिरिक्त पूर्वी और पश्चिमी दो नहरों के माध्यम से निचले इलाकों में खेती के लिए सिंचाई के काम आता है। साथ ही बारिश में बाढ़ की स्थिति में यहाँ से जल को नियंत्रित करके आगे छोड़ा जाता है, हालाँकि पानी के बढ़ने पर इसके फाटकों के खुलने पर नीचे दिल्ली सहित मैदानी इलाकों में स्थिति विकराल हो जाती है, जिस कारण हथिनी बैराज का नाम एक वरदान के साथ एक खतरनाक संरचना के रुप में भी जोड़कर देखा जाता है। लेकिन आज तो हम इसके शांत-सौम्य स्वरुप के दर्शन कर रहे थे।

अब हम नीचे जंगल व खेतों के बीच आगे बढ़ रहे थे। दायीं ओर पीछे उत्तराखण्ड की छोटी शिवालिक पहाड़ियाँ दिख रही थीं और इसकी गोद में दूर तक फैले खेत-खलिहान एवं गाँव। रास्ते में ही एक ढावे में दोपहर के भोजन के लिए रुकते हैं। हम हरियाण में प्रवेश कर चुके थे और यहाँ भोजन में हरियाण्वी तड़का चख्न्ने को मिला। यहाँ मात्र तंदूरी रोटी और दाल-सब्जियाँ ही उपलब्ध थीं। चाबल का अभाव दिखा। बापसी के सफर में भी हथिनीकुँड के पास के वैष्णों ढावे में भोजन का यही अनुभव रहा। यहाँ सब्जी में मिर्च पर्याप्त मिली, जिसका दही के साथ संतुलन बिठाते रहे, हालाँकि लाल मिर्च पाउडर की वजाए यहाँ हरी मिर्च काटकर भोजन में उपयुक्त होती दिखी।


इसी रास्ते में सड़क के किनारे सेंट की दुकानें सजी मिली। फलों की दुकानें तो पूरे मार्ग में कदम-कदम पर आवादी बाले इलाकों में दिखती रही, जहाँ मुख्यता कीनूं, अमरुद, केला, अंगूर जैसे मौसमी फल बहुतायत में दिखे।

आगे का सफर जगाधरी से होकर गुजरा, जो यमुनानगर से पहले ही वाईपास रुट से मुड़ जाता है, जिसमें हम प्रचलित अम्बाला रुट से दूर ही रहे। यह सफर भी नए रुट पर था, जिस पर किसान आन्दोलन का असर साफ दिखा। मार्ग के टोल प्लाजा विरान पड़े थे, कहीं भी पैसा बसूली होती नहीं मिली। सड़क पर्याप्त चौड़ी और फ्लाई ऑवर से लैंस मिली। पंचकुला तक यह चौडी, स्पाट सड़कें हमारे सफर को सुकूनदायी बनाए रही।


 
इस रुट में भी खेत खलिहान, गाँव मिले, लेकिन पिछले रुट से कुछ चीजें नई दिखीं। यहाँ स्ट्रा बैरी की फसल अधिक मिली, जिनको सड़क के किनारे डब्बों में सजाकर बेचा जा रहा था। इनके खेत भी रास्ते में मिले, जिनको कतारबद्ध सुखी तरपाली की छाया में उगाया जाता है। इस राह में आम-अमरुद आदि के बगीचे कम दिखे, फूलगोभी, पत्तोगोभी, मटर जैसी सब्जियों के प्रयोग अधिक दिखे। लगा पास की शहरी आबादी की खपत के लिए इन्हें कैश क्रोप के रुप में तैयार किया जाता होगा। पोपलर के पेड़ इस रुट में भी खेतों में बीच-बीच में अपनी भव्य उपस्थिति दर्शा रहे थे।

साथ ही इस राह में एक नयी चीज दिखी, जो थी ईंट के भट्टे, जहाँ ईंटें तैयार की जा रही थी। शायद जहाँ जमीन अधिक उपजाई नहीं होती, एक खास किस्म की मिट्टी पाई जाती है, वहाँ ऐसे प्रयोग किए जाते होंगे। पंचकुला में प्रवेश करने से पूर्व हिमाचल प्रदेश की नाहन साईड़ की पहाडियाँ मिलती हैं, जिनमें कीकर के जंगल बहुतायत में दिखे और साथ ही बहुमंजिली ईमारतों के दर्शन भी शुरु हो गए थे, जिनमें शहर की फूलती आबादी को समेटने के प्रयास दिखे।

इसी के साथ थोडी देर में पंचकुला से चण्डीगढ़ शहर में प्रवेश होता है। इसके प्लानिंग के तहत बनाए गए सेक्टर, सुंदर गोल चौराहे, सड़कों के किनारे पर्याप्त स्पेस में सजे भव्य एवं सुंदर घर, सड़क के दोनों किनारों पर हरे-भरे सुंदर वृक्षों की कतारें, सिटी ब्यूटीफुल में प्रवेश का सुखद अहसास दिला रहे थे और सफर मंजिल की ओर बढ़ रहा था। इस तरह कई सुंदर चौराहों को पार कर हम अपने ठिकाने पर पहुँचते हैं। आज की शाम आस-पास चण्डीगढ़ में कुछ विशिष्ट स्थलों के नाम थी। धर्मशाला में फ्रेश होकर हम इनके दर्शन के लिए निकल पड़ते हैं, जिनका जिक्र अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

अगले दिन बापसी का सफर एक और शॉर्टकट रुट से होकर रहा, इसमें पंचकुला के थोड़ा आगे से बायीं ओर मुड़ जाते हैं, जिसकी राह में नरायणगढ़ और बिलासपुर जैसे कस्बे पड़े। हिमाचल प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के बाद आज हम हरियाणा के बिलासपुर से परिचित हुए। इस मार्ग में सिक्खों के तीर्थ स्थल बहुतायत में दिखे। रास्ते में काफी दूर तक गुरुगोविंद सिंह मार्ग एवं इस पर बंदा बहादुर सिंह चौक एवं कुछ गुरुद्वारे मिले। बापसी में फिर हथिनीकुंड बैराज पहुँचते हैं, जहाँ बापसी में इससे निस्सृत नहर के किनारे ढलती शाम के साथ एक यादगार सफर पूरा होता है। आगे गंग नहर और फिर हर-की-पौड़ी को पार करते हुए अपने गन्तव्य स्थल पहुँचते हैं। इस तरह दिन के उजाले में हरिद्वार से चण्डीगढ़ वाया हथिनीकुंड का सफर एक यादगार अनुभव के रुप में अंकित होता है।


सोमवार, 21 सितंबर 2020

यात्रा वृतांत - टिहरी गढ़वाल की वादियों में, पहला सफर

  ध्वल हिमालय के दूरदर्शन एवं प्रत्यक्ष संवाद

गढ़वाल हिमालय की ध्वल पर्वत श्रृंखलाएं

नई टिहरी के बारे में सुना बहुत था, मुख्यरुप से टिहरी डेम के संदर्भ में। दूसरा पास ही बन रहे कोटेश्वर बाँध के बारे में और वहाँ के आइएएस स्वामीजी, उनके आश्रम व समाज सेवा की गतिविधियों के बारे में भी सुना था अपने छात्र अवनीश से और एक बार शांतिकुंज में युवा स्वामीजी से मुलाकात भी हो चुकी थी नई कैंटीन के सामने खड़े-खड़े। सो इस बार की शैक्षणिक यात्रा के बारे में उत्साह, जिज्ञासा और रोमाँच के भाव तीव्र थे। मालूम हो कि विभाग के मीडिया लेखन पाठ्यक्रम में यात्रा वृतांत के अंतर्गत हर बैच को ऐसी यात्रा का अवसर मिलता है, जिसका प्रायः सबको इंतजार रहता है।

     वर्ष 2011 के सितम्बर माह का अंतिम सप्ताह, प्रातः सात बजे देवसंस्कृति विवि से उत्तराखँड परिवहन की बस में निकल पड़ना, उत्साह और उत्सुक्तता से भरी छात्र-छात्राओँ एवं शिक्षकों की टोली, बैठते ही गीतों की लड़ियों का जुड़ना, जल्द ही ऋषिकेश के पार गढ़वाल हिमालय के शिखरों का आरोहण, नरेंद्रनगर के आगे अब तक के ज्ञात मार्ग से आगे बस का प्रवेश – एक नए पहाड़ी क्षेत्र में विचरण की अनुभूति - सब यात्रा की शुरुआत के रोमाँचक अनुभव रहे। साथ ही बीच में नींद के झौंके भी आते रहे। 

 

गढ़वाल हिमालय की गोद में

इसके आगे चीड़ से भरे सघन बन प्रदेश के बीच बढ़ना, चम्बा को पार करते हुए चढ़ाई के अनुपम अनुभव रहे। उस पार विस्थापित टिहरी शहर का विहंगम दृश्य। शीघ्र ही चौराहे पर बस का रुकना, लो नई टिहरी बस स्टॉप आ गया।

     बस से बाहर आकर स्थानीय गायत्री शक्तिपीठ की दिशा का पता कर, उस ओर चल देते हैं। राह में पीले वस्त्र में परिब्राजकजी से मुलाकात होती है, उनके साथ चल देते हैं। शांतिकुंज और देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के नाम से पलेट पढ़कर सुकून मिलता है। शक्तिपीठ के परिसर में प्रवेश करते हैं, कई गाड़ियां खडी हैं बाहर आँगन में। यहाँ के व्यवस्थापक बदानीजी बड़े ही सम्मान के साथ स्वागत-सत्कार करते हैं और अंदर कुर्सी पर बिठाकर जल-पान कराते हैं। इसके बाद रिफ्रेश होकर ऊपर हॉल में ठहरने की व्यवस्था होती है। 

नई टिहरी गायत्री शक्तिपीठ, सितम्वर 2011

यहाँ परिसर के आँगन में उत्तरी कौने में स्थापित शिवलिंग के सान्निध्य में जीवंत ध्यान के कुछ यादगार पल बिताते हैं। छात्र-छात्राएं उत्साह में उछल-कूद कर रहे हैं, कुछ स्मृति उपवन के साथ फूलों के संग फोटो खींच रहे हैं। आंगन में लगे रंग-बिरंगे फूल और पास में देवदार के नन्हें तरु शक्तिपीठ के दिव्य वातावरण में एक अलग ही रंग घोल रहे थे। इसी बीच कुछ छत पर पहुँचकर सामने हिमालय एवं घाटी के नजारे का लुत्फ उठा रहे थे, तो कुछ सेवाभावी नीचे किचन में खाना बनाने में मदद कर रहे थे।

भोजन बनने के बाद सब भोजन-प्रसाद ग्रहण करते हैं। अब तक दो गाड़ियाँ आ गई हैं, कोटेश्वर बाँध की यात्रा के लिए, जहाँ उद्देश्य था पास में रह रहे युवा स्वामीजी से मिलने का। रास्ते में टिहरी डेम के फोटो के लिए एक स्थान पर बाहर निकलते हैं, डेम का विहंगम दृश्य सामने था। लेकिन इसके नीचे जलमग्न पूरा शहर, यहाँ का इतिहास, संस्कृति और लोकजीवन गहरे सवाल मन में जगा रहा था। 

टिहरी बाँध
नीचे सुरक्षाकर्मी की डांट इस विचार श्रृंखला को तोड़ देती है। यहाँ इस तरह फोटो खींचना सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं था। पता चलता है कि पहाडी के अंदर टरवाईन काम करते हैं, जो हमारे लिए आश्चर्य का विषय था। इस तरह डेम से छोड़ी जा रही भगीरथी की धारा के संग लगभग 22 किमी नीचे कोटेश्वर डेम पहुँचते हैं। निर्माणाधीन डेम के नीचे पुल पार कर कच्ची सड़क तक पहुँचते हैं। आगे जीप नहीं जाती। 1 किमी पैदल चलते हैं। दोपहर की धूप में सर तप रहा था। रास्ते में एक पहाड़ी झरने के किनारे पेड की छाया में खड़ा होकर कुछ राहत अनुभव करते हैं। पेड को पकड़कर कुछ स्ट्रेचिंग करते हैं। अब तक सभी आ गए थे, गायों के झुंड को पार करते हुए आश्रम पहुँचते हैं।

कोटेश्वर बाँध की ओर भगीरथी के संग

 पता चला कि स्वामीजी अभी रास्ते में हैं। ऋषिकेश से चले थे 2-3 घंटे पहले। उनके नेपाली सेवक से परिचय होता है। वे हम सबको बाबाजी की कुटिया में अंदर बिठाते हैं। सामने हनुमानजी की फोटो थी। एक तख्त का आसन था। यहाँ के तपःपूत वातावरण में साधना के दिव्य भावों का जागरण होता है। स्वामी जी से फोन पर बात होती है, अभी तो नरेंद्रनगर में पहुँचे हैं, गौ तस्करी के मामले को पुलिस स्टेशन में निपटा रहे हैं। बच्चे बाहर आंबले की छाया में तुलसी के झाड़ों के बीच उछलकूद कर रहे थे, कुछ अंदर शांत बैठे थे। भगीरथी के शीतल जल को गिलास में पीकर सब तृप्त होते हैं। थोडी दूरी पर स्वामीजी के पक्के कमरे के बाहर फल-फूल के पेड़ों को देखकर वापस आ जाते हैं। नेपाली सेबक से यह भी पता चला कि स्वामीजी बीच-बीच में आगे कहीं एकाँत गुफा में साधना-अनुष्ठान करते हैं। 

आज स्वामीजी से भेंट-मुलाकात संभव नही थी, सो उसी मार्ग से नई टिहरी गायत्री शक्तिपीठ की ओर चल देते हैं। 

नई टिहरी शहर का विहंगम दृश्य

रास्ते में बाँध के निर्माण स्थल के पास एक मनोरम स्थल पर चाय-नाश्ता करते हैं, ग्रुप फोटो होती है और नई टिहरी पहुँचते हैं। मार्ग में जेल के रास्ते, देवदार से अटे दिलकश एवं मनोरम मार्ग से वापिस आते हैं ठीक शक्तिपीठ के ऊपर। वहाँ से फोटोग्राफी का लुत्फ लेते हैं। 

गायत्री शक्तिपीठ की ओर से टिहरी बाँध झील का दृश्य
 
शाम का अँधेरा छा रहा था। धीरे धीरे सब नीचे उतर कर कमरे में वापस पहुँचते हैं। कुछ विश्राम के बाद नीचे किचन में रोटी, सब्जी बनने में हाथ बंटाते हैं। कुछ उत्साही बच्चे बाईक में जाकर टमाटर लेने जाते हैं। कुछ छत में  पहुंचते हैं, उनको देखकर दूसरे भी शामिल हो जाते हैं। बर्फीली हवा बदन को भेदती हुई, टीशर्ट के आर-पार हो रही थी, लग रहा था कि और रुके तो कहीं यहीँ धड़ाशयी न हो जाएं। सो नीचे खाने के चुल्हे के पास बैठकर कुछ सिकाई करते हैं। यहाँ एक चूल्हे पर रोटी बन रही थी तो दूसरे पर सब्जी।
 
शक्तिपीठ परिसर से सामने का मनोरम दृश्य

कुछ ही देर में भोजन तैयार हो जाता है, कड़ी चावल का प्रसाद ग्रहण करते हैं। भोजन के बाद चुपचाप हाल में ऊपर अग्रवती का जलाना और वहीं थके हुए बिस्तर पर लुढ़क जाना याद है। नीचे बच्चे भगदड़ मचाए हुए, ऊपर हम कमरे में नींद की गोद में मदहोश, सो रहे थे। रात को बीच में थोड़ा नींद खुलती है, तो बच्चों का हल्ला चौंकाता है, पता चलता है कि उनका उपजोन प्रभारी जयरामजी के साथ रात भर भजन-कीर्तन, कथा, अंताक्षरी, सत्संग और चित्रकारी चलती रही।
प्रातः चार बज कर चालीस मिनट पर नींद खुल जाती है, देखा सभी सो रहे थे। उठकर नीचे मैदान में टहलते हैं। दो चक्कर लगा कर, पंचस्नान और फिर आसन जमाकर अग्रबती जलती है, जप के साथ ध्यान का क्रम चलता है, जैसे आज जीवन के सभी समाधान मिल रहे हों।

गढ़वाल हिमालय की ध्वल पर्वत श्रृंखलाएं

हिमालय की घनीभूत चेतना से जैसे प्रत्यक्ष संवाद की स्थिति बनती है। इसके साथ अपने ईष्ट-आराध्य एवं सद्गुरु का सुमरण एवं ध्यान होता है और जीवन ध्येय एवं स्वधर्म की स्पष्टता में नए आयाम जुड़ते हैं। 

पूजा के बाद छत पर जाते हैं, जहाँ सुदूर हिमाच्छादित ध्वल हिमालय के दर्शन प्रत्यक्ष थे, जिन्हें देख कर ऐसे लग रहा था कि जैसे हम अपने घर पहुँच गए हों। हिमालय से कुछ मूक संवाद चलता रहा। फिर कुछ फोटोग्राफी होती है। 

गढ़वाल हिमालय के पहाड़ी गाँव

उस पार हिमालय की गोद में दूर-दूर कितने सारे गाँव दिख रहे थे, पता करने पर इनकी संख्या 200 के आसपास निकली। मन कर रहा था कि वहाँ जाकर गाँवों में घूम कर आएं, वहाँ की यथास्थिति की ग्राउंड रिपोर्टिंग तथा अवलोकन करें। लेकिन आज यह भावलोक में ही संभव था। फिर डेम में समा रही भिलंगना नदी पर छाया सघन बादलों का समूह जैसे नाग का रुप धारण कर धीरे-धीरे आगे सरकता हुआ दिख रहा था। दृश्य स्वयं में अद्भुत था, लेकिन इसके दैवीय संदेश को हम डिकोड नहीं कर पा रहे थे। 
 
भीलंगना और भगीरथी नदियों का संगम

कमरे में आकर मिशन को पूरी तरह से समर्पित एक रेंजर ऑफिसर से यादगार मुलाकात होती है। अभी एक माह के समयदान करने जा रहे हैं। एक बेटी देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में पढ़ रही है और दूसरी बेटी वनस्थली विद्यापीठ में। लो भोजन तैयार हो गया। भोजन के बाद जयरामजी से विशेष भेंट होती है। इनसे टिहरी गायत्री शक्तिपीठ के जन्म से लेकर इसकी विकास यात्रा की रोचक एवं प्रेरक जानकारी मिलती है। बच्चों के साथ रात के बिताए यादगार पलों का जिक्र होता। नाम प्लेट को दिखाते हैं, जिसमें पूरे बैच व इसके हर छात्र-छात्रा का नाम उत्कीर्ण था। फिर ग्रुप फोटो होता है। स्वेच्छा से कुछ पैसा यहाँ दान करते हैं, जिसकी रसीद मिलती है। और सबसे भावभीनि विदाई के साथ काफिला अगली मंजिल की ओर बढ़ता है। 
 
हस्त चित्रकला का अद्भुत नमूना, अविस्मरणीय भेंट

इस तरह सार रुप में टिहरी का विहंगावलोकन होता है, समय अभाव के कारण इसे अधिक तो नहीं एक्सप्लोअर कर पाए, लेकिन यहाँ से हिमालय की चेतना से प्रत्यक्ष संवाद की स्थिति सदैव याद रहेगी तथा इसे आगे और प्रगाढ़ करना चाहेंगे। टिहरी डैम में जलमग्न पूरा इतिहास, संस्कृति की भरपाई तो नहीं हो सकती, लेकिन गंगाजी की अविरल धारा को खंडित कर खड़े किए गए ऐसे डैम पहाड़ी क्षेत्र के विकास में सही मायने में कितने मददगार हैं, यह अवश्य जानना चाहेंगे। यहाँ से विस्थापित लोगों पर इसका क्या असर पड़ा है, वे अभी किस अवस्था में हैं, ये स्वयं में शोध की विषय वस्तु लगी।

    पूरा दल सामान के साथ टिहरी बस स्टेंड पहुँचता है। बस खड़ी थी। लगा जैसे महाकाल सारी योजना पहले से ही बना बैठे हों व उनका सूक्ष्म संचालन चल रहा हो। एक आध घंटे में चम्बा पहुंचते हैं। देवदार-चीड़ के जंगल के बीच सफर यादगार रहता है। 

टिहरी गढ़वाल की वादियों में

 चम्बा में केले एवं फलों की दुकानों के सुंदर नजारे दिखते हैं। बस टेक्सी की उहापोह में अंततः 40 रुपए प्रति सवारी में ट्रेक्करों का इंतजाम होता है। इनके साथ रोचक एवं रोमाँचक यात्रा की शुरुआत होती है। साफ सुथरी सड़कें, उर्वर गहरी घाटियाँ, देवदार-बांज और बुराँश के जंगल, एक और घाटियाँ तो दूसरी ओर सुदूर हिमालय के दर्शन पूरी यात्रा भर सब कोई उत्साह से भरा हुआ था।

आगे चलकर सब्जी के खेत, सेब के बागान मिलते हैं। चम्बा से सुरकण्डा तक का यादगार सफर, जिसे दुबारा दुहराना चाहेंगे, ऐसा भाव मन में जग रहा था, क्योंकि ट्रैक्कर की अपनी सीमा थी, पूरा नजारा नहीं देख पा रहे थे। दूर चोटी पर सुरकंडा देवी का मंदिर दिख रहा था।

शिखर पर सुरकुण्डा माता के दूरदर्शन

पास आने पर देवदार के घने जंगलों के बीच आनंददायी सफर तय होता है। लो सुरकुण्डा माता के चरणों में कद्दुखाल स्थान पर पहुंच गए थे। यहाँ से ग्रुप के साथ माँ के द्वार तक आरोहण होता है। हम पहली बार इस शक्तिपीठ के दर्शन कर रहे थे।

रास्ते में भूख लगने पर केला खाकर जठराग्नि को शांत करते हैं। नीचे घाटी के विहंगम दृश्य देखते ही बन रहे थे। हल्की किंतु थकाऊ चढ़ाई के संग हम सुरकुण्डा देवी के प्रागण पहुँचते हैं। नया मंदिर अभी निर्माणाधीन था। 

कद्दुखाल से चोटी पर सुरकुण्डा माता के दर्शन

मंदिर के अस्थायी शिविर में भगवती के विग्रह का दर्शन करते हैं, यहाँ का बिस्कुट नारियल का प्रसाद ग्रहण करते हैं और बाहर खुले में छत्त के नीचे हनुमानजी और शिव परिवार के विग्रह के सामने कुछ पल ध्यान के बिताते हैं। लगभग 12000 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस चोटी के शिखर से सामने हिमालय के दर्शन प्रत्यक्ष थे, हालाँकि बादल से ढके होने के कारण इनके दर्शन नहीं हो पा रहे थे। यहाँ से चारों ओर का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। परिसर में कुछ ग्रुप फोटोग्राफी होती है और फिर मखमली लॉन पर बैठकर कुछ समूह संवाद होता है और कुछ चर्चा। बच्चे अपनी उछल-कूद के साथ नीचे उतरते हैं।

सुरकुण्डा टॉप से दूरस्थ गढ़वाल हिमालय (बादलों से ढके)
कद्दुखाल में एक ढावे में चाय की चुस्की के साथ कुछ पेट पूजा करते हैं। यहाँ से आगे अब मसूरी की ओर सफर बढ़ता है। रास्ते के देवदार, बुराँश और बाँज के घने जंगल से होकर सफर तय होता है। कद्दुखाल के आगे धनोल्टी प्रमुख पड़ाव एवं दर्शनीय स्थल है, जहाँ सर्दियों में बर्फ देखने के लिए यात्रियों की भीड़ जुट जाती है। यहाँ देवदार के गगनचुम्बी वृक्षों के बीच एक पार्क भी है, जहाँ परिवार एवं बच्चों के साथ चहल-कदमी का लुत्फ उठाया जा सकता है। मुख्य मार्ग पर ही सामने कुछ लोक्ल फल, सब्जियों और जड़ी-बूटियों के आर्गेनिक उत्पादों की दुकानें भी हैं, जहाँ से घर के लिए कुछ बेहतरीन गिफ्ट लिए जा सकते हैं। यहाँ से हम लोकल सेबों का स्वाद चखते हैं, जो अच्छे लगे। रास्ते में कुछ स्थलों पर उतर कर पीछे बर्फ से ढकी हिमालयन श्रृंखलाओं के साथ यादगार फोटो ली जा सकती हैं। अप्रैल-मई में बुराँश के सुर्ख लाल फूलों से लकदक पेड़ों के संग इस रुट का अनुपम सौंदर्य निहार सकते हैं। सर्दियों में यहाँ के छाया बाले हिस्सों में बर्फ जमने के कारण वाहनों में सफर काफी खतरनाक रहता है। नौसिखिया ड्राइवर एवं पर्यटक इसमें स्किड करते, फिसलते देखे जाते हैं। नीचे बग्ल में गहरी खाई इसे घातक बना देती है। अतः सर्दी में इस तरह की लापरवाही से बचें, जिसके एक खतरनाक अनुभव से हम पिछली एक यात्रा में गुजर चुके हैं, जब गाड़ी जमीं बर्फ पर स्किड होते-होते खाई में गिरने से बाल-बाल बची थी। ऐसे में एक लोक्ल ड्राईवर की सहायता से गाड़ी को पार लगाए थे।

आज इस तरह का तो कोई खतरा नहीं था, फिर ड्राइवर भी ऐसे रास्तों के लिए मंझे हुए थे, लेकिन हमारे लिए जीप में बाहर के नजारों के अवलोकन की बहुत अधिक गुंजायश नहीं थी। मसूरी पहुंचकर जब ट्रेक्कर से बाहर निकलते हैं, तो यहाँ के दिलकश नजारे देखते हैं।

बादलों के आगोश में मसूरी हिल स्टेशन

बादलों के आगोश में मसूरी का सौंदर्य निखर कर सामने आ रहा था, लगा क्यों इसे पहाड़ों की रानी कहा जाता है। प्रिंस होटल से पैदल यात्रा, कैमल बैक की परिक्रमा, कुल मिलाकर यादगार सफर रहता है। रास्ते में दुर्गा माता के मंदिर के पास से वर्षा शुरु हो जाती है, लगा कि जैसे हमारा स्वागत अभिसिंचन हो रहा है। हल्की बारिश लगातार होती रही, जबतक कि हम बस में नहीं बैठे।

बस स्टैंड पर टिकट के लिए संघर्ष भी याद रहेगा। भीड़ अधिक थी, बारिश तेज हो चुकी थी। लेकिन आखिर टिकट मिल जाती है, लेकिन सबके लिए सीटें नहीं थीं। बस धीरे-धीरे नीचे देहरादून की ओर बढ़ रह थी, चलती बस से रास्ते के दृश्य निहारते रहे। बस में बच्चों की मौज-मस्ती चलती रही। पता ही नहीं चला, देहरादून कब आ गया। आईएसबीटी से दूसरी बस में बैठककर हरिदार पहुँचते हैं और रात के अंधेरे में विश्वविद्यालय के परिसर में प्रवेश करते हैं। 

टिहरी गढ़वाल, पुष्पित स्मृतियाँ

इस तरह यह यात्रा गढ़वाल हिमालय का एक विहंगावलोकन करता सफर था, जिसकी पुनरावृति आगे विस्तार से होनी थी। यह एक तरह से दूरस्थ हिमालय की चेतना से परिचय एवं संवाद का ट्रेलर था, जिसके नए आयाम अगली यात्राओं में अनावृत होने थे, जिनका विस्तृत परिचय आप इस क्षेत्र में सम्पन्न आगे की यात्राओं को नीचे दिए लिंक्स में पढ़ सकते हैं -

सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-1 (ऋषिकेश-नरेंद्रनगर-चम्बा)

सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-2 (चम्बा, कानाताल,कद्दुखाल)

सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-3  (कद्दुखाल से सुरकुण्डा देवी, मसूरी)

हरिद्वार से मसूरी वाया कैप्टिफाल

 

चुनींदी पोस्ट

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...