यात्रा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
यात्रा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

यात्रा - हरिद्वार से श्रीनगर वाया देवप्रयाग

 गढ़वाल हिमालय की गोद में गंगा मैया के संग

हरिद्वार से ऋषिकेश और श्रीनगर शहर केदारनाथ, बद्रीनाथ, हेमकुण्ड आदि की तीर्थयात्रा के कॉमन पड़ाव हैं। कितनी बार इनकी यात्राओं का संयोग बना। इस लेख में इस मार्ग की कुछ विशेषताओं पर प्रकाश डाल रहा हूँ, जो नए पाठकों व यात्रियों के सफर को और रोचक एवं ज्ञानबर्धक बना सकते हैं और कुछ स्वाभाविक प्रश्नों के जबाव मिल सकते हैं। यह सब अपने सीमित ज्ञान के दायर में है, लेकिन कुछ तो इसका प्रयोजन सिद्ध होगा, ऐसा हमें विश्वास है।

हरिद्वार को हरि या हर का द्वार कहा जाता है, अर्थात केदारनाथ हो या बद्रीनाथ, चारों धामों की यात्रा यहीं से होकर आगे बढ़ती है। हरकी पौड़ी को पार करते ही विशाल शिव प्रतिमा यही अहसास दिलाती है और पुल पार करते ही आगे वायीं ओर शिवालिक तथा दायीं ओर गढ़वाल हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएं इस अहसास को और गाढ़ा करती है। हरिद्वार से ऋषिकेश की आधे घण्टे की यात्रा के दौरान हिमालय अधिक समीप आता है और ऋषिकेश को पार करते ही जैसे हम इसकी गोदी में प्रवेश कर जाते हैं। बग्ल में गंगाजी की धीर गंभीर आसमानी नीले रंग की गहरी धारा जैसे पहाड़ों में उतरने के उत्साह से थकी कुछ अलसाए से अंदाज में मैदानों की ओर प्रवाहित होती हैं।

तपोपन से गुजरते हुए पहले रामझूला और फिल लक्ष्मण झूले के दर्शन होते हैं। जो हमें रामायण काल की याद दिलाते हैं। इस अहसास को रास्ते में विशिष्ट गुफा और गाढ़ा करती है और देवप्रयाग में तो जैसे इसका चरम आ जाता है। जहाँ एक और अलकनंदा और भगीरथी का संग होता है तथा इसके ऊपर भगवान राम को समर्पित राम मंदिर। यहीं से गंगा मैया की यात्रा आरम्भ मानी जाती है। इस रास्ते में एक दो स्थान पर चाय नाश्ते की व्यवस्था रहती है और प्रायः बाहन वहाँ रुकते हैं। जैसे व्यासी, कोडनाला, आदि। कोडनाला में सामने त्रिशंकु आकार के पर्वत ध्यान आकर्षित करते हैं, जैसे कोई तपस्वी गंगाजी के किनारे आसन जमा कर बैठे हों। यहाँ गंगाजी का प्रवाह भी गोल-गोल पत्थरों के बीच हल्की ढलान पर छलछलाते हुए नीचे बढ़ता है।

इसी रास्ते में शिवपुरी स्थान पर राफ्टिंग व कैंपिंग की बेहतरीन व्यवस्था है। इसे राफ्टिंग कैपिटल कहा जाता है। बैसे इस राह में तमाम ऐसे स्थान मिलेंगे। गंगाजी के रेतीले तट पर कैंपिंग साइट्स और तम्बुओं की सजी कतारों के दृश्य बहुत खूबसूरत नजारे पेश करते हैं। यदि कोई चाहे तो यहाँ रुककर यादगार नाईट हाल्ट कर सकता है और दिन में राफ्टिंग का लुत्फ उठा सकता है। इसके साथ बज्जी जंपिंग की भी यहाँ व्यवस्था है, जिसे काफी रोमाँचक माना जाता है, लेकिन साथ ही खरतरनाक भी। कोई पूर्णतया स्वस्थ व्यक्ति ही उसके लिए फिट माना जाता है।

रास्ते भर गंगाजी के लुकाछिपी का खेल चलता रहता है। गंगाजी गहरी खाई में काफी शांत व धीर गंभीर नजर आती हैं। एक स्थान पर तो गंगाजी उतरायण भी हो जाती हैं, जहाँ इनका प्रवाह उत्तर की ओर यू टर्न ले लेता है। रास्ता चट्टानी पहाड़ों के बीच से काफी उँचाई से होकर गुजरता है, सो नए यात्रियों के लिए काफी खतरनाक अनुभव रहता है। हालाँकि अब तो सड़क काफी चौड़ी हो गई हैं, ऐसे में इसका बहुत अहसास नहीं होता। बारिश में इस मार्ग पर पहाड़ों का भूस्खलन आम नजारा रहता है। इस रास्ते में कुछ पड़ाव ऐसे हैं, जहाँ थोड़ी सी बारिश में रास्ता जाम मिलेगा। कितने ही अनुभव हैं दो-चार से सात-आठ घण्टे तक इंतजार के। एकबार तो गढ़वाल विश्वविद्यालय से वाइवा (मौखिकी परीक्षा) लेकर बापिस आ रहे थे, लैंड स्लाईड के कारण कीर्तिनगर के आगे पूरी रात बस की छत पर गुजारी थी। सुबह जाकर रास्ता खुला था। इसकी अपनी कठिनाईयों हैं और अपने रोमाँच भी। पहाड़ों में रात कैसे होती है, इसका बखूबी आनन्द और अनुभव लिया था उस रात को।

सफर के दौरान हिमालय की गोद में उस पार बसे गाँवों को देखकर हमेशा ही मन में कौतुक जगता है कि लोग इतने दुर्गम स्थल पर क्यों बसते होंगे। यदि कोई बिमार पड़ गया तो इसकी व्यवस्था कैसे होती होगी। फिर क्या वहाँ जंगली जानवरों का खतरा नहीं रहता होगा। फिर राशन को लेकर कितनी चढ़ाई चढ़नी पड़ती होगी आदि। लेकिन ऐस स्थलों की एकांतिक शांति में रहने का एडवेंचर भाव भी जगता है। रात में तो ये गाँव पहाड़ों में टिमटिमाते तारों का ऐसा अहसास जगाते हैं लगता है कि जुगनुओं ने जैसे अपना गाँव बसा रखा हो।

देवप्रयाग इस मार्ग का विशेष आकर्षण रहता है। यहाँ पर भगीरथी और अलकनंदा नदियों का संगम होता है। प्रायः दोनों के रंग में काँट्रास्ट पाया जाता है। एक आसमानी नीला रंग लिए हुए स्वच्छ निर्मल दिखती हैं, तो दूसरी मटमैला रंग लिए। सामने संस्कृत  संस्थान का तैयार हो रहा परिसर भी स्वयं में एक आकर्षण रहता है। देवप्रयाग के उस पार से पीछे पहाड़ में बसे गाँवों का नजारा हमेशा ही रोचक लगता है। कभी मौका मिला तो इनको नजदीक से जाकर अवश्य देखेंगे, ऐसा यहाँ से गुजरते हुए मन करता है। यहाँ रास्ते भर जगह-जगह दुकानों पर पहाड़ की प्राकृतिक मौसमी फसलें सजी मिलती हैं। अदरक, हल्दी, दालें, पहाड़ी खीरा, पालक, मालटा आदि।

इस तरह पहाड़ का सफर कीर्तिनगर तक पहुँचते-पहुँचते लगभग पूरा हो जाता है। अब मैदानी इलाका आता है, जहाँ खेतों में लगी फल सब्जी और अनाज के हरे भरे खेतों को देखकर आँखों को ठण्डक मिलती है। साथ ही खेतों के बीच नहर से होकर बहता जल अपने पहाड़ी गाँव की सिंचाई व्यवस्था की याद दिलाता है। अब तो यहाँ महत्वाकाँक्षी ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल्वे योजना का अहमं पड़ाव निर्माणधीन है, जिस पर काफी तेजी से काम चल रहा है। कई किमी लम्बी सुरंगे इन चट्टानी पहाड़ों के बीच तैयार की जा रही हैं, जो स्वयं में काफी चुनौतीपूर्ण काम प्रतीत होता है।

इसी के साथ आता है श्रीनगर शहर, जिसे कभी आदि शंकराचार्यजी ने श्रीयंत्र पर स्थापित किया था। हालाँकि जमाने की भयंकार बाढ़ों ने इसके नक्शे को काफी हद तक बदल दिया है लेकिन गढ़वाल विश्वविद्याल के कारण इस शहर का अपना महत्व तो है ही। उस पार चौरास कैंपस में कई विभाग स्थापित हैं। जहाँ कई बार पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष प्रो. डंगबालजी के निमंत्रण पर आना-जाना होता रहा है।

इनके नेतृत्व में विभाग कहाँ से कहाँ आ पहुँचा है। कभी खुले बरामदे में शुरु विभाग आज पूरा स्टूडियो, आडिटोरियम, लैब, पुस्तालय आदि लिए हुए है। प्रशिक्षित मानव संसाधन की थोड़ी कमी है, आशा है समय के साथ वह भी पूरी होगी। इस विभाग ने प्राँत एवं देश को कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले कितने साहित्यकार, पत्रकार, शिक्षाविद, सामाजिक कार्यकर्ता और नेता दिए हैं। इसी तरह बाकि विभागों एवं विश्वविद्यालय की अपनी उपलब्धियाँ रही हैं।

हमेशा एक ही विचार आता है किसी भी विश्वविद्यालय को देखकर कि अपने नाम के अनुकूल पूरा विश्व इसके शोध-अध्ययन एवं अध्यापन के दायरे में होता है, राष्ट्रचिंतन स्वतः ही इसके केंद्र में आता है और इसका शुभारम्भ इसके प्राँत व क्षेत्र के प्रति इसके योगदान के आधार पर तय होता है। एक विश्वविद्यालय के रुप में हम इस दिशा में कितना सक्रिय हैं, इसका ईमानदार मूल्याँकन किया जा सकता है। हर विद्यार्थी, शिक्षक, विभागप्रमुख एवं विश्विविद्याल का नेतृत्व इस दिशा में अपने सचेष्ट प्रयास के आधार पर अपना भाव भरा योगदान दे सकता है।

रविवार, 24 अगस्त 2014

सावन में देवभूमि कुल्लू की स्वर्गोपम छटा

            यात्रा का आवाह्न देती कुल्लू की मनोरम वादियाँ


 (सावन के माह में यात्रा का यह संक्षिप्त वृतांत कुल्लु घाटी में प्रवेश से लेकर जाणा-नगर की यात्रा पर आधारित है, जिसका अनुभव इस मौसम में किसी भी पर्वतीय क्षेत्र पर न्यूनाधिक रुप में एक आस्थावान प्रकृति प्रेमी कर सकता है)


सावन माह के चरम पर जहाँ समूची धरती हरयाली की मखमली चादर ओढ लेती है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में हरी-भरी वादियाँ, झरते झरने, फलों से लदे बागान और अपनी वृहद जलराशी से गर्जन-तर्जन करती हिमनदियाँ घाटी के सौंदर्य में चार-चाँद लगा देती हैं। ऐसे में अगस्त माह में इन घाटियों में यात्रा का आनन्द एवं रोमाँच शब्दों में वर्णन करना कठिन हो जाता है। इसे कोई घुम्मकड़ स्वामी ही इन वादियों के आगोश में खोकर अनुभव कर सकता है।


हालाँकि वर्षा के कारण यह समय खतरों से खाली नहीं रहता। बादल फटने से लेकर, हिमनदियों में बाढ़, भूस्खलन की घटनाएं आम होती हैं। लेकिन रोमाँचप्रेमी घुम्मकड़ों के मचलते पगों को अपनी तय मंजिल की ओर बढ़ने से ये खतरे भला कब रोक पाए हैं। अपने अंतर के अद्मय एडवेंचर प्रेम व अढिग आस्था के चलते सावन में भी कुछ जाबाँज घाटी के आवाहन को ठुकरा नहीं पाते।

एक आस्थावान यात्री के लिए इस माह की यात्रा किसी तीर्थ यात्रा से कम नहीं होती। हरीभरी वादियों के बीच सफर का आनन्द कोई रोमाँचप्रेमी ही बता सकता है। मौसन में न अधिक गर्मी होती है न ठण्ड। तापमान के सम-स्थिर बिंदु पर हवा का झोंका यात्रा के सफर को और सुहाना बना देता है। घाटियों में इधर से उधर तैरते आवारा बादलों की मस्ती देखते ही बनती है। पर्वतशिखरों को अपनी आगोश में लेते काले-सफेद बादल एक मनोरम दृश्य खड़ा करते हैं।

 
आस्थापूरित अंतःकरण के साथ पर्वतीय क्षेत्रों की यात्रा, एक आध्यात्मिक अनुभव से पूरित हो जाती है। प्रकृति के अलौकिक सौंदर्य के बीच चित्त सहज ही ध्यानस्थ हो जाता है। सहजानन्द की इस अवस्था में यात्री आत्मस्थ हो जाता है। जीवन का उच्चस्तरीय दर्शन चिदाकाश पर सूर्य की भाँति आलोकित हो उठता है। जीवन इन पलों में जैसे समाधि सुख ले रहा होता है। जीवन के सारे द्वन्द-विक्षोभ शांत हो जाते हैं। कल तक भौतिक एवं मानसिक संताप में झुलसता जीवन, आज स्वर्गीय सुख की अनुभूति से सराबोर हो जाता है।

कल तक जो पहाड़ी नाले सूखे पड़े थे वे आज दूधिया धार के साथ पग-पग पर झरते हुए, यात्रियों का स्वागत करते नजर आते हैं। इन झरनों व पहाड़ी नालों से पोषित हिम नदियाँ अपने पूरे यौवन में इठलाती हुई सागर की ओर बहती हैं व उनका उत्साह देखते ही बनता है। राह का शायद की कोई अवरोध, बाधा उनकी त्वरा, उनके उद्दाम वेग को रोकने की सोच सके, इनका सामना करने का दुस्साहस कर सके।


पहाड़ी के शिखर पर स्थित देवालय इस यात्रा को नए मायने दे जाते हैं। पिरामिड नुमा शिखर के दोनों ओर से बह रही हिम नदियाँ, ठीक शिखर के नीचे दिव्य संगम की सृष्टि करती हैं। कुल्लू में स्थित शिखर पर विराजमान बिजलेश्वर महादेव और उनके चरणों को पखारती व्यास एवं पार्वती नदियों का संगम कुछ ऐसा ही नजारा पेश करता है। ऐसे संगम स्थल लोक आस्था में एक तीर्थ का रुप लिए हुए होते हैं।

घाटी में फलों के बागान सफर के आनन्द को बहुगुणित कर देते हैं। राह से सटे फलों से लदे ये बगीचे दावत के लिए यात्रियों को खुला आमंत्रण दे रहे होते हैं। नाना प्रकार के फलों से लदे बागानों को देखकर लगता है कि जैसे प्रकृति ने दोनों हाथों से अपनी संपदा इन घाटियों पर लूटा दी हो। शायद ही ऐसा कोई घर हो जिसका अपना फल का वृक्ष न हो। खुमानी, प्लम, नाशपाती, चेरी, अखरोट, जापानी फल व सेब जैसे स्वादिष्ट फल इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। सेब के लिए तो यह क्षेत्र विशेषरुप से प्रख्यात है। 


गगनचुम्बी देवदार वृक्षों का उल्लेख किए बिना इस क्षेत्र का वर्णन अधूरा ही माना जाएगा। घाटी में प्रवेश करते ही दशहरा मैदान (ढालपुर) से ही देवदार आगंतुकों का स्वागत करते हैं। आगे जैसे-जैसे घाटी का आरोहण करते हैं, इनके सघन वन यात्रियों को दिव्यलोक में विचरण की अनुभूति देते हैं। ऊँचाई पर बांज, बुराँस के जंगल भी पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करते हैं। शिखर से घाटी का विहंगम दृश्य दर्शनीय रहता है। घाटी के बीच में बहती व्यास नदी पतली चाँदी की धार सी प्रतीत होती है।


ऋषियों की तपःस्थली होने के कारण इस भूमि को ऋषि भूमि के नाम से भी जाना जाता है। बशिष्ट, व्यास, मनु, भृगु, जमदग्नि जैसे ऋषियों की तपःस्थलियों से जुड़े इस क्षेत्र का इतिहास आज भी पुरातन युग की ओर ले जाता है। यहाँ हर गाँव का अपना देवता है, जिनकी आज्ञा-आदेश व मार्गदर्शन की छत्रछाया में ही यहाँ का लोकजीवन संचालित होता है। भगवान श्रीराम जिन्हें यहाँ ठाकुर कहा जाता है, इस क्षेत्र के प्रमुख आराध्य हैं, जिन्हें विश्व प्रख्यात दशहरा मेला के अवसर पर श्रद्धाँजलि देने सभी देवगण ढालपुर मैदान पधारते हैं। इसके साथ यह क्षेत्र शिव-शक्ति की विहार भूमि रही है। नाथ गुरुओं के यहाँ से कई स्थल जुडे हैं। सिक्खों के प्रथम गुरु नानक देव जी का भी यहाँ के मणिकर्ण क्षेत्र से जुड़ाव प्रख्यात है। कालांतर में यहाँ स्थापित गोंंपा (बौद्ध मंदिर) भी यात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहते हैं।


कुल्लू मनाली के बीच में स्थित नग्गर (कुल्लु की प्राचीन राजधानी) की चर्चा किए बिना यात्रा अधूरी ही मानी जाएगी। नग्गर में रूस के विश्व विख्यात चित्रकार, पुरातत्वविद, यायावर, विचारक, भविष्यद्रष्टा एवं शांतिदूत निकोलस रोरिक की समाधि व शोध केंद्र स्थित है। सन् 1928 में रूस से यहाँ पधारे रोरिक ने जीवन के अंतिम 20 वर्ष गंभीर सृजन साधना में बिताए थे। इनको जानने वाले भावनाशीलो के लिए इनकी समाधि तीर्थ से कम नहीं है। नगर के इर्द-गिर्द कई दर्शनीय स्थल हैं, जिनमें जाणा फाल लोकप्रिय है। इसी की राह में देवदार के सघन वनों के बीच यात्रा व नीचे सुंदर घाटियों का अवलोकन बेजोड़ अनुभव साबित होता है।


अपने अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य़ के साथ स्नो लाइन मनाली के समीप होने के कारण कुल्लू घाटी आज पर्यटन के एक प्रमुख हिल स्टेशन के रुप में लोकप्रिय है, जिसके कारण विदेशी मेहमानों का भी यहाँ आगमन बढ़ रहा है। कुछ काल का प्रवाह तो कुछ आधुनिकता का असर परम्पराओं पर साफ नजर आ रहा है। देववाद के साथ जुड़ी बलिप्रथा एवं शराब का बढ़ता चलन तथा युवाओं की अपनी संस्कृति के प्रति उपेक्षा चिंता का विषय है। लेकिन अपनी समृद्ध प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक विरासत के साथ यह क्षेत्र सांस्कृतिक-सामाजिक उत्थान का सबल आधार लिए हुए है। इसे किस तरह से परिमार्जित किया जाए, सुरक्षित रखा जाए व नई पीढ़ी तक हस्तांतरित किया जाए, यह विचारणीय है। इसी में इस देवभूमि के संतुलित एवं समग्र विकास का मर्म छिपा है। 

चुनींदी पोस्ट

Travelogue - In the lap of Surkunda Hill via Dhanaulti-Dehradun

A blessed trip for the seekers of Himalayan touch Surkunda is the highest peak in Garwal Himalayan region near Mussoorie Hills wi...