सोमवार, 6 जुलाई 2015

यात्रा वृतांत - मेरी यादों का शिमला और पहला सफर बरसाती, भाग-1



हिमाचल वासी होने के नाते, शिमला से अपना पुराना परिचय रहा है। शुरुआती परिचय राजधानी शिमला से हुआ, जहाँ स्कूल-कालेज के दिनों में रिजल्ट से लेकर माइग्रेशन तक आना रहा। दूसरा परिचय लुधियाना में पढ़ते हुए युनिवर्सिटी टूर के दौरान हुआ। बस स्टैंड से माल रोड और रिज तक का सफर। इन संक्षिप्त दौरों में शिमला से सतही परिचय ही अधिक रहा। राह में शिमला की पहाड़ियां, देवदार के पेड़ और घाटी के विहंगम दृश्य अवश्य मन को लुभाते रहे, लेकिन कंकरीट में तबदील होता शिमला मन को कचोटता रहा। इसके बाद एक बार शिमला यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे भाईयों से मिलने आया तो देवदार के सघन बनों की गोद में विचरण का मौका मिला, जिसमें पहली बार कंकरीटी जंगल में तबदील होते शहर से इतर शिमला के नैसर्गिक सौंदर्य को नजदीक से निहारा और शिमला की मनोरम छवि ह्दय में गहरे अंकित हुई। इसे कभी फुरसत में एक्सप्लोअर करने का भाव रुह में समा चुका था। इसे पूरा करने का संयोग लगभग दस बर्ष बाद 2010 में पूरा होता है

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान - शिमला से गाढ़ा परिचय होता है नबम्वर 2010 में, जब भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (IIAS - Indian Institute of Advance Studies) में एसोशिएट के रुप में एक माह रूकने का मौका मिला। दिवंगत गुरुजन डॉ. ठाकुर दत्त शर्मा (टीडीएस) आलोक जी का समरण आना यहाँ स्वाभाविक है, जिन्होंने यहाँ प्रवेश के लिए प्रेरित किया था। देवदार, बाँज, बुरांश, खनोर के सघन बनों के बीच बसे इस शोध-अध्ययन केंद्र के सुरम्य, शांत एवं एकांत परिसर में जीवन का एक नया अध्याय शुरु होता है और शिमला से एक नूतन परिचय, सघन तादात्मय और गहरी प्रीत जुड़ जाती है। 

2010 के बाद 2012 एवं 13 में एक बार फिर यहाँ एक-एक माह ठहरने का सुयोग बनता है। इस बीच संस्थान की सुबह 9 से शाम 7 बजे तक की कसी दिनचर्या, संस्थान के प्रेरक वाक्य, ज्ञानमयः तप, के अनुरुप शोध-अध्ययन पूर्ण जीवन के लिए समर्पित रही। बाकि समय में सुबह और शाम घुमक्कड़ी के जुनून के नाम समर्पित रही। संयोग से साथी भी घुमक्कड़ किस्म के मिले। एक स्पेल में दक्षिण भारत के सोमा-शेखर, तो दूसरे में गुजरात के मनोज पण्ड्या, जिनके लिए घुमक्कडी जीवन का पर्याय थी। इस दौरान बालुगंज, कामनादेवी हिल, चक्कर, समर हिल और संस्थान के हर कौने को एक्सप्लोअर किया।

सप्ताह अंत के दिन शिमला एक्सप्लोरेशन के नाम समर्पित रहे। संस्थान से  माल रोड़ – रिज होते हुए जाखू हिल, तो कभी संकटमोचन से होते हुए शियोगी-तारादेवी हिल, और कभी शिमला यूनिवर्सिटी से होते हुए पीटर हिल और कभी बस स्टेंड से पंथा घाटी – शिमला का हर कौना सण्डे को एक्सप्लोअर करते रहे। देखकर आश्चर्य हुआ कि शिमला में रहते हुए भी अधिकाँश इन सुंदर एवं रोमांचक ट्रेकों से अनभिज्ञ ही रहते हैं।

शिमला माल में बिक रहे सेव, नाशपती, चैरी, प्लम, खुमानी, बादाम जैसे फलों को देखकर, सहज ही इनके बागानों को देखने की इच्छा होती, लेकिन शिमला शहर में कहीं बाग नहीं दिखे। पता चला की शिमला के बाहर इनके सघन बगान हैं। एक दिन में ही इनका विहंगावलोकन किया जा सकता है। इस जुनून मेें इंटीरियर शिमला को भी देखने का मौका मिला। इसी दौरान नालदेरा, मशोबरा, चैयल, कुफरी, नारकण्डा तक घूमने का संयोग बना। यदि समय हो तो इनसे आगे भी थोड़ा समय लेकर फल-उत्पादन को लेकर हो रहे अत्याधुनिक प्रयोगों को देखा जा सकता है। फलों की नई किस्मों से लेकर डेंस फार्मिंग के प्रयोगों के साथ यहां की माटी को सोना उगलते देखा जा सकता है।

शिमला में ये भ्रमण अकसर मई या नवम्बर माह में ही हुए थे। यहां कई वर्ष यूनिवर्सिटी में रहे भाईयों का सुझाव था कि शिमला का असली मजा लेना हो तो जुलाई की बरसात में आना। इस माह में बादलों के उड़ते-तैरते अबारा फाहों के बीच इस हिल स्टेशन का नजारा अलग ही होता है। ताप भी सम होता है। इस चिरआकांक्षित तमन्ना को पूरा करने का संयोग आज बन रहा था। अकादमिक उद्देश्य से बने इस टूर में यह अरमान पूरा होने वाला था।
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यात्रा का शुभारम्भ -

हरिद्वार से देहरादून होते हुए हम हिमाचल ट्रांसपोर्ट की बस सेवा में चढ़े। देहरादून बस स्टैंड पर ही काले-काले बादल उमड़ चुके थे। बस का काउंटर पर इंतजार हो ही रहा था कि बारिश शुरु हो चुकी थी। बारिश के इस अभिसिंचन के साथ यात्रा का शुभारम्भ हम एक शुभ संकेत मान रहे थे। बस शाम को 630 बजे पर चल पड़ी। सीट के साथ हमें एक तिब्बती यात्री मिले, जो धर्मशाला से थे व अपने व्यापारिक उद्देश्य से शिमला जा रहे थे। अपनी रूचि व जानकारी के अनुरुप इनसे तिब्बत के पुरातन इतिहास पर चर्चा करते रहे। महायोगी मिलारेपा का जीवन, साधना, आध्यात्मिक रुपांतरण, कविताओं पर चर्चा करते रहे। लोबजांग राम्पा की नॉबेल-थर्ड आई और हॉलीबुड फिल्म - सेवेन इयर इन तिब्बत के अनुरुप भी तिब्बत से जु़ड़ी रोमांचक यादों को शेयर करते रहे। पता चला हमारे तिब्बती भाई आजकल टीवी में चल रहे अशोका द ग्रेट सारियल को रुचि से देखते हैं। 

इस तरह चर्चा करते हुए हम कब पौंटा साहिब पार किए पता ही नहीं चला। रास्ते में काला अम्ब स्थान पर बस भोजन के लिए रुकी। इसके बाद नाहन से होते हुए रात 1230 बजे चंड़ीगढ पहुँचे। छः घंटे में यह सफर तय हुआ। चंड़ीगढ से आगे काल्का, सोलन होते हुए सुवह पांच बजे हम शिमला बस स्टैंड -आईएसबीटी पर थे। चण्डीगढ से चार घंटे का सफर रहा। इस तरह कुल ग्यारह घंटे के सफर के बाद हम शिमला पहुंच चुके थे। बारिश के हल्के अभिसिंचन के साथ शिमला में हमारा प्रवेश हो चुका था। शयोगी तक हमारी नींद खुल चुकी थी। बाहर रास्ते में पूरी धुंध छाई हुई थी। यहां से जुड़ी अतीत की तमाम यादें व रोमाँचक भाव चिदाकाश पर उमड़ घुमड़ रहे थे।


आईएसबीटी से पंथा घाटी की ओर -
बस स्टैंड पर रात का धुंधलका छंट रहा था। बसों की जगमगाती रोशनी के बीच सुबह का आगमन हो रहा था। ध्यानस्थ देवतरु भी जैसे योगनिद्रा से जाग रहे थे। कुछ देर इंतजार करने तक बस स्टैंड पर बाहन आ चुका था। 18 किमी का सफर बाकि था। रास्ते भर ड्राइवर के मोबाईल में बज रहे शिव चालीसा और सुफी गीतों के बीच सुबह का सफर भक्तिमय रहा। लोग रास्ते में मोर्निंग वॉक करते दिखे। रास्ते भर सड़क के दोनों ओर खड़े देवदार के गगनचूम्बी वृक्ष लगा जैसे  हमारा स्वागत कर रहे थे। बीच-बीच में आबादी से फूलते शिमला शहर के कंकरीटी सत्य के भी दर्शन हुए। लो हम शिमला के छोर पंथा घाटी पहुंच चुके थे। अब विवि के लिए  मुख्य मार्ग से शियोगी वाइपास से नीचे उतरना था। आगे की राह में आवादी क्रमशः बिरल हो रही थी। हम गहरी घाटी में नीचे उतर रहे थे। नीचे और सुदूर घाटी का विहंगम दृश्य दर्शनीय था। रास्ते में देवदार के पनप रहे युवा बनों के बीच हम एक विरल आनन्द की अनुभूति कर रहे थे। रास्ते में चीड़ के बिखरे जंगल भी मिले। कुछ ही मिनटों में हम विवि के प्रवेश द्वार पर खड़े थे। वाइपास रोड़ से संकड़ी सड़क विवि परिसर की ओर उतर रही थी।


बुधवार, 1 जुलाई 2015

आदर्शों का यह पथ रुमानी




जीवन में आदर्श को होना जरुरी है। आदर्श एक दिशासूचक का कार्य करता है, जो जीवन की नाव को संसार-सागर के बीच अनावश्यक वहकाव-भटकाव एवं दुर्घटनाओं से बचाता है। आदर्श क्या हो, एक शब्द में व्यक्त करना कठिन है। यह हर व्यक्ति की प्रकृति, रुचि-रुझान एवं स्वभाव के अनुरुप कुछ भी हो सकता है। सार इतना ही है कि आदर्श कुछ ऐसा हो, जिसे हम दिल से अनुभव कर सकें, जो हमारी रुह को गहराई से छू जाए, जो हमें जहाँ खड़े हैं वहाँ से आगे बढ़ने, ऊपर उठने के लिए प्रेरित कर सके। जो हमारी समूची चेतना को समेटकर सर्वांगीण विकास, चरमोत्कर्ष के जीवन ध्येय की ओर अग्रसर कर सके। आदर्श एक व्यक्ति भी हो सकता है, एक विचार-भाव भी और एक विशिष्ट कार्य भी।

अगर आदर्श का चयन हो गया और हम आदर्श पथ पर बढ़ चले, तो समझो आधा काम हो गया। फिर फर्क नहीं पड़ता की हम इस पर आज सफल होते हैं या कल, क्योंकि अब हम उस मार्ग पर अग्रसर हैं, जो हमें अपनी सारी सीमाओं के पार ले जाने वाला है। अब यह भी फर्क नहीं पड़ता कि आदर्श आज संभव होता है या कल। क्योंकि दीवानी रुत इस संभव-असंभव के गुणा-भाग में नहीं पड़ती। वह तो इसे हर पल, हर हाल में साकार करने की जिद्द पर अढ़ी रहती है और इसके निमित सचेष्ट प्रयास करती है और अपनी हिम्मत नहीं हारती।

अब यह भी फर्क नहीं पड़ता कि आदर्श इस जन्म में संभव होता है या फिर अगले जन्म में। क्योंकि आदर्श आब जीवन का ध्रुब लक्ष्य बन जाता है, जीवन का शाश्वत ध्येय, जिसके बिना जीवन की पूर्णता अधूरी दिखती है। इस हाल में जीवन की स्वाभाविक दुर्बलताएं, मानवीय सीमाएं भी गौण हो जाती हैं, क्योंकि आदर्शों की ओर बढ़ता हर ढग इन सीमाओं को चटका रहा होता है, दुर्बलताएं मार्ग में एक-एक कर तिरोहित हो रही होती हैं। इस भाव में आवेशित रुत अंधकार से प्रकाश, जड़ता से चैतन्यता और चैतन्यता से प्रकाश-शांति की ओर बढ़ रही होती है। पथिक का हर पग अपनी तमाम भूल-चूक व गल्तियों के बावजूद अपने बजूद के केंद्र की ओर कहें या अपनी चेतना के शिखर की ओर बढ़ रहा होता है। पथ के विचलन, फिसलन और अबरोध भी विजय अभियान की शोभा बनते हैं, और अपने प्रगति पथ में इनका सृजनात्मक उपयोग करना पथिक बखूबी जानता है। 

 

राह की तमाम विषमता, दुरुहता, कष्ट-पीड़ा, बिरोध, विकरालता के बावजूद रुह का अद्म्य भाव पथिक की संकल्प शिखा को प्रदीप्त रखता है। राह में रुहानियत से ईश्क का भाव पथिक के अस्तित्व को अपनी लपेट में ले लेता है। मानवीय सम्बन्ध इस लपट में पावनतम भावों से मंडित हो जाते हैं, राग-द्वेष के किनारे पीछे छूटने लगते हैं। स्वार्थ क्रमशः क्षीण होने लगता है, परमार्थ में स्वार्थ दिखने लगता है और यह धुन जोर पकड़ने लगती है कि अपनों को देकर भी और क्या दें। प्रतिदान की यहां अधिक आशा-अपेक्षा नहीं रहती।  

यहाँ इतना ही कहना है अपनों से, राह के साथी-सहचरों से कि शरीर की अपनी सीमाएं हैं, परिस्थितियों की अपनी मार हैं, मन की अपनी दुर्बलताएं, चित्त के अपने वृत्तियां-संस्कार हैं, लेकिन अपने बजूद के अंदर मौजूद आदर्शनिष्ठा, सत्य प्रेम, सृजनशीलता, इंसानी संवेदना की कालजयी सत्ता के समक्ष इन सबका कोई टिकाऊ आधार नहीं है। अतः अपने ह्दय का सारा साहस, उत्साह और लग्न को बटोर कर आदर्श पथ पर बढ़े चलें। इसके जाज्वाल्यमान स्वरुप के सामने अंधकार, संदेह, तमस के साय को बिगलित होेने दें। बस अपनी धुन का पक्का बनने की देर है, आदर्श की लग्न में मग्न होने की देर है, बाकि सब स्वतः ही क्रमशः अनुसरित होता चलेगा। अपनी अंतर्निहित शक्तियों में विश्वास रखें, अपने सपनों की सच्चाई में आस्था रखें, इनके मूर्त होते कल के सच को अपनी मन की आंखों से निहारें।




इतना समझ में आ जाए तो फिर शिखर की बुलंदियों को छूते, आसमां के अनन्त विस्तार को पार करते, दिव्यता को स्पर्श करते, शाश्वत की ओर उन्मुख सपनों की उड़ान भरने में कैसा संकोच, कैसी कंजूसी। अपनी दिल्ली तमन्ना, मौलिक प्रतिभा, नैसर्गिक रुझान के अनुरुप जीवन का महानतम्, उद्धाततम, भव्यतम, दिव्यतम आदर्श चुनने में कैसी झिझक, कैसा प्रमाद। इस प्रक्रिया में तथाकथ व्यवहारिक बुद्धि के बिरोध भरे स्वरों का सामना होगा, जो बार-बार रोकेगी, टोकेगी, चुग्ली करेगी और नसीयत देगी कि ऐसा तो संभव ही नहीं है क्योंकि ऐसा तो अभी तक हुआ ही नहीं है। इन व्यंग, उपेक्षा एवं कटाक्ष भरे चुनौतीपूर्ण स्वरों को अपनी मंजिल की सीढियां बना लें और अपने अरमानों की दिशा में बढ़े चलें।

विश्वास रखना, आज की ये उद्धात कल्पनाएं कल का मूर्त सच बनेंगी। यदि सूरज तक निशाना साधोगे, तो चांद तक तो पहुंच ही जाओगे। यदि माउंट एवरेस्ट तक जाने की ठानोगे, तो कई हिमशिखरों पर विचरण का आनन्द सहज ही हिस्से में आएगा। नहीं तो ऐ.सी. कमरों में बंद, बाहनों में ही सफर के लिए बाध्य-विवश बदनसीवों की संख्या भी कम नहीं है। छोटे मन से कभी बडे काम संभव नहीं हुए, बौने उद्देश्यों से कभी महान कार्य सिद्ध नहीं हुए। बढ़े कार्य हमेशी ही बड़ी सोच, बड़े दिल, बढ़ी कल्पना और साहसिक प्रयासों के परिणाम रहे हैं।



तो फिर देर किस बात की। अपने जीवन को मनमाफिक भव्यता, दिव्यता और पूर्णता की ओर ले चलने वाले दिल को संवेदित-आंदोलित करते, अंतर में रोमांच भरते आदर्श से भर लें। इन्हें जीवन की राह, पाथेय और मंजिल बना लें। अपनी रुचि, रुझान और ह्दय की पुकार के अनुरुप इस दिशा में बह चलें, बढ़ चलें। शुरुआत स्वाभाविक रुप में नदी के जल स्रोत की भांति नन्हीं सी हो सकती है, लेकिन सागर पर्यन्त आगे बढ़ने की इच्छा के अनुरुप राह का आवश्यक सहयोग, समर्थन एवं संसाधन अवश्य जुटेंगे, यह प्रकृति का अटल विधान है, सृष्टि का शाश्वत प्रावधान है। आवश्यकता बस अपने आदर्श के निर्धारण व इस दिशा में साहसिक कदम उठाने भर की है।


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