बुधवार, 1 जुलाई 2015

आदर्शों का यह पथ रुमानी




जीवन में आदर्श को होना जरुरी है। आदर्श एक दिशासूचक का कार्य करता है, जो जीवन की नाव को संसार-सागर के बीच अनावश्यक वहकाव-भटकाव एवं दुर्घटनाओं से बचाता है। आदर्श क्या हो, एक शब्द में व्यक्त करना कठिन है। यह हर व्यक्ति की प्रकृति, रुचि-रुझान एवं स्वभाव के अनुरुप कुछ भी हो सकता है। सार इतना ही है कि आदर्श कुछ ऐसा हो, जिसे हम दिल से अनुभव कर सकें, जो हमारी रुह को गहराई से छू जाए, जो हमें जहाँ खड़े हैं वहाँ से आगे बढ़ने, ऊपर उठने के लिए प्रेरित कर सके। जो हमारी समूची चेतना को समेटकर सर्वांगीण विकास, चरमोत्कर्ष के जीवन ध्येय की ओर अग्रसर कर सके। आदर्श एक व्यक्ति भी हो सकता है, एक विचार-भाव भी और एक विशिष्ट कार्य भी।

अगर आदर्श का चयन हो गया और हम आदर्श पथ पर बढ़ चले, तो समझो आधा काम हो गया। फिर फर्क नहीं पड़ता की हम इस पर आज सफल होते हैं या कल, क्योंकि अब हम उस मार्ग पर अग्रसर हैं, जो हमें अपनी सारी सीमाओं के पार ले जाने वाला है। अब यह भी फर्क नहीं पड़ता कि आदर्श आज संभव होता है या कल। क्योंकि दीवानी रुत इस संभव-असंभव के गुणा-भाग में नहीं पड़ती। वह तो इसे हर पल, हर हाल में साकार करने की जिद्द पर अढ़ी रहती है और इसके निमित सचेष्ट प्रयास करती है और अपनी हिम्मत नहीं हारती।

अब यह भी फर्क नहीं पड़ता कि आदर्श इस जन्म में संभव होता है या फिर अगले जन्म में। क्योंकि आदर्श आब जीवन का ध्रुब लक्ष्य बन जाता है, जीवन का शाश्वत ध्येय, जिसके बिना जीवन की पूर्णता अधूरी दिखती है। इस हाल में जीवन की स्वाभाविक दुर्बलताएं, मानवीय सीमाएं भी गौण हो जाती हैं, क्योंकि आदर्शों की ओर बढ़ता हर ढग इन सीमाओं को चटका रहा होता है, दुर्बलताएं मार्ग में एक-एक कर तिरोहित हो रही होती हैं। इस भाव में आवेशित रुत अंधकार से प्रकाश, जड़ता से चैतन्यता और चैतन्यता से प्रकाश-शांति की ओर बढ़ रही होती है। पथिक का हर पग अपनी तमाम भूल-चूक व गल्तियों के बावजूद अपने बजूद के केंद्र की ओर कहें या अपनी चेतना के शिखर की ओर बढ़ रहा होता है। पथ के विचलन, फिसलन और अबरोध भी विजय अभियान की शोभा बनते हैं, और अपने प्रगति पथ में इनका सृजनात्मक उपयोग करना पथिक बखूबी जानता है। 

 

राह की तमाम विषमता, दुरुहता, कष्ट-पीड़ा, बिरोध, विकरालता के बावजूद रुह का अद्म्य भाव पथिक की संकल्प शिखा को प्रदीप्त रखता है। राह में रुहानियत से ईश्क का भाव पथिक के अस्तित्व को अपनी लपेट में ले लेता है। मानवीय सम्बन्ध इस लपट में पावनतम भावों से मंडित हो जाते हैं, राग-द्वेष के किनारे पीछे छूटने लगते हैं। स्वार्थ क्रमशः क्षीण होने लगता है, परमार्थ में स्वार्थ दिखने लगता है और यह धुन जोर पकड़ने लगती है कि अपनों को देकर भी और क्या दें। प्रतिदान की यहां अधिक आशा-अपेक्षा नहीं रहती।  

यहाँ इतना ही कहना है अपनों से, राह के साथी-सहचरों से कि शरीर की अपनी सीमाएं हैं, परिस्थितियों की अपनी मार हैं, मन की अपनी दुर्बलताएं, चित्त के अपने वृत्तियां-संस्कार हैं, लेकिन अपने बजूद के अंदर मौजूद आदर्शनिष्ठा, सत्य प्रेम, सृजनशीलता, इंसानी संवेदना की कालजयी सत्ता के समक्ष इन सबका कोई टिकाऊ आधार नहीं है। अतः अपने ह्दय का सारा साहस, उत्साह और लग्न को बटोर कर आदर्श पथ पर बढ़े चलें। इसके जाज्वाल्यमान स्वरुप के सामने अंधकार, संदेह, तमस के साय को बिगलित होेने दें। बस अपनी धुन का पक्का बनने की देर है, आदर्श की लग्न में मग्न होने की देर है, बाकि सब स्वतः ही क्रमशः अनुसरित होता चलेगा। अपनी अंतर्निहित शक्तियों में विश्वास रखें, अपने सपनों की सच्चाई में आस्था रखें, इनके मूर्त होते कल के सच को अपनी मन की आंखों से निहारें।




इतना समझ में आ जाए तो फिर शिखर की बुलंदियों को छूते, आसमां के अनन्त विस्तार को पार करते, दिव्यता को स्पर्श करते, शाश्वत की ओर उन्मुख सपनों की उड़ान भरने में कैसा संकोच, कैसी कंजूसी। अपनी दिल्ली तमन्ना, मौलिक प्रतिभा, नैसर्गिक रुझान के अनुरुप जीवन का महानतम्, उद्धाततम, भव्यतम, दिव्यतम आदर्श चुनने में कैसी झिझक, कैसा प्रमाद। इस प्रक्रिया में तथाकथ व्यवहारिक बुद्धि के बिरोध भरे स्वरों का सामना होगा, जो बार-बार रोकेगी, टोकेगी, चुग्ली करेगी और नसीयत देगी कि ऐसा तो संभव ही नहीं है क्योंकि ऐसा तो अभी तक हुआ ही नहीं है। इन व्यंग, उपेक्षा एवं कटाक्ष भरे चुनौतीपूर्ण स्वरों को अपनी मंजिल की सीढियां बना लें और अपने अरमानों की दिशा में बढ़े चलें।

विश्वास रखना, आज की ये उद्धात कल्पनाएं कल का मूर्त सच बनेंगी। यदि सूरज तक निशाना साधोगे, तो चांद तक तो पहुंच ही जाओगे। यदि माउंट एवरेस्ट तक जाने की ठानोगे, तो कई हिमशिखरों पर विचरण का आनन्द सहज ही हिस्से में आएगा। नहीं तो ऐ.सी. कमरों में बंद, बाहनों में ही सफर के लिए बाध्य-विवश बदनसीवों की संख्या भी कम नहीं है। छोटे मन से कभी बडे काम संभव नहीं हुए, बौने उद्देश्यों से कभी महान कार्य सिद्ध नहीं हुए। बढ़े कार्य हमेशी ही बड़ी सोच, बड़े दिल, बढ़ी कल्पना और साहसिक प्रयासों के परिणाम रहे हैं।



तो फिर देर किस बात की। अपने जीवन को मनमाफिक भव्यता, दिव्यता और पूर्णता की ओर ले चलने वाले दिल को संवेदित-आंदोलित करते, अंतर में रोमांच भरते आदर्श से भर लें। इन्हें जीवन की राह, पाथेय और मंजिल बना लें। अपनी रुचि, रुझान और ह्दय की पुकार के अनुरुप इस दिशा में बह चलें, बढ़ चलें। शुरुआत स्वाभाविक रुप में नदी के जल स्रोत की भांति नन्हीं सी हो सकती है, लेकिन सागर पर्यन्त आगे बढ़ने की इच्छा के अनुरुप राह का आवश्यक सहयोग, समर्थन एवं संसाधन अवश्य जुटेंगे, यह प्रकृति का अटल विधान है, सृष्टि का शाश्वत प्रावधान है। आवश्यकता बस अपने आदर्श के निर्धारण व इस दिशा में साहसिक कदम उठाने भर की है।


रविवार, 14 जून 2015

अथ योगानुशासन





शाश्वत स्रोत से जोड़ता राज मार्ग

21 जून को योग अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रुप में योग को वैश्विक स्वीकृति मिल चुकी है। जीवन शैली, मानसिक स्वास्थ्य और वैश्विक अशांति के संकट से गुजर रही इंसानियत ने समाधान की उज्जली किरण के रुप में इसे एक मत से स्वीकारा है। यह इसके सार्वभौमिक, व्यवहारिक और वैज्ञानिक स्वरुप के कारण ही सम्भव हो पाया है। इसे किसी भी धर्म, जाति या सम्प्रदाय का व्यक्ति कर सकता है, अपना सकता है। यह किसी भी धार्मिक कर्मकाण्ड या आस्था से मुक्त एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। इसका सारोकार अपने ही तन-मन से है, इसके केंद्र में अपना ही बजूद है, अपनी ही सत्ता का यह अन्वेषण है, अपनी ही आत्म चेतना के केंद्र कहें या शिखर की यह यात्रा है, निताँत व्यैक्तिक, नितांत एकाकी।


हालाँकि समाज, परिवेश भी इस यात्रा में समाहित हैं, जिसके साथ न्यूनतम किंतु स्वस्थ-सार्थक सामंजस्य का इसमें प्रावधान है। योग अपने शब्द के अनुरुप जुड़ने की प्रक्रिया है, अपनी अंतरात्मा से, अपने परिवेश से और फिर परमात्मा से। योग एक संतुलन है, जो खुद के साथ एवं परिवेश-समाज के साथ एक सामंजस्य को लेकर चलता है। अष्टांग योग के रुप में इसकी शुरुआत महर्षि पातंजलि यम-नियम से करते हैं और आसन-प्राणायाम के साथ प्रत्याहार, धारणा ध्यान से होती हुई यह यात्रा समाधि की चरमावस्था तक पहुंचती है। 

योग की शुरुआत यम-नियम रुपी अनुशासन से होती है, जो कि इसके भव्य एवं दिव्य प्रासाद की नींव हैं। यम में सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह आते हैं, जो दूसरों के साथ एक संयमित, संतुलित और सामंजस्यपूर्ण व्यवहार संभव बनाते हैं। इसके बाद आते हैं नियम, जो क्रमशः- शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वर प्रणिधान के रुप में तन-मन को उस अनुशासन में कसने की कवायद हैं, जो व्यक्ति को अगले चरणों के लिए तैयार करते हैं, जिनका चरम है समाधि – समाधान की, शांति-आनन्द की, स्वतंत्रता-मुक्ति की चिर आकांक्षित चरम-परम अवस्था अर्थात जीवन की पूर्णता। इस महासाध्य का प्रमुख साधन है धारणा-ध्यान। और प्रवेश बिंदु है प्रत्याहार। इसके पूर्व आसन प्राणायाम क्रमशः शरीर और प्राण को सबल बनाते हुए इस प्रयोग की पूर्व तैयारियां भर हैं। आसन ध्यान के लिए एक स्वस्थ-सबल-स्थिर आधार तैयार करता है और प्राणायाम चंचल प्राणों को स्थिर कर मन को लय में लाने का प्रयास है।

योग का केंद्रीय बिंदु कहें तो ध्यान ही है, जिसकी गहनता में चित्त की वृत्तियों को शांत किया जाता है, अपने केंद्र में स्थिर-स्थित होने की कसरत की जाती है। लेकिन अष्टांग योग में ध्यान सातवें नम्बर पर आता है। इससे पूर्व यम-नियम से लेकर प्रत्याहार-धारणा तक की छः सीढ़ियां इसके गंभीर प्रयोग को शक्य-संभव बनाती हैं और योग का वास्तविक अर्थ प्रकट होना शुरु होता है। इससे पूर्व योग के नाम पर जो भी होता है, वह सब शिखर आरोहण से पहले की नैष्ठिक तैयारियां, संघर्षपूर्ण अभ्यास भर हैं। 

यदि इतना समझ आ जाए तो फिर हमें पातंजल योग का पहला सुत्र - अथ योगानुशासन, समझ आ जाए। यह समझ, यह सम्यक दृष्टि हमें योग के वास्तविक साम्राज्य में प्रवेश दिलाती है। अब योग हमारे लिए शारीरिक कसरत व दीप ब्रीदिंग के सतही कुतुहुल तक सीमित नहीं है, न ही ध्यान एक औपचारिक कर्मकाण्ड या फैशन भरी अहं तुष्टि। अब हम अंतर्यात्रा के बेस केंप में चेतना के शिखर आरोहण के लिए तैयार हैं। पर्वतारोहण में जैसे बेस केंप में रॉक क्लाइंविंग, रिवर क्रोसिंग, बुश क्राफ्ट, स्नो वॉक, आइस क्राफ्ट जैसे अभ्यासों को किया जाता है। यम-नियम, आसन-प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि ऐसे ही बेस केंप के समय साध्य एवं कष्ट साध्य अभ्यास एवं तैयारियाँ हैं।

इनके साथ व्यवहार का न्यूतन संतुलन, परिवेश के साथ न्यूनतम सामंजस्य सधता है। तन-मन की न्यूतम रफ-टफनेस, फिटनेस साथ रहती है। इसके लिए आवश्यक संयम, साधना, तप करने की क्षमता आती है। राह के अबरोधों की पर्याप्त समझ विकसित होती है। अपने बजूद के समाधान की मुमुक्षत्व भरी त्वरा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। अब कोई बहाना नहीं रहता कि ध्यान के लिए समय नहीं है या ध्यान में मन नहीं लग रहा। ध्यान अब थोंपा हुआ नियम या अनुशासन नहीं रहता। यह अपनी चेतना के शिखर आरोहण का एक अभियान बन जाता है या कहें अपनी अंतरतम गुहा में बजूद की पहेली को समाधान की एक मास्टर की बन जाती है। 

इस तरह योग हमें खुद को जानने व परमात्म चेतना से जुड़ने के पथ पर अग्रसर करता है। अब हम
आत्मानुशासन, ईश्वरीय अनुशासन की जद में आ जाते हैं। मन की निम्न वृतियों को अब हम विकृतियोँ के रुप में पहचानते हैं और इनके परिष्कार के लिए सचेष्ट प्रयास करते हैं। संस्कारवश या परिस्थितिवश यदि कोई गल्ती हो भी गई तो उसको पुष्ट करने का अब कोई आधार हमारे पास नहीं रहता। इसका प्रायश्चित किए बिन अब हम चुप शांत नहीं बैठ सकते। परम सत्य, परा चेतना के साथ अब हमारा अलिखित करार हो जाता है औऱ हम पूर्णता की राह के, शाश्वत जीवन के सचेत पथिक बन जाते हैं। अमृतस्य पुत्रः के रुप में पूर्णता अब हमें अपना जन्मसिद्ध अधिकार लगता हैआध्यात्मिक पूर्णता का आदर्श अब जीवन का ध्रुव लक्ष्य बन जाता है और योग इस परम लक्ष्य की ओर बढ़ने का राज मार्ग।

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