मंगलवार, 5 सितंबर 2017

शिक्षक दिवस पर विशेष – शिक्षक, गुरु एवं आचार्य

आचार्य की भूमिका में तैयार हों शिक्षक

शिक्षक दिवस पर या गुरु पूर्णिमा के अवसर पर बधाईयों का तांता लग जाता है, मोबाईल से लेकर सोशल मीडिया पर। गुरु, शिक्षक एवं आचार्य जैसे शब्दों का उपयोग इतना धड़ल्ले से होता है कि कन्फ्यूजन हो जाती है। सामान्य जनों को न सही, शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोगों में इनकी तात्विक समझ जरुरी है, इनके शब्दों के मूल भावार्थों का स्पष्ट बोध आवश्यक है, जो कि उनके जीवन के दिशा बोध से भी जुड़ा हुआ है।

गुरु – भारतीय संदर्भ में गुरु का बहुत महत्व है, जिसे भगवान से भी बड़ा दर्जा दिया गया है। उस शब्द में जी जोड़कर अर्थात गुरुजी का उपयोग कभी भारी तो कभी हल्के अर्थों में किया जाता है। लेकिन गुरु शब्द का मानक उपयोग उन प्रकाशित आत्माओं के लिए है, जिनको आत्मबोध, ईश्वरबोध या चेतना का मर्मबोध हो गया। इस आधार पर गुरु आध्यात्मिक रुप में चैतन्य व्यक्ति हैं। आश्चर्य नहीं कि शिष्यों को आध्यात्मिक मार्ग पर दीक्षित करने वाले ऐसे गुरु कभी बिना ईश्वरीय आदेश के इस कार्य में हाथ भी नहीं डालते थे। 

इसी तरह शिष्य की अपनी विशिष्ट पात्रता होती थी, जिन कसौटी पर बिरले ही खरा उतरते थे। इसी युग में श्रीरामकृष्ण परमहंस ऐसे गुरु हुए और स्वामी विवेकानन्द से लेकर इनके दर्जनों ईश्वरकोटि गुरुभाई ऐसे शिष्य थे, जिन्होंने शरीर रहते आध्यात्मिक शिखर पा लिया था। इसी आधार पर वे गुरु कहलाने के अधिकारी थे और दीक्षा भी देते थे। ऐसे ही श्रीअरविंद, श्रीमां व उनके शिष्यों पर लागू होती है। इसी क्रम में युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, उनके गुरू स्वामी सर्वेश्वरानन्दजी व शिष्यों की चर्चा की जाती है।

अर्थात, गुरु जीवन का चरम आदर्श है, पूरी तरह से प्रकाशित व्यक्तित्व। जीवन के मर्म जिसने जान लिया। गुरु आत्मविद्या, ब्रह्मविद्या या अध्यात्म विद्या का ज्ञाता होता है। उसे चेतना का मर्मज्ञ कह सकते हैं। उसमें वह अंतर्दृष्टि व तपोवल होता है कि वह पूर्णता के अभीप्सु शिष्य को अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ने का मार्गदर्शन दे सके, आगे बढ़ा सके। इस आधार पर गुरु जीवन विद्या का अधिकारी विद्वान होता है। जीवन के समग्र बोध की खोज में हर इंसान का वह परम आदर्श होता है।


शिक्षक या टीचर – अपने विषय का ज्ञाता होता है। कोई फिजिक्स में है, तो कोई गणित का, कोई हिंदी का है तो कोई कम्प्यूटर का, कोई मीडिया का है तो कोई राजनीति का आदि। इस विषय ज्ञान का जीवविद्या से अधिक लेना देना नहीं है। यह रोजी रोटी से लेकर सांसारिक जीवन यापन या संचालन का साधन है। इन विषयों में अपना कैरियर बनाने वाले छात्र-छात्राओं को यह ज्ञान, विज्ञान या कौशल देने के लिए शिक्षक में उसका सैदांतिक एवं व्यवहारिक ज्ञान होना जरुरी है।
लेकिन ऐसा शिक्षक इन विषयों तक ही सीमित रहे, तो बात बनने बाली नहीं। क्योंकि विषय की खाली पैशेवर जानकारी के आधार पर वह एक स्किल्ड प्रोफेशनल तो तैयार कर देगा, लेकिन जीवन की अधूरी सोच व समझ के आधार पर अपने साथ परिवार, समाज के लिए कितना उपयोगी सिद्ध होगा, कहना मुश्किल है। 

शिक्षक के व्यक्तित्व में गुरुता का समावेश भी हो इसके लिए जरुरी है कि उसका आदर्श उच्च हो। आध्यात्मिक रुप से प्रकाशित व्यक्ति अर्थात गुरु सहज रुप में शिक्षकों के आदर्श हो सकते हैं। आदर्श जितना ऊँचा होगा व्यक्तित्व का रुपांतरण एवं चरित्र का गठन उतना ही गहरा एवं समग्र होगा। अतः जब एक विषय का जानकार शिक्षक जीवन के उच्चतम आदर्श के साथ जुड़ता है तो उसके चिंतन, चरित्र व आचरण का आत्यांतिक परिष्कार आरम्भ हो जाता है। यह प्रक्रिया कितनी ही धीमी क्यों न हो, इसकी परिणती बहुत ही सुखद एवं आश्चर्यजनक होती हैं। यहीं से आचार्य का जन्म होता है और क्रमिक रुप में वह विकसित होता है।


आचार्य – आचार्य का अर्थ उस शिक्षक से है जिसे अपने विषय के साथ जीवन की भी समझ है। जो पैशेवर ज्ञान के साथ जीवन के नियमों का भी ज्ञान रखता है और नैतिक तथा मूल्यों को अपने विवेक के आधार पर जीवन में धारण करने की भरसक चेष्टा कर रहा है, एक आत्मानुशासित जीवन जीकर अपने आचरण द्वारा जीवन विद्या का शिक्षण देने का प्रयास कर रहा है। आश्चर्य नहीं कि गुरुता के आदर्श की ओर अग्रसर शिक्षक की मानवीय दुर्बलताएं क्रमशः तिरोहित होती जाती हैं। उसके चिंतन-चरित्र एवं व्यवहार क्रमशः शुद्ध होते जाते हैं और व्यक्तित्व में उस गुरुता का समावेश होने लगता है कि वह नैतिक एवं मूल्यों का जीवंत पाठ अपने उदाहरण से पढा सके। यह एक आचार्य की भूमिका में शिक्षक की प्रतिष्ठा है।

वर्तमान विसंगति – आज जब शिक्षा एक व्यवसाय बन चुकी है, अधिकाँश शिक्षाकेंद्र व्यवसाय का अड्डा बन चुके हैं। उँच्चे दामों पर डिग्रियां देना व अधिक से अधिक धन कमाना उद्देश्य बन चुका है। क्लास के बाहर ट्यूशन पढ़ाना शिक्षकों का धंधा बन चुका है, जिस पर उनका अधिक ध्यान रहता है। जरुरत मंद विद्यार्थियों के प्रति संवेदनाशून्य ऐसे शिक्षकों एवं शिक्षातंत्र से अधिक आशा नहीं की जा सकती। जीवन निर्माण, चरित्र गठन, व्यक्तित्व परिष्कार एवं जीवन मूल्य जैसे शिक्षा के मानक इनकी प्राथमिकता में शायद ही कोई स्थान रखते हों। ऐसे शिक्षा केंद्रों से अगर एक पढ़ी-लिखी, हाईली क्वालिफाई मूल्य विहीन, नैतिक रुप से पतित, चारित्रिक रुप से भ्रष्ट और सामाजिक रुप से संवेदनशून्य पीढ़ी निकल रही हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।

राजमार्ग – शिक्षा के साथ अध्यात्म का समन्वय समय की जरुरत है। शिक्षकों को आचार्य की भूमिका में युवा पीढ़ी का समग्र मार्गदर्शन करना होगा। जीवन में प्रकाशित व्यक्तित्व के धनी गुरुओं को जीवन का आदर्श बनाना होगा। इससे कम में जीवन की समग्र समझ से हीन, मूल्यों के प्रति आस्थाहीन शिक्षकों के भरोसे किन्हीं वृहतर उद्दश्यों को पूरा करने की आशा नहीं की जा सकती। इससे कम में हम जड़ों की उपेक्षा करते हुए महज टहनियों को पानी देने का कर्मकाण्ड पूरा कर रहे होंगे। शिक्षक दिवस, एक शिक्षक के रुप में अपनी भूमिका पर विचारमंथन करते हुए, स्वयं के ईमानदार मूल्याँकन का भी दिवस है।
 

रविवार, 3 सितंबर 2017

पर्व-त्यौहार – गणेश उत्सव का प्रेरणा प्रवाह



विघ्न विनाशक, बुद्धि-विवेक के दाता, ऋषि-सिद्धि के अधिष्ठाता

गणेश भारतीय पौराणिक इतिहास, कथा गाथाओं के एक अहं, रोचक एवं लोकप्रिय पात्र हैं। भारत ही नहीं विश्व के हर कौने में इनकी उपासना के प्रमाण मिलते हैं। इनके रुपाकार को देखते हुए इतिहास से अनभिज्ञ बच्चे इन्हें एलीफेंट गॉड के रुप में जानते हैं। इनके स्वरुप व विशेषताओं को प्रकट करता संक्षिप्त वर्णन यहाँ हिमवीरु की इस ब्लॉग पोस्ट में प्रस्तुत है।

शास्त्रों के अनुसार गणेश माँ पार्वती के मानस पुत्र हैं। गणेश को बुद्धि-विवेक के दाता, विघ्न विनाशक और ऋद्धि-सिद्धि के अधिष्ठाता माना जाता है। इनका पौराणिक एवं धार्मिक महत्व जो भी हो, इनकी विशेषताओं के आधार पर इनका सामयिक महत्व एवं प्रासांगिकता बहुत है, जिस पर विचार करना अभीष्ट हो जाता है। गणेश उत्सब के अवसर पर कहीं एक दिन तो महाराष्ट्र जैसे प्रांत में पूरे दस तक गणपति वप्पा मोरिया का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। भादों की शुक्ल चतुर्थी से शुरु यह उत्सव अनन्त चतुर्दशी के दिन सम्पन्न होता है। अंतिम दिन गणेश की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। विसर्जन के साथ ही उत्सव का भाव समाप्त न हो, भगवान गणेश से जुड़ी प्रेरणाएं हमारे जीवन का एक हिस्सा बनकर साथ रहें, यह महत्वपूर्ण है। 
बुद्धि से हम सांसारिक समस्याओं का हल करते हैं, लोकजीवन चलाते हैं। लेकिन विवेक हमारे आध्यात्मिक जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है। बुद्धि के साथ विवेक की प्रतिष्ठा जीवन के समग्र विकास के लिए आवश्यक है, जो आत्मचिंतन व मनन से होती है और इसमें स्वाध्याय-सतसंग की महत्वपूर्ण भमिका रहती है। अतः जब तक हम दैनिक जीवन में आत्मचिंतन के साथ स्वाध्याय या सतसंग का समावेश न करें, हमारा गणेश पूजन पांडाल तक ही सीमित रहेगा, इससे बुद्धि-विवेक से जुड़ी इनकी फलश्रुतियाँ से हम वंंचित ही रहेंगे।

संसार-समाज का सामान्य प्रवाह विवेक को कुंद किए रखता है। इसमें विवेक का जागरण वितराग व प्रकाशित महापुरुषों के सतसंग से होता है। यदि ऐसे सत्पुरुष उपलब्ध न हों तो इनके द्वारा रचित साहित्य का स्वाध्याय इसकी कमी कई अंशों तक पूरी करता है। फिर हर धर्म में सद्गुरुओं एवं ऋषिकल्प व्यक्तियों की आध्यात्मिक शिक्षाओं का निचोड़ समाहित रहता है। ऐसे सत्साहित्य के प्रकाश में स्वतंत्र आत्मचिंतन एवं मनन की प्रक्रिया विवेक की ज्योति जलाए रखने में बहुत सहायक होती है। दिनचर्या में कुछ समय इस हेतु निर्धारित किया जाना समझदारी वाला कदम माना जाएगा। 
 
दूसरा, गणेश ऋद्धि और सिद्धि के दायक हैं, ऋद्धि-सिद्धि को इनकी सहचरी माना जाता है। ऋद्धि आंतरिक जीवन की शांति, संतुष्टि या कहें आंतरिक जीवन की उपलब्धि है, तो सिद्धि बाह्य जीवन की योग्यता, दक्षता एवं वैभव विभूति। इन दोनों के मिलने से जीवन की समग्र सफलता प्रकट होती है और व्यक्तित्व पूर्णता का बोध पाता है। बुद्धि-विवेक से उपजी जीवन शैली निसंदेह इसका आधार बनती है और क्रमशः व्यक्ति को पूर्णता की ओर अग्रसर करती है।

बैसे ऋद्धि का आधार है व्यक्तित्व में ईमानदारी और सिद्धि का आधार है व्यक्तित्व में जिम्मेदारी का समावेश। ईमानदारी व्यक्ति के ईमान या कहें अंतर में बैठी अंतर्वाणी या देववाणी या ईश्वरीय वाणी का अनुसरण है। अंतर की वाणी बहुत स्प्ष्ट होती है, लेकिन प्रायः हम क्षणिक सुख, क्षुद्ध स्वार्थ या अहं की रौ में, या आलस-प्रमाद में इसको अनसुनी कर जाते हैं। धीरे-धीरे यह आबाज मंद पड़ने लगती है। शुरुआत में गलत राह पर जाते हुए जो अपराध बोध होता है, उसे बुद्धि अपने पक्ष में कुतर्कों के साथ पुष्ट करती जाती है। क्रमशः विवेक कुंद पड़ जाता है और जीवन गलत आदतों, व्यसनों और कुटेवों की जकड़न का शिकार हो जाता है। 

व्यक्तिगत जीवन में ईमान की दीर्घकालीन उपेक्षा एक दिन वाह्य जीवन में विस्फोटक परिस्थिति के रुप में प्रकट होती है। व्यतिगत जीवन में न्यूरोटिक और साइकोटिक मनोरोग इसके प्रत्यक्ष स्वरुप हैं तो सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार-घोटाले, अपराध, ब्लात्कार-गैंगरेप, विभत्स काँड जैसी दुर्घटनाएं इसकी चरम परिणतियाँ हैं। इसके मूल में अपने ईमान से समझौता, या कहें अपनी अंतर्वाणी की सतत अवज्ञा को ढूंढा-खोजा जा सकता है। महापुरुषों, सत्पुरुषों का स्वाध्याय, वितराग पुरुषों का सतसंग और सतत आत्मचिंतन की प्रक्रिया अपनाई गई होती तो विवेक की ज्योति जलती रहती और पतन की इस पराकाष्ठा तक दुर्गति नहीं होती या मनःविकारों से क्रमशः उबर गए होते।
साथ ही ईमानदारी से भरा जीवन गहरे आत्मसंतोष का भाव देता है, शांतिपूर्वक जीने का आधार बनता है। इसके विपरीत बेईमान हमेशा आशंकित-आतंकित और हैरान-परेशान रहता है, क्योंकि एक ओर समाज-संसार के दण्ड का भय रहता है, अपने बुद्धि-चातुर्य के आधार पर इससे बच भी गए तो अंतरात्मा की लताड़ लगातार पड़ती रहती है। 

हालाँकि ईमानदारी की राह तुरंत फलित नहीं होती। शॉर्ट कट्स का यहाँ अभाव रहता है। धर्म व नीति के मार्ग पर धैर्यपूर्वक चलते हुए आगे बढ़ना होता है। लेकिन जो उपलब्धि मिलती है वह गहरे आत्मसंतोष से भरी होती है और जीवन ऋद्धि सम्पन्न बनता है। मंगलमूर्ति गणेश अर्थात बुद्धि-विवेक की कृपा प्रत्यक्ष फलित दिखती है।

ईमानदारी के साथ जिम्मेदारी का भाव बाह्य जीवन में सफलता एवं दक्षता को सुनिश्चित करता है। एक विद्यार्थी के रुप में हमारी पहली जिम्मेदारी है अध्ययन करना और एक शिक्षक के रुप में हमारी पहली जिम्मेदारी है सतत ज्ञानार्जन और शिक्षण। इसी तरह हर नागरिक का अपने स्वधर्म के अनुरुप प्राथमिक जिम्मेदारी तय है। इसी के बाद दूसरी जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों में संतुलन समझदारी या विवेक के आधार पर सुनिश्चित होता है। 

हमारी पहली जिम्मेदारी है अपने ईमान का अनुसरण करना या कहें ईमानदारी भरा जीवन जीना। एक समझदार और जिम्मेदार नागरिक के रुप में अपने कर्तव्य का पालन करना। चारों ओर जो समस्याएं मुंह वाए खड़ी हैं, उनके बीच समाधान का हिस्सा बनकर जीना। जो परिवर्तन समाज या चारों ओर देखना चाहते हैं, उसकी शुरुआत स्वयं से करना। यह सब ईमादारी के साथ शुरु होता है, जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़ता है और समझदारी तथा बहादुरी के साथ निष्कर्ष तक पहुंचता है। उत्कृष्ट चिंतन और आध्यात्मिक जीवन शैली इसके अभिन्न घटक हैं। इतना बन पड़ा तो समझें विघ्नविनाशक भगवान गणेशजी के कृपा अजस्र रुपों में बरसेगी और फिर ऋद्धि-सिद्धि अर्थात् आंतरिक संतोष एवं बाह्य सफलता जीवन का हिस्सा बनती जाएंगी। इससे कम में मात्र चिन्ह पूजा से गणेश-उत्सव से प्रयोजन सिद्ध होने की आशा रखना नादानी होगी।

सोमवार, 28 अगस्त 2017

मेरा गाँव, मेरा देश – शिखर की गोद में बचपन की शेष यादें



यादें बचपन की, समाधान कल के
बचपन की बातें जो कभी सहज क्रम में घटीं थीं, आज वो यादों के रुप में गहन अचेतन में दफन हैं। बचपन के बाद किशोरावस्था, फिर युवा और अब प्रौढ़ावस्था के पार जीवन की ढलती शाम। बचपन के वे गाँव, घर, घाटी, पर्वत और परिजन - सब पीछे छूट चुके हैं, जीवन के अर्थ और मर्म की तलाश में। और इस तलाश को पूर्णता देने वाले नए मायने मिलते हैं दुबारा उसी बचपन में पहुँचकर, बचपन के बालसुलभ भाव-जिज्ञासा-सपनों और अरमानों को जिंदा पाकर, जब कभी संयोग घटित होता है उस अतीत में लौटने का, उसमें झांकने का, उसे जीने का।
कुछ ऐसे ही पल या कहें दिन के चंद घंटे मिले इस बार अगस्त माह में, जब अपने भाईयों के संग जन्मभूमि तक पहुँचने का संयोग बना। बचपन अधिकाँश नाना-नानी के घर शिखरों की गोद में बसी घाटी में बसे सेऊबाग गाँव में बीता, लेकिन दादा-दादी का घर पहाड़ के शिखर की गोद में बसे गाहर गाँव में था था, जहाँ पहुँचने के लिए 3-4 किमी की खड़ी चढ़ाई पार करनी पड़ती थी। इसका सफर बचपन में घंटों लेता था। नाले के पार सयो गाँव आता था। नाला सदावहार था। इसको पार करना स्वयं में एक रोमाँच से कम नहीं रहता था। क्योंकि इसी नाले की एक धारा, पतली कुल्ह(नहर) के रुप में घराट(आटा पीसने की चक्की) को चलाती थी। पत्थर के दो गोल पाटों के बीच गिरते अन्न के दाने और पीसकर बाहर निकलता आटा, बालमन को यह दृश्य बहुत अद्भुत प्रतीत होता था।

इसी घराट के पास बहती नाले की दूसरी धारा में पत्थरों और मिट्टी की दीवाल खड़ा कर हमारा स्वीमिंग पूल बन जाता, जिसमें हम तैराकी का शौक पूरा करते। पायजामा के तीनों खुले कौनों में गाँठ बाँधकर, इसे गिलाकर फुला देते और इस पर लेटकर हाथ-पैर मारते हुए तैरने का अभ्यास करते। इसी धारा के 3-400 मीटर पीछे था गाँव का वह झरना, जो हमें रहस्य-रोमाँच से भरी एक अलग ही दुनियाँ में ले जाता। इसी के रास्ते में अखरोट-खुमानी के पेड़ लगे थे, जो मौसम में हमें अपने फल प्रसाद से कृतार्थ करते। झरने के 100 मीटर पहले चट्टानी दिवार के तल पर थे  दो-तीन जायरू(शुद्ध जल के भूमिगत सोते या चश्में), जिनका निर्मल जल सर्दी में गर्म तो गर्मी में सर्द रहता। गाँव में तब नल नहीं थे, नाले का पानी ही पीने का प्रमुख स्रोत था। और ये जायरु ऐसे में प्रकृति के शुद्धतम उपहार के रुप में गाँववासियों की जुरुरत पूरा करते। हालाँकि आज स्थिति दूसरी है। घर-घर में नल आ चुके हैं। जायरु गर्मी में सूखने लगे हैं। एक ही जायरु सालभर जल देता है। लेकिन प्रकृति के शुद्धतम उपहार के रुप में जायरु जल का कोई विकल्प नहीं है।
इसी जायरु तथा झरने से मिलकर चट्टानी गुफानुमा घाटी बनती है। झरने के पीछे क्या है, बालमन के लिए एक अबुझ पहेली थी। इन्हीं चट्टानों में जब हम बचपन में आईटीबीपी के फौजियों को रैपलिंग (रस्सी के सहारे पहाड़ से नीचे उतरना) करते देखते, जो हमारे लिए कौतुक व आश्चर्य का शिखर होता। झरने से गिरते जल के वाष्पकणों से प्रतिबिंवित होती इंद्रधनुषी सतरंगी छटा हमेशा मंत्रमुग्ध करती। गाँववासी झरने के जल कणों में जोगनियों (सूक्ष्म देवशक्तियाँ) का वास मानते और इसी भाव के साथ इनका पूजन भी होता। जो भी हो हमारे लिए झरना और इसके साथ सटी घाटी एक रहस्यमयी एवं पावन स्थली थी, जहाँ हम भयमिश्रित श्रद्धा के साथ विचरण करते।
जब भी शिखर की गोद में बसे गाहर गाँव जाते तो नाला पार करते हुए इसी झरने के पास से गुजरते व जिसका दिव्य निनाद कानों में गूंजते हुए अंतर्मन को गहरे स्पर्श करता। इसकी पावन उपस्थिति एवं शीतल स्पर्श के साथ यात्रा आगे बढ़ती। सर्दी में इस राह पर छायादार क्षेत्रों में पानी जमकर बर्फ बनता। बर्फ की परत व इसकी बनी आकृतियों को तोड़कर खेलने का अलग ही रोमाँच रहता। इस सब के बीच सयो गाँव को पार करते हुए हम सदावहार कोहू के बन में प्रवेश करते। रास्ता पत्थरों की सीढियों से बना, सीधा चढ़ाई लिए था। कहीं सीधा रास्ता आता, तो थोड़ी राहत मिलती, लेकिन अधिकाँश चढ़ाई ही चढ़ाई सामने रहती। बीच-बीच में विश्राम स्थल बने होते, जहाँ कुछ पल दम लेकर आगे बढ़ते।
बढ़ती चढ़ाई के साथ नीचे स्यो, नालापारा व सेऊवाग गाँव का विहंगम दृश्य प्रकट होता, इसके खेत, उसके आगे घाटी को दो फाड़ करती ब्यास नदी दिखती। और ऊपर चढ़ने पर सुदूर काईस सेर(धान के खेत), उसके पार मंद्रोल क्षेत्र तक के दर्शन होते और दक्षिण दिशा में क्रमशः नदी पार के बाशिंग गांव, पुलिस लाईन दिखती। उसके आगे वैष्णुमाता मंदिर के दर्शन होते। थोड़ा ऊपर चढ़ने पर कुल्लू घाटी के दर्शन होते।


इसी के साथ गाहर गाँव की पहली झलक मिलती, जिसका दर्शन पाते ही जैसे जेहन में बिजली कौंधती, लगता अब मंजिल के पास पहुँच ही गए। खेत व बगीचों को पार करते ही गाँव की वाई(जल के प्राकृतिक स्रोत) के दर्शन होते। रास्ते में सेब के बगीचे आकर्षण का केंद्र रहते, विशेषरुप से कमर्शियल सेब के। यह सेब की वह किस्म है जो स्वाद में खट्टी-मीठी और काफी सख्त होती है, इसे तोड़ने के कई दिनों बाद ही पकने पर खाया जा सकता है। अपनी झारखण्ड यात्रा के दौरान हमने इसको बहुतायत में वहाँ बिकते देखा तो इनकी याद ताजा हुई थी। (http://himveeru.blogspot.in/2015/02/blog-post_18.html )

इस बगीचे को पार करते ही वाई आती। इसी के साथ गाँव में प्रवेश की जीवंत अनुभूति होती। यह जल दो धाराओं के रुप में पत्थर के बने नल से झरता। इन अक्षय जल धाराओं का स्रोत क्या है, ये कैसे कहाँ से आता है व बनता है, बालमन की समझ से परे था। प्रकृति के उपहार के रुप में, लोकजीवन व संस्कृति के अभिन्न घटक के रुप में दिल में इसकी गहरी छाप थी। यहाँ पर पानी भर रहे या कपड़े धो रहे रिश्तेदारों से मिलना-जुलना होता और दुआ-सलाम शुरु होती। तब यही गाँव में पानी का एकमात्र स्रोत था। हालाँकि आज घर-घर में नल से पानी की व्यवस्था हो चुकी है। लेकिन वाई के शुद्ध व शीतल जल का कोई तोड़ नहीं है।
इस वाई का जल सीधा हमारे खेत से होकर नीचे गुजरता था। खेत में फलों व सब्जियों को सींचते हुए यह आगे नीचे बढ़ता। ताऊजी के खेती-बागवानी से जुड़े होने के कारण इस बाग में उनके प्रगतिशील प्रयास हमें रोमाँचित करते थे। क्योंकि नीचे सेऊबाग गाँव में ऐसा कुछ नहीं था। यहाँ तैयार हो रहे जापानी फल, गोल्ड़न व रॉयल सेब, बैंगन-शिमला मिर्च जैसी सब्जियां हमें काफी चकित करती, जो हमारे बालमन के लिए एक कौतुक भरा सुखद आश्चर्य थी। उस समय गाँव व घाटी में फल व सब्जी का चलन नहीं था। गैंहूँ, चाबल व दालें ही उगाई जाती थी।
वाई के आगे मुश्किल से 100 मीटर ऊपर रास्ते में एक ढलानदार चट्टान थी, जिस पर रॉक क्लाइंविंग करते हुए चढ़ने का लोभ हम सब बच्चे संवरण नहीं कर पाते थे। चट्टान के ऊपर से फिर नीचे फिसलने का क्रम चलता। इस खेल में हम इतना रम जाते थे कि बढ़ों की डाँट डपट के बाद ही आगे बढ़ पाते। चट्टान पर घीसने से एक पट्टी का निशान बन चुका था। इसमें फिसलते हुए पेंट व पायजामा का घिस कर फट जाना सामान्य बात थी।
 
इसके आगे गाँव की बस्तियों व सोह(गाँव की क्रीडा स्थली) को पारकर हम कुलदेवता के मंदिर से होकर माथा टेकते हुए अपने दादा के घर पहुँचते। इसकी पहली झलक मिलते ही चित्त में रोमाँच की लहर दौड़ती। इस जन्मस्थल में पर्व-त्यौहार या मेले में ही हमारा आना-जाना होता। अतः इसकी यादें जेहन में एक अलग ही रुमानी भाव लिए हुए रहती।
यहाँ दादाजी के दर्शन तो हम नहीं कर पाए, लेकिन उनसे जुड़ी किवदंतियों को सुन एक दमदार इंसान का अक्स चित्त पर अंकित होता। सुबह अंधेरे में ही घर से खेत व जंगल में काम पर बाहर निकलना उनका नित्यक्रम था और सुबह रोशनी होने से पहले ही जब गाँव जागता, वो काम पूरा कर घर लौट आते। अपने दम पर चार मंजिला काठकुणी लकड़ी का घर कैसे वन मैन आर्मी बनकर डिजायन कर खड़ा किया होगा, आश्चर्य होता। आंगन की दिवार पर जो पत्थर हैं, इनका भारी-भरकम आकार और तराश देखकर आश्चर्य होता कि किस तकनीक से यह सब संभव हुआ होगा, क्योंकि यहाँ तक पैदल मार्ग के अलावा और कोई यातायात का साधन नहीं था। दादाजी के तो दर्शन नहीं हुए, लेकिन शांति, संवेदना और सरलता की प्रतिमूर्ति दादीजी का सान्निध्य लाभ लम्बे समय तक मिलता रहा। ताऊजी का मस्तमौला, कथाशिल्पी और रोमाँचक संगसाथ भी लम्बे समय तक मिलता रहता।

यहाँ घर की तीसरी मंजिल की खिड़की से ऊपर देवदार-बाँज से लदे घने जंगल व पहाड़ के दर्शन होते और नीचे कुल्लू घाटी का विहंगम दृश्य प्रत्यक्ष था। यहाँ से निहारते हुए मन पक्षीराज की भांति आसमान में पंख फैलाए घाटी का अवलोकन करता। नीचे एक गाँव, फिर दूसरा, तीसरा...बांज के जंगल, खेत, बगीचे....ब्यास नदी..दोनों ओर सड़कें, इनमें दौड़ते वाहन...फिर कुल्लू शहर व उसके पार दूसरे पर्वत शिखर। इन सबसे मिलकर बनता घाटी का विहंगम दृश्य़, सब अद्भुत-रोमाँचक-मनोरम-वर्णनातीत।
रात का नजारा तो और भी रोमाँचक रहता, जब घाटी के गाँव-घर तथा शहर में जगमगाती रोशनी जैसे आसमान के तारों को जमीं पर टिमटिमाने का बेजोड़ नजारा पेश करती। इसी के साथ पूरे परिवार के बड़ों का मिलन, बच्चों की फौज की भगदड़, खेल कूद – सारी चहलपहल गहरे अचेतन में सुखद यादों के रुप में संचित है। गाँव की सोह (क्रीडा मैदान) में साल में एक बार भव्य बीरशू मेला लगता। इसमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त एक दिन फिल्म का शो भी रहता, जो हमारे लिए सबसे रोचक कार्यक्रम था। उस समय रील वाली फिल्म चलती थी। तब गाँव तो क्या शहर में भी फिल्म का चलन नहीं था, न ही टीवी आए थे। पर्दे पर फिल्म (ब्लैक एंड व्हाइट) देखने का जो उत्साह, कौतुहल व रोमाँच रहता वह वर्णन करना कठिन है। फिल्म के दिन हम सेऊबाग से यहाँ तक 3-4 किमी की चढ़ाई बिना किसी बिश्राम के एक सांस में पूरा करते। हम बच्चे क्या, गांँव के बड़े-बूढ़े, युवा, महिलाएं भी इसमें शुमार रहते।

फिर पढ़ाई-लिखाई व जीवन के अन्वेषण-संघर्ष के दौर में आगे बढ़ते-बढ़ते गाँव-घर कब पीछे छूट जाते हैं, पता नहीं चला। आज लगभग 20-25 वर्ष बाद एकदम नए अंदाज में यहाँ के बदले परिवेश में भ्रमण का संयोग बना। बचपन की सारी यादें एक के बाद दूसरी, तीसरी..इस तरह संगीत के अनगिन सुरों की भांति अचेतन मन से फूट पड़ीं। इनमें दर्द था यहाँ से उजड़ने का, टीस थी पुरानी यादों को फिर से उसी रुप में न जिंदा हो पाने की, खुशी थी कुछ अपनों से यहाँ मिलने की, आनन्द था यहाँ की उसी मिट्टी में लोटपोट होकर खोए-बीते बचपन को अनुभव करने का, सुकून था इन सबको समेटते हुए जीवन की पटकथा को किसी निष्कर्ष की ओर ले जाने का।
इस बीच कुछ बुजुर्ग इस मृत्युलोक को छोड़ चुके हैं, उनका समरण आना स्वाभाविक था और लगा जैसे वो घर में ही सूक्ष्मरुप में मौजूद हों। कुछ परिवारजन दूसरे परिवार का सदस्य बनकर आसपास या यहाँ से दूर हैं। घर के सुनसान कौने कुछ कह रहे थे। सबसे अधिक कचोटने बाली थी बचपन की उस चहल-पहल का अभाव, जिसकी गूँज से घर आबाद रहता था। लेकिन यह आज संभव हो भी तो कैसे। सब बच्चे बढ़े हो चुके हैं, युवा-प्रौढ़ बन चुके हैं। लेकिन खिड़की से घाटी का दृश्य, ऊपर देवदार-बाँज के जंगलों का नजारा ठीक बैसा ही था। इसी को निहारते पुरानी यादें एक-एक कर ताजा करते गए। अपनों से मिलकर वही जीवन की गर्माहट मिली। जीवन के उतार-चढ़ाव, संयोग-वियोग व संघर्ष के बीच जीवन की एक नई समझ व एक नया मकसद अंतर्मन में अंकित होते गए।
सबसे खास बात गाँव के जागरुक लोगों के प्रयास से सड़क का निर्माण दिखा। तमाम संघर्ष-विरोध-दुर्भिसंधियों के बावजूद सड़क गाँव के आर-पार बन चुकी है, लगभग पक्की बनने के कागार पर है। ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ प्रधान की भूमिका गाँव के विकास में क्या हो सकती है, इसका उदाहरण यहाँ स्पष्ट है। सड़क के साथ हुए गाँव व घाटी का कायकल्प प्रत्यक्ष दिख रहा था।
वही गाँव जहाँ पहुँचने व चढ़ने-उतरने में कभी घंटों लगते थे, आज कुछ मिनटों में यात्रा पूरी हो गई। अन्न, फल व सब्जियों को जिन्हें कभी पीठ में ढोकर चढ़ाना पड़ता था, आज सहज ही बाहनों में आ-जा रही हैं। यात्रा जो पहले कितनी थकाऊ व दुष्कर थी कितनी सरल व सुविधाजनक बन चुकी है, देखकर बहुत सुखद अहसास हुआ। सब्जि व फल उत्पादन के प्रति गाँववासी जागरुक हो चुके हैं। शिक्षा व स्वाबलम्बन का पाठ समय के साथ वे सीख चुके हैं। इनके साथ पूरी घाटी में विकास की वयार स्पष्ट बहती दिखाई दे रही है। 
हाँ, इस सबके बीच पुरानी राह की बचपन की यादें अब अपने जेहन तक सीमित हैं, क्योंकि पुराने रास्ते बदल चुके हैं। नयी पीढ़ी के पास नयी संभावनाओं के साथ नए रास्ते सामने खड़े हैं। फिर परिवर्तन के शाश्वत सत्य को स्वीकारने में कैसी आनाकानी, जब वह अवश्यंभावी हो। संतोष इतना ही है कि बचपन की यादें विकास पथ पर अग्रसर हैं औरर अपनी जन्मभूमि के लिए कुछ करने का भाव दिल में जीवंत है। यहाँ की कुछ मूलभूत विसंगतियों से भी परिचित हैं, जिनके निराकरण की कवायद जेहन में चलती रहती है। प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रुप में इसके समाधान की दिशा में अपने ढंग से प्रयास जारी हैं। कुल मिलाकर, जन्मभूमि, मातृभूमि के अज्रस अनुदानों से उऋण होना अभी शेष है।

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