सोमवार, 30 अप्रैल 2018

जीवन यात्रा – शांति की खोज में एक पथिक, भाग-1


हिमालय की नीरव वादियों में जीवन के रुपांतरणकारी पल

फुर्सत के कुछ लम्हें कितने दुर्ळभ हो चलें हैं आज की भागमभाग भरी जिंदगी में। यदि मिल भी जाएं तो टीवी, इंटरनेट, यार-दोस्त, पार्टी और गप्प-शप्प। पता ही नहीं चलता कि कैसे बीत गए। जबकि इन पलों को प्रकृति के संग विताया जाए तो ये क्षण जीवन के यादगार पल सावित हो सकते हैं। मनोरंजन के साथ शिक्षा के, प्रेरणा के, शाँति-सकून के और सृजन के आनन्द के, आत्म अन्वेषण, आत्म विकास के माध्यम हो सकते हैं।
प्रकृति की गोद में फुर्सत के ये पल जीवन के रुपांतरण की पटकथा लिख सकते हैं। प्रस्तुत है एक ऐसी ही एक जीवन यात्रा जो किसी के भी जीवन का सत्य हो सकती है।
हिमालय की गोद में यह उसकी पहली यात्रा थी। हिमालय के बारे में बहुत कुछ सुन-पढ़ रखा था। साथ ही बचपन से ही हिमाच्छादित पर्वतश्रृंगों के प्रति ह्दय में एक अज्ञात सा आकर्षण था, लेकिन जीवन के गोरखधंधे में उल्झा जीवन अभी तक इसकी इजाजत नहीं दे रहा था।
तमाम उपलब्धियों के साथ विताया जा रहा संसारी जीवन अब बोझिल हो चला था। जीवन की जटिलताएं कुछ इस कदर हावी हो चलीं थी कि अपने लिए सोचने की फुर्सत ही नहीं मिल पा रही थी। जीवन में कुछ करने की महत्वाकाँक्षा, जीवन के सुख भोगने की कामना उसे शहर ले गई थी। एक अच्छी नौकरी उसे मिल गई थी। सुंदर जीवन संगिनी, प्यारी सी संतान, अपने पर जान-न्यौछावर करने वाले यार-दोस्त, भौतिक जीवन के सभी सुख-साधन तो थे उसके पास, जो वह सोचता था। उसकी भरपूर कीमत भी वह चुका रहा था। स्वाभिमानी ऐसा था कि वह अपनी मेहनत से अर्जित चीजों पर ही अपना हक मानता था और मनचाहे जीवन की भरपूर कीमत चुका रहा था।
रोज सुबह आफिस की भागमभाग, फिर दिन भर काम का बोझ, इसके साथ कैरियर में आगे बढ़ने की गलाकाट प्रतियोगिता, ईर्ष्यालु विरोधियों के षडयंत्र, राजनीतिक दाँव-पेच, अपनों के प्रपंच - कुल मिलाकर सफलता के साथ जुड़े सभी अवाँछनीय तत्व साथ थे और जीवन एक साक्षात नरक बन गया था।
शरीर कई रोगों का अड्डा बनता जा रहा था। मन चिंता, विषाद, अनजाने भय और न जाने कितने मनोविकारों का घर बन गया था। ऐसे में वह जैसे अर्धविक्षिप्तता के दौर से गुजर रहा था। जीने का मकसद हाथ से निकल गया था, एक बोझिल ढर्रे में कोल्हू के बैल की तरह पीसता जीवन भारभूत बन गया था। जीवन ऐसे विषादपूर्ण बिंदु पर आ गया था कि इसमें खोने जैसा कुछ नहीं रह गया था। अतः कुछ दिनों के लिए इससे पलायन का मन बन जाता है और वह कूच करता है हिमालय की ओर।
रात तो पहाड़ के टेढ़े-मेढ़े रास्ते बस में झूलते हुए बीत गई। जब उसकी आँख खुली तो देखा कि वह हिमालय के द्वार पर खडा है। वह एक संकरी घाटी को पार करता हुआ हिमालय के वृहतर क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है। उसे लगा जैसे जीवन की तंग अँधेरी सुरंग को पार करता हुआ वह जीवन की असीम संभावनाओँ के आलोकित व्योम में अपने पंख फैला रहा है। वाहरी यात्रा के साथ एक समानान्तर यात्रा उसके अंदर चल रही थी, जिसमें उसे अस्तित्व के गूढ़ सुत्र-समाधान मिल रहे थे।
सामने खड़ा हिमाच्छादित हिमालय शिखर में तो जैसे उसे अपने जीवन के आदर्श-ईष्ट-गुरु-भगवान सब कुछ मिल गय थे। जीवन लक्ष्य ऐसा ही उत्तुंग हो और साथ ही ऐसा ही ध्वल-पावन। इसके लिए हिमालय की तरह स्थिरता, दृढ़ता, सहिष्णुता भी, जो विषम मौसम की प्रतिकूलताओं के बीच भी मौन ध्यान योगी की तरह अविचल तपःलीन रहता है। शिव-शक्ति की लीलाभूमि, ऋषियों की तपःस्थली में उसे अपना आध्यात्मिक लक्ष्य मिल गया था। चेतना के शिखर पर आत्मबोध-ईश्वर बोध को उसे जीवन में साकार करना था।

यहाँ का कण-कण उसके लिए पावन था और जीवंत प्रेरणा का स्रोत। हिमालय की गोद में उछलती कूदती नीचे बढ़ती निर्मल हिमनद में जैसे उसने अपने जीवन की राह पा ली थी। पिता की गोद में निर्दन्द-निश्चिंत भाव से खेलती ये नदियाँ आगे संकरी घाटियों में कितनी शांत-गंभीर हो जाती हैं, लेकिन एक भी पल कहीं रुकती नहीं। हिमालय की शीतलता-सात्विकता साथ लिए ये समुद्रपर्यन्त बढ़ती रहती हैं और बिना किसी भेद भाव के मुक्त हस्त से हरियाली, शीतलता और ऊर्बरता का वरदान सबको बटोरती रहती हैं।
देवदार के आसमान छूते वृक्ष भी उसे दैवीय संदेश दे रहे थे। हिमालय की विरल पहाडियों की असली शान तो ये देववृक्ष हैं। हिमालय के संग सान्निध्य में ये भी ध्यानस्थ दिखते हैं। आसमान छूते इनके व्यक्तित्व से हिमालय की गुरुता ऐसे झरती रहती है जैसे हिमालय से गंगा। मौन तपस्वी की भाँति ये न जाने कब से खड़े हैं शिव की तरह यहाँ के वायुमंडल से विषाक्त तत्वों को आत्मसात कर विश्व को प्राणदायी वायु का संचार करते हुए। (जारी, शेष अगली पोस्ट में...)

रविवार, 29 अप्रैल 2018

लेखन कला


लेखन की शुरुआत करें कुछ ऐसे..
लेखन खुद को व्यक्त करने की एक चिरप्रचलित विधा है। हमारा पुरातन इतिहास, पूर्वजों-पुरखों के कारनामें, कथा-गाथाएं, जीवनियाँ-संस्मरण, साहित्य, दर्शन सब लेखन की विधा के माध्यम से ही हम तक पहुँचे हैं। इंटरनेट के युग में लेखन में थोड़ा परिवर्तन जरुर आ चला है, लेकिन मूल बातें यथावत हैं। जहाँ एक ओर संचार के माध्यम के रुप में लेखन का अपना महत्व है, वहीं स्वयं को अभिव्यक्त करने व अपनी क्रिएटिविटी को प्रकट करने का यह एक प्रभावी माध्यम है।

अगर आप अभी तक लेखन की कला को जीवन का अंग नहीं बना पाएं हों व इसकी शुरुआत करना चाहते हों, तो यह पोस्ट आपके काम आ सकती है।
1.       न करें परफेक्ट समय का इंतजार प्रायः व्यक्ति यह सोचकर लिख नहीं पाता कि उसे परफेक्ट समय का इंतजार रहता है। यह परफेक्ट समय का इंतजार ओर कुछ नहीं प्रायः एक तरह का मानसिक प्रमाद होता है जो लेखन की जेहमत से बचता फिरता है, टालमटोल करता रहता है। और यह परफेक्ट समय कभी आता नहीं। पूछने पर बहाने मिलते हैं कि हमें समय ही नहीं मिलता या रुचि ही नहीं है। यदि समय है भी तो विचार ही मन में नहीं आते कि क्या लिखें। आते भी हैं तो बेतरतीव होते हैं।

2.       लेखन का फरफेक्ट समय – वास्तव में देखा जाए तो लेखन का परफेक्ट समय वो पल होते हैं जब व्यक्ति नए विचारों एवं भाव से भरा होता है। इस पल अगर आप ठान लें कि आपको स्वयं को लेखनी के माध्यम से व्यक्त करना है और दृढ़तापूर्वक कलम उठा लें तो शब्द खुद-व-खुद झरते जाएंगे। वाक्यों का संयोजन कितना ही लचर क्यों न हो, शब्द कितने ही अनुपयुक्त क्यों न हो आपका पहला पग उठ जाएगा।
और सबसे खास बात लेखन के संदर्भ में है कि इसमें आप हैं और आपकी कलम व कॉपी या लेप्टॉप। सो इसमें अधूरेपन व कमियों को लेकर संकोच की, डरने की जरुरत कैसी। अतः ऐसे पलों को नजरंदाज न करें। ये पल आपकी लेखन की विधा में हाथ आजमाने के लिए सबसे माकूल होते हैं।

3.       करें पहला रफ ड्राफ्ट तैयार इन भाव एवं विचारों को कागज पर उतारें। यह उस विषय विशेष या टॉपिक पर आपका पहला कच्चा ड्राफ्ट है। इस ड्राफ्ट का मूल भाव या केंद्रीय विचार क्या है, उसको एक हेडिंग के अंतर्गत स्पष्ट करने की कोशिश करें। यह आपके उभर रहे विषय का मूल है। इसके ईर्द-गिर्द अब लेखन के ताने-बाने को बुनना है। यह आपका पहला रफ ड्राफ्ट है।

अब इस ड्राफ्ट को छोड़ दें। विषय पर कुछ ओर विचार करें। यथासंभव पुस्तकों, विशेषज्ञों से चर्चा करें। ब्रेन स्टोर्मिंग करें। अब इन नए विचारों को रफ ड्राफ्ट में जोडें व मूल प्रति को नए सिरे से पढ़कर रिवाइज करें। इसमें यदि संभव हो तो हेंडिंग के बाद एक इंट्रो(आमुख) हो, बीच में बॉडी(मुख्य लेखन) के अंत में एक निष्कर्ष हो तो वेहतर होगा।
इस तरह अपनी रचना को रिवाईज करते रहें, जब तसल्ली हो जाए, तो इसे फाईनल कॉपी मानकर किन्हीं विशेषज्ञों की मदद ले सकते हैं व उचित स्थान व प्लेटफॉर्म पर प्रकाशित कर सकते हैं।
4.       करें नित्य डायरी लेखन का अभ्यास लेखन में अभ्यास की जड़ता को तोड़ने के लिए नित्य डायरी लेखन एक महत्वपूर्ण विधा है। दिन के फुर्सत के पलों या रात्रि को सोते समय कुछ मिनट निकाल सकते हैं। दिन भर के अनुभवों को इस समय व्यक्त करने का प्रयास करें। यह दिन भर की कोई उपलब्धि, दैनिक जीवन के संघर्ष या सबक कुछ भी हो सकते हैं।
दूसरा, जीवन को संवेदित-आंदोलित करते बाहरी मुद्दे भी हो सकते हैं। रोज अगर एक पैरा भी ऐसा कुछ लिखने का क्रम बनता हो तो एक दिन आप पाएंगे की आपकी भाषा समृद्ध हो रही है, शब्द भंड़ार बढ़ रहा है, लेखन शैली उभर रही है। और विचारों का प्रवाह बैठते ही, विषय पर केंद्रित होते ही प्रवाहित होने लगा है।
5.       करें उचित प्लेटफॉर्म पर शेयर अगर आप लिखने की विधा में नियमित हो चले, आपके लेखन का प्रवाह बन पड़ा। तो आप उचित शोध के साथ पुष्ट अपने विचारों एवं भावों को उचित प्लेटफॉर्म पर प्रकाशित या शेयर कर सकते हैं। ये इंस्टाग्राम में फोटो के साथ सारगर्भित पंक्तियों के रुप में हो सकता है। ब्लॉग अपने भावों एवं विचारों को अभिव्यक्त करने का लोकप्रिय प्लेटफॉर्म है व इन्हें फिर फेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस जैसे प्लेटफॉर्म पर शेयर कर सकते हैं।

सोशल मीडिया की खासियत यह है कि इसमें आपको पाठकों का फीड़बैक मिलता रहता है, जिसे आप उचित एनालिटिक्स पर जाँच-परख सकते हैं। आपको पता चलेगा कि आपकी कौन सी पोस्ट व विचारों को पाठक कितना पढ़ रहे हैं, कितना पसंद कर रहे हैं। यह फीड़बैक आपका उत्साहबर्धन करेगी। संभव हो तो किसी समाचार पत्र-पत्रिका में भी प्रकाशित कर सकते हैं।

6.       लेखन के साथ रखें ध्यान कुछ बातों का लेखन शुरुआत करने के संबन्ध में ध्यान रखें, कि शुरुआत ऐसे विषय से करें जिस पर आपका कुछ मायने में अधिकार हो। इससे आपकी भाषा में एक सधापन आएगा, विश्वास होगा, सहजता होगी। दूसरा अनुभव से भाषा का प्रवाह टूटेगा नहीं, शब्द सरल होंगे, वाक्य छोटे होंगे व लेखन प्रभावशाली होगा।

आपके लेखन में पाठकों के फीडबैक से मिलते उत्साहबर्धन का अपना महत्व होता है। लेकिन अंततः सृजन का आनन्द अपने आप में लेखन का प्रसाद होता है। अतः बिना अधिक आशा-अपेक्षा के साथ अपने सृजन साधना में लगे रहें, अपने सत्यानुसंधान को लोकहित में शेयर करते रहें। लोगों का इससे कितना हित होगा कह नहीं सकते लेकिन हर मौलिक सृजन के साथ आपका विकास अवश्य होगा, इतना सुनिश्चित है।
 
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