बुधवार, 20 जून 2018

यात्रा वृतांत – हरियाली माता के देश में, भाग-2



जंगलीजी का मिश्रित वन – एक अद्भुत प्रयोग, एक अनुकरणीय मिसाल

जगत सिंह जंगलीजी स्वयं स्वागत के लिए सड़क पर खड़े दिखे। उनकी व्यस्तता के बीच हमें उम्मीद नहीं थी कि आज मिल पाएंगे, लेकिन इन्हें प्रत्यक्ष देखकर व इनके आत्मीय स्पर्श को पाकर हम सब भावविभोर हुए। हाथ में देवदार व रिंगाल की ताजा हरि पत्तियों से इनका किया गया भावपूर्ण स्वागत ताउम्र याद रहेगा।
यहाँ सड़क के ऊपर और नीचे दो अलग-अलग संसार व विचार से अवगत हुए। सड़क के ऊपर था बन विभाग का चीड़ के वृक्षों से अटा जंगल और सड़क के नीचे था जंगली जी का लगभग 60 किस्मों के वृक्षों से जड़ा 4 हेक्टेयर में फैला मिश्रित बन। सड़क के ऊपर के जंगल गर्मी में किसी भी दिन एक चिंगारी दावानल का रुप लेकर पूरे जंगल, व वन्य जीवन को स्वाहा कर सकती थी, जबकि नीचे के हरे-भरे जंगल में ऐसी विभीषिका की संभावना न के बरावर थी।
सड़क से नीचे सीढ़ी दार ढलान से उतरते ही हम जंगलीजी के अद्भुत जंगल में प्रवेश कर चुके थे। जिसकी शीतल छाया, बह रही ठंड़ी हवा, रास्ते में स्वागत करते नन्हें से लेकर मध्यम व बड़े पेड़ और सबसे ऊपर बन प्रांतर की नीरव शांति – लग रहा था जैसे हम प्रकृति की गोद में किसी तीर्थ स्थल में आ गए हैं।
और इसमें अतिश्योक्ति भी कैसी, जिसमें एक व्यक्ति के चार दशकों से अधिक समय का तप लगा हो, उस जंगल का जर्रा-जर्रा प्रकृति प्रेम का एक संदेश देता प्रतीत हुआ। देखकर लग रहा था कि इंसान यदि ठान ले व प्रकृति के साथ जुड़कर निष्काम भाव से काम में जुट जाए तो कुछ भी असंभव नहीं। 
इस मिश्रित वन में जितनी तरह के प्रयोग चल रहे हैं, इसके जो  लाभ हैं, वे अद्भुत हैं, और यह प्रयोग एक अनुकरणीय मिसाल हैं, इसमें आज की पर्यावरण से जुड़ी तमाम समस्याओं के समाधान निहित हैं।
दुर्लभ पेड़ – लगभग 4500 फीट की ऊँचाई पर बसाए गए इस जंगल में ऐसा वायुमंडल तैयार किया गया है कि इसमें 7000 से लेकर 9000 फीट की ऊँचाई के पौधे व जड़ी-बूटियाँ भी बखूबी पनप रही हैं। देवदार, भोजपत्र, बाँज से लेकर थनूर या रखाल(टेक्सस बकाटा) के पौधे यहाँ बढ़े हो रहे हैं। पहाड़ी कुटीर उद्योग की रीढ़ रिंंगाल (जो प्रायः आठ हजार फीट की ऊँचाई का पौधा है) यहाँ बखूवी बढ़ रहे हैं। आकाश छूता चीन का वाँस का जंगल यहाँ अपनी अनुपम उपस्थिति के साथ यात्रियों कोकरता है। वाँस की पौधा अपने तमाम औषधीय एवं अन्य गुणों के साथ अपने लचीलेपन व मजबूती के विरल संगम के लिए जाना जाता है, जिनके इंसानी जीवन में महत्व को भलीभांति समझा जा सकता है।

कीमती जड़ी-बूटियाँ – जंगल की तली में जड़ी-बूटियों को उगाया गया है। ईलाइची, तेजपत्र से लेकर चाय पत्ति जैसी तमाम तरह की उपयोगी जड़ी-बूटियाँ व झाड़ियाँ यहाँ पनप रही हैं। अदरक, हल्दी तो यहाँ जमीं के नीचे क्विंटलों की तादाद में लगा रखी हैं, जो अगले दिनों अपने ऑर्गेनिक गुणों के कारण खासी आमदनी देने वाली हैं। कुल मिलाकर वन आर्थिक स्वाबलम्बन का स्रोत्र भी हो सकता है, यहाँ आकर बखूबी देखा व समझा जा सकता है।
तैयार हो रहा माइक्रो क्लाइमेट – इसके साथ स्टोन एवं वुड टेक्नोलॉजी के साथ झूलते पत्थरों व वाँस के डंड़ों में फर्न व आर्किड जैसे छोटे पौधे लगाए गए हैं, जो हवा के साथ नमीं को वायुमंडल में घोलते हैं। इससे जंगल के वायुमंडल में एक नमीं व ठंड़क बनी रहती है, जो बहती हवा के साथ जंगल व परिवेश में एक माइक्रो क्लाइमेट को तैयार करती है। ऊँचाई के पौधों का यहाँ पनप पाना ऐसे ही प्रयोगों के चलते संभव हो पा रहा है।

     आज जब हमारे शहर से लेकर कस्वे गर्मी से तप रहे हैं, दिल्ली जैसे शहर गैस चेंबर का भयावह रुप ले चुके हैं, ऐसे में मिश्रित वन का यह प्रयोग एक अनुकरणीय मिसाल है, जिसका अपने-अपने ढंग से हर स्तर पर प्रयोग किया जा सकता है। घरों की छत पर, आंगन में, बाल्कोनी में अपने मुहल्ले में, पार्क में हम छोटे से लेकर मध्यम पौंधों को लगाकर आवश्यक वायुमंडल निर्मित कर सकते हैं।
अमृत जल स्रोत – जंगली जी के प्रयोग का एक अद्भुत फल दिखा, वन के नीचे शुद्ध,  स्वादिष्ट व निर्मल जल का स्रोत, जो जंगल के बीचों बीच फूटा है। इसको पीकर लगा जैसे इस तीर्थ के अमृत प्रसाद का पान कर रहे हैं। इस शीतल जल के सामने मिनरल वाटर फीका है। सूखते जल स्रोतों के दौर में यह प्रयोग एक प्रेरक मिसाल है कि अधिक से अधिक संख्या में उपयुक्त पौधों व झाड़ियों का रोपण कर व मिश्रित वन को प्रश्रय देकर हम जल संकट की विभीषिका से लड़ सकते हैं।

जंगली जी के शब्दों में जितना हम मिश्रित वन लगाएंगे, उतनी ही हमारी जेैव-विविधता बचेगी व उतना ही हमारा प्रकृति-पर्यावरण संतुलन सधेगा। बिना इसके गंगा व हिमालय के संरक्षण की बातें बेमानी ही बनी रहेंगी।
इसके साथ यहां पिट्स टेक्नोलॉजी का प्रयोग दिखा, जिसके तहत बन के पत्तों व कचरे को गढ़ों में दबाकर आर्गेनिक खाद तैयार की जा रही है।
पशु-पक्षियों का आश्रय स्थल – वन में इतनी तरह के वृक्षों के साथ एक ऐसा वातावरण तैयार है, जहाँ पशु-पक्षी तक आश्रय पाने के लिए आतुर हैं। लगता है वो भी इसके सूक्ष्म वातावरण की शांति व सुकून को महसूस करना चाहते हैं। लगभग 150 से अधिक पक्षियों का यह जंगल बसेरा है, जिनमें कई माइग्रेटरी पक्षी भी हैं, जो एक खास सीजन में यहाँ आते हैं।
यहाँ वन की छाया में चाय-पकौड़ी के नाश्ते के साथ किया स्वागत हमें याद रहेगा। इसी बीच लम्बी पूँछ बाले पक्षी का विशेष ध्वनि के साथ आगमन एक अद्भुत दृश्य था। जो देव राघवेंद्रजी के अनुसार, दूसरे पक्षियों को निमंत्रण था कि यहाँ दावत चल रही है, आप भी आ जाइए।
पक्षियों की भाषा व व्यवहार पर भी यहाँ अनुसंधान चल रहा है। जंगली जी के सुयोग्य पुत्र देव राघवेंद्र स्वयं गढ़वाल विश्वविद्यालय से पर्यावरण विज्ञान से स्नातकोत्तर हैं व वैज्ञानिक ढंग से पिता के भगीरथी प्रयास को आगे बढ़ा रहे हैं। देव के अनुसार फरवरी – मार्च के माह में इन पक्षियों का आगमन चरम पर रहता है। पक्षी प्रेमियों के लिए इस दौरान विशेष सत्र भी चलते हैं। स्वयं देव इनकी प्रकृति, स्वभाव व भाषा-व्यवहार पर अध्ययन कर रहे हैं व कैमरा लेकर घंटों इंतजार के साथ इनको शूट करते रहते हैं।

वृक्षारोपण – समूह की यात्रा की स्मृति के रुप में इस पावन वन में पइंया (पांजा) वृक्ष का रोपण किया गया। इसे कल्पवृक्ष भी कहा जाता है। इसकी विशेषता है, जब सर्दी में सभी वृक्ष पतझड़ की मार झेल रहे होते हैं, उस समय यह खिलता है। और मधुमक्खियों से लेकर तितलियों व अन्य जीवों के लिए आकर्षण का केंद्र रहता है और परागण से लेकर शहद निर्माण में मदद करता है।

इसे यहाँ पावन पौधा माना जाता है व पूजा स्थलों में इसके पुष्पों का विशेष रुप में प्रयोग किया जाता है। इसके रोपण के साथ एक रीठा का पेड़ जंगलीजी की ओर से हमें उपहार स्वरुप मिला, जिसका रोपण देसंविवि, हरिद्वार के परिसर में हनुमान मंदिर के पास किया गया है। यह इस मुलाकात में लिए गए संकल्प की याद दिलाता रहेगा व प्रकृति-पर्यावरण के प्रति अपने दायित्व को निभाने की प्रेरणा भी देता रहेगा।

ग्राम्य सहयोग – यह मिश्रित वन जंगलीजी के ऐक्ला संकल्प के साथ शुरु हुआ और आगे बढ़ा। 1974 में जब बीएसएक का जवान जगत सिंह चौधरी गाँव की एक महिला को चारा व पानी की तलाश में जंगल में भटकते व चोटिल होते देखता है तो उसके मन में प्रश्न उठा की हम देश की रक्षा के लिए इसलिए तैनात हैं कि घर में महिलाएं ईंधन व चारे के लिए जंगल में भटकती रहें। यहीं से समाधान की दिशा में बंजर भूमि में वन को खड़ा करने का प्रयोग शुरु होता है। 1980 में सेना से वोलंटीयर रिटार्यमेंट के बाद जगत सिंह पूरी तरह से इस प्रयोग में जुट जाते हैं। शुरु में गाँववासियों को फौजी जवान का यह जुनून पागलपन लगा, लेकिन जब दशकों के श्रम के बाद पेड़ बड़े होने लगे व हरियाली लहलहाने लगी तो उनकी सोच बदलने लगी। फिर 1993 में लगभग 20 वर्ष बाद किसी पत्रकार की नजर इस जंगल पर पड़ती है, तो यह प्रयोग अखबार की सुर्खी बनता है।
गाँववासियों को भी जंगली होने का महत्व समझा आता है औऱ गाँवसमिति ने जंगली उपाधि से इन्हें विभूषित किया। तब से जंगली उपनाम जगत सिंह चौधरी की पहचान बनती है, जिसपर उन्हें गर्व है। फिर कई स्तर पर पुरस्कारों का सिलसिला शुरु होता है, जो जारी है। आज जगत सिंह जंगली उत्तराखण्ड के ग्रीन एम्बेस्डर हैं औऱ तमाम पुरस्कार इनकी झोली में हैं। 

हाल ही में जगत सिंह जंगलीजी को उत्तराखण्ड प्रदेश के वन विभाग का ब्रांड अम्बेस्डर नियुक्त किया गया है। उनके मार्दगर्शन में प्रदेश के हर जिला में मिश्रित वन का एक-एक मॉडल वन तैयार किया जाना है, जो स्वयं में एक महत्वपूर्ण एवं अनुकरणीय पहल है। बिनम्र और प्रकृति से एकात्म जंगलीजी पुरस्कारों से मिली राशि को इसी जंगल के विकास में लगाते रहते हैं और स्थानीय युवाओं को इसमें रोजगार के साधन मुहैय्या करवाते हैं।

प्रकृति का उपहार – पूछने पर कि ऐसे प्रयोग के लिए इतना धन व साधन कैसे जुटते हैं। जंगलीजी बिनम्रतापूर्वक तमाम सहयोग के लिए आभार व कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि सारा खेल प्रकृति से जुड़कर अंतःप्रेरणा से काम करने का है। जरुरत प्रकृति को अनुभव कर निस्वार्थ भाव के साथ काम करने की है, बाकि प्रकृति खुद देख लेती है। इसमें प्रकृति पुत्र का मंत्रवत संदेश निहित है, जिसे लेकर हम जंगलीजी से भावभरी विदाई लेते हैं।

रास्ते में हरियाली माता – के सिद्ध पीठ के दर्शन करते हैं। सड़क से महज कुछ मीटर की दूरी पर यह भव्य मंदिर स्थित है। क्षेत्र में हरियाली देवी की विशेष मान्यता है। हरियाली माता के मंदिर में प्रवेश से लेकर इनके कार्यक्रमों में भागीदारी के लिए सात्विक भाव व दिनचर्या पर विशेष बल दिया जाता है, जिसके अंतर्गत प्याज-लहसून व माँस-मदिरा जैसे तामसिक भोजन का त्याग करना पड़ता है।
ज्ञात हो की हरियाली माता वन क्षेत्र विश्व के शीर्ष वन क्षेत्रों में शुमार है। हरियाली माता का मूल स्थल पर्वत के शिखर पर है, जहाँ साल में विशिष्ट अवसरों पर विशेष पूजन किया जाता है। प्रकृति-पर्यावरण के तमाम नियम इस दौरान लागू होते हैं। नंगे पाँव चलने से लेकर किसी प्रकार के वृक्ष, वनस्पति व वन्य जीव को किसी तरह की क्षति न पहुँचाना, यह सब विशेष ध्यान रखा जाता है।
हरियाली माता के परिसर में सामने हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाएं एक मनोरम दृश्य पेश करती हैं। और चारों ओर हरा-भरा वनक्षेेत्र व परिवेश हरियाला माता के प्रत्यक्ष प्रताप की झलक दिखाता है।
हरियाली माता के चरणों में अपना भाव निवेदन के साथ हम बापसी की यात्रा में अपने गन्तव्य स्थल की ओर कूच करते हैं।  
हिमालय की वादियों में व प्रकृति की गोद में यात्रा के दौरान भाव बनता रहा कि प्रकृति के माध्यम से परमेश्वर स्वयं झर रहे हैं। प्रकृति की आराधना स्वयं परमेश्वर की आराधना है और प्रकृति के विभिन्न घटकों के प्रति आत्मीयता पूर्ण भाव परमात्मा की प्रत्यक्ष सेवा एवं सान्निध्य जैसा पावन कार्य है।
 
विषय से सम्बन्धित लेख आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - जंगलीजी का मिश्रित वन, अद्भुत प्रयोग, अनुकरणीय मिसाल
 
 

यात्रा वृतांत – हरियाली माता के देश में, भाग-1


गौचर से हरियाली माता, जसौली तक का सफर
गोचर की सुबह – गोचर के बारे में जितना पढ़ा व सुना, उसके अनुसार इसके दर्शन की जिज्ञासा रात को अंधेरे के कारण अधूरी ही रही। गढ़वाल मंडल के पीछे इसका मुख्य आकर्षण, वृहद मैदान फैला है। अंधेरी रात की कृत्रिम रोशनी में पिछले कल मैदान की परिक्रमा कर चुके थे, लेकिन चारों ओर खड़ी ध्यानस्थ पहाडियां व इनमें टिमटिमाते घरों के दर्शन दिन के उजाले में बाकि थे।
सो प्रातः स्नान-ध्यान कर इसके दर्शन के लिए निकल पड़े। इसकी परिक्रमा करते हुए बीच रास्ते के पुल पार करते हुए मैदान में आ पहुँचे। सुबह की रोशनी में हल्की ठंड़ के साथ मौसम बहुत खुशनुमा लग रहा था। मैदान में चरती हुई गाय व बछड़ों के झुंड को देखकर स्थान के नाम - गौचर का आधार समझ आया। नन्हें बछड़ों को पकड़ने व लाड़-प्यार की नाकाम कोशिश करते रहे। ये काफी शर्मिले व फुर्तीले निकले। इनके कुछ यादगार फोटो के साथ बापिस गेस्ट हाउस आ गए।
     फिर सुबह का नाशता कर अगले पड़ाव की ओर चल दिए।
नागरसु से ऊपर दायीं ओर – गोचर से रुद्रप्रयाग के रास्ते पर कुछ ही दूरी पर नागरसु आता है, यहाँ से मुख्य मार्ग से लिंक रोड़ बायीं ओर मुड़ता है। यहाँ से हमारी मंजिल लगभग 35 किमी पर थी, जगत सिंह जंगलीजी का मिश्रित वन, जिसके बारे में बहुत कुछ सुन रखा था और यहाँ आने की प्रबल इच्छा विगत दो-तीन साल से थी, किंतु संयोग आज बन रहा था।
इस घाटी के बारे में हमारे पत्रकार मित्र बृजेश सत्तीजी से चर्चा के आधार पर स्पष्ट था कि यह विशेष घाटी है, जिसमें प्रकृति-पर्यावरण को समर्पित विश्व का एक मात्र मंदिर, हरियाली देवी पड़ता है। रास्ते में पग-पग पर हरे-भरे वृक्षों से सम्पन्न वन क्षेत्र व रास्ते की हरियाली के दिग्दर्शन कर, घाटी की विल्क्षण्ता की झलक रास्ते भर पाते रहे।
     नागरसु से ऊपर मुड़ते ही सीढ़िनुमा खेतों से होकर सफर बहुत सुखद लगा। ऊपर चढ़ते हुए एक बिंदु पर गोचर के दर्शन होते हैं, तो राह में अलकनंदा नदी व पृष्ठभूमि में बर्फ से ढ़के हिमालय के दर्शन। कुछ आश्चर्य तो बहुत कुछ जिज्ञासा भरे मन से सारा नजारा निहारते रहे।
आगे राह में उछल-कूद कर सड़क को पार करते लंगूरों के दल को देखकर अच्छा लगा। शांत, सज्जन व शर्मिली प्रकृति के लंगूर प्रायः एकांत-शांत जगहों में ही विचरण करते हैं। इनके दर्शन मात्र से प्रायः ऐसे दिव्य भावों का संचार होता है।
     रास्ते में प्रकृति की गोद में इतने सुंदर व नीरव परिवेश में भी कुछ यात्रियों को मोबाईल के ईयर फोन को कान में लगाकर संगीत में खोए देख ताज्जुक हुआ। प्रकृति के दिव्य संगीत के बीच भी लौकिक संगीत के प्रति अनुराग, हमारी समझ से परे था।
खैर आगे का सफर तंग सड़क से होकर गुजर रहा था और नीचे सीधी गहरी खाई और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चट्टानों को काटकर बनाए गई मोड़दार सड़क। ऐसे में पहाड़ी चालकों के ड्राइविंग कौशल की दाद देनी पड़ेगी, जो इतने संकरे व खतरनाक रास्ते में भी सरपट सफाई के साथ सफर को सहज व खुशनुमा बनाए रहते हैं।

     रास्ते में कई गाँव आए जिनकी छोटी-छोटी दुकानें, ढावे, खेत व इनके संग प्रवाहमान लोकजीवन को नजदीक से निहारते रहे। फल-सब्जी का चलन यहाँ कम दिखा। केले, नाशपाती, आड़ू आदि के फलदार पेड़ दिखे। सब्जी को कैश क्रॉप के रुप में उत्पादन का चलन भी यहाँ कम दिखा, जबकि जल की प्रचुरता के चलते इसकी बहुत संभावना यहाँ लगी। 
रास्ते में बीच-बीच में बाँज के जंगलों को देखकर बहुत अच्छा लगा। ये बाँज के पेड़ ही तो पहाड़ी जीवन व इकॉलोजी का आधार हैं। इस सदावहार वृक्ष से ठोस लकडी, ईंधन, चारा और आवश्यक नमी मिलती है।

इसके जंगल के आसपास जल स्रोत का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। रास्ते में पग-पग पर झरते झरनों, नौले, व नल के रुप इस क्षेत्र में जल की प्रचुरता एक सुखद अहसास दिलाती रही। इस घाटी की हरियाली के बीच का सफर गढ़वाल के नेशनल हाईवे के साथ सफर से एकदम अलग अनुभूति दे रहा था।
     रास्ते में सामने हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं लुकाछिपी करती रही। इनके दूरदर्शन रास्ते भार मन को रामाँचित करते रहे। इन पर्वतों के नाम पता करने पर चला कि कुछ बद्रीनाथ व केदारनाथ धाम के इलाके की चोटियाँ हैं और एक चौखम्बा पर्वत निकला।
हरियाली माता – इन्हीं भावों के साथ हम लगभग दो घंटे के सफर के बाद आखिर हम
अपने पड़ाव पर पहुँच चुके थे।
 
यह हरियाली माता का मंदिर था, जिसके दर्शन का संयोग बापसी में बनता है। यहाँ से कुछ सौ मीटर की दूरी पर हम सड़क से नीचे उतरते हुए अपने गन्तव्य पर पहुँच चुके थे, जो था जगत सिंह जंगलीजी का मिश्रित वन। (क्रमशः जारी...)
 
यात्रा का अगला हिस्सा आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - जगतसिंह जंगलीजी के मिश्रित वन में।



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