शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

जंगलीजी का मिश्रित वन – एक अद्भुत प्रयोग, एक अनुकरणीय मिसाल

जंगल में मंगल रचाने की प्रेरक मुहिम

जंगल तो आपने बहुत देखे होंगे, एक खास तरह की प्रजाति के वृक्षों के या फिर बेतरतीब उगे वृक्षों से भरे बीहड़ वन। लेकिन उत्तराखण्ड के कोटमल्ला, रुद्रप्रयाग में स्थित जंगलीजी का मिश्रित वन इनसे हटकर जंगल की एक अलग ही दुनिया है, जहां लगभग साठ किस्म के डेढ़ लाख वृक्ष लगभग चार हैक्टेयर भूमि में फैले हैं। यह सब जंगलीजी के पिछले लगभग चालीस वर्षों से चल रहे भगीरथी प्रयास का फल है। चार दशक पूर्व बंजर भूमि का टुकड़ा आज मिश्रित वन की एक ऐसी अनुपम मिसाल बनकर सामने खड़ा है, जिसमें आज के पर्यावरण संकट से जुड़े तमाम सवालों के जवाब निहित हैं।

यहां पर हर ऊंचाई के वृक्ष उगाए जा रहे हैं। जिन्हें सीधे धूप की जरूरत होती है, वे भी हैं, इनकी छाया में पनप रहे छायादार पेड़ भी। और जमीं की गोद में या जमीं के अंदर पनपने वाले पौधे भी इस वन में शुमार हैं। इनमें 25 प्रकार की सदाबहार झाड़ियां व पेड़, 25 प्रकार की जड़ी-बूटियां व अन्य कैश क्रोप्स हैं। मिश्रित वन के इस प्रयोग ने जंगल में ऐसा वायुमंडल तैयार कर रखा है कि यहां 4500 फीट की ऊंचाई पर 7000 से 9000 फीट व इससे भी अधिक ऊंचाई वाले उच्च हिमालयन पौधे बखूबी पनप रहे हैं। बांज, काफल, देवदार से लेकर रिंगाल व रखाल (टेक्सस बटाटा) के पौधों को यहां विकसित होते देखा जा सकता है।

यहां ऐसी तमाम तरह की पौध व जड़ी-बूटियां उगाई जा रही हैं, जो आर्थिक स्वावलम्बन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। छोटी इलायची, बड़ी इलाचयी, चाय पत्ती, तेज पत्र जैसे उपयोगी मसाले व उत्पाद यहां बड़े वृक्षों की छाया तले पनप रहे हैं। जमीं पर हल्दी, अदरक जैसी नकदी फसलें क्विंटलों की तादाद में तैयार हो रही हैं, जो विशुद्ध रूप में ऑर्गेनिक होने की वजह से मार्केट में खासा दाम रखती हैं।

वन में स्टोन व वुड टेक्नोलॉजी के माध्यम से हवा में टंगे पत्थरों एवं बांस के पोले डंडों में मिट्टी व काई जमाकर तथा इन पर फर्न व ऑर्किड जैसे पौधों को हवा में उगाकर माइक्रो-क्लाइमेट तैयार किया जा रहा है। इनसे जो नमी व ठंडक पैदा होती है, इसे हवा के झौंके पूरे वायुमंडल में बिखेरते हैं। आश्चर्य नहीं कि मई-जून माह की यहां का हरा-भरा शांत एवं शीतल वातावरण प्रकृति प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है।

पशु-पक्षी इस वन के सूक्ष्म परिवेश की शांति व सकारात्मक ऊर्जा को अनुभव करते हैं और अपने रहने के लिए अनुकूल परिवेश पाते हैं। यहां डेढ़ सौ से अधिक पक्षियों का बसेरा है। फरवरी-मार्च माह में इनकी संख्या में विशेष इजाफा रहता है, जब दूरदराज से माइग्रेटरी पक्षी यहां आते हैं। जंगलीजी के पर्यावरण विज्ञान में स्नात्कोत्तर सुपुत्र देव राघवेंद्र इस दौरान पक्षी प्रेमियों के लिए वर्ड वाचिंग व फोटोग्राफी के सत्र भी चलाते हैं। यहां पधारे अनुभवीजनों का कहना है कि यहां के वन की नीरव शांति में स्वच्छंद भाव में विचरण कर रहे पक्षियों की मस्ती भरी चहचहाहट व कीट-पतंगों की झिंगुरी तान के बीच आंख बंद कर कुछ मिनटों का ध्यान किसी नाद योग से कम नहीं लगता।

जंगली जानवर भी यहां आते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से वन के चारों ओर कांटेदार झाड़ियों का बाड़ा लगाया गया है, जिसके कारण एक ओर वन्य जमीन का भू-अपरदन व स्खलन नहीं होता, साथ ही जंगली जानवरों से फसलों के अनावश्यक नुकसान से वचाव होता है। जंगलीजी का मानना है कि जितना अधिक हम वनों में फलदार वृक्ष लगाएंगे, उतने ही वन्यजीव वहां रहेंगे व मानवीय बस्तियों में अनावश्यक हस्तक्षेप की घटनाओं में कमी आएगी।

पहाड़ों में गर्मी के मौसम में आग की जो ज्वलंत समस्या हर वर्ष विकराल रूप ले रही है, इस त्रासदी का भी मिश्रित वन एक प्रभावी समाधान है। इसी मिश्रित वन के समानान्तर यहां सड़क के ऊपर वन विभाग का चीड़ का जंगल है, जो भू-अपरदन की समस्या से ग्रस्त है और गर्मी के मौसम में कब एक चिंगारी इस जंगल में दावानल का रूप ले ले, कुछ कह नहीं सकते। वहीं, सड़क के नीचे जंगलीजी का मिश्रित वन अपनी हरियाली व नमी के चलते ऐसी सम्भावनाओं से दूर है। जंगलीजी के अनुसार जब तक हमारी जैव-विविधता सुरक्षित व संरक्षित नहीं होगी, तब तक हिमालय और गंगा को बचाने की बातें दूर की कौड़ी बनी रहेंगी और जैव-विविधता का पुख्ता आधार मिश्रित वन ही हैं।

इस मिश्रित वन का एक महत्वपूर्ण वाइ-प्रोडक्ट है वन के बीच फूट रहा जल स्रोत्र, जिसका जल इतना स्वादिष्ट व शीतल है कि मिनरल वाटर इसके सामने फीका है। दशकों के पुरुषार्थ से पनपे इस जल स्रोत का जल अमृत-सा प्रतीत होता है। आज जब पहाड़ों में सूखते जलस्रोतों की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, ऐसे में यह प्रयोग प्रत्यक्ष समाधान है, जिसका एक ही संदेश है उपयुक्त वृक्षों का अधिक से अधिक रोपण किया जाए। जल स्रोत व मिश्रित वन के रहते आज गांव की महिलाओं को पशुओं के लिए चारे व पानी के लिए दूरदराज के जंगलों में भटकना नहीं पड़ता।

1974
में जब बीएसएफ का एक जवान जगत सिंह चौधरी रुद्रप्रयाग स्थित कोटमल्ला गांव में अपने घर आया और गांव की महिला को घास व पानी के लिए जंगल में भटकते और पहाड़ से गिरकर चोटिल होते पाया तो युवा हृदय संवेदित व आंदोलित हो उठा था कि इस समस्या का कोई हल ढूंढ़ना है। यहीं से गांव की बंजर भूमि में पौधरोपण का क्रम शुरू होता है। 1980 में पूर्व सेवानिवृत्ति लेकर जगत सिंह पूरी तरह से इस कार्य में जुट जाते हैं। शुरू में गांववासियों को जगत सिंह का यह जुनून पागलपन लगा, लेकिन दशकों के श्रम के बाद जब जंगल हरी घास व वृक्षों के साथ लहलहाने लगा तो गांववासियों की धारणा बदलने लगी। पहली बार 1993 में जब किसी पत्रकार की नजर जगत सिंह के जंगल पर पड़ती है तो यह प्रयोग अखबार की सुर्खी बनता है।

बंजर भूमि में पनपते हरे-भरे वन को देखकर गांववासियों को जंगली होने का महत्व समझ आया और जंगली नाम से इन्हें पुरस्कृत किया। आज जंगली उपनाम जगत सिंह चौधरी की पहचान हैै। पर्यावरण के क्षेत्र में अपने योगदान के चलते जंगलीजी आज उत्तराखण्ड के ग्रीन अम्बेसडर हैं, पर्यावरण से जुड़े तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं। पुरस्कार से प्राप्त राशि को जंगलीजी स्थानीय युवाओं को इसमें नियोजन करते हुए वन के विकास में लगा रहे हैं। उत्तराखण्ड सहित पड़ोसी पहाड़ी राज्यों व देश के विभिन्न क्षेत्रों में इनके प्रयोग को आजमाया जा रहा है। इनके पुत्र देव राघवेंद्र पिता के कार्य़ को वैज्ञानिक आधार पर आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं।
इसी सप्ताह उत्तराखण्ड सरकार ने जंगलीजी को अपने वन विभाग का ब्रांड अम्बेसडर नियुक्त किया है, जिनके मार्गदर्शन में उत्तराखण्ड के हर जिले में मिश्रित वन का एक-एक मॉडल वन तैयार किया जाएगा।

पूछने पर कि ऐसे प्रयोग के लिए धन व साधन कैसे जुटते हैं, जंगलीजी का सरल-सा जवाब रहता हैप्रकृति से जुड़कर नि:स्वार्थ भाव से कार्य करो, बाकी प्रकृति पर छोड़ दो। नि:संदेह रूप में ऐसे संवेदनशील हृदयों से ही आज की पर्यावरणजनित समस्याओं के समाधान फूटने हैं, क्योंकि प्रकृति को अनुभव किए बिना पर्यावरण संरक्षण की बातें अधूरी रहेंगी। ऐसे में हम जड़ों का उपचार किए बिना महज पत्तियों व टहनियों को सींचने की कवायद कर रहे होंगे। (दैनिक ट्रिब्यून, चण्डीगढ़, 9 जूलाई,2018 को प्रकाशित)
 
इस क्षेत्र से जुड़े यात्रा वृतांत आप पढ़ सकते हैं - हरियाली माता के देश में भाग-1
 

सेब उत्पादन में क्राँति के नायक, प्रगतिशील बागवान


माटी में सोना उगाने वाले अग्रदूत
सेब एक लोकप्रिय स्वादिष्ट फल है, जिससे जुड़ी कहावत ऐन एप्पल ए डे, कीप्स द डॉक्टर अवे हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। सेब को मूलतः मध्य एशिया का फल माना जाता है, जो यहां से पहले यूरोप के ठंडे प्रदेशों में व फिर कालान्तर में अमेरिका तक पहुंचा। भारत में सेब का पहला बगीचा शौकिया तौर पर 1870 में कुल्लू घाटी के बंदरोल स्थान पर अंग्रेज कैप्टन आरसी ली द्वारा रोपा गया था। लेकिन भारत में सेब की व्यावसायिक खेती का श्रेय अमेरिकन मिशनरी सेमुअल स्टोक्स को जाता है जो भारतीय रंग में इस कदर रंग जाते हैं कि शिमला की पहाड़ियों में बस जाते हैं।
 1916 में सत्यानन्द स्टोक्स यहां के थानेधार क्षेत्र, कोटगढ़ में सेब की किस्मों को उगाते हैं, जिनका आगे चलकर पूरे हिमाचल व पहाड़ी क्षेत्रों में प्रसार होता है।
इस समय भारत में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड सेब उत्पादन करने वाले मुख्य प्रांत हैं। इसके साथ पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में सेब उत्पादन शुरू हो चुका है। सेब की उम्दा फसल के लिए औसतन 1200 घंटे के चिलिंग ऑवर्ज (हाड़कंपाती ठंड) की जरूरत होती है। इनमें पारम्परिक रूप में रेड, रॉयल, गोल्डन जैसी किस्मों को उगाया जाता रहा है, जिनके फलदार वृक्ष को तैयार होने में औसतन दस से बारह साल लग जाते हैं।
 लेकिन प्रगतिशील किसानों की खोजी दृष्टि एवं अथक श्रम का परिणाम है कि नजारा पूरी तरह से बदल रहा है। आज हाई डेंसिटी (सघन घनत्व) और स्पर वैरायटी के सेब की पौध उगाई जा रही है, जो महज 3-4 साल में ही फल देना शुरू कर देती है। इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार भी अधिक हो रही है और इनके दाम भी पारम्परिक सेब की तुलना में लगभग दोगुना मिल रहे हैं। 
सेब के साथ नाशपाती जैसे अन्य फलों में भी इस तरह के प्रयोग शुरू हो चुके हैं, जो फल उत्पाद में किसी क्रांति की बयार से कम नहीं हैं। इसकी तुलना अन्न उत्पादन के क्षेत्र में किसी दौर की हरित क्रांति से की जा सकती है, जिसमें अन्न की उम्दा किस्मों के साथ पैदावार कई गुणा बढ़ गई थी। आज जब किसानों की आय को दोगुना करने की बात चल रही है तो बागवानी को लेकर चल रहे ऐसे प्रयोग महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

सेब उत्पादन के क्षेत्र में इस क्रांति के अगुआ रहे हैं शिमला की कोटखाई तहसील के ढांगवी गांव के प्रगतिशील बागवान रामलाल चौहान। यात्रा की शुरुआत इतनी सरल नहीं थी, जितनी यह आज प्रतीत होती है। शुरुआती दौर में होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई के बाद फाइवस्टार होटल की नौकरी को छोड़ जब रामलाल चौहान दिल्ली आजादपुर मंडी में फल कंपनी के साथ काम करते हैं तो देशभर में भ्रमण के दौरान फल की पैकिंग से लेकर मार्केटिंग व उन्नत बागवानी के तौर-तरीकों को नजदीक से देखते व समझते हैं। इन प्रयोगों को अपने गांव में सेब उत्पादन के क्षेत्र में लागू करते हैं।
शुरुआत में स्थानीय सरकारी नर्सरी में उपलब्ध उन्नत विदेशी किस्मों को ट्रायल के रूप में आजमाते हैं, जब प्रयोग सफल होता दिखता है तो तत्काल 7-8 साल के 300 रॉयल सेब के पौधों को टॉप वर्क कर नया बगीचा तैयार करने का साहसिक कदम उठाते हैं।
यह खबर अन्य बागवानों तक पहुंचती है तो सभी इन पर हंसते हैं। लेकिन अगले ही दो-तीन वर्षों में जब नई किस्म के उन्नत सेब उगने शुरू होते हैं व मार्केट में रिकोर्डतोड़ दाम पर बिकने लगते हैं तो वही बागवान इस पहल के अनुगामी बन जाते हैं। 
आज रामलाल चौहान के बाग में सेब व नाशपाती की विदेशी किस्मों की अधिकांश उन्नत किस्में फल-फूल रही हैं। इस प्रयोग में नौनी स्थित डॉ. यशवंत सिंह परमार होर्टिक्लचर यूनिवर्सिटी के उपकुलपति से लेकर वैज्ञानिकों के सहयोग व प्रोत्साहन को रामलाल चौहान कृतज्ञभाव से स्वीकार करते हैं।

आज देश ही नहीं, विदेश के वैज्ञानिक, किसान एवं शोध छात्र इनके बगीचे को देखने आते हैं। हिमाचल सहित कश्मीर, उत्तराखण्ड एवं पूर्वोत्तर के बागवान इस प्रयोग का लाभ ले रहे हैं। बागवानी में तकनीकी के प्रयोग को लेकर रामलाल चौहान को राष्ट्रीय एवं प्रांतीय स्तर पर तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं। इनको आठवां राष्ट्रीय पुरस्कार 2017 में हाईटेक हॉर्टिक्लचर के लिए मिला है।
इसी क्रम में शिमला, कोटखाई के ही बखोल गांव के युवा बागवान संजीव चौहान प्रति हेक्टेयर 52 मीट्रिक टन सेब का रिकॉर्ड उत्पादन कर चुके हैं जो अमेरिका एवं चीन में हो रहे 35-40 मीट्रिक टन से कहीं अधिक है। यह सब सेब की स्पर वैरायटी एवं हाई-डेंसिटी बागवानी के बल पर संभव हुआ है।
कानून, इतिहास एवं पत्रकारिता में स्नातकोत्तर संजीव चौहान सरकारी नौकरी की बजाय बागवानी के जुनून को पिछले लगभग एक दशक से अपने ढंग से अंजाम दे रहे हैं व बागवानी को पत्रकारिता के साथ जोड़कर दूसरों को भी लाभान्वित कर रहे हैं। ऑर्चड बलूम के नाम से इनकी त्रैमासिक पत्रिका और वेबसाइट/फेसबुक पेज रिकॉर्ड पाठक संख्या और हिट्स के साथ इसकी लोकप्रियता एवं सफलता को दर्शाती है। 
 इसके अतिरिक्त फ्री ट्रेनिंग कैंप्स के माध्यम से प्रदेश भर में अपने अनुभव को साझा करते हैं व प्रशिक्षण दे रहे हैं।
वृक्ष के साथ परिवार के सदस्य-सा आत्मीयता भरा इनका संवेदनशील रवैया एक अनुकरणीय पहलु है, जिसके लिए इन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। संजीव चौहान के अनुसार सबसे बड़ा पुरस्कार हमें तब मिलता अनुभव होता है जब हमारी तकनीक से आम किसान लाभान्वित होता है औऱ उसके चेहरे पर मुस्कान आती है।

इन पहलों के बीच एक अभिनव प्रयोग की चर्चा के बिना बात अधूरी रहेगी। यह हैं हिमाचल के ही बिलासपुर जिला में पनियाला गांव के प्रगतिशील बागवान हरिमन शर्मा।
 जिनकी अद्भुत प्रयोगधर्मिता ने सेब की उम्दा किस्म को कम ऊंचाई के गर्म मैदानी इलाकों के लिए एक हकीकत बना दिया है जहां पहले सपने में भी किसान सेब उत्पादन की नहीं सोच सकते थे। इनके बाग में 1800 फीट की ऊंचाई में सफलतापूर्वक फल दे रही सेब की किस्म को इनके नाम से हरमन 1999 नाम दिया गया है, जिसे किसी चिलिंग हॉवर की जरूरत नहीं रहती। इसके सात साल के पौधे में एक क्विंटल तक सेब तैयार हो रहे हैं व जून की शुरुआत में ही फसल तैयार हो जाती है। इस सेब का रंग कुछ लालिमा लिए सुनहरा तथा स्वाद खट्टा-मीठा है।
नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के सहयोग से इस प्रजाति का ट्रायल देश भर के 31 राज्यों में चल रहा है। कर्नाटक, पंजाब व हरियाणा जैसे प्रांतों में इसका सफल ट्रायल हो चुका है। इस प्रयोग के लिए इनको बिलासपुर में एप्पलमैन के नाम से जाना जाता है। राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा इनको पुरस्कार मिल चुका है। राष्ट्रपति भवन में हरमन 1999 सेब की पौध लगा चुके हैं।
प्रांतीय स्तर पर इनको मुख्यमंत्री द्वारा प्रेरणा स्रोत के रूप में नवाजा गया है। इनके प्रयोगों का परिणाम है कि हिमाचल के कांगड़ा, हमीरपुर जैसे गर्म मैदानी इलाकों में बागवान सेब उगा रहे हैं। यही चलन प्रदेश व अन्य गर्म मैदानी इलाकों में शुरू हो चला है।
ऐसे और भी अभिनव प्रयोग चल रहे हैं जो साबित करते हैं कि इनसान अपनी लगन, अथक श्रम, प्रयोगधर्मिता व साहसिक पहल के आधार पर इसी माटी से सोना उगल सकता है। (दैनिक ट्रिब्यून चण्डीगढ़,7मई,2018 को प्रकाशित)

प्रकृति से तालमेल में छिपे समाधान युग के


कुदरत संग दोस्ती से हासिल मंज़िलें

कहावत प्रसिद्ध है कि जितना हम प्रकृति से जुड़ते हैं उतना हम संस्कृति से जुड़ते हैं। जितना हम प्रकृति व संस्कृति से जुड़ते हैं उतना हम अपनी अंतरात्मा से जुड़ते हैं। ऐसे में हमारा संवेदशनशीलता जाग्रत होती है, समाज सेवा सहज रुप में बन पड़ती है। चारों ओर सुख-समृद्धि व शांति का माहौल तैयार होता है, परिवेश में स्वर्गीय परिस्थितियाँ हिलौरें मारती हैं। आज अगर देश-समाज व विश्व में परिस्थितियाँ नारकीय बनी हुई हैं, वातावरण में अशांति, बिक्षुव्धता, दहश्त व घुटन फैली है तो कहीं न कहीं हम प्रकृति व संस्कृति से हमारा अलगाव कारण है। जिसके चलते अंतरात्मा से हमारा सम्बन्ध विच्छेद हो चला है और समाज के प्रति संवेदशनशीलता कुंद पड़ चुकी है।
ऐसे में प्रकृति के दौहन-शौषण का सिलसिला ब्दस्तूर जारी है, जिसके परिणाम हमारे सामने हैं। नदियाँ सूख रही हैं, जलस्रोत्र दूषित हो रहे हैं। गंगा नदी हजारों करोड़ रुपयों के खर्च के बाद भी मैली की मैली पड़ी है। जमुना का पानी गंदे नाले में तबदील हो चुका है। ऐसे ही कितनी ही नदियों का अस्तित्व खतरे में है, कितनी प्रदूषण की मार से दम तोड़ रही हैं। संवेदनहीनता का आलम कुछ ऐसा है कि इन नदियों में डुबकी लगाकर, आचमन कर अपने पाप-संताप हरने का भाव तो करते हैं, लेकिन इनके अस्तित्व से खिलबाड़ करते सीवरेज के गंदे द्रव्य, कारखानों के बिषैले अवशिष्ट, प्लास्टिक कचरे जैसे विजातीय एवं घातक तत्वों को इसमें विसर्जित करने से बाज नहीं आ रहे हैं। जीवन का आधार इन जलस्रोत्रों के प्रति न्यूनतम संवेदनशीलता से हीन ऐसी श्रद्धा-भक्ति समझ से परे है।
जबकि श्रद्धा-भक्ति में तो प्रकृति के घटकों के प्रति सहज रुप में संवेदनशीलता एवं आदर का भाव रहता है, क्योंकि प्रकृति के माध्यम से भक्त ईश्वर को झरता महसूस करता है। ऐसा ही भाव जागा तो बाबा बलवीर सिंह सिचेवाला का जब उन्होंने अपने इलाके में दम तोड़ती नदी काली बेईं को देखा। 

यह वही नदी है जिसकी गोद में सिखधर्म का आदि मंत्र गुरु नानकदेव के मानस में प्रकट हुआ था। लेकिन कालक्रम में मानवीय हस्तक्षेप ने 160 किमी लम्बी इस पावन नदी की दुर्गति कर दी। सीवरेज से लेकर कारखानों का गंदा व विषैला जल इसमें गिरने लगा, जिसके चलते गंदे नाले में तबदील हो गई।  इसकी दुर्दशा ने बाबाजी को झकझोर कर रख दिया था। गुरुग्रंथ साहिव की गुरुवाणी - पवन गुरु, पानी पिता, माता धरत महत, दिवस रात दुई दाई दया, खेलाई सकल जगत  उनका जाग्रत संकल्प बना और नदी को शुद्ध करने का बेड़ा लिया।
जनसहयोग जुटा औऱ तमाम बिरोध एवं विषमताओं के बीच वे इसके कायाकल्प करने में सफल हुए। इस अथक श्रम का नतीजा रहा कि नदि का जल नल के जल से अधिक शुद्ध है। जल जीवन इसमें लहलहा रहा है, इसके किनारे हजारों हरेभरे वृक्ष लहलहा रहे हैं, इसके सुंदर घाट और इसके पावन तट तीर्थ का रुप ले चुके हैं। बाबाजी का कहना है कि आज जरुरत है कुदरत के साथ जुड़ने की, इसके सत्कार करने की। साथ ही दरिया और धरती को हराभरा करने के लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाने की। यहि आने वाली पीढ़ी के हमारा सर्वोत्तम उपहार हो सकता है। 
 
इसी तरह एक सेवानिवृत फोजी जब अपने गाँव में महिलाओं को दूर जंगल से घास लाता देखता है, पानी के लिए दूर भटकते देखता है, इससे होने वाले कष्ट पीड़ा से संवेदित होता है, तो वह अपने गाँव के चारों ओर जंगल लगाने की ठान लेता है। इस प्रयास में वर्षों बीत जाते हैं। अकेले दम पर वह एक मिश्रित बन तैयार करता है, इस तरह 10-15 वर्षों के अथक श्रम के बाद जब बन तैयार होता है तो गाँव की समस्याओं का समाधान होने लगता है।
आज इस जंगल में पशुओं के लिए चारा उपलब्ध है। वनीय पशु-पक्षियों का यह बसेरा बना हुआ है, जिसमें इनकी चहक व हलचल एक जीवंत प्राकृतिक परिवेश का अहसास होता है। जल स्रोत रिचार्ज हो चुके हैं, गाँव का झरना बारहों मास झर रहा है, पानी की समस्या का समाधान हो चुका है। साथ ही जड़ी-बूटियों से लेकर कैश क्रोप की खेती के साथ गांववासियों के आर्थिक स्वाबलम्बन का पुख्ता आधार यहाँ तैयार है। 

ग्लोबल वार्मिंग के दौर में मिश्रित वन का यह प्रयोग समाधान की उज्जली किरण के रुप में प्रकाश स्तम्भ की भाँति सामने खड़ा है। इस प्रयोग के लिए जगत सिंह जंगली को उत्तराखण्ड के ग्रीन एम्बेसडर सहित तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं, लेकिन वे जंगली उपनाम को ही अपनी पहचान मानते हैं। दूर-दूर से आकर लोग इस अद्भुत प्रयोग को देखने आते हैं और अपने क्षेत्रों में लागू कर रहे हैं। प्रकृति के साथ सामंज्य बिठाकर किस तरह सामाजिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है, यहाँ देखा व समझा जा सकता है।
इसके साथ ही प्रकृति की गोद में जीवन के उच्चतर दर्शन को भी समझा जा सकता है। अमेरिकन दार्शनिक, राजनैतिक विचारक एवं प्रकृतिविद हेनरी डेविड थोरो का जीवन इसका एक जीवंत उदाहरण है। गाँधीजी ने थोरो के सिविल डिसओविडिएंस की अवधारणा को असहयोग आंदोलन के रुप में प्रयोग किया था। जीवन को समग्र रुप से समझने के लिए थोरो मेसाच्यूट्स शहर से सटे कोंकार्ड पहाडियों की गोद में स्थित बाल्डेन सरोवर के किनारे आ बसते हैं। 

दो वर्ष, दो माह और दो दिन वहाँ सरोवर के किनारे कुटिया बनाकर वास करते हैं। खेत में मटर, बीन्स, मक्का, शलजम आदि की खेती करते हैं। कुदाल लेकर एक किसान की भूमिका में अपने लिए आहार तैयार करते हैं। कृषि के साथ ऋषि जीवन जीते हैं। आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय करते हैं और प्रकृति की गोद में आत्मचितन-मनन के गंभीर पलों को जीते हैं।

बन्य जीवों को अपना सहचर बनाते हैं, झील में नाव के सहारे नौकायान करते हैं, झील की गहराई से लेकर इसके बदलते रंगों का मुआईना कर वैज्ञानिक दस्तावेज तैयार करते हैं। बर्फ पड़ने पर सर्द ऋतुओं में यहाँ के प्रकृति परिवेश की विषम परिस्थियों के बीच पूरी तैयारी के साथ जीवन के रोमाँचक पलों को जीते हैं। यहाँ की सुबह, दोपहरी शाम व रात्रि के पलों की बदलती परिस्थियोँ व मनःस्थिति को बारीकी से निहारते हैं। प्रवास के अनुभवों को वाल्डेन ग्रंथ के रुप में एक कालजयी रचना भावी पीढ़ी को दे जाते हैं।
 
सार रुप में प्रकृति के साथ सामंजस्य में ही जीवन के शांति, सृजन व समाधान के राज छिपे हैं। समाज का कल्याण भी इसी में निहित है। जितना हम प्रकृति से जुड़ेंगे, इसका संरक्षण करेंगे, इससे तालमेल बिठाकर रहेंगे, उतना ही हम इसके वरदानों को अनुभव करेंगे। जितना हम इसका दोहन-शौषण करेंगे, इससे खिलबाड़ करेंगे, उतना ही हमें इसके कोपों को भोगने के लिए तैयार रहना होगा। यह हम आप पर पर निर्भर है कि हम किस रुप में प्रकृति के साथ बरताव करते हैं, इसी में हमारा, समाज व धरती का भविष्य छिपा हुआ है। (दैनिक ट्रिब्यून, चण्डीगढ़, 29जनवरी,2018 को प्रकाशित)

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