गुरुवार, 4 जुलाई 2019

चाह अमृतपुत्र की...

इसी जन्म में स्वयं को पाकर रहुँगा

नहीं चाह कोरे कागज पोतने की,
नहीं मंच से कोरी भाषण-लफ्फाजी की,
जो अनुभूत है वही कहूँगा,
जो छलकेगा वही लिखूंगा।।

नहीं किसी की नकल,
न किसी का अंधानुकरण,
न किसी से तुलना,
न किसी से कटाक्ष,
स्वयं से है प्रतिद्वन्दता अपनी,
रोज अपने रिकॉर्ड तोड़ते रहूंगा।।

स्वयं हूँ मैं मुकाम अपना,
नित नए शिखरों का आरोहण करता रहूँगा,
नहीं जब तक होता लक्ष्य प्रकाशित,
खुद की खुदाई करता रहूँगा,
जब तक नहीं होता अमृत से सामना,
स्वयं के अंतर को टटोलता रहूँगा।।

हूँ मैं अमृतपुत्र, ईश्वर अंश अविनाशी,
इसी जन्म में स्वयं को पाकर रहूँगा।।

सोमवार, 17 जून 2019

यात्रा वृतांत - मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-2




बिडगोश शहर का पहला दिन, पहला परिचय

                  
बिडगॉश – छोटा सा एयरपोर्ट, लेकिन कितना सुंदर। चारों और ऊँचे-ऊँचे पाईन ट्री से घिरा। यहाँ के पाईन ट्री इस तरह से नीचे से तराशे होते हैं कि इनका ऊपरी हिस्सा ही घनी हरि पत्तयों से भरी टहनियों से लदा होता है। निसंदेह रुप में ये हमारे चीड़ के पेड़ों से अधिक समार्ट लगते हैं व सुंदर भी। इनमें कुछ-कुछ देवदार की झलक मिलती है।
 यहाँ लुफ्तांसा के रिजनल यान से उतरकर विडगोश हवाई अड्डे के अंदर आते हैं, दिल्ली एयरपोर्ट से चढ़ा अपना लगेज एकत्र करते हैं।


बाहर काजिमीर विल्की यूनिवर्स्टी के इंटरनेशनल रिलेशन विभाग की मेडेम अग्नयशिका चालक के साथ हमारे स्वागत के लिए खड़ी थी। इनका नाम हिंदी के अग्नि और यशिका शब्दों से जोड़कर हमारे लिए याद रखना आसान रहा। हमारा पहला संवाद इन्हीं से होता है। इनका आत्मीय संवाद एकदम नए एवं अपरिचित परिवेश की हमारी स्वाभाविक दुबिधा को हल्का कर देता है। बातचीज से पता चला कि ये भारत आ चुकी हैं, हमारे ही विश्वविद्यालय में कुछ दिन रुक चुकी हैं, जिसे ये भावपूर्ण याद कर रही थींं। 
एयरपोर्ट के करेंसी एक्सचेंज सेंटर पर यूरो को ज्लोटी में कन्वर्ट करते हैं। ज्ञातव्य हो कि पोलेंड की मुद्रा ज्लोटी है, जो भारतीय 18 रुपयों के बराबर होती है। वहीं 4.5 ज्लोटी मिलकर 1 यूरो के बराबर होते हैं। और 1 यूरो 78 रुपयों के लगभग होता है। ज्लोटी का छोटा अंश ग्रौजी है। आगामी आदान-प्रदान हमारा ज्लोटी एवं ग्रोजी में होना था, जिससे परिचित होने में कुछ समय लगने वाला था।


एयरपोर्ट से हमारे गन्तव्य स्थल के बीच शहर के जो दिग्दर्शन हुए वह हमारे दिलो-दिमाग पर गहरे अंकित हुए। आगामी दिनों में भी शहर एवं कस्वों के जो भ्रमण किए, एक बात स्पष्ट थी कि यहाँ पर सब चीजें सुव्यवस्थित दिखती हैं, शहर में भवन निर्माण योजना के तहत होते हैं। बीच में पर्याप्त स्पेस दिया जाता है, जिसमें वृक्ष एवं हरियाली के लिए भी उपयुक्त स्थान रहता है। 



इनके सामने अपने देश में अधिकाँश शहरों का बिना प्लानिंग के कुकरमुत्तों की तरह भवनों का खड़ा होना, हरियाली का अभाव और घिच-पिच आबादी। हम धर्म-अध्यात्म एवं आदर्शों की कितनी ही ऊँची बातें क्यों न कर लें, हम अभी बाहरी व्यवस्था के मामले में बहुत पिछड़े हुए हैं। लगता है हम अभी अध्यात्म का पहला पाठ स्वच्छता-सुव्यवस्था सही ढंग से नहीं सीख पाए हैं, जिसे हम यहाँ के जनजीवन से कदम-कदम पर अनुभव करते गए। इसके साथ ही श्रम की गरिमा यहाँ एक बड़ी चीज दिखी, जिसकी चर्चा हम आगे उपयुक्त संदर्भ के साथ करना चाहेंगे।
सो कुल मुलाकर पहली झलक में शहर हमारे दिल को भा गया। यहाँ की सफाई, प्लांनिंग, सबसे ऊपर प्रकृति के साथ भवनों का संयोजन। लगा तवीयत से शहर बनाया गया है। 
यहाँ का ट्रैफिक अनुशासन भी काबिले तारीफ लगा, जिसके अपने देश में दर्शन दुर्लभ हैं। यदि आप सड़क में जेबरा क्रासिंग पर पैर रख दिए तो वाहन खुद व खुद यथास्थान रुक जाते हैं, और आपके पार होने के बाद ही आगे बढ़ते हैं। 

लेकिन यह सब एक अघोषित अनुशासन के अंतर्गत होता है। इसके लिए आप सड़क कहीं से भी पार नहीं कर सकते। पैदल यात्रियों को जेबरा क्रॉसिंग से होकर सड़क पार करनी होती है। इसके सामने अपने देश की ट्रेफिक अनुशासन की स्थिति भयावह है, दिल दहला देने वाली है। कब कौन सी गाड़ी क्रोसिंग पर आपको ठोक दे, रौंद दे, ठिकाना नहीं। देखकर लगा हमें पब्लिक अनुशासन के क्षेत्र में बहुत कुछ सीखने की जरुरत है।
काजीमिर विल्कि यूनिवर्सिटी का मुख्य कैंपस रास्ते में दायीं ओर पड़ा, जो प्राकृतिक छटा के बीच बसा बहुत सुंदर परिसर है।


यहाँ दो तरह के परिचित वृक्ष पर्याप्त मात्रा में दिखे। एक मैपल ट्री, जिसका पत्ता कनाडा का राष्ट्रीय प्रतीक है और दूसरा फूलों से लदा जंगली चेस्टनेट (खनोर), जिनके फल हमारे हिमालयन जंगलों में लंगूल व बंदर खाते हैं, जबकि यहाँ बंदर व लंगूरों का सर्वथा अभाव दिखा। यहाँ का सबसे कॉमन पक्षी कबूतर दिखा, जिसे आप किसी भी पार्क में, सार्वजनिक स्थल पर झुंड़ों में चुगते व गुटरगूँ करते देख सकते हैं। यह इंसान से बिल्कुल भय नहीं खाता। ऐसा क्यों है, अभी यह जानना शेष है।
हमारे रुकने कि व्यवस्था यूनिवर्सिटी से वॉकिंग डिस्टेंस पर एक होटेल में थी, जहाँ हमारा परिचय एक बुजुर्ग व्यक्ति से होता है, तो पोलिश में अग्नियशिका से बात करता है, ठहरने की व्यवस्था होती है।
बरामदे में आते ही लाईट खुद-व-खुद जल जाती। यहाँ यात्रियों के अलग-अलग रुम की उम्दा व्यवस्था थी, लेकिन किचन कॉमन था, जहाँ के फ्रिज में आप अपना-अपना सामान रखकर उपयोग कर सकते थे। गर्म पानी व चाय-कॉफी के लिए इलैक्ट्रिक कैटल व पकाने के लिए इंडक्शन चूल्हा। आवश्यक ग्लास, क्रोक्रीज एवं वर्तन अलमारी में कई आकार एवं रंग में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे।



रुम डेकोरेशन देखने लायक थी। कमरे के कौन में एक सीसे के वर्तन में सूखी टहनियाँ बहुत खूब लगीं। लगा जैसे सेब की सूखी टहनियों को पेड़ों की प्रूनिंग के बाद रखा गया हो। टेवल पर सूखे फल, जिसका नाम-पता हम नहीं लगा पाए। किचन में खिड़कियों पर चिडियों के जोड़े, बाथरुम में सीप, दिवालों पर सुंदर फूलों के पत्ते व पंखुड़ियाँ, कमरे में झालर में टंगे बल्व – सब मिलाकर ट्रेडिशन एवं आधुनिकता का अद्भुत संयोजन कर रहे थे।

और खिड़की के बाहर सुंदर हरे-भरे लॉन एवं क्रिसमिस ट्री। सब मिलाकर इंटीरियर एवं एक्सटीरियर डिजायनिंग का एक खुबसूरत संयोजन यहाँ देखने को मिला। लगा कि आधुनिकता के साथ ट्रेडिशन का संयोजन कितना आकर्षक एवं मनभावन हो सकता है। 
अपनी परम्परा के श्रेष्ठ तत्वों के प्रति गौरव का भाव अपने पूर्वजों के अनुभव व ज्ञान का सम्मान है, इन्हें हीन मानकर दूसरों के तौर-तरीकों की अंधी नक्ल किसी भी रुप में समझदारी वाला कदम नहीं माना जा सकती।


यहाँ टायलेट में पानी की जगह कागज का चलन अधिक दिखा। खाने के बाद भी वाशबेसिन की जगह, पेपर का उपयोग अधिक होता है। शायद एक तो यहाँ चम्मच व काँटे से भोजन का चलन है, हाथ अधिक गंदे नहीं होते। दूसरा शायद ये पानी की बचत अधिक करने में विश्वास करते हैं। हालाँकि हम अंत तक प्यास बुझाने वाले प्राकृतिक जल के लिए तरसते रहे। यहाँ सोड़ा युक्त मिनरल वाटर का चलन अधिक दिखा, जिसका स्वाद खारेपन लिए होता है। यदि खारेपन लिए नहीं भी है, तो भी वेस्वादु सा लगता है।
शाम को जब पास की दुकान में सामान खरीदने गए, तो यह हमारा यहाँ का पहला पर्चेजिंग अनुभव था। दुकान खाने-पीने की हर तरह की चीजों से भरी थी। चीजों का नाम पोलिश में था, लेकिन दाम के अंक पढ़ सकते थे। दुकानदार अंग्रेजी नहीं जानती थी। सामान पर रेट लिखा था।


अपनी पसंद की चीज सेलेक्ट कर टोकरी में भरकर काउंटर पर ले आए। लेजर स्कैनर से बिल कम्प्यूटर पर चढ़ जाता, जोड़ बिल में प्रिंट होता। इस संख्या देखकर काम चल जाता। शुरु में जलोटी व ग्राउजी का अंतर समझने में एक-दो दिन लग गए। दुकान पर अम्माजी से परिचय हो गया था, जो स्वभाव से बहुत अच्छी थी। भाषा का बैरियर अवश्य रहा, लेकिन भावनात्मक संवाद एवं समझ के आधार पर काम चलता रहा।
यहाँ के लोग पहली नजर में देखने पर गंभीर लगते हैं, शायद भाषा का वैरियर एक कारण रहता हो। लेकिन एक बार परिचय होने पर, घुलमिल जाते हैं। हमारा अनुभव पोलिश लोगों से बहुत अच्छा रहा, सब ईमानदार एवं अच्छे इंसान लगे। जहाँ भी जरुरत पड़ी, सहज रुप में सहयोग मिलता रहा, जिसका उदाहरण आगे उचित संदर्भ के साथ करेंगे।
यहाँ सेब फल को देखकर मेरा रोमांचित होना स्वाभाविक था। इस संदर्भ में कुछ जानकारी बटोरना चाहता था। पौलेंड विश्व में सेब-उत्पादन में चौथा स्थान रखता है। जो सेब इस समय मार्केट में था वह दो जलोटी यानि 36 रुपए में 1 किलो मिला। जब रुम में आकर धोकर इसे चखा, तो तत्काल इसका फैन हो गया। सेब इतना रसीला, मीठा व क्रंची था कि यह अपना नित्यप्रति का साथी बन गया। घर पर बागवान भाईयों से चर्चा कि तो पता चला कि यह गाला सेब की किस्म थी। 

बाद में मार्केट में सेब की विभिन्न किस्में दिखी। पता चला कि विंटर सेब, जो स्वाद में खट्टे होते हैं व रंग में हरे, यहाँ अधिक मंहगे बिकते हैं। ये लाल व मीठे सेबों से तीन गुणा अधिक दाम में बिक रहे थे। भारत की स्थिति इसके उलट है। अपने यहाँ पैमाना सेब का लाल रंग रहता है, इसकी पौष्टिकता नहीं।
यहाँ अपने काम का भोजन ब्रेड और मिठी दही लगी, जिसे यहाँ योगहर्ट कहते हैं। चीज भी यहाँ बहुतायत में मिलता है, लेकिन यह अपनी पहली पसंद न रही। दुकान पर भी सफाई का विशेष ध्यान रखते हैं। सामान के साथ थैले रखे होते हैं, साथ ही ब्रेड के किनारे गलब्ज, जिन्हें पहनकर इन्हें थेले में रखना होता है, जिससे कि हाथ में किसी तरह की गंदगी व इंफेक्शन इन खाद्य पदार्थों में संक्रमित न हो।
पहली रात नींद अच्छी नहीं आई। शायद नए परिवेश में नया विस्तर व कमरा मुख्य कारण था। फिर तकिया व गद्दा कुछ ज्यादा ही आरामदायक लगा।
फिर रात को 9, 9.30 तक अंधेरा और प्रातः 3,15 बजे से यहाँ चिड़ियों का चहचाना। चार बजे तक उजाला हो जाता है। 5 बजे तक सूरज निकल जाता है। इस तरह रातें बहुत छोटी, मुश्किल से 6-7 घंटे की रहीं। हम धीरे-धीरे यहाँ के दिन-रात के ऋतु चक्र से परिचित होते हैं व इसके अनुरुप ढलने की कोशिश करते हैं।

यहाँ मोबाईल या लैपटॉप चार्ज करने के लिए भारतीय दो या तीन पिन वाला प्लग नहीं चलता, क्योंकि यहाँ का सोकेट अलग तरह से होता है, जिसमें यूनिवर्सल चार्जर को लगाकर ही काम हो सकता है। इसको सोकेट में फिट कर फिर इसके छिद्रों में भारतीय प्लग लग जाते हैं व मोबाईल या लैप्टॉप चार्जिंग का काम बखूबी होता है। साथ ही पावर बैंक ऐसे सफर का एक अभिन्न हमसफर होता है, जिसको साथ ले जाना हमे पग-पग पर साथ देता रहा।
अगले दिन की शाम, हमारी बिडगोस्ट शहर की गलियों से पैदल भ्रमण करते हुए यहाँ के ह्दयक्षेत्र वर्दा नदी पर बसे मिल्ज आइसलैंड के नाम थी, जिसका जिक्र अगली पोस्ट में करेंगे।(जारी...)
   यात्रा का अगला हिस्सा आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-3,बिडगोश शहर के ह्दयक्षेत्र में पहली शाम..

गुरुवार, 13 जून 2019

यात्रा वृतांत - हमारी पहली विदेश यात्रा, भाग-1


मेरी पौलेंड यात्रा, भाग-1



दिल्ली से बिडगोश वाया फ्रेंकफर्ट,जर्मनी
पृष्ठभूमि एवं कृतज्ञता ज्ञापन – यह हमारी पहली विदेश यात्रा थी। विश्वविद्यालय के अकादमिक एक्सचेंज कार्यक्रम के तहत निर्धारित इरेस्मस प्लस टीचर मोबिलिटी कार्यक्रम में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की ओर से हमारा जाना तय हुआ। इस चयन के लिए हम प्रतिकुलपति डॉ. चिन्मय पण्ड्याजी के सदैव आभारी रहेंगे। श्रद्धेय कुलाधिपति डॉ. प्रणव पण्ड्याजी एवं स्नेहस्लीला श्रद्धेया शैल जीजी के भी हम आभारी हैं उनके आशीर्वचनों एवं यात्रा के लिए आवश्यक आर्थिक संरक्षण प्रदान करने के लिए। आभारी रहेंगे ज्वलन्तजी के, यात्रा के लिए आवश्यक पासपोर्ट, वीजा आदि की व्यवस्था करने से लेकर एक सतत् सहयोगी-मार्गदर्शक की भूमिका में उपलब्ध रहने के लिए। विदेश विभाग, शाँतिकुंज के सोमनाथ पात्राजी के सहयोग के भी हम आभारी हैं। पिछली वार पोलेंड से लौटे डॉ.इप्सित प्रताप सिंह से हुई चर्चा भी हमारे इस संदर्भ में बहुत उपयोगी थी।
डोमेस्टिक फ्लाईट में पहली यात्रा का वर्णन पिछली हमारी पहली हवाई यात्रा वृतांत में कर चुका हूँ, इस बार अंतर्राष्ट्रीय फ्लाईट थी, जो दिल्ली से शुरु होकर बिडगोश, पौलेंड तक थी। बीच में फ्रेंकफर्ट, जर्मनी में इसका पड़ाव था। पूरी यात्रा जर्मनी की लुफ्तांसा हवाईसेवा के माध्यम से तय हुई, जिसे यूरोप की सबसे बड़ी वायुसेवा माना जाता है। लुफ्त का अर्थ हवा है, और हंस का अर्थ लेैटिन में समूह। लेकिन हमारे लिए हिंदी का हंस ही ठीक लगा, जिसे जोड़ने पर लुफ्तांसा वायु में उड़ान भरता हंस हुआ। हमें अपने लिए इसका यही अर्थ उपयुक्त लगा।

शाम को हम गायत्री चेतना केंद्र, नोएडा में रुकते हैं, जहाँ हमने कभी पत्रकारिता की विधिवत शिक्षा ली थी। आज इसी के अगले अध्याय के रुप में हम इस यात्रा को देख व समझ रहे थे। यहीं पर संयोग से रात्रि भोजनोपरान्त भ्रमण के दौरान देवसंस्कृति विश्वविद्यालय से पासआउट हमारे पूर्व छात्र एवं वर्तमान में इनशॉर्ट एवं अमर उजाला में कार्यरत युवा पत्रकार श्री नूतन कुमार एवं दुर्गेश तिवारी तथा अपनी ट्रैवल टैगलाईन एजेेंसी चला रहे विशाल सिंह से संक्षिप्त मुलाकात होती है, जो यात्रा से पूर्व की भावभूमिका के रुप में हमारे लिए महत्वपूर्ण रही। 

इसी क्रम में विश्वविद्यालय से चलते हुए पूर्वसंध्या पर हमारे अग्रजतुल्य स्नेही श्रीराजकुमार भारद्वाज सहित यंग ब्रिगेड़ के दीपक कुमार, राहुल सतुना, सौरभ कुमार एवं स्वप्नेश चौहान हमारी पौलेंड यात्रा की अग्रिम भावभूमिका बना चुके थे। यात्रा को हरिद्वार से नोएडा एवं फिर एयरपोर्ट तक सकुशल अंजाम देने के लिए कुशल सारथी नवीनजी का भी हम हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहेंगे।
दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, टर्मिनल 3 से प्रवेश करते हैं। इसकी जगमगाहट एवं गुणवत्ता विश्वस्तरीय है, इसमें कोई संदेह नहीं। इसके लिए इसके निर्माण के पीछे लगी व्यवस्था, प्रशासन एवं सरकारी तंत्र साधुवाद के पात्र हैं। लेकिन कुछ अहम् सुझाव भी हैं, जिसे हम बापसी की यात्रा की अंतिम पोस्ट में शेयर करना चाहेंगे। 

पहली यात्रा का सस्पेंस, उत्सुक्तता, संशय, रोमाँच एवं कुछ भय आदि सबकुछ हमारे साथ थे, क्योंकि बहुत कुछ पहली बार घटित हो रहा था। सबकुछ चौकन्ना होकर देख रहे, समझने की कोशिश कर रहे थे व सीख रहे थे। यहाँ सबकुछ नया था, ऐसे लग रहा था जैसे हम अज्ञात में प्रवेश कर रहे हैं। विदेशी यात्री अधिक थे, देशी कम, सो एकदम नए तरह के परिवेश में एक अलग तरह का रोमाँच व सस्पेंस बर्करार था। हिंदी भाषा के विकल्प समाप्त होते जा रहे थे, अंग्रेजी ही हमारी तारणहार बनने वाली थी।


लुफ्तांसाएयरपोर्ट में प्रवेश से लेकर बोर्डिंग पास की प्राप्ति एवं सेक्यूरिटी चेकअप तथा इमाग्रेशन फोर्मेलिटीज के बाद में कुछ समय प्रतीक्षालय में बिताने के बाद अंततः लुफ्ताँसा विमान में प्रवेश करते हैं। इसके अधिकारियों एवं एयर-होस्टेसिज द्वारा स्वागत होता है। वायुयान काफी बड़ा था, तीन पंक्तियों में सीटें थी, हर पंक्ति में तीन सीटें। हमारी सीट वायीं ओर खिड़की के साथ थी।

रात लगभग 2 बजे यात्रा शुरु होती है, सो अगले 3 घंटे तक बाहर सबकुछ अंधेरे में था। लेकिन सुबह होते ही जैसे ही आँख खुलती है, जिज्ञासु मन खिड़की के शटर खोलकर बाहर झांकता है, तो नीचे बर्फ से ढके पहाड़ नजर आए, जो हमारी यात्रा के अधिकाँश समय रहे। बीच बीच में इनको निहारते रहे व इनके विडियोज लेते रहे। दिन के उजाले में इससे वेहतर हमारी यात्रा का शुभारंभ क्या हो सकता था। ये कौन सी पर्वतश्रृंखलाएं हो सकती हैं, यह प्रश्न कौंधता रहा।

विमान की स्थिरता हमारे लिए नायाव अनुभव था। पिछली डोमेस्टिक इंडिगो यात्रा में जहाज थोड़े से बादलों के बीच डांबाडोल हो उठता था, लेकिन यहाँ यान एकदम स्थिर था। केबल इंजन की आवाज आ रही थी। लग रहा था, जैसे हम एक ही स्थान पर खड़े हैं और इंजन चल रहा है। मात्र नीचे देखने पर बहुत धीमे पीछे छूटती पहाड़ियों को देखकर लगता कि हम आगे बढ़ रहे हैं।
रात का डिन्नर हल्का रहा, लेकिन ब्रेकफास्ट-काफी भारी था, जिसमें कुछ यूरोपियन डिश थे, तो कुछ दक्षिण भारतीय। नाश्ते के साथ फिकी चाय का ट्रेलर मिलना शुरु हो चुका था, जिसका साथ यात्रा के अंत तक बना रहा, जिसका जिक्र हम आगे जल-पान की परम्परा के अंतर्गत विस्तार में करना चाहेंगे।

खिड़की के सामने जहाज के पंखनुमा ब्लैड़ फैले थे, जो आकार में वृहद थे। सो नीचे दृश्यों का आधा ही दर्शन कर पा रहे थे, लेकिन हमारे लिए इतना ही पर्याप्त था। यदाकदा शटर खोलकर नीचे की ताकझांक के बीच सफर यादगार बनता गया। गिनती नहीं कि कितनी पर्वत श्रृंखलाएं पार की होंगी। अधिकाँश बर्फ से ढ़की मिली। शायद हम हिंदुकुश पर्वतश्रृंखलाओं को पार कर रहे थे। हालांकि बाद में पथ का अवलोकन करने पर पता चला कि रास्ता अफगानिस्तान, तुर्कमेनीस्तान, उक्रेन आदि देशों से होकर गुजरा था।
इस तरह हम लगभग लगभग 9 घंटे की फ्लाईट के बाद जर्मनी के शहर फ्रेंकफर्ट की हवाई पट्टी पर उतरते हैं। रास्ते में मौसम की गढ़बडियों के चलते हमारी यात्रा एक घंटे लेट थी।

फ्रेंकफर्ट विश्व के सबसे बडे एयरपोर्ट में शुमार है। यहाँ हम जिस टर्मिनल में उतरे, वहाँ से लेकर उस टर्मिनल की पैदल यात्रा, जहाँ से हमें आगे बिडगोस्ट, पौलेंड की उडान भरनी थी, एक थकाऊ अनुभव रहा। हमें दूरी का अंदाजा नहीं था, पैदल चलते चलते 8-10 किमी तय कर चुके थे।
हालाँकि टैक्सी कार भी व्यवस्था रहती हैं, जिससे हम ज्यादा बाकिफ नहीं थे। पिछली फ्लाईट लेट होने के कारण हमारे पास अधिक समय नहीं था। अतः स्कियूरिटी चैक एवं इमाइग्रेशन लाईन में लोगों से रिक्वेस्ट करते हुए हम आगे बढ़ते गए। अधिकाँश यात्रियों का सहयोग काबिले तारीफ था, वस एक महिला हमारी मजबूरी नहीं समझ पा रही थी। उसको अपना घंटों खड़ा होकर इंतजार करना अखर रहा था। सुरक्षा गार्ड हमारी मजबूरी समझकर हमें आगे पंक्ति में लगा देते हैं। यहाँ कि चैकिंग काफी कड़ी रही। पोकेट का हर समान बाहर निकाला गया। जुराब-जुत्तों की तक तलाशी ली गई। वैश्विक आतंकवाद के दौर में अज्ञात विदेशी पर्यटकों से आशंकित सुरक्षा एजेंसियों की यह जांच-पड़ताल हमें स्वाभाविक लगी।
लम्बी पैदल यात्रा के बाद हम यहाँ वेटिंग कक्ष में पहुंचते हैं, जहाँ से बिडगोस्ट जाने वाली सवारियां इंतजार कर रही थीं। यहाँ पता चला कि पिछली प्लाइट्स लेट होने की बजह से अब बिडगोस्ट की फ्लाईट भी 1 घंटा लेट है। गहरी सांस लेकर हम विश्रामगृह में बैठ जाते हैं व इंतजार करते हैं। चारों ओर लोगों के रंग-रुप, पहरावे, डील-डोल एवं बदले परिवेश तथा प्रदेश को देखकर अब गाढ़ा अहसास हो चुका था कि हम विदेश में हैं। इनमें से एक भी परिचित नहीं था। संवाद का एक मात्र माध्यम अंगेजी था, वह भी इनमें से कितनों को आती होगी, कह नहीं सकते। क्योंकि जर्मनी में जर्मन, तो पोलेंड में पोलिश बोली जाती है। अंग्रेजी वहाँ प्रधान भाषा नहीं है। अतः पुरानी पीढ़ी इससे अधिक परिचित नहीं। नयी पढ़ी-लिखी पीढ़ी ही अंग्रेजी को समझती है व बोलती है। जिसके कई अनुभव आगे इंतजार कर रहे थे।
फ्रेंकफर्ट से बिडगोस्ट का सफर सिटी लुफ्तांसा के छोटे वायुयान में पूरा होता है, जो भारत की डोमेस्टिक सेवा इंडिगो जैसा ही अनुभव रहा। बैसे ही जमीं पर आगे बढ़ते हुए जैट इंजन का शुरु होना, फिर जमीं से ऊपर उठकर आसमान तक की पहुँच, बादलों के बीच-ऊपर व संग उड़ान - लगभग बैसे ही चिरपरिचित दृश्य व अनुभव थे। 


यहाँ यान में सवारियों को विशेष निर्देश नहीं दिए जाते, जैसे हम इंडिगो में देखे थे। शायद सबको वे अभ्यस्त यात्री मानकर चलते होंगे और ऐसी यात्राएं जनजीवन का यहाँ सामान्य हिस्सा रहती होंगी।
यान की खिड़की से नीचे निहारते ही एक अंतर स्पष्ट दिखा, जो था नीचे कस्बे-शहर-खेत-जंगल व गाँवों के दृश्यों का। यहाँ कितनी हरियाली थी, जंगल कितने घने थे। खेत कितने बड़े एवं सुव्यवस्थित। कस्बों की प्लानिंग कितनी मनभावन थी, जिसका हमारे देश में सर्वथा अभाव पाया जाता है। इन्हीं दृश्यों के निहारते हुए सफर बढता रहा। 

नए परिवेश एवं नए प्रदेश में गन्तव्य स्थल की ओर बढ़ती यात्रा का रोमाँच बर्करार था। सफर के बीच में चाय-नाश्ता सर्व होता है, जो ब्राउन ब्रेड के बीच चीज़ एवं पत्तेदार सब्जियों के मिलकर बना सैंडविच जैसा था। चीज़ यहाँ के शाकाहारी भोजन का एक अभिन्न अंग प्रतीत हो रहा था। चाय वही फिकी एवं वेस्वादु जिसकी चर्चा आगे विस्तार से करना चाहेंगे। लगभग ढेड घंटे के सफर के बाद हम अपनी मंजिल बिडगोश एयरपोर्ट की ओर पहुँचने वाले थे, जिसकी अनाउंस्मेंट होती है। नीचे बिडगोश शहर की झलक मिलना शुरु हो चुकी थी व हम कुछ ही पलों में उतरने जा रहे थे।  (जारी...)
यात्रा का अगला भाग आप दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -

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पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...