शनिवार, 15 अगस्त 2020

मेरा गाँव मेरा देश - बेसिक कोर्स का रोमाँच, भाग-2

मानाली से जिंगजिंगवार घाटी का रोमाँचक सफर


पिछली ब्लॉग पोस्ट में पर्वतारोहण संस्थान में बिताए पहले नौ दिनों का वर्णन किया था, जिसमें रॉक क्लाइंबिंग, रिवर क्रॉसिंग, बुश क्राफ्ट जैसी आधारभूत तकनीकों का प्रशिण दिया गया। अब हम अगले पड़ाव के लिए तैयार थे। हिमाचल परिवहन निगम की 2 बसों में सबके सामान की पेकिंग हो जाती है और यात्रा रोहतांग पास के उस पार लाहौल घाटी में स्थित बेस कैंप जिस्पा की ओर बढ़ती है, जहाँ भागा नदी के किनारे पर्वरोहण संस्थान का स्थानीय केंद्र स्थापित है।

मानाली से रोहताँग पास तक इस यात्रा का पहला चरण मान सकते हैं, जब बस पहले पलचान तक बाहंग, नेहरुकुण्ड जैसे स्थलों से होकर ब्यास नदी के किनारे सीधा आगे बढ़ती है। सामने सफेद दिवार की तरह खड़ी पीर-पंजाल की हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं ध्यान को आकर्षित किए रहती हैं। पलचान से चढ़ाई शुरु होती है, जो लगभग 13000 हजार फीट पर स्थित रोहताँग पास तक क्रमशः बढ़ती जाती है। इसके रास्ते में कोठी, गुलाबा फोरेस्ट, मढी आदि स्थल आते हैं। कोठी अंतिम मानव बस्ती है, जहाँ से देवदार के घने जंगल शुरु होते हैं। ब्यास नदी की धार नीचे गहरी खाई में अपनी मौन एवं गुमनाम यात्रा करती प्रतीत होती है। रास्ते के समानान्तर आसमान छूते पहाड़ नजर आते हैं, जिनमें बर्फ से पिघल कर झरते झरने रास्ते भर रोमाँचित करते रहते हैं। थोडी देर में गुलाबा फोरेस्ट आता है, इसके बाद देवदार के वृक्ष विरल होते जाते हैं और मात्र भोज के पेड़ आस-पास या दूर पहाड़ों में दिखते हैं।


इसके बाद मढ़ी बस स्टॉप आता है, जहाँ कुछ दुकानें चाय-नाश्ता व भोजन के लिए खड़ी हैं। इसके रास्ते में ऊँचाईयों से गिर रहा राहला फाल सभी को ध्यान आकर्षित करता है। मढ़ी पहुँचने पर यात्री प्रायः चाय-नाश्ता करते हैं और ड्राइवर भी अगली कठिन यात्रा के लिए रिचार्ज होते हैं। यहाँ पर गर्मियों में पैरा-गलाइडिंग का भी आनन्द लिया जा सकता है। यहां पर पास की चोटी से नीचे घाटी और दूर बर्फ से ढके पर्वतों को बहुत ही सुंदर नजारा लिया जा सकता है।

 मढ़ी से रोहताँग पास तक रास्ता बिना किसी स्टॉप के रहता है। बीच में बायीं ओर ग्लेशियर से पिघलकर निकल रहे जल प्रपात के दर्शन किए जा सकते हैं और समय हो तो ऊपर ग्लेशियर के बीच झरते इसके जल का अवलोकन भी किया जा सकता है। इस रास्ते में किसी तरह के पेड़ के दर्शन तो दूर झाड़ियाँ तक विरल हो जाती हैं। हाँ उस पार जंगलों में भोज के कुछ जंगल अवश्य दिखते हैं और ग्लेशियर से झरते झरने खूबसूरत नजारा पेश करते हैं। बादलों से ढके हिमशिखर भी लुभावने लगते हैं। इस तरह सफर आखिर रोहताँग पास पहुँचता है।


इसे ब्यास नदी के स्रोत के रुप में माना जाता है, हालाँकि एक मान्यता के अनुसार सोलाँग घाटी के आगे ब्यास कुण्ड को ब्यास नदी का उद्गम माना जाता है। हालांकि दोनों जल स्रोतों से निस्सृत धाराओं का संगम नीचे पलचान स्थल पर होता है, जहाँ से ब्यास नदी का समग्र रुप आगे बढ़ता है। रोहताँग दर्रे पर अमूनन साल भर बर्फ रहती है। प्रायः अक्टूबर-नवम्बर से मई-जून तक भारी बर्फ के कारण दर्रा बन्द रहता है, जिस कारण लाहौल-स्पिति घाटी 6-7 महीने प्रदेश के बाकि हिस्से से कटी रहती है। लेकिन हाल ही में सोलाँग घाटी के आगे पहाड़ के नीचे से अटल सुरंग बनने से अब बारह महीने रास्ता खुलने की संभावना साकार हो रही है।

रोहताँग पास में कई फुट ऊँची बर्फ की दिबार के बीच से होकर हमारी बसें पार करती हैं, रास्ते में तो मढ़ी के थोड़ा आगे बस की छत पर पैक कुछ बैग व इनमें लगी आइस-एक्स बर्फ की दिबार में उलझ गयी थीं, जिस कारण बस को बैक कर फिर सफर आगे बढ़ा था। रोहताँग के पार होते ही हम एक दूसरे लोक में पहुँच गए ऐसा अनुभव होता है। सामने बर्फ से ढकी पहाड़ियां, दूर-दूर तक फैले बंजर रेगिस्तान और घाटियों के दर्शन होते हैं। रास्ते भर सड़क में बर्फ से पिघल कर बहती जल राशि से बने उग्र नालों व झरनों के बीच सफर आगे बढ़ता रहा और नीचे घाटी में खोखसर नाम के स्थान पर बस जल-पान के लिए रुकती है। रास्ते भर हिमाचल परिवहन के कुशल चालकों के हुनर को आश्चर्य के साथ निहारते रहे, जब लग रहा था कि बस पानी के तेज बहाव में अब लुढ़क गयी कि तब।

खोखसर से चंद्रा नदी को पार कर हम उसके दायीं ओर से आगे बढ़ते हैं, जबकि इसके बिपरीत मार्ग पीछे स्पीति घाटी की ओर जाता है। आगे रास्ते में पागल नाला को पार कर, सीसू से होते हुए तांदी पहुँचते हैं, जो चंद्रा और भागा नदियों का संगम है। इसके पार वायीं सड़क उदयपुर और त्रिलोकनाथ मंदिर की ओर जाती है, जबकि हम इसके उलट, दायीं और से भागा नदी के किनारे केलाँग की ओर बढ़ते हैं, जो लाहौल-स्पिति जिला का मुख्यालय है। यहाँ सामने की घाटी में कार्दंग गोम्पा अपना ध्यान आकर्षित करता है, साथ ही दूर सामने लेडी ऑफ केलांग का नजारा दर्शनीय रहता है, जिनका अवलोकन आगे कुछ समय तक मार्ग में होता रहा।

इसी राह पर बढ़ते हुए कुछ मिनटों में हम जिस्पा सेंटर पहुँच चुके थे, शाम हो रही थी। यह मानाली स्थित पर्वरोहण संस्थान का रीजनल सेंटर है। यहीं रात के रुकने की व्यवस्था होती है। सुबह जब उठते हैं तो सामने के चट्टानी पहाड़, ग्लेशियर नदी का हाड जमाता पानी, इसके किनारे के रंग बिरंगें पत्थर, आज भी स्मृतियों में ताजा हैं और इसके साथ शांत-एकाँत स्थल पर एक विरल से रोमाँच की दिव्य अनुभूति होती है, जिसे शब्दों में वर्णन करना कठिन है। लगा था कि हम जैसे स्वप्न लोक में विचरण कर रहे हैं और एक नयी दुनियाँ में पहुँच चुके थे।

दिन में नाश्ता करने के बाद यहीं पास की चट्टानी फिल्ड में रोक क्लाइंविगिं का अभ्यास होता है। बर्फीली भागा नदी में रिवर क्रासिंग करते हैं, जब नदी के पार होते ही पैर जैसे नीले और सुन्न से पड़ गए थे। और फिर भोजन-विश्राम के बाद अगले पडाव पटसेउ की ओर कूच करते हैं। रास्ते में दार्चा कस्बा पार करते हैं और फिर चढ़ाई के साथ आगे बढ़ते हुए एक नयी घाटी में प्रवेश होता है।


कभी शॉर्टकट पगडंडियों से तो कभी मुख्य मार्ग से होते हुए हमारा रास्ता आगे बढ़ता है, पीठ में रक्सेक टाँगे हम लोगों की एक्लेमेटाइजेशन वाल्क चल रही थी। धीरे-धीरे ऊँचाईयों के कम ऑक्सीजन बाले दवाव के साथ रहने का अभ्यास हो रहा था। लगभग दो घण्टे बाद हम पटसेऊ पहुँच चुके थे, जहाँ सामने पहाड़ की गोद में हमारा तम्बू गढ़ता है और रात को रुकने का अस्थायी शिविर तैयार होता है। यहाँ पीछे छायादार स्थान पर पहाड़ के नीचे जमीं बर्फ को देखकर इस पर चलने का लोभ संवरण नहीं कर पाए और इस पर कुछ चहल कदमी करते हैं। रात भर यहाँ रुककर हम अगली सुबह अपने बेस केंप जिंगजिंगवार पहुँचते हैं।

यही अब हमारा अगले दो सप्ताह का ठिकाना था, यहीं पर सामने की बर्फीली बादियों में बर्फ और आइस पर चलने का अभ्यास होना था और इसके आगे अंत में पीक क्लाइम्ब अर्थात् एक शिखर का आरोहण, पर्वतारोहण। इसकी रोमाँचक यात्रा अगले ब्लॉग - पीक क्लाइंबिंग या शिखर के आरोहण में पढ़ सकते हैं।

बुधवार, 12 अगस्त 2020

मेरा गाँव मेरा देश - बेसिक कोर्स का रोमाँच, भाग-1

 मनाली की वादियों में ट्रेनिंग के पहले नौ दिन


जून में सम्पन्न एडवेंचर कोर्स का सर्टिफिकेट लेने हम संस्थान आए थे। पता चला कि बेसिक कोर्स में मेडिकल कारण से कुछ केंडिडेट नहीं आ पाए और सीट खाली हैं। हम इसमें एप्लाई करते हैं और प्रवेश मिल जाता है। इस कोर्स में 67 प्रशिक्षु देश के कौने-कौने से आए थे। आसाम, बंगाल, बैंगलोर, दिल्ली, महाराष्ट्र आदि – भारत के लगभग हर कौने से इसमें एडवेंचर प्रेमी आए थे। कुछ लोक्ल युवक भी इसमें थे। एक सदस्य तो विदेश से भी था। इसमें हर उम्र के लोग थे, कुछ हमारी उम्र के, कुछ हमसे छोटे, तो कुछ हमसे बड़े।

 

बेसिक कोर्स के शुरुआती दिनों में तो वही प्रशिक्षण मिला, जो एडवेंचर कोर्स में किए थे। लेकिन यह उससे थोड़ा एडवाँस्ड और कठिन था। पहले का प्रशिक्षण निश्चित रुप में हमारे काम आ रहा था। पंजाव कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना में खेल कूद में सक्रिय होने के कारण तन-मन की रफ-टफ पृष्ठभूमि भी यहाँ उपयोगी साबित हो रही थी। अब तक का फ्रीस्टाइल में अपने आस-पास के पहाड़ों में की गई ट्रेकिंग औऱ घुमक्कड़ी के अनुभव तो साथ में थे ही। पहली बार ऐसे भाग-दौड़ भरे प्रशिक्षण में आए सुकुमार प्रशिक्षुओं को इसके थकाऊ ड्रिल भारी पड़ रहे थे और खून-पसीना तो सभी का बह रहा था। और यह अगले पड़ाव के कठिन दौर की आवश्यक तैयारी थी, जिससे जल्द ही हम लाहौल की बर्फिली वादियों में रुबरु होने बाले थे।

बेसिक कोर्स में सुबह की ड्रिल में मोर्निंग वॉल्क रनिंग का दायरा बढ़ गया था।

लेफ्ट बैंक के मुख्य मार्ग में अलेऊ के आगे जगतसुख तक अर्जुन गुफा से होते हुए हमारा कठिन ड्रिल इसका हिस्सा था, जो प्रशिक्षण के छटे दिन सम्पन्न हुआ। इसके तहत लेफ्ट बैंक की मुख्य सड़क से ऊपर गाँव में प्रवेश होता है, फिर देवदार के घने जंगलों से होकर खेतों को पार करते हुए अर्जुन गुफा पहुँचते हैं। यहाँ कुछ दम भरकर फिर आगे जंगल, खेत को पार करते हुए नीचे जगतसुख कस्वे तक आते हैं। फिर बापिस मुख्य सड़क के साथ अलेउ होते हुए संस्थान पहुँचे। अभ्यास थक कर चूर करने वाला था। लेकिन हर रोज की तरह ऐसे अभ्यास के बाद स्नान और फिर टेस्टी एवं पौष्टिक भोजन, इसका अपना ही आनन्द रहता था।

 

अलेउ की रॉक फील्ड में शुरु के एक सप्ताह तक रॉक क्लाइंबिंग का प्रशिक्षण चलता रहा। इस बार कुछ एडवांस्ड तकनीकों को भी आजमाया रहा था। चट्टानें भी पहले से बड़ी, सीधी खड़ी और ऊँची थी, जिसमें रैप्लिंग की ऊँचाई भी अधिक थी, जिसमें रस्सी के सहारे खडी चट्टान के सहारे नीचे कूदना होता है। ऊपर चढ़ने के लिए चिमनी क्लाइंविंग का भी अभ्यास कराया गया, जिसमें दो चट्टानों के बीच के खाली स्थान से होकर पीठ व पंजे के बलपर ऊपर चढ़ना होता था। संस्थान के पीछे ब्यास नदी की ओर जंगल में स्थित चट्टानों में भी खाली समय में अपने स्तर से अतिरिक्त अभ्यास चलता रहा। इसके साथ एक दिन जुमारिंग का भी प्रशिक्षण दिया गया।

इस बार का बुश क्राफ्ट और रिवर क्रोसिंग भी कुछ एडवान्स्ड थी। इस बार नदी को लाठी के सहारे सीधा पार करने के साथ इसे संकरे स्थान पर तेज वहाव के ऊपर उलटा लटककर रस्सी के सहारे पार करने का भी अभ्यास होता रहा। इसी के साथ संस्थान के आडिटोरियम में पर्वतारोहण की फिल्में दिखाई जाती रहीं। साथ ही यहाँ संस्थान के निर्देशक के प्रेरक उद्बोधन भी होते रहे। उँचाईयों में माउंटेन सिकनेस पर डॉक्टर के विशेष उद्बोधन व फर्स्ट एड ट्रेनिंग भी चलती रही, कि कैसे ऑक्सीजन की कमी व अधिक दबाव के बीच साबधानियाँ बरती जानी हैं, व यदि कोई दिक्कत आती है, तो इनका कैसे तात्कालिक उपचार किया जाना है।

नौ दिन की सघन ट्रेनिंग के बाद मेडिक्ल चैक अप के साथ हम अगले पड़ाव के लिए तैयार थे। आगे की स्नो-क्राफ्ट और आइस-क्लाइंविंग के हिसाब से पूरी किट का वितरण होता है, जिसमें आइस-एक्स, क्लैम्पस, स्लीपिंग बैग, ग्रुप का टैंट, शूज आदि थे। साथ ही खाने-पीने की अतिरिक्त सामग्री का भी इंतजाम सभी लोग अपने स्तर पर कर चुके थे, जब एक शाम मानाली शहर की मार्केट में घूमने व शोपिंग की इजाजत सबको मिली थी।

इस तरह पूरा ग्रुप अगले रोमाँच के लिए तैयार था और संस्थान द्वारा हायर की गई हिमाचल परिवहन निगम की बसों में सवार होते हैं, सामान छत पर पैक होता है और हम अपने अगले पड़ाव कुल्लु के पड़ौसी जिला लाहौल –स्पिति जिला में पर्वतारोहण संस्थान के स्थानीय जिप्सा केंद्र की ओर कूच करते हैं, जो रोहताँग दर्रा के उस पार लाहौल-स्पिति के मुख्यालय केलांग के कुछ आगे था। यहाँ तक पहुँचने का मार्ग विश्व के सबसे रोमाँचक रास्तों में एक है, जिसकी स्वयं में एक अलग दुनियाँ है। इसका सफर अगली ब्लॉग पोस्ट - मानाली से जिंगजिंगवार घाटी के रोमाँचक सफर में पढ़ सकते हैं।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

मेरा गाँव मेरा देश - पर्वतारोहण का विधिवत प्रशिक्षण, भाग-2

मानाली रोहतांग की बर्फीली वादियों में

मानाली के पर्वतारोहण संस्थान में शुरुआती प्रशिक्षण का जिक्र पिछले ब्लॉग में हो चुका, जिसमें रॉक क्लाइंविंग, रिवर क्रोसिंग, बुश क्राफ्ट से लेकर नाइट स्फारी और सर्वाइवल कोर्स का रोमाँच कवर कर चुके हैं। इससे आगे का एडवेंचर गुलाबा फोरेस्ट के पास की बर्फीली वादियों में शेष था, जिसमें स्नोक्राफ्ट और स्कीइंग का बेसिक प्रशिक्षण मिलने वाला था।

सोलाँग से हम अपना पिट्ठू बैग टाँगे संस्थान के बाहन में बैठते हैं और रास्ते में पलचान, कोठी जैसे गाँवों को पार करते हुए सर्पीली सड़कों के साथ गुलाबा मोड़ पर पहुँचते हैं। बीच का रास्ता अद्भुत दृश्यावलियों से भरा हुआ है। लगता है कि जैसे हम किसी दूसरे लोक में आ गए हैं। गहरी खाईयाँ, आसमाँ को छूते पर्वत और पहाड़ों से गिरते झरने, रास्ते भर यात्री इन दृश्यों को सांस थामे देखते रहते हैं। बीच में देवदार, मैपल और अन्य पेड़ों के साथ हिमालयन झाडियों से घिरी सडकें सफर को बहुत ही शांति और सुकूनदायी बनाती हैं।

गुलाबा मोड़ पर गाड़ी रुकती है, इसके थोडा ऊपर एक समतल स्थान पर अपना तम्बू गाढ़ते हैं। हमारे इंस्ट्रक्टर पास के तम्बू में थे। इस बीहड़ बन में रुकने के कोई भवन आदि की व्यवस्था नहीं थी, जैसा कि अब तक हम रात को रुकते आए थे। पिछला नाइट सफारी का अनुभव अब हमारे काम आ रहा था। समझ आ रहा था कि अब तक के प्रशिक्षण किस तरह से क्रमिक रुप में हमें आज के दिन के लिए तैयार कर चुके थे।

यहाँ ठण्ड पहले से अधिक लग रही थी, लेकिन स्लीपिंग बैग में सिमट कर इससे निजात पाते हैं। सुबह चाय-नाश्ते के बाद हमें पीछे स्नो फील्डज में ले जाया गया।

इतनी सारी बर्फ को पहली वार देख रहे युवकों का रोमाँचित होना स्वाभाविक था, वह ही पूरी ढ़लान के आर-पार, ऊपर-नीचे, हर तरफ। इस पर पड़ रही धूप के चलते इसे सीधा निहारना खतरनाक था, जो आँखों को चौंधिया कर अस्थायी रुप से अंधा कर सकती थी, जिसे स्नो ब्लाइंडनेस कहा जाता है। इसके लिए स्नो गोग्ल्ज की व्यवस्था हो रखी थी। हाथ में आईस एक्स और पैरों में क्लैंप्स के साथ हम लोग बर्फ पर चल रहे थे, जिनको पहनने का प्रशिक्षण भी हमको मिल चुका था।

चलने के तौर-तरीके हमारे कुशल इंस्ट्रक्टर खुद चल कर सिखा रहे थे। कम स्लोप में बतख की तरह पैरों को फैला कर चला जाता है, जबकि खड़ी चढाई में जिग-जैग हल्की चढ़ाई के साथ आर-पार चलते हुए ऊँचाई को नापा जाता है। आइस एक्स का स्पोर्ट इसमें लाठी का काम करता है। स्नो क्राफ्ट का पहला सबक आज हमें मिल गया था, जिसका अभ्यास चलता रहा। फिर दिन का भोजन होता है, कुछ विश्राम के बाद फिर हम स्नो फील्ड में आज के सीखे पाठ का अभ्यास करते हैं।

अगले दिन हम और ऊँचाई में पहुँचते हैं, जहाँ से बर्फ के संग स्कीइंग, फिसलने के प्राथमिक गुर हमें सिखाए जाते हैं। और यदि कहीँ रुकना हो तो कैसे आइस एक्स का सहारा लिया जा सकता है, या कहीं बर्फ में गिर गए या फिसल गए तो कैसे आइस एक्स को बर्फ में फंसाकर स्वयं का बचाव किया जा सकता है। इस तरह आज हम बर्फ पर फिसलने का अभ्यास करते रहे। इसमें नौसिखियों के अनाढ़ीपन का खामियाजा भी बीच-बीच में भुगतना पड़ रहा था। लेकिन आईस एक्स के सहारे बचाव के तौर तरीके हम सीख रहे थे। कुल मिलाकर इसके साथ हमारा एडवेंचर कोर्स पूरे श्बाव पर था।

कोर्स की अवधि पूरा होने को थी, दिन का अभ्यास पूरा हो चुका है, फुर्सत के पलों में तम्बू के आसपास के जंगलों व बुग्यालों को एक्सप्लोअर करते हैं। यहाँ से घाटी के उस पार सोलाँग व मानाली के बीच के क्षेत्र के पीछे की पर्वत श्रृंखलाएं स्पष्ट दिख रहीं थीं, जिनमें हनुमान टिब्बा विशेष रुप से पर्वतारोहियों के बीच खास लोकप्रिय रहता है। इन बर्फ से ढकी चोटियों को देखकर सहज ही मन में भाव उमड़ रहे थे कि ये पर्वत तपस्वियों की तरह अपनी धुनी रमाकर न जाने कब से ध्यान में मग्न हैं। इनका सान्निध्य व्यक्ति को इनकी ध्वलता, विराटता, दृढ़ता, पावनता, तप, विरक्तता एकांतिकता, शाँति जैसे अनगिन विशेषताओं से रुबरु कराता है और प्रकृति एवं रोमाँच प्रेमी घुमक्कड़ अपनी पात्रता सिद्ध करते हुए हिमालय के इस दिव्य स्पर्श को पाकर धन्य अनुभव करते हैं। लेकिन अभी हम इनका दूरदर्शन कर संतोष पा रहे थे, हालाँकि इतने दिन हिमालय की गोद में हिमक्रीडा का आनन्द लेकर हम भी धन्य अनुभव कर रहे थे।

कोर्स पूरा कर हम संस्थान के वाहन में बापिस मानाली आते हैं।

यहाँ पर ग्रुप लीड़र के नाते फाइनल रिपोर्ट बनाने व पढ़ने की जिम्मेदारी निभाते हैं और बेस्ट स्टुडेंट का तग्मा भी हमारे हिस्से में आता है। छोटे से ग्रुप में यह उपलब्धि अंधों में काना राजा की उक्ति जैसी थी, लेकिन हमारे जुनून व मेहनत की हौंसला बधाई तो इसके साथ अवश्य हो रही थी। एडवेंचर कोर्स के अनुभव हमें अगले पड़ाव के लिए तैयार कर रहे थे, जिसका पूरा अंदाजा अभी हमें भी नहीं था, क्योंकि अचानक अगले ही माह हमारे बेसिक कोर्स में प्रवेश का भी संयोग बन जाता है, जो लगभग एक मासीय अवधि का था।

माह जुलाई का था। सामान्यतया मई-जून में बेसिक कोर्स के तहत मानाली के सामने सोलंग वैली के पीछे की पीर पंजाल हिमालयन पर्वत श्रृंखलाओं की किसी चोटी का आरोहण किया जाता है, जो औसतन 20 हजार फीट के आसपास की रहती हैं। लेकिन जुलाई माह में बरसात के कारण यहाँ पर्वतारोहण संभव नहीं होता। अतः हमारे हिस्से में लाहौल-स्पीति के ठंडे रेगिस्तान के सूखे पहाड़ थे, जिसका बैस कैंप मानाली-लेह सड़क के बीच सूरजताल सरोवर के पास जिंगजिंगवार घाटी में लगने वाला था। पर्वतारोहण के बेसिक कोर्स के प्रशिक्षण व यात्रा का रोमाँचक वर्णन आप अगली ब्लॉग पोस्ट - मानाली की वादियों में प्रशिक्षण के पहले नौ दिन में पढ़ सकते हैं।

चुनींदी पोस्ट

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...