गुरुवार, 31 मार्च 2022

गल्तियों से सीखें व बढ़ते रहें मंजिल की ओर...

 असीम धैर्य, अनवरत प्रयास

कहते हैं कि इंसान गल्तियों का पुतला है। अतः आश्चर्य़ नहीं कि गल्तियाँ इंसान से ही होती हैं। यदि उससे गल्तियाँ नहीं हो रही हैं, तो मानकर चलें कि या तो वह भगवान है या फिर पत्थर, पौध या जड़ इंसान। लेकिन इंसान अभी इन दो चरम छोर के बीच की कढ़ी है। विकास यात्रा में वह वृक्ष-वनस्पति व पशु से आगे मानव योनि की संक्रमणशील अवस्था में है, जहाँ वह एक ओर पशुता, पैशाचिकता के निम्न स्तर तक गिर सकता है, तो दूसरी ओर महामानव, देवमानव भी बन सकता है, यहाँ तक कि भगवान जैसी पूर्ण अवस्था को तक पा सकता है।

लेकिन सामान्य इंसानी जीवन इन सभी संभावनाओं व यथार्थ का मिलाजुला स्वरुप है और फिर उसकी विकास यात्रा बहुत कुछ उसके चित्त में निहित संस्कारों द्वारा संचालित है, जो आदतों के रुप में व्यक्ति के रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करती है। इसी चित्त को मनोविज्ञान की भाषा में अवचेतन व अचेतन मन कहा जाता है, जो वैज्ञानिकों के अनुसार 90-95 फीसदी सुप्तावस्था में है। साथ ही व्यक्ति के जीवन की असीम संभावनाएं चित्त के इस जखीरे में समाहित हैं, जिसमें जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कार बीज रुप में मौजूद हैं। व्यक्तित्व का इतना बड़ा हिस्सा अचेतन से संचालित होने के कारण बहुत कुछ उसके नियन्त्रण में नहीं है। यही अचेतन गल्तियोँ का जन्मस्थल है, जिनके कारण व्यक्ति तमाम सजगता के बावजूद कुछ पल बेहोशी में जीने के लिए विवश-बाध्य अनुभव करता है।

इसलिए इंसान से यदि कोई गलती हो जाती है तो कोई बड़ी बात नहीं। यह उसकी आंतरिक संचरना में मौलिक त्रुटि होने के कारण एक स्वाभाविक सी चीज है। इसको लेकर बहुत अधिक गंभीर होने, बहुत चिंता व निराशा-हताशा के अंधेरे में डुबने की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता, मन की प्रकृति को समझने की है, अपनी यथास्थिति के सम्यक मूल्याँकन की है तथा गलती के मूल तक जाने की है। इसको समझकर फिर इसके परिमार्जन के लिए ईमानदार प्रयास, बस इतना ही व्यक्ति के हाथ में है। चित्त में जड़ जमाकर बैठे संस्कारों का परिमार्जन धीरे-धीरे सचेतन प्रयास के संग गति पकड़ता है। यह कोई दो-चार दिन या माह का कार्य नहीं, बल्कि जीवन पर्यन्त चलने वाला महापुरुषार्थ है, जो तब तक चलना है, जब तक कि इसकी जड़ों तक हम नहीं पहुँच पाते व इसके रुपाँतरण की चाबी हाथ नहीं लगती।

आश्चर्य नहीं कि जीवन के मर्मज्ञ ऋषि-मनीषियों ने स्वयं को गढ़ने व तराशने की प्रक्रिया को विश्व का सबसे कठिन कार्य बताया है। यह समय साध्य कार्य है, कठिन प्रयोजन है, लेकिन असंभव नहीं। अपनी गलतियों पर नियमित रुप से कार्य करते हुए, हर गलती से सबक लेते हुए, अगला कदम अधिक होशोहवाश के साथ उठाते हुए हम आत्म-सुधार व निर्माण की सचेतन प्रक्रिया का हिस्सा बनते हैं। क्रमिक रुप में व्यक्ति अपनी नैसर्गिक सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों से बाहर आता जाता है, इनसे ऊपर उठता है और एक दिन समझ आता है कि ये गल्तियाँ, ये असफलताएं उसकी मंजिल की आवश्यक सीढ़ियाँ थीं। निसंदेह रुप में यह बोध असीम धैर्य एवं अनवरत प्रयास के साथ फलित होता है।

अतः अपने ईमानदार प्रय़ास के बावजूद जीवन में होने वाली गल्तियों, भूल-चूकों को अपनी सीढ़ियाँ मानें, प्रगति पथ के आवश्यक सोपान मानें, जो मंजिल तक पहुँचाने में मदद करने वाली हैं। इन्हें अपना शिक्षक मानें, सच्चा मित्र-हितैषी मानें, जो अभीष्ट सत्य तक हमें पथ प्रदर्शित करने वाली हैं। इनको लेकर अनावश्यक तनाव, विक्षोभ, अपराध बोध व कुण्ठा पालने की आवश्यकता नहीं। ऐसा करने पर चित्त में गाँठें पड़ती हैं, जो मानसिक ऊर्जा को अवरुद्ध कर जीवन के सृजन, संतोष व प्रसन्नता के मार्ग को बाधित करती हैं। अतः समझदारी गल्तियों से सबक लेते हुए आगे बढ़ने की है, जिससे धीरे-धीरे इनकी आवृत्ति कम होती जाए व जीवन अधिक दक्षता के साथ पूर्णता की मंजिल तक पहुंच सके।

अपने साथ दूसरों की गल्तियों के प्रति भी ऐसा ही दिलेर दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। अचेतन से संचालित इंसान के रुप में गल्तियाँ होनी तय हैं। उनको उदारतापूर्वक स्वीकार करें। उनको समझने व सुधारने का अवसर दें। ऐसे में परिवार, समूह या समाज में स्वाभाविक रुप में एक विश्वास, शांति एवं आत्मीयता का वातावरण बनेगा। परिवार व संस्था के सदस्यों की कार्यक्षमता समान्य से अधिक रहेगी, उनके व्यक्तित्व का भावनात्मक विकास अधिक गहराईयों से होगा तथा वे समाज के लिए अधिक उत्पादक होकर कार्य कर सकेंगे तथा उनका सृजनात्मक योगदान अधिक बेहतर होगा। जबकि एक दूसरे की छोटी-छोटी गल्तियों के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण, कटु व्यवहार एवं असहिष्णु रवैया हर दृष्टि से घातक ही रहता है।

अतः गल्तियों के प्रति समझदारी भरा लचीला वर्ताव वाँछित रहता है, तभी इनका सही ढंग से सुधार हो पाता है। बिगड़ैल मन को बहुत समझदारी के साथ संभालना होता है, तभी यह काबू में आता है। निसंदेह रुप में गल्तियों का सही उपयोग एक कला है, एक विज्ञान है, जिसमें मन की प्रकृति को समझते हुए कार्य करना होता है। और किसी महापुरुष ने सही ही कहा है कि जीवन का निर्माण हजारों ठोकरें खाने के बाद होता है। अतः मार्ग की गल्तियों व अबरोधों को जीवन निर्माण की स्वभाविक प्रक्रिया मानते हुए, अपने निर्माण के कार्य में सजगता के साथ जुटे रहें, ताकि परिवार व समाज निर्माण के कार्य में हम सकारात्मक योगदान दे सकें।

याद रखें, गल्तियाँ जीवन में आगे बढ़ाने वाली शिक्षिकाएं हैं और असफलताएं सफलता की मंजिल की आवश्यक सीढ़ियाँ हैं। इनके प्रति सकारात्मक भाव रखते हुए पूरी चुस्ती एवं मुस्तैदी के साथ आगे बढ़ें। बाह्य सफलता एवं आंतरिक संतुष्टि व आनन्द के साथ गन्तव्य तक पहुँचने का यही राजमार्ग है। असीम धैर्य, अनन्त सजगता एवं सतत प्रयास का दाम थामे हम जीवन का हर पल इसकी पूर्णता में जीने का प्रय़ास करें।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

डायरी लेखन की कला

सृजनात्मक लेखन की प्राथमिक पाठशाला के रुप में

डायरी लेखन क्या? - डायरी लेखन सृजन की एक ऐसी विधा है, जिसकी शुरुआत तो अपने रोजर्मरा के जीवन के हिसाब-किताब के साथ होती है, लेकिन क्रमशः जब यह गहराई पकड़ती जाती है तो यह दैनिक जीवन के उताड़-चड़ाव के साथ मन में उठ रहे विचार-भावों की भी साक्षी बनती है। इसके साथ दिन भर के कुछ खास अनुभव, नए लोगों से हुई यादगार मुलाकातें, जीवन की कशमकश के साथ घट रहे संघर्ष, चुनौतियाँ व साथ में मिल रहे सबक इसके साथ सहज रुप में जुड़ते रहते हैं।

डायरी लेखन की सृजनात्मक विधा -

इस सबके साथ डायरी एक स्व-मूल्याँकन की विधा के रुप में व्यक्ति की सहचर बनती है, जिसके साथ जीवन के लक्ष्य एवं आदर्श और स्पष्ट होते जाते हैं। अपने व्यक्तित्व का पैटर्न इसके प्रकाश में शीसे की तरह साफ हो चलता है। मन की विभिन्न परतों के साथ, जीवन का स्वरुप और दूसरों का व्यवहार – सब मिलकर जीवन के प्रति एक गहरी अंतर्दृष्टि का विकास करते हैं और साथ में वजूद की गहरी समझ के साथ उभरता है एक मौलिक जीवन दर्शन, जो नियमित रुप में कुछ लाईन से लेकर पैरा तक लिखते-लिखते लेखन शैली का अवदान भी दे जाता है। पता ही नहीं चलता कि डायरी लेखन करते-करते व्यक्ति कब मौलिक विचारक और सृजनात्मक लेखन की राह पर चल पड़ा।

डायरी लेखन का क्रिएटिव एडवेंचर -

अतः जो भी जीवन के प्रति थोड़ा सा भी गंभीर हैं, इसे समग्रता में जीना चाहते हैं, इसे गहरे में एक्सप्लाओर करना चाहते हैं, एक सार्थकता भरा जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें डायरी लेखन को जीवन का अभिन्न हिस्सा बना लेना चाहिए। यदि इसके साथ थोडा सा स्वाध्याय, चिंतन-मनन व ध्यान का पुट भी जुड़ जाए, तो फिर यह सोने पर सुहागे का काम करता है। और यह नियमित रुप में डायरी लेखन करते-करते सहज ही सम्पन्न हो भी जाता है। ऐसे में डायरी लेखन के साथ जीवन का गहनता से अध्ययन, अन्वेषण एवं अभिव्यक्ति का क्रम शुरु हो जाता है और यह विधा क्रिएटिव एडवेंचर के रुप में व्यक्ति को  सृजन की एक रोमाँचक यात्रा पर ले जाती है।

आत्म-अन्वेषण की विधा के रुप में -

ऐसे में डायरी लेखन एक तरह की सृजनात्मक साधना का रुप लेती है। जिसकी शुरुआत सुबह उठते ही होती है, जब आप दिन भर के कार्यों को प्राथमिकता के आधार पर लिखते हैं। दिन भर इन पर सजग निगाह रखते हैं और रात को सोने से पहले इनका लेखा-जोखा करते हैं, आत्म-मूल्याँकन करते हैं। अपनी दिनचर्या के हर पक्ष (आहार, विहार, विचार, व्यवहार) और अपने पारिवारिक, पैशेवर व सामाजिक जीवन का सम्यक मूल्याँकन करते हैं। कम्रशः व्यक्तित्व के चेतन पक्ष के साथ इसकी अवचेतन व अचेतन गहराईयों में भी डायरी लेखन का प्रवेश हो जाता है तथा अपने चरम पर आत्मक्षेत्र के पुण्य प्रदेश में भी इसकी पहुँच हो जाती है।

आत्म-उत्कर्ष की पाथेय के रुप में -

इस सबके साथ व्यक्तित्व के रुपाँतरण की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है। प्रतिदिन अपनी आदतों व अपने संस्कारों की गहराईयों में जीवन की गुत्थी, व्यक्तित्व की जलिटला व अस्तित्व की पहेली को समझते-समझते इनके समाधान भी सूझते जाते हैं। इस आत्मचिंतन, मनन व स्वाध्याय की प्रक्रिया के साथ डायरी लेखन एक आध्यात्मिक प्रयोग बन जाता है व व्यक्ति  जीवन के नित नूतन अनुभवों के साथ जीवन जीने की कला के उत्तरोत्तर सोपानों को पार करता हुआ आत्म-उत्कर्ष की राह पर बढ़ चलता है।  

कुछ मूर्धन्य लेखकों-विचारकों-मनीषियों के मत में

प्रख्यात लेखक वाल्टेयर कहा करते थे, जिसे मौलिक लेखक-विचारक बनना हो, उसको नियमित रुप में डायरी लेखन करना चाहिए। इससे न केवल विचारों का विकास होता है, बल्कि भाषा भी उत्तरोत्तर परिमार्जित तथा सुललित होती जाती है। मूर्धन्य वैज्ञानिक आइंस्टाइन डायरी लेखन को अपना सबसे विश्वस्त मित्र व एकान्त के पलों का सहयोगी मानते थे। भूदान के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे, नियमित डायरी लेखन करते थे व इसके चार चरण बताते थे – आत्मनिरिक्षण, आत्मसमीक्षा, आत्मसुधार एवं आत्म जागरण।

डायरी लेखन के लाभ अनगिन हैं, जो क्रमिक रुप में जीवन का हिस्सा बनते जाते हैं। मोटे तौर पर सार रुप में डायरी लेखन के लाभ को निम्न बिंदुओं में समेटा जा सकता है -

1.      अपने व्यक्तित्व का आयना,

2.      स्व-मूल्याँकन की एक प्रभावशाली विधा,

3.      जीवन के प्रति गहरी अंतर्दृष्टि का विकास,

4.      मानव प्रकृति की समझ देने वाली शिक्षिका,

5.      मानसिक चिकित्सा की विधा के रुप में,

6.      सृजनात्मक लेखन की प्राथमिक पाठशाला,

7.      लेखन की मौलिक शैली का विकसित होना,

8.      एक मेमोरी बैंक व एक प्रेरक शक्ति के रुप में,

9.      जीवन जीने की कला की प्रशिक्षिका के रुप में,

10.  एक सच्चे मित्र, हितैषी व मार्गदर्शिका की भूमिका में,

11.  आत्म परिष्कार एवं विकास की एक विधा के साथ एक आत्मिक सहचर के रुप में,

12.  यदि किसी विधा में नियमित डायरी लेखन करते रहा जाए, तो उस श्रेणी में उत्कृष्ट साहित्य का सृजन

आगे दिए जा रहे कुछ उदाहरणों के साथ इसके महत्व को समझा जा सकता है।

रामकृष्ण परमहंस के सतसंग के दौरान उनके शिष्य मास्टर महाशय की डायरी, रामकृष्ण वचनामृत जैसे कालजयी आध्यात्मिक साहित्य का आधार बनती है। ऐसे ही नेहरुजी की जेल डायरी से, डिस्कवरी ऑफ इंडिया जैसे बेजोड़ ग्रंथ की रचना होती है। गांधीजी के शिष्य महादेव भाई की डायरी में इनके जीवन के मार्मिक क्षणों व तत्कालीन घटनाक्रमों पर महत्वपूर्ण प्रकाश मिलता है। घुमक्कड़ शिरोमणि राहुल सांकृत्यायनजी की यात्रा के दौरान का नियमित डायरी लेखन उनके यात्रा लेखन से जुड़े अनुपम साहित्य का आधार बनता है। आचार्य प.श्रीराम शर्मा की हिमालय यात्रा के दौरान की डायरी, सुनसान के सहचर जैसे कालजयी यात्रा साहित्य का आधार बनती है। हेनरी डेविड थोरो की क्लासिक रचना वाल्डेन एक सरोवर के तट पर बिताए पलों के अनुभवों का लेखा-जोखा ही तो थी। ऐसे ही अनगिन उदाहरणों को खोजा जा सकता है, जहाँ डायरी लेखन उत्कृष्ट साहित्य सृजन की सामग्री बनती है।

डायरी लेखन के इन फायदों को थोड़ा विस्तार से चाहें तो आप दूसरी ब्लॉग पोस्ट - डायरी लेखन के लाभ, में पढ़ सकते हैं।

डायरी लेखन की शुरूआत हो सकती है कुछ ऐसे -  

डायरी लेखन की कोई एक निश्चित शैली नहीं हो सकती, इसे कई ढंग व रुपों में लिखा जा सकता है। यहाँ आत्म-सुधार, जीवन निर्माण एवं सृजनात्मक लेखन (creative writing) की पृष्ठभूमि में डायरी लेखन पर प्रकाश डाला जा रहा है।

डायरी में वाएं नीचे की ओर दिन भर के घण्टों का विभाजन किया जा सकता है, प्रातः जागरण से लेकर शयन तक को 2-2 घण्टों के अन्तराल में, यथा सबसे उपर 4 फिर नीचे 6, 8,10,12,2,4,6 और अंत में अपने शयन के अनुरुप 8, 10 बजे आदि। इससे इस बीच घटी महत्वपूर्ण घटना, कार्यों, मुलाकातों आदि को लिखा जा सकता है।

दूसरा, डायरी में पन्ने के बीचो-बीच ऊपर की ओर कार्यों को प्राथमिकता के आधार पर लिखा जा सकता है, एक तरह की टू डू लिस्ट तैयार की जा सकती है। डायरी के बीच के दो पेज आमने-सामने पड़ते हैं, इनके बीच में भी इस सूचि को बनाया जा सकता है, जिससे कि एक ही सूचि से हम दो दिन के कार्यों को एक साथ ट्रैक कर सकें। इन सूचिबद्ध कार्यों को फिर बीच में दिन भर जब चाहें ट्रैक करते हुए महत्वपूर्ण कार्यों को समय पर निपटाते हुए एक कार्यकुशल दिनचर्या को अंजाम दिया जा सकता है।

औसतन दिनचर्या में व्यक्ति परिस्थिति के दबाव या किसी प्रलोभन के वशीभूत अपनी प्राथमिकता के क्रम को भूल जाता है और कार्य की घड़ी समीप आने पर फिर आपातकाल की अफरा-तफरी में हैरान-परेशान व तनावग्रस्त हो जाता है। विद्यार्थी जीवन में परीक्षा के समय तनाव का मुख्य कारण दैनिक रुप में पढ़ाई के प्रति बरती गई यह लापरवाही ही रहती है। डायरी में कार्यों के विभाजन होने से इसमें झाँकते ही अपने गोल का स्मरण हो जाता है और ध्येयनिष्ठ भाव के साथ वह अपने कार्य पर फोक्स रहता है।

इसके लिए फुल पेज डायरी के साथ एक स्लिप पैड़ (पॉकेट डायरी) को अपने साथ रखकर इस कार्य को सम्पन्न किया जा सकता है, जिसमें दिन भर के कार्य क्रमवार लिखे गए हों। इसमें दिन भर के महत्वपूर्ण विचार, भाव, अनुभव व सबक सार आदि को भी समय-समय पर नोट करते रहा जा सकता है, जिन पर फिर डायरी लिखते हुए रात को स्व-मूल्याँकन के समय एक नजर डाली जा सके।

दिन के विशेष घटनाक्रम, यादगार लम्हें, खट्टे-मीठे अनुभव, अपनी आदतों पर छोटी-बड़ी जीत व जीवन के सबक - सबको कुछ शब्दों, पंक्तियों से लेकर पैरा में लिखा जा सकता है। इस तरह एक सप्ताह आठ-दस पैरा खेल-खेल में तैयार हो जाएंगे। यदि किसी एक ही विषय पर अलग-अलग अनुभवों के साथ माह में पाँच पैरा भी तैयार हो जाते हैं, तो मानकर चलें कि एक पूरे लेख की सामग्री तैयार हो चली। फिर इसको थोड़ा स्वाध्याय के साथ पुष्ट करते हुए एक उम्दा रचना तैयार की जा सकती है।

माना कि नए व्यक्ति (लेखक) के लिए शुरुआत में अपने विचार व भावों को कागज पर उतारना एक कठिन कार्य होता है, लेकिन रोजमर्रा के सशक्त अनुभवों को अपनी डायरी में लिखना कोई कठिन कार्य नहीं। बस संकल्पित होकर कापी-पेन लेकर बैठने की देर भर है। यदि जीवन का एक ध्येय, इसको समग्रता में जीना बन चुका है, आत्म-उत्कर्ष है और सृजनात्मक लेखन के माध्यम से अपने अनुभवों को व्यक्त करना है, तो फिर देर किस बात की। ऊपर दिए सुत्र-संकेतों के आधार पर डायरी लेखन को अपने मौलिक अंदाज में अंजाम देते हुए आप इसके क्रिएटिव एडवेंचर का हिस्सा बन सकते हैं और अपने जीवन में रोमाँच का एक नया रस घोल सकते हैं।   

रविवार, 13 फ़रवरी 2022

साधु संगत, भाग-3, अध्यात्म पथ

मार्ग कठिन, लेकिन सत्य की विजय सुनिश्चित

 

मनुष्यमात्र का पहला और प्रधान कर्तव्य - आत्मज्ञान

महापुरुषों के जीवन को फूल के समान खिला हुआ, सिंह की तरह अभय, सद्गुणों से ओत-प्रोत देखते हैं, तो स्वयं भी वैसा होने की आकांक्षा जागती है। आत्मा की यह आध्यात्मिक माँग है, उसे अपनी विशेषतायें प्राप्त किये बिना सुख नहीं होता। लौकिक कामनाओं में डूबे रह कर हम इस मूल आकाँक्षा पर पर्दा डाले हुए पड़े रहते हैं, इससे किसी भी तरह जीवन लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती।

श्रेष्ठता मनुष्य की आत्मा है। इसलिए जहाँ कहीं भी उसे श्रेष्ठता के दर्शन मिलते हैं, वहीं आकुलता पैदा होती है।...यह अभिलाषायें जागती तो हैं किन्तु यह विचार नहीं करते कि यह आकांक्षा आ कहाँ से रही है। आत्म-केन्द्र की ओर आपकी रुचि जागृत हो तो आपको भी अपनी महानता जगाने का श्रेय मिल सकता है, क्योंकि लौकिक पदार्थों में जो आकर्षण दिखाई देता है, वह आत्मा के प्रभाव के कारण ही है। आत्मा की समीपता प्राप्त कर लेने पर वह सारी विशेषताएं स्वतः मिल जाती हैं, जिनके लिये मनुष्य जीवन में इतनी सारी तड़पन मची रहती है। सत्य, प्रेम, धर्म, न्याय, शील, साहस, स्नेह, दृढ़ता-उत्साह, स्फूर्ति, विद्वता, योग्यता, त्याग, तप और अन्य नैतिक सद्गुणों की चारित्रिक विशेषताओं के समाचार और दृश्य हमें रोमाँचित करते हैं क्योंकि ये अपनी मूल-भूत आवश्यकताएं हैं। इन्हीं का अभ्यास डालने से आत्म-तत्व की अनुभूति होती है।

आत्म-ज्ञान का सम्पादन और आत्म-केंद्र में स्थिर रहना मनुष्य मात्र का पहला और प्रधान कर्तव्य है। आत्मा का ज्ञान चरित्र विकास से मिलता है। अपनी बुराईयों को छोड़कर सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा इसी से दी जाती है कि आत्मा का आभास मिलने लगे। आत्म सिद्धि का एक मात्र उपाय पारमार्थिक भाव से जीवमात्र की सेवा करना है। इन सद्गुणों का विकास न हुआ, तो आत्मा की विभूतियाँ मलिनताओं में दबी हुई पड़ी रहेंगी।

युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं.श्रीराम शर्मा आचार्य

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तुम्हारी एक मात्र संरक्षिका - सत्यनिष्ठा

सत्यनिष्ठ बनो। दिव्य शांति की ओर जाने का यह प्रथम और अपरिहार्य पग है।...पूर्ण सत्यनिष्ठा का तात्पर्य है – जीवन में पूर्णता की उपलब्धि, निरंतर अधिकाधिक पूर्णता की उपलब्धि करते जाना। पूर्णता की उपलब्धि का दावा कभी नहीं करना चाहिए, बल्कि स्वाभाविक गति से उसे प्राप्त करते रहना चाहि। यही है सत्यनिष्ठा।

सच्चाई प्राप्त करना अत्यंत कठिन कार्य है, पर यह सब चीजों से अधिक अमोघ भी है। अगर तुममें सच्चाई है, तो तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। ...

सबसे पहले तुम्हें इस बात पर ध्यान रखना होगा कि तुम्हारे जीवन में एक भी दिन, एक भी घंटा, यहाँ तक कि एक भी मिनट ऐसा नहीं है, जब कि तुम्हें अपनी सच्चाई को सुधारने या तीव्र बनाने की आवश्यकता न हो। मैं यह नहीं कहती कि तुम भगवान को धोखा देते हो, कोई भी आदमी भगवान को धोखा नहीं दे सकता, यहाँ तक कि बडे-से-बडे असुर भी नहीं दे सकते। जब तुम यह समझ गए हो तब भी तुम अपने दैनंदिन जीवन में ऐसे क्षण बराबर पाओगे, जब कि तुम अपने-आपको धोखा देने की कोशिश करते हो। प्रायः स्वाभाविक रुप में ही तुम जो कुछ करते हो, उसके पक्ष में युक्तियाँ पेश करते हो।

सच्चाई की सच्ची कसौटी, यथार्थ सच्चाई की एकदम कम-से-कम मात्रा बस यही है, एक दी हुई परिस्थिति में होने वाली तुम्हारी प्रतिक्रिया के अंदर, तुम सहज भाव से यथार्थ मनोभाव ग्रहण करते हो या नहीं, और जो कार्य करना है, ठीक उसी कार्य को करते हो या नहीं। उदाहरणार्थ, जब कोई क्रोध में तुमसे बोलता है, तब क्या तुम्हें भी उसकी छूत लग जाती है और तुम भी क्रोधित हो जाते हो या तुम एक अटल शांति और पवित्रता बनाए रखने, दूसरे व्यक्ति की युक्ति को देखने या समुचित रुप में आचरण करने में समर्थ होते हो?

बस, यही है, मेरी राय में, सच्चाई का एकदम आरम्भ, उसका प्राथमिक तत्व। अगर तुम अधिक पैनी आँखों से अपने अंदर ताको, तो तुम वहाँ हजारों अ-सच्चाईयों को पाओगे, जो अधिक सूक्ष्म हैं, पर जो इसी कारण पकड़ी जाने योग्य न हों ऐसी बात नही। सच्चे बनने की कोशिश करो और ऐसे अवसर बढ़ते ही जायेंगे, जब तुम अपने को सच्चा नहीं पाओगे, जब तुम समझ जाओगे की सच्चा बनना कितना कठिन कार्य है।

सच्चाई दिव्य द्वारों की चाबी है। सच्चाई में ही है विजय की सुनिश्चितता। पूर्ण रुप से सच्चे बनो, फिर ऐसी कोई विजय नहीं जो तुम्हें न दी जाए।...सत्यनिष्ठा ही तुम्हारी एक मात्र संरक्षिका है।

-    श्रीमाँ, आत्म-परिपूर्णता

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चरित्र निर्माण अर्थात् सत्य का समना और ज्ञान को अपना बनाना

संसार के दुःख सीधे इच्छाओं के अनुपात में ही हैं। इसलिए अंध आसक्ति न रखो। स्वयं को किसी से बाँध न लो। परिग्रह की इच्छा न करो, वरन् स्वयं में अवस्थित होने की दृढ़ इच्छा करो। क्या कोई भी संग्रह तुम्हारे सत्यस्वरुप को संतुष्ट कर सकेगा? क्या तुम वस्तुओं से बद्ध हो जाओगे? नग्न हो इस संसार में तुम आते हो तथा जब मृत्यु का बुलावा आता हो, जब नग्न हो चले जाते हो। तब फिर तुम किस बात का मिथ्या अभिमान करते हो? उन वस्तुओं का संग्रह करो, जिनका कभी नाश नहीं होता। अन्तर्दृष्टि का विकास अपने आप में एक उपलब्धि है। अपने चरित्र को तुम जितना अधिक पूर्ण करोगे, उतना ही अधिक तुम उन शाश्वत वस्तुओं का संग्रह कर पाओगे, जिनके द्वारा यथासमय तुम आत्मा के राज्य के अधिकारी हो जाओगे।

अतः जाओ, इसी क्षण से आंतरिक विकास में लगो, बाह्य नहीं। अनुभूति के क्रम को अन्तर्मुखी करो। इन्द्रियासक्त जीवन से विरत होओ। प्रत्येक वस्तु का आध्यात्मीकरण करो। शरीर को आत्मा का मंदिर बना लो तथा आत्मा को दिन-दिन अधिकाधिक अभिव्यक्त होने दो। और तब अज्ञानरुपी अंधकार धीरे-धीरे दूर हो जाएगा तथा आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश धीरे-धीरे फैल उठेगा। यदि तुम सत्य का सामना करो, तो विश्व की सारी शक्तियाँ तुम्हारे पीछे रहेंगी तथा समन्वित रुप से तुम्हारे विकास के लिए कार्य करेंगी। शिक्षक केवल ज्ञान दे सकते हैं। शिष्य को उसे आत्मसात करना होगा और इस आत्मसात करने का तात्पर्य है – चरित्र निर्माण, ज्ञान को अपना बना लेना है। स्वयं अपने द्वारा ही अपना उद्धार होना है, दूसरे किसी के द्वारा नहीं।

उपनिषदों के आदेश की तर्ज में, उठो, सचेष्ट हो जाओ। और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो, तब तक न रुको।

-    एफजे अलेक्जेंडर, समाधि के सोपान

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कमर कसकर धैर्य के साथ लक्ष्य की ओर बढे चलो

उद्बुद्ध होओ, जाग उठो, जीवन के महत्तम दायित्व, श्रेष्ठतम कर्तव्य साधन के लिए दृढ़संकल्पबद्ध होओ। सर्वप्रकार के क्लैव्य-दौर्वल्य का विसर्जन दे कर, मलिनता और पंकिलता का परित्याग कर, मोह और आत्मविस्मृति को दूर हटा कर वीर के समान खड़े हो जाओ। जीवन का पथ बड़ा ही कंटकों से परिपूर्ण, बड़ा ही विपदा से पूर्ण, घात संघात, अवस्था विपर्य्यय इस पथ के नित्य साथी एवं दुःख-दैन्य, असुख-अशांति, विषाद-अवसाद इस पथ के नित्य सहचर हैं। बाधा-विघ्न पथ को रोके खड़े रहते हैं। संशय, सन्देह, अविश्वास और आदर्श के प्रति अनास्था उत्पन्न हो कर साधन की नींव का चूरमार कर देती है। कुत्सित कामना, वासना एवं विषय-भोग की आकांक्षा आकर शक्ति-सामर्थ्य बलवीर्य का अपहरण करती है। और मनुष्य की निर्जीव बना डालती है, विभ्रम-विभ्राँति एवं विस्मृति आकर उसे आदर्शभ्रष्ट और लक्ष्यच्युत करके विपथ पर भुला ले जाती हैं। जीवन के इस द्वन्द-संघर्षमय कठिन दुर्योग तथा आत्मविस्मृति एवं आदर्श विभ्राट् के इस विषमय संकट के समय, हे मुमुक्षु साधक। तुम अपने प्रज्ञाबल के द्वारा आत्मबोध और आत्मशक्ति को जाग्रत कर नवीन उत्साह से कमर कस कर धैर्य के साथ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होओ। नैराश्य और निश्चेष्टता को दूर हटाकर पुरुषार्थ का अवलम्बन लो।

आत्मन। दुर्दिन की घन घोर विभीषिका से भयभीत न होना। संग्राम के भय से भाग न जाना। चरम श्रेयः पथ में अभियान कर शान्ति लाभ करो और उत्कर्ण होकर सुनो, श्रुति की वही बज्र गम्भीर चिर जागरण वाणीउत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत्।

स्वामी आत्मानन्द, जीवन साधना के पथ पर

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साधक की परिभाषा

साधक वस्तुतः एक एकाकी पक्षी की तरह होता है।

एकाकी पक्षी की स्थिति पाँच प्रकार से परिभाषित होती है।

§  पहली कि वह अधिकतम ऊँचाई तक उड़ता है।

§  दूसरी यह कि वह किसी साहचर्य और साथ के बिना व्यथित नहीं होता।

§  तीसरी स्थिति यह कि अपनी चंचु का लक्ष्यबिंदु आकाश की ओर ही रहता है।

§  चौथी यह कि उसका कोई निश्चित रंग नहीं होता।

§  पाँचवी स्थिति यह कि वह बहुत मृदु स्वर में गाता है।

 

-    श्रीमाँ, साधक सावधान।।

साधु सगत के पूर्व संकलन

साधु संगत के भाग -2, चित्त् का भ्रम-बन्धन और अपना विशुद्ध आत्म स्वरुप

साधु सगत भाग -1 आत्म कल्याण की भी चिंता की जाए

चुनींदी पोस्ट

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...