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बुधवार, 20 जून 2018

थोड़ा सा धीरज, थोड़ा सा विश्वास


 चाहते हो अगर शांति, सुकून, सुख सच्चा
चाहते हो अगर शांति, सुकून, सुख सच्चा,
तो थोड़ा सा धीरज, थोड़ा सा विश्वास धारण करना होगा।

अधीर मन दुश्मन शांति का, बने काम पल भर में बिगाड़ दे,
दही अभी जमा भी नहीं था कि कच्चे दूध से मक्खन निकालने लगे।
रिश्तों की डोर बड़ी नाजुक, गलतफहमी विष विकराल जड़ घातक,
बिना कारण समझे, पल भर में निष्कर्ष पर उतरना संघातक।
थोड़ा सा धीरज धारण कर तो देख अधीर मन,
काल को भी पक्ष में करने की कला सीख ली फिर तूने,
विरोधियों की क्या विसात, दुश्मन भी तेरा लौहा मानेंगे
लेकिन अधीर मन, नहीं अगर धीरज इंतजार का,
 हथेली पर फल की चाह तत्काल बीज गलने से पहले,
तो फिर, प्रतिक्रिया, वाद-प्रतिवाद, संतप्त जीवन रहेगी नियति,
उर में अशांति धारण किए, फिर, बाहर अंधकार की शिकायत बेमानी।
सच्चाई-अच्छाई-भलाई की भी है कोई शक्ति
विश्वास कर, आजमा कर दो देख,
अपमान नहीं किसी का, उपेक्षा हो सकती है
थोड़ा सा धीरज धारण कर तो देख।
चाह अमृत फल की, लेकिन चाल सारी नश्वर जगत की,
शाश्वत के संग, प्रकृति की नीरव गोद में कुछ पल विता कर तो देख,
सांसारिक राग-रंग सब लगेंगे फीके, प्रकृति में परमेश्वर झरते मिलेंगे,

शांति, आनन्द, धन्यता का स्रोत फूटेगा फिर अंदर,
कण-कण में प्रकृति-परमेश्वर का लहलहाता मिलेगा समंदर।

गुरुवार, 31 मई 2018

काल की बक्र चाल और ये कशमकश


डटा रह पथिक आशा का दामन थामे

ये कशमकश भी गजब है, समझने की कोशिश कर रहे,

मंजिल है उत्तर की ओर, पग दक्षिण की ओर बढ़ रहे,

करना है बुलंदियों का सफर, ढग रसातल की ओर सरक रहे।


गड़बड़ अंदर भीतर कहीं गहरी, उपचार सब बाहर के हो रहे,
अपनी खबर लेने की फुर्सत नहीं, दूसरों की खबर खूब ले रहे।

क्या यही है जिंदगी, इबादत खुदा की, बेहोशी में जिसे हम जी रहे,
जाने अनजानें में खुद से दूर, जड़ों पर ही कुठाराघात कर रहे।

फिर जड़ों को सींचने की तो बात दूर, पत्तियोँ-टहनियों के सिंचन में ही इतिश्री मान बैठे,
हो फिर कैसे आदर्शों के उत्तुंग शिखरों का आरोहण, गहरी खाई में ही जो घरोंदा बसा बैठे।

हो निजता में गुरुता का समावेश कैसे, गुरुत्व के साथ बहने में ही नियति मान बैठे,
इंसान में भगवान के दर्शन हों कैसे, जब अंदर के ईमान को ही भूला बैठे।

इस सबके बावजूद, न हार हिम्मत, उम्मीद की किरण है बाकि,
मत हो निराश पथिक, काल की बक्र चाल यह,
छंट जाएेंगे भ्रम-भटकाव के ये पल, ठहराव का यह सघन कुहासा।
 
बस डटा रह, धर धीरज अपने सत्य, स्वर्धम, ईमान पर, आशा का दामन थामे,
  सच्चाई, अच्छाई व भलाई की शक्ति को पहचाने,
पार निकलने की राह फूटेगी भीतर से, आएगा वह पल जल्द ही, यह सुनिश्चित मानें।
 

शनिवार, 31 मार्च 2018

दिल करता है दुनियाँ को हिला दूँ

अभी तो महज बीज हूँ
 दिल करता है दुनियाँ को हिला दूँ,
लेकिन खुद हिल जाता हूँ,
अभी तो महज़ बीज हूँ,
देखो, कब पौध बन पाता हूँ।

देखे हैं ऐसे भी बृक्ष मैंने,
जो खिलने से पहले ही मुरझा गए,
क्या मेरी भी है यही नियति,
सोचकर घबराता हूँ।
लेकिन आशा के उजाले में,
नयी हिम्मत पाता हूँ,
बढ़ चलता हूँ मंजिल की ओर,
आगे कदम बढ़ाता हूँ।

अभी तो करने के कई शिखर पार,
देखो हिमवीर बन कहाँ पहुँच पाता हूँ।।

चुनींदी पोस्ट

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