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शनिवार, 29 नवंबर 2025

हिमालय कुछ कह रहा है...

 

2025 मौनसून के प्रकृति ताँडव में छिपे संकेत-संदेश


हिमालय विश्व की सबसे युवा पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है और अपनी विशिष्टताओं के कारण सभी का ध्यान आकर्षित करता है। इसका प्राकृतिक सौंदर्य, गगनचुम्बी हिमशिखर, ताल-सरोवर और हिमनदियाँ, सब इसे विशिष्ट बनाते हैं और सबसे अधिक महत्वपूर्ण है इनसे जुड़ा आध्यात्मिक भाव। जहाँ गंगाजी का पतितपावनी स्वरुप सभी हिमनदियों में पावनता का संचार करता है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं, हिमालय के रुप में अपने स्वरुप की व्याख्या करते हैं। शिव-शक्ति से जुड़े तमाम शक्तिपीठ, सिद्धपीठ एवं तीर्थस्थल इसमें बसे हैं और सर्वोपर स्वयं शिव-शक्ति का निवास स्थान भी तो हिमालय ही है, तमाम ऋषि आज भी इसके दुर्गम क्षेत्रों में तप साधना कर रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केंद्र है, जिसे देवात्मा हिमालय की संज्ञा दी गई है।

लेकिन हिमालय आज रुष्ट दिख रहा है, अपनी विप्लवी हलचलों के माध्यम से कुछ कह रहा है। पावनता के प्रतीक हिमालय के साथ अल्पबुद्धि नादान इंसान ने जो खिलवाड़ किया है व कर रहा है, वह दारुण है, क्षोभ उत्पन्न करता है, चिंता का विषय है। जिस तरह से इसकी तलहटियों, शिखरों, गर्भ व गोद में विकास के नाम पर बेतरतीव अनियोजित योजनाएं क्रियान्वित हुई हैं और हो रही हैं, उनमें से अधिकाँश किसी भी रुप में हिमालय की प्रकृति से मेल नहीं खाती, इसके प्रति न्यूनतम संवेदना से हीन कृत्य प्रतीत होती हैं, जिनमें व्यक्ति की अदूरदर्शिता, क्षुद्र लोभ, अहंकार एवं महत्वाकाँक्षाएं ही अधिक झलकती हैं।

वर्ष 2025 में जिस प्रकार का ताँड्व प्रकृति ने हिमालय के हिमाचल, उत्तराखण्ड और जम्मु-काश्मीर प्रांतों में किया है और इसके भयावह दुष्परिणाम इसकी तलहटी में बसे पंजाब, दिल्ली तक देखने को मिले हैं और जिसका विस्तार प्रयागराज से लेकर बनारस तक हुआ है, वह उपरोक्त धारणा को पुष्ट करता है और समय रहते हिमालय के संकेत को ह्दयंगम करने व आवश्यक सवक सीखने का संदेश दे रहा है। हिमालय अब तक पर्याप्त वार्निंग दे चुका है और ऐसा प्रतीत होता है कि अब सीधे कार्यवाही पर उतर गया है और यदि नहीं सुधरे तो इसके ओर विकराल लोमहर्षक दृश्यों को हम किश्तों में आगे भी देखने व झेलने के साक्षी व भुगतभोगी होंगे।

माना कि इन घटनाओं में ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक मौसम परिवर्तन आदि के कारण भी सक्रिय हैं, जिनमें प्रभावित लोगों का सीधा हाथ नहीं रहता, लेकिन इनके नाम पर हम अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकते, अपनी बेवकुफ़ियों को नहीं ढक सकते, अपनी अदूरदर्शिता को बेदस्तूर जारी नहीं रख सकते, अपनी प्रकृति विरोधी योजनाओं को विकास का जामा नहीं पहना सकते। समय गहन आत्मचिंतन, समीक्षा और ठोस सुधार का है। प्रकृति व हिमालय के प्रति न्यूतम संवेदना के साथ व्यवहार समय की माँग है। नहीं तो भविष्य में ट्रेलर के आगे की विध्वंसक पिक्चर के लिए सभी को मिलजुलकर तैयार रहना होगा। कुपित प्रकृति के सामूहिक दण्ड विधान से कोई बच नहीं सकता।

इस प्राकृतिक आपदा में हताहत हुई सभी दिवंगत आत्माओं के प्रति पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए, इनसे जुड़े परिजनों के प्रति हार्दिक सांत्वना का भाव रखते हुए, सभी निवासियों एवं परिजनों से भाव भरा निवेदन एक ही है कि प्रकृति के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलें। भारतीय चिंतन में प्रकृति को माँ का दर्जा दिया गया है, जो अपनी संतानों का आवश्यक पौषण, संवर्धन और संरक्षण करती है। इस माँ के प्रति अगाध कृतज्ञता का भाव रखते हुए तालमेल के साथ काम करें, उसकी कृपा पग-पग पर अनुभव होगी। और यदि हम इसे भोग्या मानकर उसका दोहन-शौषण करेंगे, उस पर अत्याचार जारी रखेंगे, अपने लोभ व मूढ़ता की अंधी दौड़ में मनमाना आचरण करते रहेंगे, तो फिर इसका खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।

गौर करें, वर्ष 2025 में हिमालय क्षेत्र में शिव-शक्ति से जुड़े तीर्थस्थलों के आसपास ही प्राकृतिक आपदाएं अधिक आई हैं। स्पष्ट संकेत है कि प्रकृति रुष्ट है, प्रकृति की अधिष्ठात्री माँ जगदम्बा रुष्ट हैं, प्रकृति के अधिपति भगवान शिव रुष्ट हैं और महाकाल-महाकाली अपना ताण्डव नर्तन करने के लिए विवश हैं। वे सृष्टि का संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक विध्वंस करने के लिए वाध्य हैं।

जिस तरह से तीर्थ स्थलों को भोगलिप्त इंसान ने पिकनिक स्पॉट बना रखा है, तीर्थयात्रियों को लूटने का व्यापार केंद्र बना दिया है, वह किसी भी रुप में तीर्थ की गरिमा के अनुरुप नहीं है। और फिर बिना जीवन तो तपाए, सुधार किए, पात्रता का विकास किए, सस्ते में, मुफ्त में भगवान की कृपा के लिए भीड़ का हिस्सा बनकर तीर्थस्थलों में जमघट लगाना, सारा कचरा, गंदगी वहीं तीर्थ क्षेत्र में फैंकना समझदारी के कदम नहीं हैं। ऐसे तीर्थाटन की चिन्हपूजा के साथ भगवान की कृपा की आशा लगाना नादानी है, नासमझी है, जो जीवन के सुत्रों के प्रति न्यूनतम समझ का भी अभाव दर्शाती है। ईश्वर कृपा के लिए न्यूनतम पात्रता का अर्जन करना होता है, जो अंतर की ईमानदारी, जिम्मेदारी और समझदारी के अनुपात में होता है। गैरजिम्मेदार आचरण, बेईमानी, धूर्तता, चालाकी, होशियारी, अदूरदर्शिता, निष्ठुरता, निपट स्वार्थता, दर्प-दंभ-अहंकार से इसका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं।

फिर सीधे इन तीर्थ स्थलों के ह्दयक्षेत्र तक राह की प्रकृति को तहस-नहस करते हुए सड़क से लेकर रोपवे व रिजोर्टों का निर्माण कितना उचित है। प्रकृति की गोद में सुरम्य स्थल पर एकांतिक वातावरण में तीर्थस्थल की पावन स्थिति ही आदर्श रही है। वहाँ तक पहुँचने के लिए थोड़ा श्रम तो तप का हिस्सा माना जाता रहा है और जो अशक्त हैं, उनके लिए कंडी से लेकर तमाम सेवाएं उपलब्ध रहती हैं, जो स्थानीय लोगों के रोजगार का भी माध्यम बनते हैं।

वर्ष 2025 के प्रकृति ताँडव ने एक बात ओर स्पष्ट कर दी है कि नदियों व जल स्रोत्रों के साथ खिलवाड़ न किया जाए व इनको हल्के से लेने की भूल न की जाए। इनकी राह में वसावट बसाने, मकान-दुकान, होटल व रिजॉर्ट सजाने की कुचेष्टा न करें। यहाँ अंग्रेजों की तारीफ करनी पडेगी, जो अपने समय में जिस भी हिल स्टेशन में रहे, उनके द्वारा प्रकृति के साथ संयोजन में खड़ी की गई रचनाएं आज भी सुरक्षित-संरक्षित हैं, जबकि उनके जाने के बाद जिस तरह से हमने पहाड़ों की ढलानों पर जंगल का सफाया करते हुए वेतरतीव बहुमंजिला भवनों की कतार, कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए हैं, वे हमारी सोच के दिवालिएपन को ही दर्शाते हैं, जिसके साथ हम जैसे अपने ही विनाश की पटकथा लिख बैठे हैं। यदि किसी भी मौनसून के सीजन में बारिश कुछ दिन ओर रहती है, तो होने वाले नुकसान का अनुमान लगाया जा सकता है। और भूकंप जोन में तो यह खामियाजा अकल्पनीय हो सकता है।

सार रुप में हिमालयी प्राँतों में विकास के कर्णधार नेताओं, अधिकारियों, इँजीनियरों और बुद्धिजीविओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अब सजग सचेत हो जाएं और आम इंसान भी जागरुक हो जाएं और विकास के नाम पर अपने अस्तित्व के लिए खतरा बनने वाली योजनाओं में समय रहते परिमार्जन करें, सुधार करें। नहीं तो आने वाला समय बहुत विकट, विप्लवी एवं विध्वंसक होने वाला है। थोड़ी सी समझदारी, थोड़ी सी ईमानदारी व प्रकृति के प्रति न्यूनतम संवेदनशीलता के आधार पर हम इस तरह की त्रास्दी के दुष्प्रभावों को एक सीमा तक नियंत्रित करते हुए अपने भविष्य को संरक्षित कर सकते हैं।

मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

पर्यावरण प्रदूषण - प्लास्टिक क्लचर के लिए कौन जिम्मेदार?


सम्मिलित प्रयास से ही होगा समाधान


पिछले लगभग अढाई दशकों से हरिद्वार में रह रहा हूँ। गंगा नदी के तट पर शहर का बसा होना ही इसे विशेष बनाता है। इसके वशिष्ट स्थलों पर स्नान-डुबकी पर जीवन के पाप-ताप से मुक्त होने व परलोक सुधार का भाव रहता है। श्रद्धालुओं का सदा ही यहाँ रेला लगा रहता है, वशिष्ट पर्व-त्यौहारों में इनकी संख्या लाखों में हो जाती है और कुंभ के दौरान तो करोड़ों में।
हर बर्ष साल में एक बार गंगा क्लोजर होता है, सामूहिक सफाई अभियान चलते हैं। तब समझ आता है कि गंगाजी के साथ इसके भक्तों ने क्या बर्ताव किया है। तमाम तरह के कचरे से लेकर पॉलिथीन इसमें बहुतायत में मिलता है। जब गंगाजी के किनारे ही यह धड़ड्ले से बिक रहा हो तो फिर क्या कहने। इस पर नियंत्रण के लिए, सरकार हमारे संज्ञान में अब तक तीन-चार बार पॉलिथीन बंदी का ऐलान कर चुकी है, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात दिखते हैं। ( अभी हाल ही में 1 फरवरी 2021 से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्देशानसुर पहले चरण में गोमुख से हरिद्वार तक प्लास्टिक के किसी तरह के उपयोग पर पाबन्दी का आदेश आया है, जिसमें नियम का उल्लंघन करने वाले पर पांच हजार तक के जुर्माने की बात कही गई है।)
हालांकि चार धाम यात्रा के शुरु होने के पूर्व सरकार पुनः पॉलिथीन की बंदी को लेकर संजीदा दिखी है(थी)। अखबार के समाचारों के अनुसार, इसके खिलाफ उपयुक्त दंड़ का भी भय दिखाया जा रहा है। केदारनाथ में गौरीकुंड़ से आगे बरसाती व अन्य पालीथीन ले जाने की मनाही घोषित हो चुकी है। प्रशासन द्वारा गौरिकुँड से पॉलिथीन के बरसाती दिए जाएंगे, जिन्हें बापिसी में लौटाना होगा। इसी तरह यमुनोत्री तीर्थ में पालिथीन में पैक अग्रवती एवं प्रसाद आदि पर बंदी के समाचार मिल रहे हैं। ऐसा ही कुछ बाकि धामों में भी सुनने को मिल सकता है, जो स्वागत योग्य कदम हैं।
लेकिन प्लास्टिक बैन का यह मुद्दा हमें काफी पेचीदा लगता है, जिसके अपने कारण हैं। पिछले कुछ बर्षों से हम व्यैक्तिगत स्तर पर इसके खिलाफ एक्ला अभियान चलाए हुए हैं। अपना थैला लेकर दुकान जाते हैं। शांतिकुंज आश्रम और देवसंस्कृति विवि की बात छोड़ें (दोनों परिसर प्लास्टिक मुक्त क्षेत्र बन चुके हैं) तो बाहर दुकानों, ठेलों, हाटों व बाजार में पालिथीन बैन को लेकर जो स्थिति है, वह इस पोस्ट में शेयर कर रहा हूँ। ये लगभग हमारी लम्बी व्यवहारिक शोध के अनुभूत परिणाम हैं, जो लगभग हर पर्चेजिंग के बक्त प्लास्टिक उपयोग कर रहे दुकानदारों व ग्राहकों से पूछे गए सबालों के रिस्पोंस पर आधारित है।
जहाँ पालिथीन में ही समान दिया जाते हैं, पूछने पर जबाब रहता है कि हम क्या करें, ग्राहक ही इसकी माँग करते हैं। अपना थैला तो लाते नहीं, उल्टा पालीथीन पैकेट के लिए झगड़ते हैं। जब वहाँ ऐसी माँग करने वालो ग्राहकों से पूछा जाता है, तो प्रायः जबाव रहता है कि कुछ होने वाला नहीं। जब तक सरकार पीछे से ही पालिथीन बैन नहीं करती, ऐसे ही चलता रहेगा। दुकानदार भी जोर से सहमति जताते हुए अपना आक्रोश व्यक्त करता है, कि सरकार ऐसी फेक्ट्रियों को बंद क्यों नहीं करती।
पूछने पर कि यदि प्रशासन आकर जुर्माना लगाए तो। जबाब रहता है कि देख लेंगे जब ऐसा होगा तो। आए दिन प्रशासन के शहर के हरकी पौड़ी साईड या कुछ अन्य स्थानों पर छापे व सजा की खबरे आती रहती हैं, लेकिन दुनाकदारों के बीच इन छुट पुट घटनाओं का कोई भय नहीं है।
मूल प्रश्न भय का नहीं है, अपनी जिम्मेदारी का है, जिसका लगता है न अधिकाँश दुकानदारों को, न अधिकाँश ग्राहकों को अहसास है और सरकार के ढुलमुल रवैये पर भी सवाल तो उठता ही है। कुल मिलाकर, यदि पालिथीन बैन पर राजनैतिक इच्छा शक्ति में दम होता, प्रशासन कड़क होता, थोड़ा सा ग्राहक अपनी जिम्मेदारी समझता (अपना बैग ही तो साथ रखना है) और थोड़ा सा दुकानदार खर्च करता या प्लास्टिक की माँग बाले ग्राहकों को वायकोट करने का साहस रखता। उसी पल समाधान हो जाता।
हमें याद है पिछले दो दशकों की, हम जब भी हिमाचल में शिमला जाते हैं या कुल्लू-मानाली, हमें प्लाटिक क्लचर का ऐसा गैर-जिम्मेदाराना रवैया नहीं दिखता, जैसा हरिद्वार धर्मनगरी में है। शायद वहाँ प्रशासन, ग्राहक एवं दुकानदार – तीनों स्तर पर न्यूनतम जिम्मेदारी के सम्मिलित प्रयास हुए हैं, जिसका सुखद परिणाम प्लास्टिक मुक्त क्लचर के रुप में सामने है।
हमारी हमसे जुड़े मित्रों, छात्रों, बुजुर्गों, गृहणियों एवं जिम्मेदार नागरिकों से एक ही गुजारिश है कि प्लास्टिक बैन को सफल बनाने में अपने न्यूनतम दायित्व का निर्वाह करने का प्रयास करें। इसमें अधिक कुछ नहीं करना है, बस खरीददारी के वक्त अपने साथ अपना थैला भर साथ रखना है। प्लास्टिक के प्रति गैरजागरुक दुकानदार एवं ग्राहक को एक बार, नहीं बार-बार प्यार से अगाह जरुर करते रहें। हम तो अपना एक्ला अभियान जारी रखे हैं, आप भी रखें। न जाने कब इसका सम्मिलित प्रभाव प्लास्टिक क्लचर से मुक्ति का आधार बनेगा। फिर न गंगाजी या अन्य किसी नदी का दम प्लास्टिक के कचरे से चोक होगा। न कोई गाय व अन्य पशु प्लास्टिक के कारण दम तोड़ने को विवश होंगे। और शायद सरकार व प्रशासन के ढुलमुल रबैये के कारण चल रही फैक्ट्रियों भी खुद-व-खुद बंद हो जाए।

मेरा गाँव, मेरा देश – महाप्रकृति का कृपा कटाक्ष


प्रकृति की सच्चे पुत्र बनकर जीने में ही समझदारी
पिछले दशकों में प्राकृतिक जल स्रोत्र जिस तरह से सूखे हैं, वह चिंता का विषय रहा है। अपना जन्म स्थान भी इसका अपवाद नहीं रहा। मेरा गाँव मेरे देश के तहत हम पिछले चार-पाँच वर्षों से इस विषय पर कुछ न कुछ प्रकाश डाल रहे हैं। साथ ही इससे जुड़ी विसंगतियों एवं संभावित समाधान की चर्चा करते रहे हैं।
गाँव का पुरातन जल स्रोत - नाला रहा, जिसकी गोद में हमारा बचपन बीता। इसका जल हमारे बचपने के पीने के पानी का अहं स्रोत था, फिर गाँव में नल के जल की व्यवस्था होती है। साथ ही गाँव के छोर पर चश्में का शुद्ध जल (लोक्ल भाषा में जायरु) हमेशा ही आपात का साथी रहा है। नाले पर बना सेऊबाग झरना गाँव का एक अहम् आकर्षण रहा, जिसके संग प्रवाहमान जीवन की चर्चा होती रही है। लेकिन पिछले दशकों में इस झरने को वर्ष के अधिकाँश समय सूखा देखकर चिंता एवं दुख होता रहा और पिछले दो साल से इसके रिचार्ज हेतु कार्य योजना पर प्रयास चल रहा है।
हालाँकि अभी समस्या इतना गंभीर भी नहीं थी, क्योंकि यह प्राकृतिक से अधिक मानव निर्मित रही। क्योंकि खेतों की सिंचाई को लेकर जिस तरह से पाईपों का जाल बिछा और नाले के जल को खेतों तक पहुँचाया जा रहा है, दूसरा पारंपरिक रुप से जल अभाव से ग्रस्त पड़ोस की फाटी की जल आपूर्ति के लिए पीछे से ही जल का बंटवारा हो रहा है, तो ऐसे में नाले का सूखना स्वाभाविक था। लेकिन दो वर्ष से हम इसके मूल स्रोत्र का मुआइना किए, तो दोनों बार, मूल झरने के जल को न्यूनतम अवस्था में देखकर दुःख हुआ, जिसके कारण नीचे की ओर दोनों जल धाराएं सूखी मिलीं। जो थोड़ा बहुत जल था वह अंडरग्राऊँड होकर नीचे नाले में प्रकट होता था और पाईपों के माध्यम से खेतों में जा रहा था। और नीचे का सेऊबाग झरना नाममात्र की नमी के साथ सूखा ही मिला।
इस बार जुलाई में जिस तरह की बरसात हुई, तो गाँव के नाले व झरनों को पूरे श्बाव पर देखा।
इसके बाद सर्दियों में जिस तरह की रिकार्डतोड़ बारिश और बर्फवारी हुई, उसने जैसे जल स्रोत्रों को पूरी तरह से रिचार्ज कर दिया। अप्रैल माह में हुई हमारी संक्षिप्त यात्रा के दौरान नाले के पानी को नीचे व्यास नदी तक दनदनाते हुए बहते हुए देख अत्यन्त हर्ष हुआ। सेऊबाग झरना लगातार पिछले छः माह से पूरे श्बाब पर झर रहा है, जैसे इसको पुनर्जीवन मिला हो, खोया जीवन बापिस आ गया हो। नाले के ईर्द-गिर्द निर्भर जीव-जंतुओं, वनस्पतियों से लेकर इंसान के जीवन में जैसे एक नया प्राण लहलहा उठा हो।
इसके मूल में पीछे प्रवाहित हो रहे झरने व जलधाराओं को देखने के लिए जब गए तो पनाणी शिला के मूल झरने को भी पूरे श्बाब के साथ झरते हुए देखकर हर्ष हुआ। नीचे जल की दोनों धाराएं बहती हुई दिखी, जो पिछले दो वर्षों से नादारद थीं। पूरा नाला दनदनाते हुए बह रहा था। लगा जैसे महाप्रकृति कितनी समर्थ है, एक ही झटके में कैसे वह अपने अनुदानों से त्रस्त इंसान एवं जीवों की व्यथा का निवारण कर सकती है। उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं।
लेकिन यहाँ मात्र प्रकृति के भरोसे बैठे रहने और अपने कर्तव्य से मूँह मोड़ने से भी काम चलने वाला नहीं। प्रकृति के वरदान एक तरफा नहीं हो सकते। मनुष्य ने पहले ही प्रकृति के साथ पर्याप्त खिलवाड़ कर इसे कुपित कर रखा है, इसका संतुलन बिगाड़ दिया है, और दूषित करने से बाज नहीं आ रहा, इसका दोहन शौषण करने पर उतारू है। ऐसे में वह इसके कोप से नहीं बच सकता। कितने रुपों में इसके प्रहार हो रहे हैं और आगे भी होंगे, इसके लिए तैयार रहना होगा।
जो अभी अपने गाँव-घाटी में समाधान की उज्जली किरण दिखी है, वह प्रकृति की कृपा स्वरुप है। लेकिन यह सामयिक ही है। सिकुड़ते बनों और सूखते जल स्रोत्रों की समस्या यथावत है। गर्मियों में इसके अस्ली स्वरुप के दर्शन होने बाकि हैं। सारतः इस दिशा में लगातार प्रयास की जरुरत है। जब प्रकृति इस वर्ष की तरह अनुकूल न हो, उस स्थिति के लिए भी तैयार रहना होगा। उस विषमतम परिस्थिति में अधिक से अधिक किया गया वृक्षारोपण, जल संरक्षण के लिए किए गए प्रयोग ही काम आएंगे। इस दिशा में हर क्षेत्र के जागरुक व्यक्तियों को आगे आकर दूरदर्शिता भरे कदम उठाने होंगे, जिससे कि संभावित संकट से निपटने की पूर्व तैयारी हो सके।
सार रुप में प्रकृति के सामयिक उपहार अपनी जगह, समस्या की जीर्णता को देखते हुए समाधान के मानवीय प्रयास अपनी जगह, जो रुकने नहीं चाहिए। इसमें लापरवाही और चूक भारी पड़ सकती है। कुल मिलाकर प्रकृति से जुड़कर, इसकी सच्ची संतान बनकर जीने में ही हमारी भलाई है, समझदारी है।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

जंगलीजी का मिश्रित वन – एक अद्भुत प्रयोग, एक अनुकरणीय मिसाल

जंगल में मंगल रचाने की प्रेरक मुहिम

जंगल तो आपने बहुत देखे होंगे, एक खास तरह की प्रजाति के वृक्षों के या फिर बेतरतीब उगे वृक्षों से भरे बीहड़ वन। लेकिन उत्तराखण्ड के कोटमल्ला, रुद्रप्रयाग में स्थित जंगलीजी का मिश्रित वन इनसे हटकर जंगल की एक अलग ही दुनिया है, जहां लगभग साठ किस्म के डेढ़ लाख वृक्ष लगभग चार हैक्टेयर भूमि में फैले हैं। यह सब जंगलीजी के पिछले लगभग चालीस वर्षों से चल रहे भगीरथी प्रयास का फल है। चार दशक पूर्व बंजर भूमि का टुकड़ा आज मिश्रित वन की एक ऐसी अनुपम मिसाल बनकर सामने खड़ा है, जिसमें आज के पर्यावरण संकट से जुड़े तमाम सवालों के जवाब निहित हैं।

यहां पर हर ऊंचाई के वृक्ष उगाए जा रहे हैं। जिन्हें सीधे धूप की जरूरत होती है, वे भी हैं, इनकी छाया में पनप रहे छायादार पेड़ भी। और जमीं की गोद में या जमीं के अंदर पनपने वाले पौधे भी इस वन में शुमार हैं। इनमें 25 प्रकार की सदाबहार झाड़ियां व पेड़, 25 प्रकार की जड़ी-बूटियां व अन्य कैश क्रोप्स हैं। मिश्रित वन के इस प्रयोग ने जंगल में ऐसा वायुमंडल तैयार कर रखा है कि यहां 4500 फीट की ऊंचाई पर 7000 से 9000 फीट व इससे भी अधिक ऊंचाई वाले उच्च हिमालयन पौधे बखूबी पनप रहे हैं। बांज, काफल, देवदार से लेकर रिंगाल व रखाल (टेक्सस बटाटा) के पौधों को यहां विकसित होते देखा जा सकता है।

यहां ऐसी तमाम तरह की पौध व जड़ी-बूटियां उगाई जा रही हैं, जो आर्थिक स्वावलम्बन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। छोटी इलायची, बड़ी इलाचयी, चाय पत्ती, तेज पत्र जैसे उपयोगी मसाले व उत्पाद यहां बड़े वृक्षों की छाया तले पनप रहे हैं। जमीं पर हल्दी, अदरक जैसी नकदी फसलें क्विंटलों की तादाद में तैयार हो रही हैं, जो विशुद्ध रूप में ऑर्गेनिक होने की वजह से मार्केट में खासा दाम रखती हैं।

वन में स्टोन व वुड टेक्नोलॉजी के माध्यम से हवा में टंगे पत्थरों एवं बांस के पोले डंडों में मिट्टी व काई जमाकर तथा इन पर फर्न व ऑर्किड जैसे पौधों को हवा में उगाकर माइक्रो-क्लाइमेट तैयार किया जा रहा है। इनसे जो नमी व ठंडक पैदा होती है, इसे हवा के झौंके पूरे वायुमंडल में बिखेरते हैं। आश्चर्य नहीं कि मई-जून माह की यहां का हरा-भरा शांत एवं शीतल वातावरण प्रकृति प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है।

पशु-पक्षी इस वन के सूक्ष्म परिवेश की शांति व सकारात्मक ऊर्जा को अनुभव करते हैं और अपने रहने के लिए अनुकूल परिवेश पाते हैं। यहां डेढ़ सौ से अधिक पक्षियों का बसेरा है। फरवरी-मार्च माह में इनकी संख्या में विशेष इजाफा रहता है, जब दूरदराज से माइग्रेटरी पक्षी यहां आते हैं। जंगलीजी के पर्यावरण विज्ञान में स्नात्कोत्तर सुपुत्र देव राघवेंद्र इस दौरान पक्षी प्रेमियों के लिए वर्ड वाचिंग व फोटोग्राफी के सत्र भी चलाते हैं। यहां पधारे अनुभवीजनों का कहना है कि यहां के वन की नीरव शांति में स्वच्छंद भाव में विचरण कर रहे पक्षियों की मस्ती भरी चहचहाहट व कीट-पतंगों की झिंगुरी तान के बीच आंख बंद कर कुछ मिनटों का ध्यान किसी नाद योग से कम नहीं लगता।

जंगली जानवर भी यहां आते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से वन के चारों ओर कांटेदार झाड़ियों का बाड़ा लगाया गया है, जिसके कारण एक ओर वन्य जमीन का भू-अपरदन व स्खलन नहीं होता, साथ ही जंगली जानवरों से फसलों के अनावश्यक नुकसान से वचाव होता है। जंगलीजी का मानना है कि जितना अधिक हम वनों में फलदार वृक्ष लगाएंगे, उतने ही वन्यजीव वहां रहेंगे व मानवीय बस्तियों में अनावश्यक हस्तक्षेप की घटनाओं में कमी आएगी।

पहाड़ों में गर्मी के मौसम में आग की जो ज्वलंत समस्या हर वर्ष विकराल रूप ले रही है, इस त्रासदी का भी मिश्रित वन एक प्रभावी समाधान है। इसी मिश्रित वन के समानान्तर यहां सड़क के ऊपर वन विभाग का चीड़ का जंगल है, जो भू-अपरदन की समस्या से ग्रस्त है और गर्मी के मौसम में कब एक चिंगारी इस जंगल में दावानल का रूप ले ले, कुछ कह नहीं सकते। वहीं, सड़क के नीचे जंगलीजी का मिश्रित वन अपनी हरियाली व नमी के चलते ऐसी सम्भावनाओं से दूर है। जंगलीजी के अनुसार जब तक हमारी जैव-विविधता सुरक्षित व संरक्षित नहीं होगी, तब तक हिमालय और गंगा को बचाने की बातें दूर की कौड़ी बनी रहेंगी और जैव-विविधता का पुख्ता आधार मिश्रित वन ही हैं।

इस मिश्रित वन का एक महत्वपूर्ण वाइ-प्रोडक्ट है वन के बीच फूट रहा जल स्रोत्र, जिसका जल इतना स्वादिष्ट व शीतल है कि मिनरल वाटर इसके सामने फीका है। दशकों के पुरुषार्थ से पनपे इस जल स्रोत का जल अमृत-सा प्रतीत होता है। आज जब पहाड़ों में सूखते जलस्रोतों की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, ऐसे में यह प्रयोग प्रत्यक्ष समाधान है, जिसका एक ही संदेश है उपयुक्त वृक्षों का अधिक से अधिक रोपण किया जाए। जल स्रोत व मिश्रित वन के रहते आज गांव की महिलाओं को पशुओं के लिए चारे व पानी के लिए दूरदराज के जंगलों में भटकना नहीं पड़ता।

1974
में जब बीएसएफ का एक जवान जगत सिंह चौधरी रुद्रप्रयाग स्थित कोटमल्ला गांव में अपने घर आया और गांव की महिला को घास व पानी के लिए जंगल में भटकते और पहाड़ से गिरकर चोटिल होते पाया तो युवा हृदय संवेदित व आंदोलित हो उठा था कि इस समस्या का कोई हल ढूंढ़ना है। यहीं से गांव की बंजर भूमि में पौधरोपण का क्रम शुरू होता है। 1980 में पूर्व सेवानिवृत्ति लेकर जगत सिंह पूरी तरह से इस कार्य में जुट जाते हैं। शुरू में गांववासियों को जगत सिंह का यह जुनून पागलपन लगा, लेकिन दशकों के श्रम के बाद जब जंगल हरी घास व वृक्षों के साथ लहलहाने लगा तो गांववासियों की धारणा बदलने लगी। पहली बार 1993 में जब किसी पत्रकार की नजर जगत सिंह के जंगल पर पड़ती है तो यह प्रयोग अखबार की सुर्खी बनता है।

बंजर भूमि में पनपते हरे-भरे वन को देखकर गांववासियों को जंगली होने का महत्व समझ आया और जंगली नाम से इन्हें पुरस्कृत किया। आज जंगली उपनाम जगत सिंह चौधरी की पहचान हैै। पर्यावरण के क्षेत्र में अपने योगदान के चलते जंगलीजी आज उत्तराखण्ड के ग्रीन अम्बेसडर हैं, पर्यावरण से जुड़े तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं। पुरस्कार से प्राप्त राशि को जंगलीजी स्थानीय युवाओं को इसमें नियोजन करते हुए वन के विकास में लगा रहे हैं। उत्तराखण्ड सहित पड़ोसी पहाड़ी राज्यों व देश के विभिन्न क्षेत्रों में इनके प्रयोग को आजमाया जा रहा है। इनके पुत्र देव राघवेंद्र पिता के कार्य़ को वैज्ञानिक आधार पर आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं।
इसी सप्ताह उत्तराखण्ड सरकार ने जंगलीजी को अपने वन विभाग का ब्रांड अम्बेसडर नियुक्त किया है, जिनके मार्गदर्शन में उत्तराखण्ड के हर जिले में मिश्रित वन का एक-एक मॉडल वन तैयार किया जाएगा।

पूछने पर कि ऐसे प्रयोग के लिए धन व साधन कैसे जुटते हैं, जंगलीजी का सरल-सा जवाब रहता हैप्रकृति से जुड़कर नि:स्वार्थ भाव से कार्य करो, बाकी प्रकृति पर छोड़ दो। नि:संदेह रूप में ऐसे संवेदनशील हृदयों से ही आज की पर्यावरणजनित समस्याओं के समाधान फूटने हैं, क्योंकि प्रकृति को अनुभव किए बिना पर्यावरण संरक्षण की बातें अधूरी रहेंगी। ऐसे में हम जड़ों का उपचार किए बिना महज पत्तियों व टहनियों को सींचने की कवायद कर रहे होंगे। (दैनिक ट्रिब्यून, चण्डीगढ़, 9 जूलाई,2018 को प्रकाशित)
 
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