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रविवार, 31 दिसंबर 2023

मेरी चौथी झारखण्ड यात्रा, भाग-2

 

सुवर्णरेखा के संग टाटानगर से राँची का सफर

कुछ घंटे जमशेदपुर में नींद पूरा करके तरोताजा होने के बाद प्रातः 7 बजे हम टाटानगर से राँची की ओर चल पड़ते हैं। यात्रा में एक नया अनुभव जुड़ने वाला था, साथ ही आवश्यक कार्य की पूर्णाहुति भी होने वाली थी। बस स्टैंड तक पहुँचते-पहुँचते राह में जमशेदपुर में टाटा उद्योग का विस्तार देखा और समझ आया कि इसे टाटानगरी क्यों कहते हैं, अगले 3-4 दिनों यहीं प्रवास का संयोग बन रहा था, जिसमें थोड़ा और विस्तार से इसके अवलोकन का संयोग बन रहा था, जिसकी चर्चा एक अलग ब्लॉग में की जाएगी।

बस स्टैंड से हम बस में चढ़ जाते हैं और रास्ते में दायीं ओर एक शांत-स्थिर नदी के किनारे आगे बढ़ते हैं।

सुवर्णरेखा नदी को पार करते हुए, टाटानगर से राँची

देखकर सुखद आश्चर्य़ हो रहा था कि शहर इतनी सुंदर नदी के किनारे बसा है। नदी के साथ शहर के मायने बदल जाते हैं। जिन शहरों में नदी का अभाव रहता है, वहाँ कुछ मौलिक कमी खटकती रहती है, यथा चण्डीगढ़, नोएडा, दिल्ली, शिमला, मसूरी जैसे शहर तमाम खूबियों के वावजूद बिना नदी के कुछ अधूरे से लगते हैं।
सुवर्णरेखा नदी के बारे में स्थानीय लोगों से चर्चा व कुछ सर्च करने पर पता चला की यह नदी 395 किमी लम्बी है, जो राँची के पास छोटा नागपुर क्षेत्र के एक गाँव से निस्सृत होती है और झारखण्ड, पश्चिमी बंगाल औऱ उड़ीसा को पार करती हुई आखिर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इस नदी के रेतीय तटों में स्वर्ण के कण मिलने के कारण इसका नाम स्वर्णरेखा नदी पड़ा। हालाँकि इसके किनारे अत्यधिक खनिजों के उत्खनन तथा शहरी प्रदूषण के कारण इसकी निर्मल धार मैली हो चली है, लेकिन स्वर्ण रेखा के रुप में इसकी पहचान इसको विशिष्ट बनाती है, जिसकी निर्मलता पर ध्यान देने की जनता व सरकारी हर स्तर पर आवश्यकता है।
नीचे के वीडियो में चलती बस से लिए गए दृश्य के संग स्वर्णरेखा नदी की झलक ले सकते हैं -

कुछ मिनट के बाद पुल से इस नदी को पारकर बस शीघ्र ही शहर के बाहर हो जाती है, आगे हरे-भरे पहाड़ों के बीच हम बढ़ रहे थे। बाद में पता चला की यह शांत नदी यहाँ की ऐतिहासिक स्वर्ण रेखा नदी है, जिसमें स्वर्ण की प्रचुरता के कारण इसका यह नाम पड़ा। संभवतः यहाँ के आदिवासी नायक बिरसा मुण्डा को समर्पित चौराहे से हम वांय मुड़ते हैं।


दायां मार्ग संभवतः डिम्णा झील की ओर जा रहा था, जो यहाँ की एक मानव निर्मित झील है और पर्यटन का एक प्रमुख आकर्षण भी, जिसकी चर्चा हम दूसरे ब्लॉग में करेंगे।

अब हम टाटानगर-राँची एक्सप्रेस हाइवे पर आगे बढ़ रहे थे। फोर लेन के स्पाट, सुव्यस्थित एवं सुंदर सड़क पर बस सरपट दौड़ रही थी। स्वर्णरेखा नदी की हल्की झलक बायीं और पुनः राह में मिलती है। फिर संकड़ी पहाड़ियों के बीच बस आगे घाटी में प्रवेश करती है। अब हम कोडरमा वन्य अभयारण्य के बीच से गुजर रहे थे, जिसका प्रवेश द्वारा भी रास्ते में दायीं और दिखा, जो अन्दर 2 किमी दर्शा रहा था। इसमें अन्दर क्या है, यह अगली यात्राओं के लिए छोड़कर हम आगे बढ़ रहे थे।

बीच-बीच में टोल-प्लाजा के दर्शन हो रहे थे, जो नवनिर्मित एक्सप्रेस हाइवे की यादें ताजा कर रहे थे। यही स्थिति हरिद्वार से देहरादून, हरिद्वार से अम्बाला-चण्डीगढ़ एक्सप्रैस वे पर देखने को मिलती है। मालूम हो कि राँची-टाटानगर एक्सप्रेस वे तीन वर्ष पहले ही बनकर तैयार हुआ है। पहले इस रास्ते में 4-5 घंटे लगते थे, आज मात्र 2 घंटे में हमारी यात्रा पूरी हो रही थी। निश्चित रुप से अपने भव्य सड़क निर्माण के लिए सरकार का राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण साधुवाद का पात्र है, जो देशभर में विकास की नई पटकथा लिख रहा है।

रास्ते में जंगल के साथ तलहटी में खेतों से पटी घाटियों के दर्शन होते रहे, जिसमें प्रातः कुछ-कुछ किसान सक्रिय थे, लेकिन दोपहर की बापिसी तक इसमें बच्चों, महिलाओं व युवाओं के समूह भी जुड़ चुके थे, जिनके समूहों में दर्शन हो रहे थे। कुछ खेत में काम कर रहे थे, कुछ भेड़-बकरियों व गाय को चरा रहे थे, कुछ धान की फसल काट रहे थे, तो कहीं-कहीं फसल की थ्रेशिंग हो रही थी, बोरों में धान पैक हो रहा था तथा कहीं-कहीं खेत के किनारे ही बोरियों में धान लोड़ हो रहा था, कुछ सड़कों के किनारे संभवतः आगे मार्केट के लिए बोरियों के ढेर जमा कर रहे थे। पहली यात्रा के दौरान धनवाद-राँची के बीच जितने जल स्रोत मिले थे, इतने तो इस सीजन में इस मार्ग में नहीं दिखे, लेकिन रास्ते में दो मध्यम आकार की नदियों के दर्शन अवश्य हुए।


ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के दर्शन, बीच-बीच में मन को रोमाँचित करते रहे, सहज ही गृह प्रदेश के गगनचुंबी पहाडों से इनकी तुलना होती रही। नजदीक जाकर इनको देखने का मन था कि इसमें लोग कैसे रहते होंगे। निश्चित रुप से इनमें आदिवासियों की गाँव-बस्तियाँ बसी होंगी, जो इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। रास्ते में चट्टानी पहाड़ जगह-जगह ध्यान आकर्षित करते रहे।



खनिज भंडार से सम्पन्न झारखण्ड के पहाड़ों में यह कोई नई बात नहीं थी। इनमें कौन से खनिज होंगे, ये तो क्षेत्रीय लोग व विशेषज्ञ ही बेहतर बता सकते हैं। हम तो अनुमान भर ही लगाते रहे।

रास्ते में राँची के समीप (लगभग 30 किमी दूर) नवनिर्मित हनुमानजी व काली माता के मंदिरों का युग्म ध्यान आकर्षित किया, जो सामान्य से हटकर प्रतीत हो रहा था।


बाद में पता चला कि यह घाटी सोशल मीडिया में चर्चा का विषय रहती है, यहाँ टाइम जोन बदल जाता है। कुछ यहाँ भूतों की कहानियां जोड़ते हैं, जहाँ भयंकर दुर्घटनाएं होती रही हैं। वैज्ञानिक का मानना है कि यहाँ संभवतः धातु के पहाडों के कारण कई तरह की अजूबी घटनाएं व दुर्घटनाएं होती होंगी। जो भी हो मंदिर बनने के बाद से मान्यता है कि ऐसी दुर्घटनाओं में कमी आई है।

दो घंटे में हम राँची के समीप पहुँच रहे थे, रास्ते में दशम जल प्रपात का बोर्ड़ मिला। समय अभाव के कारण अभी इसके दर्शन नहीं कर सकते थे, जिसे अगली यात्रा की सूचि में डाल देते हैं। अपने गन्तव्य पर बस से उतरकर ऑटो कर ग्रामीण आंचल में स्थित अकादमिक संस्थान तक पहुँचते हैं। रास्ते में स्थानीय ढावे में पत्ते के ढोने में जलेवी को परोसने का इको-फ्रेंडली अंदाज सराहनीय लगा।


यहाँ के विश्वविद्यालय के नए परिसर को बनते देख प्रसन्नता हुई। नौ वर्ष पूर्व जो विश्वविद्यालय किसी किराए के भवन से चल रहा था, आज वह स्वतंत्र रुपाकार ले रहा था। साथ ही यहाँ एनईपी (नई शिक्षा नीति) को चरणवद्ध रुप से लागू होते देख अच्छा लगा।

बापिसी में रास्ते में चाय-नाश्ते के लिए एक ढावे पर बस रुकती है। बाहर एक क्षेत्रिय महिला ने ताजा सब्जियों व दालों के पैकेटों से भरी दुकान सजा रखी थी, जिसमें क्षेत्रीय उत्पादों का बहुत सुंदर प्रदर्शन किया हुआ था।


यहीं पर एक क्षेत्रीय परिजन से चर्चा करने पर पता चला कि यहाँ इस समय धान की फसल तैयार हो चुकी है व इसकी खेती हो रही है। थोड़ी ही दूरी पर एक नदी भी यहाँ बहती है। फलों का चलन यहाँ कम दिखा, सब्जियों का उत्पादन आवश्यकता के अनुरुप होता है। शहर की आवश्यकता को पूरा करने के हिसाब से शहरों के बास के गाँव में अधिकाँशतः सब्जि उत्पादन होता है।


बापिसी में रांची से लेकर टाटानगर को दायीं ओऱ से देखने का मौका मिला, जिसमें सुंदर पहाड़ों, छोटी-बड़ी घाटियों, खेल-खलिहानों व गाँवों के सुन्दर नजारों को देखता रहा और यथासंभव मोबाइल से कैप्चर करता रहा। 

रास्ते में क्षेत्रीय परिजन, स्कूल के छात्र-छात्राएं बसों में चढ़ रहे थे। एक सज्जन टाटानगर आ रहे थे, इनसे चर्चा के साथ यहाँ की मोटी-मोटी जानकारियां मिलती रहीं और हम अपनी जिज्ञासाऔं को शांत करते रहे।

इस राह के प्राकृतिक सौंदर्य से जुड़ी सुखद स्मृतियों गहरे अंकित हो रही थीं। हालाँकि सरकारी या प्राइवेट बाहनों में सफर की अपनी सीमा रहती है, इनमें बैठे आप एक सीमा तक ही अपनी खिड़की की साइड से ही नजारों को देख सकते हैं या कैप्चर कर सकते हैं। अपने स्वतंत्र वाहन में रास्ते का अलग आनन्द रहता है, जिसमें आप दृश्यों का पूरा अवलोकन कर सकते हैं तथा जहाँ आवश्यकता हो वहाँ रुककर मनभावन दृश्यों के फोटो या विडियोज बना सकते हैं।


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