मेरी जंग-ऐ-लड़ाई

ऐ जमाने, ऐ दुनियाँ, नहीं कोई बड़ी शिकायत-गिला-शिक्वा तुमसे मेरा, पूरी इज्जत करता हूँ मैं तेरी तेरे अधिकार, तेरी स्वतंत्रता, तेरी निजता की, कोई अपमान का ईरादा नहीं है हमारा। लेकिन झूठ के औचक प्रहार खाकर, तिलमिला जाता हूँ अभी, प्रत्युत्तर देना नहीं आता झूठ के स्तर पर गिरकर, किंतु झूठ का प्रत्युत्तर अपने स्तर से, अपने ढंग से देना, फर्ज मानता हूँ अपना, नहीं देना चाहता जिसकी अधिक सफाई। जानता हूँ नहीं कोई परमहंस भगवान इस जग में, हर इंसान है पुतला गल्तियों का, अज्ञात से संचालित, फिर सबकी अपनी अतृप्त इच्छाएं, कामनाएं अधूरी, चित्त के विक्षोभ, द्वन्द, कुँठा, घाव संग अपनी मजबूरी, अपने ढंग से उलझा है खुद से हर इंसान, हैं सबके अपने गम घनेरे, और गहरा नहीं करना चाहता हूँ इनको अपने कर्म से। फिर हर इंसान की अपनी मंजिल अपना सफर, नहीं किसी से तुलना-कटाक्ष में है बड़ी समझ, है सबका अपना मौलिक सच, मौलिक झूठ, चित्त की शाश्वत वक्रता, अंतर की अतल गहराई, हैं सबके सामने शिखर आदर्शों के उत्तुंग पड़े अविजित, ऐसे में किसको करुं तलब, किससे माँगू विफलता क