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सोमवार, 28 अप्रैल 2014

दुनियां को हिलाने जो मैं चला

सार्थक परिवर्तन का सच
 
जवानी के जोश में होश कहाँ रहता है। सो इस जोश में दुनियाँ को बदलने, समाज में क्राँति-महाक्राँति की बातें बहुत भाती हैं। और वह जवानी भी क्या जो एक बार ऐसी धुन में न थिरकी हो, ऐसी रौ में न बही हो। हम भी इसके अपवाद नहीं रहे। स्वामी विवेकानंद के शिकागो धर्मसभा के भाषण का संस्मरण क्या पढ़ा कि, अंदर बिजली कौंध गई, लगा कि हम भी कुछ ऐसी ही क्राँति कर देंगे। दुनियाँ को हिला कर रख देंगे।

आदर्शवाद तो जेहन में नैसर्ग से ही कूट कर भरा हुआ था, दुनियाँ को बेहतर देखने का भाव भी प्रबल था। लेकिन अपने यथार्थ से अधिक परिचति नहीं थे। सो चल पड़े जग को हिलाने, दुनियाँ को बदलने। घर परिवार, नौकरी छोड़ भर्ती हो गए युग परिवर्तन की सृजन सेना में। धीरे-2 गुरुजनों, जीवन के मर्मज्ञ सत्पुरुषों के सतसंग, स्वाध्याय व आत्म मंथन के साथ स्पष्ट हो चला की क्रांति, परिवर्तन, दुनियाँ को हिलाने का मतलब क्या है। इसके साथ दुनियाँ को हिलाने की बजाए खुद को हिलाने वाले अनगिन अनुभवों से भी रुबरु होते रहे।


   समझ में आया कि, दुनियाँ को हिलाने से पहले खुद को हिलाना पड़ता है, दुनियाँ को जगाने से पहले खुद जागना पड़ता है। और खुद को बदलने की प्रक्रिया बहुत ही धीमी, समयसाध्य और कष्टसाध्य है। रातों रात यहां कुछ भी नहीं होता। जो इस सत्य को नहीं जानते, वे छड़ी लेकर दुनियाँ को ठीक करने चल पड़ते हैं। खुद बदले या न बदले दूसरों को बदलते फिरते हैं और दुनियाँ के न बदलने पर गहरा आक्रोश व मलाल पाले रहते हैं। और प्रायः गहन असंतोष-अशांति में जीते देखे जा सकते हैं।

   जबकि सच्चाई यह है कि संसार को बदलने की प्रक्रिया खुद से शुरु होती है। हम दुनियां में उसी अनुपात में कुछ बदलाव कर सकते हैं, जितना की हमने स्वयं पर सफल प्रयोग किया हो। समाज का उतना ही कुछ भला कर सकते हैं, जितना कि हमने खुद का किया हो। हम कितने ही प्रवचन-कथा कर लें, कितने ही लेख-शोध पत्र छाप लें, कितनी ही पुस्तकें प्रकाशित कर डालें, लेकिन यदि अंतस अनुभूति से रीता है तो इनका अधिक मोल नहीं। अंतर आपा यदि अकालग्रस्त है, तो इसमें सुख शांति के फूल कैसे खिल सकते हैं, भीतर के पतझड़ में वासंती व्यार कैसे बह सकती है व आनंद के झरने कैसे फूट सकते हैं।

   चातुर्य, अभिनय के बल पर या संयोगवश हम दुनियां में बड़ी उपलब्धि पा सकते हैं और अपनी तथाकथ महानता की दमक से जनता की आँखों को चौंधिया सकते हैं। लेकिन, बाहरी जीवन की कितनी भी बड़ी उपलब्धि भीतर के सुखेपन को नहीं भर सकती। हम दुनियां का सबसे शक्तिशाली नेता-अभिनेता, सबसे दौलतमंद, सफल व शक्तिशाली व्यक्ति ही क्यों न बन जाएं, लेकिन यदि अंतःकरण सार्थकता की अनुभूति से शून्य है तो यह सूनापन खुद को कचोटता-काटता फिरेगा। क्योंकि अपनी अंतरात्मा अंतर के सच को बखूबी जानती है।

   तो क्यों न हम अंतर के छल-छद्म, झूठ-पाखण्ड की अंधेरी दुनियां से बाहर निकल कर सरलता-सच्चाई व अच्छाई के प्रकाश मार्ग पर बढ़ चलें। सच की आंच में खुद को तपाते हुए, अपने भूत को गलाते हुए, सृजन के पथ पर पर अग्रसर हों। नित्य अपनी दुर्बलताओं पर छोटी-छोटी विजय पाते हुए अंतर के अंधेरे कौने-कांतरों को प्रकाशित करते चलें। और समस्याओं से भरे इस संसार में समाधान का एक हिस्सा बनकर जीने का एक अकिंचन सा ही सही किंतु एक मौलिक योगदान दें।

   यदि इतना बन पड़ा तो समझो कि जीवन का एक नया अध्याय शुरु हो गया। तो क्यों न आज अभी से, जहां खड़े हैं वहीं से खुद को बदलने की एक छोटी सी ही सही किंतु एक ठोस शुरुआत कर दें। दुनियाँ कब बदलती है, कब हिलती है, नहीं कह सकते, लेकिन यदि खुद को बदलना शुरु कर दिया तो समझो की अपनी दुनियां तो बदल चली। और फिर ऐसा हो ही नहीं सकता कि परिर्वतन के लिए मचल रही आत्माएं आपकी चिंगारी से सुलगे बिना रह सकें।

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