संदेश

नवंबर 12, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मेरी यादों का पहाड़ - झरने के पास, झरने के उस पार, भाग-2 (समापन किश्त)

चित्र
  बचपन की मासूम यादें और बदलते सरोकार (गांव के नाले व झरने से जु ड़ी बचपन की यादें पिछली ब्लॉग पोस्ट में शेयर हो चुकी हैं।) इनके पीछे के राज को जानने की चिर-इच्छा को पूरा करने का सुयोग आज बन रहा था। सुबह 6 बजे चलने की योजना बन चुकी थी। सो उठकर सुबह की चाय के साथ हम मंजिल के सफर पर चल पड़े। आज उपवास का दिन था , सो झोले में अपनी स्वाध्याय-पूजा किट के साथ रास्ते के लिए अखरोट, सेब, जापानी फल जैसे पाथेय साथ लेकर चल पड़े।  आज हम उसी रास्ते से दो दशक बाद चल रहे थे, जिस पर कभी गाय भेड़ बकरियों के साथ हम छुट्टियों में जंगल के चरागाहों, घाटियों, वुग्यालों में जाया करते थे। अकसर जुलाई माह में 1-2 माह की छुट्टियां पड़ती, तो गाय चराने की ड्यूटी मिलती। आज दो दशकों के बाद इलाके के मुआयने का संयोग बन रहा था, सो आज इस अंतराल में आए परिवर्तन को नजदीक से देखने-अनुभव करने का दिन था। घर से पास में सटे न े उंड़ी-सेरी गांव से गुजरते हुए आगे के विराने में पहुंचे। गांव में सभी घर पक्के दिखे। साफ सुथरे, रंगों से सजे, आधुनिक तौर तरीकों से लैंस। विकास की व्यार यहाँ तक साफ पहुंची दिख रही थी।