गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक


यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं और वह भी पहाड़ों में और हिमालय की वादियों में, तो यह पुस्तक – हिमालय की वादियों में आपके लिए है। यह पुस्तक उत्तराखण्ड हिमालय और हिमाचल प्रदेश की वादियों में लेखक के पिछले तीन दशकों के यात्रा अनुभवों का निचोड़ है, जिसे 36 अध्यायों में बाँटा गया है। इसमें आप यहाँ की दिलकश वादियों, नदियों-हिमानियों, ताल-सरोवरों और घाटियों के प्राकृतिक सौंदर्य से रुबरु होंगे। हिमालय की विरल ऊँचाईयों में ट्रैकिंग, एडवेंचर और पर्वतारोहण का रोमाँचक अहसास भी आपको इसमें मिलेगा।

इसके साथ इन स्थलों की ऐतिहासिक, पौराणिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विशेषताओं से भी आप परिचित होंगे। इन क्षेत्रों की ज्वलंत समस्याओं व इनके संभावित समाधान पर एक खोजी पत्रकार की निहारती दृष्टि भी आपको इसमें मिलेगी। और साथ में मिलेगा घूम्मकड़ी के जुनून को पूर्णता का अहसास देता दिशा बोध, जो बाहर पर्वतों की यात्रा के साथ आंतरिक हिमालय के आरोहण का भी गाढ़ा अहसास दिलाता रहेगा। इस तरह यह पुस्तक आपके लिए एक रोचक, रोमाँचक और ज्ञानबर्धक मानस यात्रा का निमन्त्रण है।

मूलतः हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला के एक गाँव से सम्बन्ध रखने वाले यात्रा लेखक अपनी मातृभूमि के कई अनछुए पहलुओं का इन यात्रा वृतांत के माध्यम से सघन एवं गहन परिचय करवाते हैं। कुल्लू-मानाली-वशिष्ट-नग्गर-मणिकर्ण जैसे यहाँ के प्रचलित स्थलों के साथ वे बिजली महादेव, जाणा, भौसा-गड़सा घाटी तथा मानाली घाटी के कई कम परिचित तथ्यों से भी सघन परिचय करवाते हैं। 

इस क्रम में मानाली के पास स्थित अटल विहारी पर्वतारोहण संस्थान के साथ सोलाँग घाटी, रोहताँग पास, कैलांग, त्रिलोनाथ, उदयपुर, दारचा, जिंगजिंगवार, सूरजताल, वारालाचा जैसे इलाकों की रोमाँचक यात्राएं पाठकों को हिमालय के बर्फीले टच का गहरा अहसास दिलाती हैं। 

हिमाचल की राजधानी शिमला के अंदर एवं आसपास टैकिंग से लेकर तीर्थाटन (कुफरी, चैयल, मशोवरा, नारकण्डा, सराहन) के रोचक पहलुओं को यहाँ पढ़ा जा सकता है। शोध-अध्ययन प्रेमियों के लिए शिमला स्थित उच्च अध्ययन संस्थान व आसपास के विश्वविद्यालयों का परिचय एक ज्ञानबर्धक अनुभव रहता है। इसके साथ मण्डी जिला के पराशर झील एवं शिमला से कुल्लू वाया जलोड़ी पास जैसे रुट यात्रा एक नया अनुभव देते हैं।

पिछले तीन दशकों से धर्मनगरी हरिद्वार लेखक की कर्मभूमि रही है। यहाँ से कवर हुए उत्तराखण्ड के दर्शनीय स्थलों की यात्राओं के फर्स्टहेंड अनुभव पाठकों का गढ़वाल हिमालय के गाढ़ा परिचय करवाते हैं। खासकर हरिद्वार-ऋषिकेश तथा बद्रीनाथ, केदारनाथ, तुंगनाथ एवं हेमकुण्ड साहिब की राह में पड़ने वाले अहं तीर्थस्थल एवं घाटियाँ इसमें कवर की गई हैं। जिसमें नीलकंठ महादेव से लेकर कुंजा देवी, सुरकुण्डा देवी, टिहरी, मसूरी, देहरादून, श्रीनगर, हरियाली देवी, देवप्रयाग, चोपता जैसे स्थल स्वाभाविक रुप से दर्शकों को राह में मिलेंगे। हिमालय के इस क्षेत्र में पर्यावरण, विकास एवं जैव विविधता को लेकर चल रहे प्रेरक प्रयोगों को पढ़कर पाठक अपना ज्ञानबर्धन कर सकते हैं। इन यात्राओं में अधिकाँश पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग तथा देवसंस्कृति विवि के विद्यार्थियों के संग शैक्षणिक भ्रमण के तहत संम्पन्न हुए थे, अतः ये अपना शैक्षणिक महत्व भी लिए हुए हैं।

इसी कड़ी में कुमाउँ हिमालय का मुयाइना करता सफर भी पुस्तक की खासियत है, जिससे पुस्तक की शुरुआत होती है। अपने शोधछात्र के साथ विकास का मुआइना करता यह सफर कुमाउँ हिमालय के अल्मोड़ा, दोलाघट, मुनस्यारी, रानीखेत, नैनीताल जैसे दर्शनीय स्थलों के साथ राह में पड़ती घाटियों एवं पड़ावों से पाठकों का साक्षात्कार करवाता है।

इस तरह हिमालय की वादियों में पुस्तक में पाठक उपरोक्त स्थलों के प्राकृतिक सौंदर्य, भौगोलिक विशेषताओं, स्थानीय इतिहास, लोक जीवन, धर्म-अध्यात्म, संस्कृति और विकास सम्बन्धी रोचक, रोमाँचक तथा ज्ञानबर्धक जानकारियों से रुबरु होंगे। हिमाचल और उत्तराखण्ड में सम्पन्न इन यात्राओं में यहाँ के हिमालयन क्षेत्रों के विकास से जुड़े कई प्रश्न, संभावित समाधान एवं अनुत्तरित पहलु पाठकों को कुछ सोचने-विचारने तथा कुछ करने के लिए प्रेरित करेंगे।

पुस्तक की भूमिका में हिंदी के यशस्वी साहित्यकार एवं आचार्य प्रो.(डॉ.) दिनेश चमौला शैलेशजी के शब्दों में -  'हिमालय की वादियों में' पुस्तक कुछ ढूंढने की खोज में निकले सुखननंदन सिंह की जिज्ञासु भटकनों व खोजी पत्रकार के साथ-साथ जीवन व स्थल के रहस्यों की पड़ताल की चाह लिए लोकानुभूतियों का लेखा-जोखा है, जिसमें उनके नसमझे को समझने का प्रयास, देखे हुए को बड़ी भावप्रवणता में कह पाने की छटपटाहट, कहीं भौगोलिकता के परिष्करण के सुझाव, कहीं लोक की कोख से दिग्दर्शित भावों को हूबहू पाठक समुदाय तक पहुंचाने की बेचैनी के परिणामस्वरूप है यह पुस्तक। कहीं सुखनंदन का जोगी मन यात्रा के मूल को तलाशता प्रकृति में ही तल्लीन होता प्रतीत होता है तो कहीं जिज्ञासा का असीम क्षितिज ससीम में बंध जाने के लिए आतुर दिखाई देता है। कहीं देखे को हूबहू न कह पाने तथा कहीं न देखे को देख पाने की बेचैनी यात्रा वृतांत को अधिक रोचक व रहस्यपूर्ण बनाती है। हिमाचल व उत्तराखंड (गढ़वाल हिमालय व कुमांऊ हिमालय) के अनेक पर्यटन स्थलों, मंदिरों, देवतीर्थों तक हो आने का लेखा-जोखा उनकी अध्यात्म प्रेरित प्रवृत्ति को भी द्योतित करता है। कैमरे की आंख से चित्रित रूपकों को अभिव्यक्ति की शब्द-संपदा की रज्जु में पिरोने का यथासंभव प्रयास किया है सुखनंदनजी ने। अनुभव की दमक से अनुभूति की चमक शनै-शनै परिष्कृत होती है।

पुस्तक के संग लेखक हिमालय की वादियों में भ्रमण, घुमक्कड़ी, एडवेंचर और तीर्थाटन के लिए पाठकों का भावभरा आवाह्न करता है, इस कामना एवं प्रार्थना के साथ कि हिमध्वल हिमालय की आत्मस्थ, अंतस्थ एवं अड़िग, भव्य एवं दिव्य उपस्थिति सबको आंतरिक हिमालय के आरोहण की सतत प्रेरणा देती रहे। और इसका दिव्य स्पर्श पाकर इसकी गोद में विचरण करने वाले हर यात्री, तीर्थयात्री, घुम्मकड़, यायावर, खोजी, पर्वतारोही, शोधार्थी, नागरिक एवं प्राणी का जीवन सुख, सौंदर्य, संतुष्टि, आनन्द एवं परमशांति की ओर अग्रसर हो।

एविंससपब पब्लिशिंग (Evincepub Publishing) से प्रकाशित यह पुस्तक अमेजन, बसपकार्ट (BSPKART), फ्लिपकार्ड, गूगल, कोवो, किंडल आदि प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

यात्रा वृतांत – विंध्यक्षेत्र के प्रवेश द्वार में

 

बाबा चौमुखनाथ के देश में

विंध्यक्षेत्र के प्रवेश द्वार सतना में पहुँचने से लेकर इसके आसपास के दर्शनीय स्थलों का अवलोकन पिछले ब्लॉग में हो चुका है। इस कड़ी में अब चित्रकूट एवं चौमुखनाथ का वर्णन किया जा रहा है। हालाँकि इस बार कोरोनाकाल में चित्रकूट की यात्रा संभव न हो सकी, लेकिन चौमुखनाथ के एकांत-शांत ऐतिहासिक तीर्थस्थल की यात्रा, इस बार की विशिष्ट उपलब्धि रही। चित्रकूट तीर्थ का अवलोकन हम दो दशक पूर्व की यात्रा में किए थे, यहाँ उस का भावसुमरण करते हुए इसके प्रमुख स्थलों का जिक्र कर रहा हूँ। शायद नए पाठकों के लिए इसमें कुछ रोचक एवं ज्ञानबर्धक बातें मिले।

चित्रकूट सतना से 78 किमी दूरी पर स्थित है। धार्मिक महत्व के इस तीर्थस्थान का कुछ भाग मप्र में पड़ता है तथा कुछ भाग उप्र में। मालूम हो कि चित्रकूट के घने जंगलों में ही कामदगिरि पर्वत शिखर पर भगवान राम, सीता माता और भाई लक्ष्मण ने वनवास के चौदह वर्षों के साढ़े ग्यारह वर्ष बिताए थे।

इसी पुण्यभूमि में महान ऋषि अत्रि एवं सती अनुसूईया और इनकी गोद में त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश की लीला कथा घटित हुई थी।


सती अनुसूइया के तप से यहीं पर पयस्विनी नदी (जिसका दूसरा नाम मंदाकिनी भी है) का उद्गम हुआ माना जाता है। इसके साथ भगवान दतात्रेय, महर्षि मार्कंडेय, सरभंगा, सुतीक्ष्ण और अन्य ऋषि, मुनि, भक्त और विचारकों की साधना स्थली के रुप में यह क्षेत्र साधना के प्रचण्ड संस्कार लिए हुए है। हालाँकि मानवीय हस्तक्षेप एवं लापरवाही के चलते इसका स्थूल स्वरुप काफी दूषित हो चला है, लेकिन आस्थावानों के लिए इसका महत्व मायने रखता है।

मंदाकिनी नदी पर आगे रामघाट बना हुआ है। यहीं पर बाबा तुलसीदास को हनुमानजी के माध्यम से अपने आराध्य श्रीराम के दर्शन हुए थे। चौपाई प्रसिद्ध है कि चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीड़, तुलसीदास चंदन घिसैं, तिलक देत रघुवीर।


यहीं आसपास रामपंचायत के पात्रों से जुड़े भरत मिलाप मंदिर
, चित्रकूट जलप्रपात, जानकी कुंड, गुप्त गोदावरी, पंपापुर, हनुमान धारा जैसे स्थल मौजूद हैं, जिनका भावभरा दर्शन तीर्थयात्रियों की रामायणकालीन स्मृतियाँ जीवंत हो उठती हैं। इनमें गुप्त गोदावरी की गुफा स्वयं में एक अद्भुत एवं विलक्ष्ण रचना है, जहाँ सीता माता ने कुछ समय बिताया था। माना जाता है कि मय दानव ने इस गुफा का निर्माण किया था। 

पास में ही कामदगिरि पर्वत पड़ता है, जिसकी पावन परिक्रमा श्रद्धालुओं के बीच प्रख्यात है। चित्रकूट में ही भारत रत्न नाना देशमुखजी द्वारा स्थापित भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय पड़ता है, जिसे 1991 में स्थापित किया गया था।

इन स्थलों के अतिरिक्त सतना जिला में कुछ अन्य रामायणकालीन स्थल हैं। गृद्धराज पर्वत, सतना जिले की रामनगर तहसील के देवराजनगर गाँव में स्थित धार्मिक, पुरातत्व और पारिस्थितिक महत्व की पहाड़ी है। यह रामनगर शहर से 8 किमी दूर स्थित है। इसे गिद्धराज जटायु के भाई संपति का जन्मस्थान माना जाता है। कवि कालिदास ने अपनी पुस्तक गिद्धराज महात्म्य में लिखा है कि 2354 फीट की ऊंचाई पर स्थित गिद्धराज पर्वत से निकलने वाली मानसी गंगा नदी में एक डुबकी लगाने से सभी तरह के पाप खत्म हो जाते हैं। शिव संहिता में भी इसका उल्लेख है। चीनी यात्री फाह्यान ने भी अपने यात्रा विवरण में इसका उल्लेख किया है।

विन्ध्य पर्वत श्रेणियों के बीच सतना से पहले एनएच-75, और फिर नागोद कस्बे के आगे जसो होते हुए एनएच-943 पर पड़ता है - सलेहा क्षेत्र के नचना गाँव में स्थित - चौमुखनाथ शिव मंदिर। जो अपनी तरह का स्वयं में एक अद्वितीय शिवमंदिर है। 

इस परिसर में पार्वती मंदिर भी है, बिना शिखर शैली का स्पाट छत बाला यह मंदिर, सबसे प्राचीन मंदिरों में आता है, जिसे गुप्तकाल में पाँचवी सदी में बनाया गया था। इसी तरह नागरा शैली की शिखर कला से युक्त चौमुखनाथ मंदिर पांचवी से सातवीं सदी में बनाया माना जाता है। माना जाता है कि इसे प्रतिहार राजवंश के काल में बनाया गया था। दोनों मंदिर खालिस पत्थर के बने हैं।

परिसर में गोमुख से पहाड़ों का शुद्ध, शीतल व मीठा जल आता है। आप इस पानी को पी सकते हैं व इसमें नहा भी सकते हैं। विशाल वट, पीपल, ईमली आदि के प्राचीन वृक्षों से घिरा परिसर का प्राकृतिक नजारा बेहद खूबसूरत लगता है। यहां पर एक वॉच टावर भी बना हुआ है, जिससे आप यहां के चारो तरफ के खूबसूरत नजारों का विहंगावलोकन कर सकते हैं।

मंदिर ऊँचे चबूतरे पर बना है। गेट पर दो शेर स्वागत करते हुए प्रतीत होते हैं। द्वार पर विष्णु-लक्ष्मीं एवं द्वारपाल की प्रस्तर प्रतिमाएं दिवार में टंगी हैं। चौमुखनाथ मंदिर के शिवलिंग में चारों और शिव के चार विभिन्न भावों को दर्शाते विग्रह एक ही पत्थर से उकेरे गए हैं। प्रवेश करते ही सामने चंद्रमाँ को धारण किए विवाह के समय के सौम्य शिव, इसके वाईं ओर विषपान के समय का विकराल भाव, इसके आगे समाधि का शांत भाव और अंत में शिव का अर्धनारिश्वर रुप। 

यहाँ के एकांत परिसर में श्रद्धालु भजन-पूजन एवं ध्यान के कुछ यादगार पल बिता सकते हैं। शिव के चारमुखों के साथ जीवन, सृष्टि एवं जीवात्मा के चार आयामी रहस्यों पर चिंतन-मनन करते हुए जीवन का सम्यक दर्शन प्रकट होता है, जिसे अनुभव कर आस्थावान तीर्थयात्री जीवन को सफल एवं धन्य अनुभव करते हैं।

चोमुख्ननाथ मन्दिर के सामने ही पहाड़ी के बीच प्राचीन जैन गुफा मंदिर श्रेयांसगिरी भी मौजूद है। समय हो तो इसके दर्शन किए जा सकते हैं। यहाँ चाय व लंगर आदि की उचित व्यवस्था रहती है। कोई चाहे तो सतना के साथ पन्ना, खजूराहो आदि दिशा से भी चौमुखनाथ आ सकते हैं। 


यहाँ से सतना की ओर बापसी के सफर में रास्ते भर कई सौ साल पुराने पेड़ों को देख मन श्रद्धा भाव से भरता उठता है। रास्ते में पक रही गैंहूँ-जौ की फसल, इनके किनारे बीच-बीच में जल से भरे तालाब और सड़क के दोनों ओर पलाश या टेसू के चटक लाल-पीले फूलों से लदे पेड़ – सब मिलाकर सफर को खुशनुमा बनाते हैं।   

रविवार, 18 अप्रैल 2021

सतना के आसपास के दर्शनीय स्थल

इतिहास को समेटे विन्ध्यक्षेत्र का यह प्रवेश द्वार

सतना म.प्र. के एक जिला के साथ मुख्यालय शहर भी है, जो प्रमुखतया सीमेंट फेक्ट्रियों के लिए माना जाता है। पास की पहाड़ियों में लाइमस्टोन और डोलोमाइट की प्रचुरता के कारण यहाँ लगभग आधा दर्जन सीमेंट फेक्ट्रियाँ हैं। इसके अतिरिक्त सतना अपने आँचल में कई हजार साल पुराने इतिहास को भी समेटे हुए है। रामायण-महाभारत काल से इसके तार जुड़े मिलते हैं। पुरातात्विक साक्ष्य बौद्ध काल के शक्तिशाली शासकों से भी इसका सम्बन्ध जोड़ते हैं। सतना अंग्रेजों के भी प्रभाव में रहा। यहाँ बहने वाली नदी सतना के नाम पर शहर का नाम सतना पड़ा, जहाँ यह शहर एक और सोन नदी, तो दूसरी ओर तमस नदी से घिरा हुआ है। हालाँकि आज जलवायु परिवर्तन के कारण इन नदियों का अस्तित्व संकट में है, जबकि आज से दो-तीन दशक पूर्व तक ये पूरे वेग के साथ बहा करती थीं।

सतना के मुख्त्यारगंज इलाके में व्यंकटेश मंदिर अपने विशिष्ट वास्तुशिल्प और प्राचीनता के चलते खास है। माना जाता है कि इसका निर्माण 1876 और 1925 के बीच देवराजनगर के शाही परिवार द्वारा किया गया था। 

यहाँ के मंदिर में तिरुपतिवालाजी के व्यंकटेश स्वामी की प्रतिकृति स्थापित हैं, जिसकी दिवारें लाल संगमरमर से बनी हुई हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने ही विष्णू भगवान के वाहन गरुढ़ की प्रतिमा स्थापित है। बाहर से मंदिर का विशाल एवं भव्य परिसर एक अलग ही छाप छोड़ता है। 

अंदर भगवान व्यंकटेश की भव्य प्रतिमा के उत्तर की ओर लक्ष्मी-नारायण तथा दक्षिण की ओर श्रीरंगनाथ भगवान के मंदिर हैं। मंदिर परिसर में ही एक तलाब भी है, जिसका हरा-भरा परिसर शांतिदायी लगता है, जहाँ प्रकृति की गोद में क्वालिटी समय विताया जा सकता है। इस बार के टूर में परिसर में भ्रमण कर रही गौमाता का विशेष सान्निध्य मिला था।

सतना के ही अंदर शिव मंदिर, जगतदेव तालाब, संतोषी माता मंदिर, सिंधी मंदिर, जैन मंदिर, धवारी साई मंदिर आदि के साथ अन्य धर्माबलम्वियों के चर्च, गुरुद्वारा, मस्जिद आदि आस्था स्थल भी विद्यमान हैं। रामकृष्ण मिशन जहाँ रीवा रोड़ पर पड़ता है, वहीं गायत्री शक्तिपीठ शहर के बीच स्थित है। 

मैत्री पार्क प्रातः सांय भ्रमण एवं आपसी मिलन का एक लोकप्रिय स्थल हैं। पार्क परिसर में बच्चों के खेलने के लिए झूलों की व्यवस्था है। इनका हरा-भरा फूलों से भरा परिसर नागरिकों के लिए शांति-सुकून भरे कुछ बेहतरीन पल उपलब्ध कराता है। मैत्री पार्क के एक ओर हवाई पट्टी है, तो दूसरी ओर एक भव्य तालाब भी है, जिसके किनारे शिव मंदिर बना है। इस पार्क में जानवरों की बहुत सारी मूर्तियां देखने के लिए मिलती हैजो बच्चों के लिए बहुत रोचक एवं ज्ञानबर्धक रहती हैं। इसी के साथ रेल्वे स्टेशन के पास सिविल लाइन पार्क भी शहरवासियों के लिए प्रातः-सांय भ्रमण से लेकर बच्चों के खेलने-कूदन व प्रकृति की गोद में विचरण का अवसर देता है।

सतना शहर में पन्नीलाल चौक मार्केटिंग का प्रमुख केंद्र है। यह रेल्वे स्टेशन के पास पड़ता है। रोजमर्रा की आवश्यकता का हर सामान यहाँ उपलब्ध रहता है। यहाँ किशोरी हल्वाई की दुकान में खोआ की जलेबी और पेड़े प्रख्यात है। ऐसी जलेबी तो शायद ही कहीं और बनती हो। सीमेंट फेक्ट्री के कारण सतना हालाँकि एक औद्योगिक शहर है, लेकिन इसको स्मार्ट सिटी के रुप में तैयार करने की कवायद जोरों पर है और एक हिस्सा इस रुप में तैयार भी हो चुका है। रीवा रोड़ पर ही यहाँ का बस स्टैंड पड़ता है, जहाँ से अंतर्राजीय बसें पकड़ी जा सकती हैं।

बस स्टैंड से ही लगभग 4 किमी दूर रीवा रोड़ पर माधवगढ़ किला पडता है। यह तमस नदी के किनारे बसा है। हालाँकि सामान्यतया इसमें पानी कम रहता है, लेकिन बरसात में पानी बढ़ने पर नदी अपने पूरे शबाव पर होती है। फिल्हाल किला खण्डहर अवस्था में है, जो यहाँ के वैभवशाली इतिहास की झलक देता है। किले के अंदर से नदी का दृश्य बहुत ही अच्छा दिखता है। खंडहर में तब्दील होते इस किले के संरक्षण की आवश्यकता है, जिस पर अभी सरकार का अधिक ध्यान नहीं दिखता। यह किला हाईवे रोड से भी अपनी भव्य उपस्थिति दर्ज करवाता है। 

इसी रास्ते पर सतना से 16 किमी दूरी पर रामवन का शांत-एकांत सुंदर परिसर है, जिसके मुख्य आकर्षण हैं, कई फीट ऊँची बज्ररंगबली हनुमानजी की लाल सिंदूर से रंगी गगनचुम्बी प्रतिमा।

माना जाता है कि भगवान राम सीता माता एवं भाई लक्ष्मण सहित इस वन से होकर गुजरे थे। यहीं पर तुलसी संग्राहलय भी हैं, जो जिला का प्रमुख विरासत स्थल है। तुलसी संग्रहालय में प्राचीन काल की कई स्थानीय कलात्मक मूर्तियाँ हैं, जिसे 1977 में स्थापित किया गया था। इसमें मिररकोट्टा, बर्च संदूक, ताड़ का पत्ता, दुर्लभ ताँबे के सिक्के व प्लेट, सोने व चाँदी की मूर्तियाँ आदि प्रदर्शित हैं। यह पुरातात्विक संग्रहालय सतना शहर के गौरवशाली अतीत का दिग्दर्शन कराता है। इस परिसर में रुकने व रिफ्रेश होने के लिए विश्राम गृह के साथ कैंटीन भी है, जिसमें चाय-काफी आदि की उम्दा व्यवस्था रहती है। पास में ही एक पार्क भी है। परिवार के साथ यहाँ के प्राकृतिक परिवेश में शाम को क्वालिटी समय बिताया जा सकता है।

इसी मार्ग पर बीच में दक्षिण की ओर मैहर के लिए सड़क जाती है, जो सतना से लगभग 40 किमी दूर पड़ता है। यहाँ त्रिचूट पर्वत पर 600 फीट की ऊँचाई पर माँ शारदा का सिद्ध शक्तिपीठ है। 

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शिखर तक पहुँचने के लिए 1001 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। मान्यता है कि माँ के चरणों में यौद्धा भक्त आल्हा आज भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं। (मालूम हो कि आल्हा-ऊदल बुंदेलखण्ड के महान यौद्धा भाई रहे हैं, जिनकी वीरता की गाथाएं आज भी बड़े रोमाँच के साथ गाई जाती हैं। ऊदल जहाँ पृथ्वीराज चौहान से युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए, वहीं माँ शारदा से अमरता का वरदान प्राप्त आल्हा पृथ्वीराज चौहान को निर्णायक युद्ध की ओर ले जाते हैं। गुरु गोरखनाथ के आदेश पर आल्हा पृथ्वीराज को प्राणदान देते हैं और फिर वैराग्य धारण करते हैं। माना जाता है कि वे अमर हैं और आज भी सबसे पहले प्रातः भगवती को शीष नवाने आते हैं।) यहाँ आधी दूरी तक रोपवे द्वारा जाया जा सकता है, बाकि रास्ता पैदल चलना पड़ता है। यहाँ से चारों ओर पहाड़ियों व नीचे शहर व मैदान-घाटियों का नजारा देखने योग्य रहता है।

सतना जिला में ही लगभग 23 किमी दूर भरहुत नामक बौद्ध संस्कृति का एक प्राचीन केंद्र है, जहाँ बौद्ध धर्म से जुड़े कई साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। 

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सन 1873 में भारतीय पुरातत्व के जनक कहे जाने वाले सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने इनकी खोज की थी। यहाँ प्राप्त सतूप को तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक द्वारा स्थापित माना जाता है। यहाँ दूसरी सदी ई.पू. में शुंग शासकों द्वारा परिबर्धित साक्ष्य भी मिलते हैं। यहाँ से प्राप्त अवशेष भारत और विश्व के कई संग्रहालयों में प्रदर्शित हैं। इन्हें देख स्पष्ट होता है कि यहाँ कई शक्तिशाली सम्राटों का शासन रहा। 

मैहर के पास ही लगभग 11 किमी पहले नीलकंठ आश्रम पड़ता है, जहाँ सिद्ध बाबा नीलकंठजी महाराज ने तपस्या की थी। यहां प्रकृति के बहुत ही मनोरम परिवेश में राधा-कृष्ण सहित गणेश, शंकर व अन्य देवी-देवताओं के मंदिर हैं। यहाँ पर आप परिवार व दोस्तों के साथ आध्यात्मिक परिवेश में एक नया अनुभव लेकर जा सकते हैं।  यहाँ चाय व लंगर आदि की उचित व्यवस्था भी रहती है।

इसी की राह में कला को समेटे आर्ट इचोल पड़ता है, जो कलाप्रेमियों के लिए एक आदर्श स्थल है। यहां आप धातुमिट्टीपत्थर एवं लकडी से बनी कई तरह की कलात्मक वस्तुएं देख सकते हैं। यदि आपमें कलात्मक प्रतिभा है, तो आप भी यहाँ के सृजन का हिस्सा बनकर अपना योगदान दे सकते हैं। यह जगह देश-दुनियाँ से आए कलाकारों द्वारा निर्मित अद्भुत कलाकृतियों से भरी हुई हैं। आर्ट इचोल मैहर की ओर से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। आप यहां पर सृजन एवं शांति के कुछ बेहतरीन पल बिता सकते हैं।

इस तरह सतना इतिहास, धर्म और कला-संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव हैजहां प्राचीनकाल से लेकर मध्यकाल तक के इतिहास को साक्षी बनकर देखा जा सकता है। और अपनी आस्था के अनुरुप तीर्थस्थलों में भ्रमण करते हुए अपनी श्रद्धा-आस्था क्षेत्र को सिचित किया जा सकता है। सतना के आसपास चित्रकूट एवं चौमुखनाथ जैसे अन्य ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल भी हैं, जो विंध्यप्रदेश के द्वार सतना को और खास बनाते हैं। इन तीर्थ स्थलों का को आप अगली ब्लॉग पोस्ट - बाबा चौमुख नाथ के देश में, पढ़ सकते हैं।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

यात्रा वृतांत - कोरोना काल में हमारी पहली रेल यात्रा

हरिद्वार से सतना वाया लखनउ-चित्रकूट


मार्च 2021 का तीसरा सप्ताह, कोरोना काल के बीच यह हमारी पहली रेल यात्रा थी। देसंविवि से हरिद्वार रेल्वे स्टेशन के लिए ऑटो में चढ़ते हैं, ऑटो के रेट 20 रुपए से बढ़कर 30 रुपए मिले। लगा कोरोना की आर्थिक मार सब पर पड़ रही है। कोरोनाकाल के साथ कुछ असर कुंभ का भी रहा होगा। गंगाजी की पहली धारा को पार करते ही टापुओं में तम्बुओं की सजी कतारों व विभिन्न नगरों को सजा देखकर कुम्भ की भव्य तैयारियों का अहसास हो रहा था, हालाँकि इस बार इसका विस्तार सिमटा हुआ दिखा। नहीं तो सप्तसरोवर से लेकर आगे ऋषिकेश पर्यन्त गंगा किनारे टापुओं में कुंभ नगर बसे होते, जिसके हम वर्ष 1998 और 2010 के हरिद्वार कुंभ के दौरान साक्षी रहे हैं। हाल ही में बने फ्लाइ ऑवर, इनकी दिवालों पर उकेरी गई रंग-बिरंगी सुंदर कलाकृतियों के बीच गंगनहर को पार करते हुए ऑटो-रिक्शा रेल्वे स्टेशन तक पहुँचाता है।

रेल्वे स्टेशन में प्रवेश साइड से हो रहा था। मुख्य द्वार से प्रवेश बन्द था। इसके गेट पर पुलिस की चाक चौबंद व्यवस्था दिखी। कोरोनाकाल में प्रशासन की इस सजगता एवं सावधानी को समझ सकते हैं। अधिकाँश लोग मास्क पहने दिखे, लेकिन कुछ इससे बेपरवाह भी मिले। हमारी ट्रेन स्टेशन पर खड़ी थी। हम निर्धारित समय से आधा घण्टा पहले पहुँच चुके थे। खाली समय में अंकल चिप्स और चाय के साथ रिफ्रेश होते हैं।

कोरोना काल के बीच हमारी पहली रेल यात्रा की उत्सुकता स्वाभाविक थी। मैं अपनी मिसेज के साथ ससुराल जा रहा था, जिसका संयोग अठारह वर्षों के बाद बन रहा था। यह हमारी चौथी यात्रा थी। पिछली यात्राओं में सतना के साथ आसपास चित्रकूट, मैहर, रामवन जैसे दर्शनीय तीर्थस्थल देखे थे। इस बार कोरोना काल के बीच ऐसी यात्राओं की संभावना कम थी, लेकिन कुछ यादगार लम्हे बटोरने का मन तो घुम्मकड़ दिल बना चुका था, जिसका वर्णन आप अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

ठीक चार बजकर बीस मिनट पर हमारी ट्रेन - हरिद्वार-जबलपुर फेस्टिवल स्पेशल चल पड़ती है, जो अगले दिन सुबह साढे आठ बजे सतना स्टेशन पहुँचाने वाली थी। हरिद्वार से सतना सीधे यही एक ट्रेन है, बाकि दिल्ली से होकर इलाहावाद तक जाती हैं और फिर दूसरी ट्रेन पकड़नी पड़ती है। फेस्टिवल ट्रेन हरिद्वार से सतना-जबलपुर की सवारियों के लिए वरदान से कम नहीं, लेकिन इसकी एक कमी भी है। यह सप्ताह में एक ही बार चलती है। गुरुवार को हरिद्वार से छूटती है और गुरुवार को ही वापिस पहुँचती है अर्थात बुधवार को जबलपुर से वापिस आती है।

इस तरह दोपहर 4 बजकर 20 मिनट के बाद शाम 7 बजे तक, अंधेरा होने से पहले के दो-अढ़ाई घण्टे पहले दिन के उजाले में और फिर ढलती शाम के साथ बीते। रास्ते में लक्सर, नजीबाबाद, मुरादाबाद आदि स्टेशन पड़े। छोटे कस्बों, गाँव और खेतों के बीच सफर आगे बढ़ता रहा। खेतों में गन्ने की खेती वहुतायत में दिखी, साथ में गैंहूँ की फसल भी पक रही थी। गन्ना कहीं कट रहे थे, कुछ ट्रैक्टरों में लदे थे तथा कहीं-कही गन्ने की बुआई तक होते दिखी। 

कुछ खेतों में पराली जल रही थी, तो कुछ खेतों में राख का काला रंग इसकी चुगली कर रहा था। खेतों की मेड़ पर सफेदा के पेड़ दिखे। पाप्लर के पेड़ों का चलन कम मिला। मवेशियों में भैंस और बकरियों के दर्शन अधिक हुए, गाय कम दिखीं। हालाँकि बैलगाड़ियों के दर्शन होते रहे।

जल स्रोत के नाम पर ज्वालापुर के पास गंगनहर के दर्शन होते हैं। आगे रास्ते में एक नदी भी पड़ी, जो मौसमी अधिक लगी। लम्बे पुल से होते हुए हम इसको पार किए। 

रास्ते में तालाबों-पोखरों का रुका हुआ जल कई जगह मिला। कहीं कहीं कारखानों का गंदला जल खेतों के किनारे बहता दिखा, जिसका विषाक्त स्वरुप देखकर चिंता हो रही थी कि यह मिट्टी, फसलों व जीव-जंतुओं पर क्या असर डाल रहा होगा। रास्ते में खेतों की सिंचाई भी होती दिखी। कहीं-कहीं पानी उगलते मोटर-पम्पों के आसपास बच्चों व युवाओं को खेलते व जलक्रीड़ा करते देखा।

आम के बगीचे कहीं-कहीं खेतों के बीच खड़े दिखे। फलों का चलन इस रूट पर कम दिखा। कुछ जगह हरे-भरे बाग मिले। कुछ में छोटी पौध तैयार हो रही थी। सब्जियों के नाम पर कुछ स्थानों पर पत्ता गोभी के खेत दिखे। यहाँ कैश क्रोप का भी अधिक चलन नहीं दिखा। रास्ते में नदियों के किनारे सब्जी उत्पादन वहुतायत में होते दिखा।

रेल्वे क्रॉसिंग पर फाटक के दोनों ओर इंतजार करते लोग बीच-बीच में मिलते गए। लोगों की भीड़ को देखकर लगा कि कोरोना काल में भी जीवन गतिशील है। गुरुवार की हाट भी शाम के समय रास्ते में सजी दिखीं। खेतों में काम करते किसान, निराई-गुड़ाई करती महिलाएं, फसल काटते व ढोते लोग, खेतों में खेलते बच्चे-युवा सब मिलाकर एक प्रवाहमय लोक जीवन के दर्शन करा रहे थे।

ढलती शाम के साथ सूर्य भगवान अस्तांचल की ओर बढ़ रहे थे। सूर्यास्त की लालिमा ढलती शाम का सुंदर नजारा पेश कर रही थी। पक्षी जहाँ अपने आशियानों की ओर आकाश में उड़ान भर रहे थे। खेतों में अलसाए अंदाज में काम कर रही महिलाएं व किसान, खेतों की पतली पगडंडियों के संग घर बापिस लौट रहे थे और ये सब मिलकर ग्रामीण जीवन के रोमाँचक भाव जगा रहे थे।

इस बीच ट्रेन में चाय-कॉफी, बिस्कुट-नमकीन की फेरी लगती रही। चाय के साथ बीच-बीच में रिफ्रेश होते रहे। डिब्बे में सवारियाँ कम ही थी। कोरोना काल का असर साफ दिख रहा था। पूरे डिब्बे में मुश्किल से 10-15 सवारियाँ रही होंगी। मास्क व सोशल डिस्टेंसिंग के प्रति जागरुकता का अभाव दिखा। कहने पर कुछ लोग मान जाते। वहीं कुछ इस पर बुरा मान जाते व बड़बड़ाते हुए आगे बढ़ते।

ट्रेन एप्प व्हेयर इज माई ट्रेन से आ रहे व पीछे छूट रहे स्टेशनों का पता चल रहा था। ज्वालापुर से ही ट्रेन समय पर थी व कहीं-कहीं कुछ एडवांस में भी पहुँच रही थी। बीच में थोडा लेट भी हो जाती। अगले दिन तक इसे कवर करते हुए आधा घण्टा ही लेट रही। दौड़ती ट्रेन की स्पीड में फोटो कैप्चर करना मुश्किल हो रहा था, जो ब्लर्र(धूंधले) आ रहे थे। इसलिए जहाँ ट्रेन थोड़ा धीमे होती, वहाँ फोटो खींचते। ऐसे लगता जैसे बीच-बीच में ट्रेन हमें मौका दे रही हो। जब रेल रफ्तार पकड़ती तो बाहर दृश्यों को निहारते हुए इनके विविधपूर्ण रंग व रुप को ह्दयंगम करते रहते।

पूरे रेल रुट में दोनों ओर के खेतों को देखकर लगा कि यहाँ की भूमि पर्याप्त उर्बर है। लहलहाती फसल एवं यहाँ के हरे-भरे आँचल को देख खुशहाल ग्रामीण आँचल का अहसास होता रहा। हालाँकि इनसे जुड़े कई सबाल भी जेहन में उठते रहे, लेकिन ट्रेन में ऐसा कोई किसान, युवा या प्रबुद्ध लोकल सवारी नहीं दिखी, जिससे इन विषयों पर कुछ समाधानपरक चर्चा होती। लगा अभी ऐसी चर्चा का समय नहीं आया होगा, अगली किसी यात्रा में शायद ऐसा संयोग बने।

रात को आठ बजे के करीव हम मुरादाबाद पहुँच चुके थे। अब बाहर के नजारे नदारद थे। अतः खाली समय में साथ ले गई पुस्तकों का स्वाध्याय करते रहे। इसी बीच घर से पैक किया डिनर करते हैं। रात 9,30 बजे तक बरेली शहर पार होता है। कुछ देर में नींद के झौंके आने लगते हैं। सो अपने साइड अप्पर बर्थ में बिस्तर जमाकर लेट जाते हैं। मालूम हो कि रेलवे की ओर से कोविड काल में चादर, कम्बल व तकिए आदि नहीं मिलते। अपने साथ ले गए कपडों से काम चलाना पड़ता है। रात को 1,30 बजे ट्रेन लखनऊ पहुँच चुकी थी। थोड़ा चेंज के लिए कौतुहलवश बाहर निकलते हैं, स्टेशन पर सवारियों को ढोता इलेक्ट्रिक वाहन देखकर आश्चर्य हुआ, जो इन्हें स्टेशन पर ईधर से ऊधर ले जा रहा था। ऐसे वाहन के दर्शन हम फ्रेंक्फर्ट एयरपोर्ट पर कर चुके थे। यहाँ ऐसे ही कुछ वाहन का दर्शन कर अच्छा लगा, कि भारतीय रेलवे धीरे-धीरे अपग्रेड हो रही है।

सुबह 6 बजे भोर होते-होते हम उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर की ओर पहुँच चुके थे। बाहर के नजारे पिछले दिन से एक दम अलग थे। बांदा पहुँचते पहुँचते सुबह हो चुकी थी। आगे रास्ते में गैंहूं की फसल सुखी व भूरी दिखी, जो लगभग पक चुकी थी। कई जगह तो यह कट चुकी थी व कई जगह कटकर कतारों में इसकी ढेरी लगी थी। लगा कि फसल के पकने का सिलसिला दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमिक रुप में होता है। इस सीजन में आम दक्षिण में पक रहे होते हैं, जबकि उत्तरी भारत में बौर निकले होते हैं।

खेतों में काट कर रखी गैंहूँ की पकी फसल

अब साइड में पहाड़ के दर्शन भी शुरु हो गए थे। इनके दर्शन करते हुए 8 बजे हम चित्रकूट पहुँचते हैं। रास्ते में पलाश के गुलावी-लाल फूलों से लदे पेड़ तथा इनके जंगलों के नजारों को रोमाँचित भाव से निहारते रहे। यह हमारे लिए एक नया अनुभव था। यथासंभव इनको केप्चर करते रहे, लेकिन ट्रेन की तेज रफ्तार के कारण अधिकाँश फोटो धुँधले निकले। ट्रेन के धीमें होने पर कुछ काम के फोटो हाथ लगे। जो भी हो पहाड़ों की गोद में इनके जंगलों के बीच सफर एक यादगार अनुभव रहा, जिसका भरपूर आनन्द लेते रहे।

ट्रेन लगभग आधा घंटा लेट थी, सो 9 बजे के आसपास सतना में प्रवेश होता है। सीमेंट फेक्ट्रियों के दर्शन शुरु होते हैं। रास्ते में फ्लाइऑवर पार करते ही रेल्वे स्टेशन आता है। स्टेशन पिछले 18 सालों में पूरी तरह से अपग्रेड हो चुका है। साफ सूथरा और एकदम नया। कोविड को लेकर किसी तरह का कोई भय बाहर नहीं दिखा। कोई रिक्शा व ऑटोवाला मास्क नहीं पहने था। पूछने पर जबाव मिला कि यह मप्र का सबसे कम प्रभावित शहर है और सबसे सुरक्षित भी। खैर इस दावे को जाँचने का हम नवांगुतक के पास कोई पैमाना नहीं था। थोडी देर में मास्क पहने हमारे बड़े साले साहब शैलेंद्र भाई साहब आते हैं। समझ आया कि कोरोना जिस तेजी से फैल रहा है, सावधानी आवश्यक है। भाई साहब अपने वाहन में हमें गन्तव्य स्थल की ओर ले जाते हैं। शहर के बीच गुजरते हुए पुरानी यादें ताजा होती हैं, जिसको आप सतना शहर एवं आसपास के दर्शनीय स्थल की अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

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