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शनिवार, 7 दिसंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-5

मुखबा गाँव के दर्शन और घर बापिसी

रोज रात को और सुबह होटल की वाल्कनी से भगीरथी नदी के पार मुखबा गाँव  की टिमटिमाती रोशनी ध्यान आकर्षित करती रही। अपने गृह प्रदेश में ठीक कुछ ऐसा ही दृश्य घर के सामने गाँव पेश करता। बैसे ही गगनचूम्बी पर्वतों की गोद में बसे यह गाँव दिखता। लेकिन शैक्षणिक भ्रमण के व्यस्त कार्य़क्रम के चलते मुखबा गाँव छूटता दिख रहा था, लगा कि अगली बार ही यहाँ के दर्शन संभव होंगे।

टूर के अंतिम दिन प्रातः 6 बजे हरिद्वार के लिए कूच करना था, सो पिछली रात को नौ बजे ही निद्रा देवी की गोद में सो गए थे और प्रातः स्नान-ध्यान के पश्चात पौने छः बजे ही नीचे बस की ओर निकल देते हैं। लेकिन दल के सदस्यों की तैयारी देखकर लगा कि आधा-पौन घंटा अभी इनको तैयार होने में लगेगा, तब तक हम कल्प-केदार मंदिर के समीप स्थित तपोवनी माता की तपःस्थली के दर्शन कर आते हैं। यह मंदिर तो हमें नहीं मिला, लेकिन भटकते-भटकते 10 मिनट में नीचे भगीरथी पुल तक पहुँच गए।

राह में सेब से लदे बगीचों के सुंदर नजारों को यथासंभव मोबाईल में कैप्चर करते रहे और पुल से भगीरथी का दृश्य देखते ही बन रहा था। इसको पार कर एक स्थान पर आसन जमाकर धराली साइड के दृश्य का अवलोकन करते हैं। यहाँ से सामने गाँव, पहाड़ और पीछे हिमशिखर का दृश्य देखते ही बन रहा था और उत्तर की ओर मार्कण्डेय ऋषि का मंदिर, भगीरथी नदी का विस्तार, देवदार के जंगल और पीछे गंगोत्री साइड की चोटियाँ – ध्यान के लिए एक आदर्श लोकेशन प्रतीत हो रही थी। कुछ मिनट सड़क किनारे चबूतरे पर यहाँ पालथी मार कर इसी दृश्य में खोए रहे।

स्थानीय लोगों से पता चला कि यहाँ से मुखबा मंदिर महज 1 किमी सीधी चढ़ाई के बाद पड़ता है, सो दल के शेष सदस्यों को फोन से बुलाकर वहाँ दर्शन की योजना बनती है। लगा कि दो दिन से चल रही ह्दय की उहापोह और गंगा मैया की कृपा के चलते संयोग घटित हो रहा था और जैसे बुलावा आ गया है।

कुछ ही मिनट में दल यहाँ पहुंचता है और मुख्य द्वार से प्रवेश करते हुए खेत-बगीचों के बीच ऊपर चढ़ते हैं। रास्ते में नए दर्शकों को राजमाँ, बागुकोशा, खुमानी, गोल्डन व रॉयल एप्पल, अखरोट आदि के वृक्षों, फलों व खेती से परिचय करवाते हैं। साथ ही जंगली पालक, बिच्छु बूटी व अन्य स्थानीय जंगली जड़ी बूटियों की भी जानकारी देते हैं।

आधे-पौन घंटे में हम सीधी चढ़ाई पार करते हुए ऊपर मोटर मार्ग तक पहुँच गए थे, जहाँ से बाईं ओर आगे का रास्ता हर्षिल की ओर जा रहा था। हम यहाँ से दाईं ओर ऊपर चढ़ते हैं और सौ मीटर ऊपर मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैं।

मुखबा के मंदिर को मुखीमठ बोलते हैं, जो गंगाजी का शीतकालीन आवास है, जहाँ नबम्वर से अप्रैल तक छः माह इनका वास रहता है औऱ फिर गंगोत्री धाम के कपाट खुलने पर इनका प्रस्थान होता है और गंगोत्री में विधिवत पूजा शुरु होती है।

इस शांत एकांत गाँव में स्थित मंदिर का स्थापत्य देखते ही बनता है। लकड़ी के मंदिर में बहुत सुंदर नक्काशी हुई है। संयोग से पुरोहित जी मंदिर में हाजिर होते हैं, इसके बाद ये मार्कण्डेय ऋषि के मंदिर में प्रस्थान करने वाले थे। लगा हमारी टाइमिंग गंगा मैया ने निर्धारित कर रखी थी। विधिवत पूजन के बाद पंडित जी से यहाँ का संक्षिप्त व सारगर्भित परिचय प्राप्त होता है।

दर्शन के बाद मंदिर प्रांगण में सामूहिक फोटोग्राफी होती है। मंदिर के ठीक सामने दूसरी पहाड़ी से झांकते हिमाच्छादित श्रीखण्ड शिखर के दर्शन देखते ही बन रहे थे। नीचे उतरते हुए सामने धराली साइड के दर्शन करते रहे। उगते हुए सूरज की रोशनी में घाटी जगमगा रही थी। बापिसी में पेड़ से गिरे सेब, बागूकोश आदि फलों को प्रसाद रुप में एकत्र करते हैं। और आधे घंटे में धराली पहुँचते हैं।

समूह का एक दल जो छूट गया था, उसे भी दर्शन के लिए भेजते हैं। और धराली में बाजिव दाम पर यहाँ से सेब खरीदते हैं। यहाँ की एक दुकान में परांठा चाय का नाश्ता होता है। कस्बा कहें या गाँव, धरारी मार्केट का शांत माहौल भीड-भाड से भरे हिल स्टेशन के अशांत वातावरण के एकदम विपरीत शांति-सुकून भरा लग रहा था, यहाँ का जीवन ठहरा हुआ सा दिखा। जीवन जैसे प्रकृति की गति से धीरे-धीरे अनन्त धैर्य के साथ प्रवाहमान है।

इसी बीच समय निकाल कर हम यहाँ माँ सुभद्रा (तपावनी माता) की तपःस्थली के भी दर्शन किए, जो कल्प-केदार होटल के एकदम पास में निकला, जिसकी खोज में सुबह हम भगीरथी नदी तक पहुँच गए थे। यहाँ उनके शिष्य बाबा कालू से मुलाकात हुई, इस तपःस्थली के बारे में अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया। कालू बाबाजी इस समय मंदिर की देखभाल कर रहे हैं और नैष्ठिक तीर्थयात्रियों के लिए अखण्ड भण्डारे व ठहरने की व्यवस्था देखते हैं।

अब तक पूरा दल बस में बैठ चुका था। और हमारी बापिसी का सफर आगे बढ़ता है। रास्ते में हर्षिल के दर्शन होते हैं, बगोरी गाँव को दूर से विदा करते हैं। और रास्ते में जो रुट तीन दिन पहले आते समय अंधेरे में कवर किए थे, उसे दिन के उजाले में देखने की तमन्ना पूरी होती है। इसी क्रम में झाला से लेकर सुक्खु टॉप तक पहुँचते हैं।

रास्ते भर सड़क के दोनों ओऱ सेब से लदे बगान, देवदार के जंगल, छोटे-छोटे कस्बे, होटल, होम-स्टे और सेब की पैकिंग के दृश्य। पहले ऊपर चढाई, फिर सीधे आगे दो-तीन किमी लम्बा मार्ग औऱ फिर सुक्खु टॉप से नीचे की जिगजैग उतराई। रास्ते भर छोड़े बड़े झरने व नालों के दर्शन होते रहे। उस पार बर्फ से ढके पहाड़ों से नीचे दनदनाते नाले भी दर्शनीय रहे। जिनको देखकर सहज ही परमपूज्य गुरुदेव की पुस्तक सुनसान के सहचर पुस्तक के संस्मरण याद आ रहे थे।

सुक्खु टॉप से नीचे घाटी में पहुँचने पर वायीं ओर गर्जन-तर्जन करती रौद्र रुप लिए भगीरथी के संग आगे बढ़ते हैं तथा पुल पार कर लेफ्ट बैंक में गंगनानी के दर्शन और राइट बैंक में भटवारी, गंगोरी और फिर वाईपास से होते हुए उत्तरकाशी पहुँचते हैं। रास्ते में दिन के ऊजाले में उत्तरकाशी शहर के दर्शन होते हैं और भूस्खलन के कारण समाचार में अक्सर सुर्खी बनते वर्णावत पर्वत को भी देखते हैं। यहाँ एक मैदान में भोजन के लिए गाड़ी रुकती है।

पहले हम पास ही स्थिति भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते हैं। इसके भव्य परिसर में दिव्य दर्शन का लाभ लेकर इससे जुड़े इतिहास, पौराणिक मान्यताओं एवं भविष्य कथन को पढ़कर अविभूत होते हैं, हालाँकि आज का दर्शन परिचयात्मक भर था। अगली बार अधिक समय लेकर उत्तरकाशी को एक्सप्लोअर करेंगे, ऐसा भाव प्रवल हो रहा था।

पेट पूजा कर पूरा दल बस में चढ़ता है और कमान्द से होकर चम्बा से पहले उस ठिकाने पर रुकता है, जहाँ जाते समय हम लोग रुके थे। यहाँ चाय-नाश्ता कर रोचार्ज होते हैं और किबी के पैकेट खरीदते हैं।

बापिसी में चम्बा पार करते-करते अंधेरा हो चुका था और आल बेदर रोड़ के संग सरपट दौड़ती हुई गाड़ी आगराखाल को पार करते हुए नरेंद्रनगर और फिर ऋषिकेश पहुँचती है तथा अगले आधा घंटे में 9 बजे तक देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रांगण में पहुंचते हैं।

इस तरह गंगा मैया की कृपा से तीन दिन में सम्पन्न गंगोत्री धाम की यह सकुशल यात्रा एक अमिट छाप छोड़ जाती है, जिसमें कई प्रश्नों के उत्तर मिले, कई जिज्ञासाओं को शाँत किया और जिज्ञासाओं की कुछ नई कौंपलें भी फूंटी, जो अगली यात्राओं के लिए प्रेरक ईँधन का काम करती रहेंगी।

शनिवार, 30 नवंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-4

 

उत्तराखण्ड का स्विटजरलैंड हर्षिल और बगोरी गाँव

गंगोत्री धाम से आने के बाद हम सभी कल्प-केदार होटल में विश्राम करते हैं और फ्रेश होकर दोपहर बाद हर्षिल के लिए निकल पड़ते हैं। इस रास्ते में झरने व नाले बहुतायत में मिले। कारण पीछे चोटियों में ग्लेशियर की मौजूदगी, जो पिघल कर इस क्षेत्र को जलराशि की प्रचुरता का वरदान दे जाती हैं। इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य में इनका अपना महत्व है और सेब की उत्कृष्ट फसल का भी यह एक कारण है।

दो-तीन किमी बाद बस मुख्य मार्ग से दायीं ओर मुडती है, एक बड़ा सा सुसज्जित प्रवेश द्वार आपका स्वागत करता है। लगा कि हम कुछ दूर तक किसी मिलिट्री क्षेत्र से गुजर रहे हैं। इसके बाद भगीरथी नदी पर बने एक पुल को पार कर हम हर्षिल कस्बे में प्रवेश करते हैं, जो 9006 फीट (2745 मीटर) ऊँचाई पर बसा हिल स्टेशन है। हर्षिल मार्केट में पर्यटकों की वहुतायत के चलते ट्रैफिक से गाडी को निकालने में थोड़ा समय लगा।

यहाँ के छोटे-छोटे पहाड़ी घर व होटल यहाँ की पहचान करवा रहे थे। मार्केट की अगली साइड पार्किंग में गाड़ी को खड़ा कह हम पैदल चलते हैं। मोड के बाद एक पुलिया पर चढ़ते हैं। दायीं ओर से एक सड़क मुखबा गाँव (गंगा मैया का शीतकालीन आवास) की ओर जा रही थी। ऊपर पुल पर तेज हवा वह रही थी। पहाड़ी नाला कहें या छोटी नदी में जल बहुत तेज गति से बह रहा था। पुल पर फोटोशूट करने वालों का तांता लगा हुआ था, हर कोई गगनचूंबी देवदार, संग बह रहे झरनों व पहाड़ों की पृष्ठभूमि के सुंदर दश्य को कैप्चर करना चाह रहा था। मालूम पड़ा कि राम तेरी गंगा मैली फिल्म की शूटिंग यहीं की लोकेशन्ज में हुई थी।

इस पुल से आगे दायीं ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ के साथ हम आगे बढ़ रहे थे। कुछ दुकानें, कुछ होटल व बगीचे पार करते हुए रास्ते में वाइं ओर लक्ष्मी नारायण मंदिर का बोर्ड मिला, जिसे हम बापिसी के लिए छोड़ देते हैं। रास्ते में ही दायीं और एक मैदान में बिल्सन की कोठी मिली, जिसे अब एक होटल में कन्वर्ट किया गया है। माना जाता है कि हर्षिल को हिल स्टेशन का रुप देने में इन ब्रिटिश सैन्य अधिकारी का विशेष योगदान रहा है। कुछ इन्हें नायक तो कुछ खलनायक का दर्जा देते हैं।

थोड़ी देर बाद दुबारा एक पुल आता है, जिसके नीचे से बहुत तीव्र वेग से एक नदी का निर्मल जल बह रहा था, लगा पीछे किसी घाटी से यह नदी आ रही है। यहाँ पर भी पुल के ऊपर लोगों को फोटोशूट में मश्गूल देखा। हमारे दल के युवा फनकार भी इसमें शामिल हो जाते हैं। यहाँ से पार होते ही हम थोड़ी ढलान के साथ नीचे उतर रहे थे। नीचे खुली घाटी से तेज हवा जैसे हमारी गति को थाम रही थी।

और एक बड़े गेट के साथ बगोरी गाँव में प्रवेश होता है, जिसमें यहाँ का संक्षिप्त परिचय, इतिहास व विशेषताएं लिखी थीं। प्रवेश करते ही दाइँ ओर इनके कुलदेवी-देवता के मंदिर दिखे। और आगे सड़क के दोनों ओर घर में ही दुकानें सजी दिखीं। कुछ ने घरों को होम स्टे के रुप में सुसज्जित कर रखा था औऱ कुछ ने होटल के रुप में।

घर आँगन रंग-बिरंगे फूलों से सज्जे थे। छोटे-छोटे लकड़ी के पारम्परिक घर बहुतायत में दिखे, कुछ एक ही सीमेंट लेंटर के दिखे। घर के बाहर काली व सफेद ऊन को सुखाते देखा। कुछ बुजुर्ग इनको कात रहे थे, तो कुछ इन से बुनाई कर रहे थे। इनकी दुकानों पर इनसे तैयार स्वाटर, टोपे, मफलर, जुराबें, गलब्ज आदि बिक्री के लिए रखे गए थे। अधिकाँश पुरुष व महिलाएं इन उत्पादों को तैयार करने में व्यस्त दिखे।

कुल मिलाकर गाँव के मेहनतकश लोगों को स्वरोजगार के संसाधनों को तैयार करते देखा। जो हर ठंडे इलाके के लोगों की फितरत रहती है। ठंड में एक तो यह सक्रियता कुछ गर्माहट देती है और कुटीर उद्योग के ये छोटे-बड़े प्रयोग रोजगार एवं आर्थिक स्बाबलम्वन का साधन बनते हैं।

घरों के बाहर सेब की पेटियाँ भी बिक्री के लिए दिखीं, जो घर के साथ जुड़े बगीचों से तोड़े गए थे। बगीचों में जाकर फार्म फ्रेश सेवों की भी व्यवस्था थी। कुछ केफिटेरिया भी सेब के बगीचों में सजे दिख रहे थे।

गंगोत्री की राह का यह क्षेत्र सेब के साथ राजमाह की फसल के लिए प्रख्यात है। यहाँ भी गाँव के घर आंगनों व खेतों में राजमाह की फसल को पकते व सूखते देखा। जो ऑर्गेनिक होने के कारण स्वाद व पौष्टिकता के हिसाब से लाजबाव माने जाते हैं।

रास्ते में गाय बैल व बछड़े मिले, जो काफी छोटे आकार के थे। मानकर चल रहे थे कि इनका दूध बहुत पौष्टिक, सात्विक व स्वादिष्ट होगा, जैसा कि इस क्षेत्र में विचरण किए कई साधकों व योगियों से सुन रखा है।

गाँव में छोटा सा बौद्ध गोंपा भी मिला, जो आजक रविवार के चलते बंद था। गांव के छोर पर पहुँचकर हम बाहर एक मैदान में पहुँच जाते हैं, जहाँ नीचे मैदान के पार तट पर भगीरथी नदी बह रही थी। सभी यहाँ के किनारे कुछ यादगार पल बिताते हैं।

छात्र-छात्राएं अपने मन माफिक फोटो खींचते हैं, क्योंकि पृष्ठभूमि में घाटी व पर्वतों का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। चारों और उत्तर औऱ दक्षिण में आसमान छूते बर्फीले शिखर दिख रहे थे और सामने गंगोत्री से हर्षिल की ओर जा रहा मोटर मार्ग। सामने ही देवदार के जंगल के बीच सेब से लदे बगीचे व स्थानीय ग्रामीण परिवेश भी मन को मोहित कर रहा था।

इस पृष्ठभूमि में ग्रुप फोटो भी होता है। और छात्र-छात्राओं के साथ यहाँ के विकास पत्रकारिता से जुड़े प्रश्नों व मुद्दों पर भी कुछ चर्चा होती है।

बापिसी में एक होम स्टे में नूडल व चाय का आनन्द लेते हैं और यहाँ की भाव भरी मेहमानवाजी (हॉस्पिटेलिटी) को अनुभव करते हैं। समूह के कुछ छात्र-छात्राएं इनके किचन में हाथ बंटाते हैं। स्वभाव से यहाँ के लोग ईमानदार, मेहनतकश और भावनाशील लगे।

बापिसी में सड़क मार्ग से लगभग 200 मीटर नीचे लक्ष्मी नारायण मंदिर के दर्शन करते हैं औऱ साथ ही थोड़ी दूरी पर बहती भगीरथी मैया को भी प्रणाम कर आते हैं। ध्यान साधना के लिए यहाँ का एकांतिक वातावरण आदर्श लगा, जिसका वर्णन हम यू-ट्यूब में भी किसी बाबाजी के वीडियों में कभी देख चुके थे।

इस तरह हमारी आज की हर्षिल का विहंगावलोकन करती संक्षिप्त यात्रा पूरी होती है। तीन-चार घंटों में ही उत्तरकाशी से 78 किमी और गंगोत्री धाम से 26 किमी दूर हर्षिल की वादियाँ जेहन में एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं। यहाँ भगीरथी और जालंधरी नदीं के संगम पर बसे उस घाटी में प्राकृतिक सौंदर्य़, आध्यात्मिक प्रवाह, शाँति एवं रोमाँच का अद्भूत स्पर्श मिलता है।

बस तक पहुँचते-पहुंचते अंधेरा हो चुका था और सभी बस में बैठकर बापिस धराली आते हैं। और रात्रि भोजन के बाद 9 बजे तक कल की तैयारी के साथ निद्रा देवी की गोद में चले जाते हैं, क्योंकि कल सुबह 6 बजे बापिस हरिद्वार के लिए कूच करना था।

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-3

 

गंगोत्री धाम के दिव्य लोक में

यात्रा का दूसरा दिन हमारे गंगोत्री दर्शन के लिए समर्पित था। सो सुबह जल्दी ही धराली से निकल पड़ते हैं, जो गंगोत्री से 20 किमी की दूरी पर पड़ता है। भौर में जब हम बाहर निकलते हैं, तो उत्तर दिशा में गंगोत्री की ओर हिमशिखरों मध्य टिमटिमाते तारों से सजे नीले आकाश में बीचों-बीच स्थित अर्दचंद्र की शोभा देखते ही बन रही थी। लग रहा था कि वे ध्यानस्थ भगवान शिव के सर पर सुशोभित हों। गंगोत्री धाम की यात्रा व दर्शन का उत्साह सबके चेहरे पर स्पष्ट था, जिनमें अधिकाँश वहाँ पहली वार पधार रहे थे।

धराली से गंगोत्री की 20 किमी की यात्रा देवदार के घने जंगलों के बीच होती है। शुरु में वायीं ओर साथ में भगीरथी नदी प्रवाहमान थी। चौड़ी घाटी क्रमिक रुप से संकरी हो रही थी। रास्ते भर देवदार के जंगल और भगीरथी नदी के विस्तार को निहारते हुए यहाँ की सुंदर वादियों के बीच एक नई घाटी में प्रवेश होता है। गगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ दोनों ओर एक दम पास दिख रहे थे।

पुल को पार कर अब भगीरथी हमारे दायीं ओर थी और चट्टानी रास्ते से चढ़ाई पार करते हुए कुछ ही पलों में हम भैरों घाटी पहुँचते हैं, जहाँ पर गहरी घाटी में एक नदी नेलाँग की ओर से आती है और यहाँ की चट्टानी दिवारों के संग गार्दांग गली का प्राचीन ट्रैकिंग रुट प्रख्यात है। बापिसी में इसके दर्शन की योजना थी। भैरों घाटी के पुल को पार हम गंगोत्री धाम की ओर बढ़ते हैं। राह में हिमाच्छादित शिवलिंग पर्वत के दर्शन प्रारम्भ हो गए थे।

देवदार से अटे गगनचुंबी पहाड़ दोनों ओर जैसे हमारा स्वागत कर रहे थे। रास्ते में आईटीवीपी कैंप से गुजरते हैं। पहाड़ों से गिरी चट्टानों के बीच बसा यह कैंप इन ऊंचाईयों के चट्टानी सत्य का दिग्दर्शन करा रहे थे, जहाँ जीवन कितना रिस्क से भरा हो सकता है। रास्ते भर तीखे मोड़ और देवदार के जंगल एक नए प्रदेश एवं परिवेश में प्रवेश का सुखद अहसास जगा रहे थे, साथ ही राह में आंख मिचौली करते हिमाच्छादित शिवलिंग पर्वत गंगोत्री धाम के समीप होने का तीखा अहसास दिला रहे थे और मन में गंगोत्री धाम के पहले दर्शन-दीदार के जिज्ञासा और रोमाँच से भरे भाव हिलोरें मार रहे थे।

राह में ही भैरों मंदिर आता है, जहाँ से आगे सड़क मार्ग वायीं ओर से नेलांग की ओर जाता है, जिसे चीन की सीमा से अटा अंतिम स्टेशन माना जाता है, जो यहाँ से 22 किमी था। लो, कुछ ही मिनट में हम गंगोत्री में प्रवेश करते हैं, गाडियों का जमघट और पर्यटकों की भीड़ इसका अहसास दिला रही थी। हमारी गाड़ी भी बाहर सड़क के किनारे निर्देशित स्थान पर पार्क होती है।

सड़क के साथ पहाड़ों को छूते चट्टानी शिखर भय मिश्रित श्रद्धा का भाव जगा रहे थे। मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा था कि इन चट्टानी पहाड़ों से चट्टान टूटकर नीचे आती होंगी, तो क्या होता होगा। बाद में लोगों से बातचीत करने पर समाधान मिला कि ये चट्टानें स्थिर हैं, आए दिन गिरने की कोई ऐसी घटना यहाँ नहीं होती।

लगभग 2 किमी पैदल यात्रा, जिसमें गंगोत्री धाम की मार्केट, आश्रम, होटल, होम-स्टे आदि के दर्शन करते हुए अंततः एक बड़ा सा द्वार पार करते हुए गंगोत्री मंदिर में प्रवेश होता है। यहाँ के दिव्य प्रांगण में जुत्ते उतार कर दर्शनार्थियों की पंक्ति में खड़ा होकर मंदिर में गंगा मैया के दर्शन करते हैं। और बाहर निकल कल समूह फोटो लेते हैं।

गंगोत्री मंदिर की लोकेशन स्वयं में अद्भुत है, चारों और गंगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ों के बीच में स्थित धाम, एक नए लोक में विचरण का दिव्य अहसास दिला रहा था। लग रहा था कि हम एकदम नए संसार में पहुँच गए हैं। यहाँ से प्रसाद ग्रहण कर नीचे स्नान घाट पहुँचते हैं। भगीरथी नदी के ग्लेशियर से निकले बर्फीले जल से आचमन कर अपने पात्र में गंगाजल भरते हैं। बापिसी में भगीरथी शिला के दर्शन करते हैं, जहाँ भगीरथ ने भगीरथी तप कर गंगा अवतरण को संभव किया था और सगरसुतों के उद्धार के साथ जगत के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था।

परमपूज्य गुरुदेव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य़जी के हिमालय प्रवास के दौरान गंगोत्री धाम में रुकने व आगे तपोवन में साधना करने के प्रसंगों को यहाँ प्रत्यक्ष देखने का मन था। तीर्थ की सूक्ष्म चेतना ने जैसा इसका भी इंतजाम कर रखा था। यहाँ के साठ वर्षीय कुलपुरोहित से अचानक परिचय होता है औऱ वे आचार्यजी से जुड़े रोचक प्रसंगों का भाव भरा वर्णन करते हैं। और भगीरथी के उस पार सामने के आश्रमों - ईशावास्य, कृष्णानन्द आश्रम, तपोवन आश्रम आदि से भी परिचय करवाते हैं, जहाँ गुरुदेव का प्रवास रहा।

परिसर में ही जाह्नवी माता के दर्शन होते हैं, लगा कि जैसे गंगा मैया के ही मूर्तिमान अंश से मुलाकात हो रही है। इन्हीं के सान्निध्य में यहाँ कृष्णानन्द आश्रम के वयोवृद्ध शिष्य स्वामी जी के दर्शन होते हैं, जो अपने आश्रम में आने का नेह भरा आमंत्रण दे जाते हैं। इस तरह मंदिर से नीचे उतरते हुए एक पुलिया को पार कर हम कृष्णानन्द आश्रम पहुँचते हैं। रास्ते में पुल से शिवलिंग एवं भागीरथी पर्वत के दिव्य दर्शन होते हैं। कृष्णानन्द आश्रम में गुरुदेव की साधना स्थली गुफा के दर्शन करते हैं। बाबाजी का स्वागत सत्कार और भक्ति भाव हम सबको भाव विभोर करता है। उनके द्वारा खिलाए गए छेने के रस्गुल्ले और सुर्ख लाल सेब यदा रहेंगे।

फिर जाह्नवी माता के आश्रम में पधार कर यहां के दिव्य भाव को ग्रहण करते हैं। माताजी पिछले तीन दशकों से साधनारत हैं और तपोवन में भी प्रवास कर चुकी हैं। यहाँ देवस्थापना कर हम, ब्रह्मकल का प्रसाद लेकर बापिस आते हैं। समय कम होने के कारण तपोवन आश्रम, सूर्य कुण्ड व अन्य स्थानों के दर्शन नहीं कर पाते और इनको अगले विजिट के लिए छोड़कर पुलिया को पार कर नीचे उतरते हैं।

बापिसी में एक आश्रम के भंडारे में भोजन-प्रसाद का संयोग बनता है। यहाँ अध्यात्मिक कंटेट को प्रसारित करने वाले यू-ट्यूबर युवा सन्यासी स्वामी अद्वैतानन्दजी से भेट होती है। संवाद के कुछ संक्षिप्त और यादगार पल इनके साथ बिताते हैं और बापिस गाड़ी तक आते हैं।

राह में चार शाखा वाले देवदार के वृक्ष के सामने सेल्फी लेते हैं। यह वृक्ष हमें जीवन के चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूर्तिमान प्रतीक लग रहा था, जो गंगोत्री धाम पधार रहे जागरुक तीर्थ यात्रियों को सतत एक मूक संदेश दे रहा हो।

दिन में सीधी धूप औऱ लगातार पिछले 3-4 घंटों से चलते रहने के कारण काफी गर्मी का अहसास हो रहा था, साथ ही भोजन उपरान्त की सुस्ती भी छा रही थी। अतः बापिसी में कार्दांग गली का प्लान छोड़ देते हैं, क्योंकि वहाँ सीधे धूप पड़ रही थी और नीचे सीधे खाई में नदी बहती हैं। किसी तरह का रिस्क लेने की स्थिति में नहीं थे और न ही समूह की मनःस्थिति अभी इसको कवर करने की थी और इसे भी अगली यात्रा के लिए छोड़ आते हैं।

पाठकों को बता दें कि यह भारत तिब्बत के बीच व्यापार का पुरातन रुट था, जब किसी तरह की सड़क व्यवस्था नहीं थी। आज तो नेलाँग तक सड़क मार्ग बन चुका है, जो उत्तराखण्ड का इस इलाके का अंतिम गाँव है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद वहाँ के लोग हर्षिल में बगोरी गाँव में विस्थापित होकर रह रहे हैं। आज शाम हो हम वहीं पधारने जा रहे थे।

बस से हम बापिस धराली पहुँचते हैं औऱ होटल में कुछ देर रुककर तरोताजा होते हैं और दोपहर वाद आज के गन्तव्य हर्षिल और बगोरी गाँव के लिए निकल पड़ते हैं। (जारी, भाग-4)

सोमवार, 29 नवंबर 2021

हरिद्वार दर्शन - गंगा तट पर घाट-घाट का पानी

 

घाट 1 से 20 तक गंगा मैया के संग

गंगा तीरे, उत्तरीय हरिद्वार

हर-की-पौड़ी के आगे स्वामी सर्वानंद घाट के पुल को पार करते ही, हरिद्वार-ऋषिकेश हाईवे से दायीं ओर का लिंक रोड़ घाट न. 1 की ओर जाता है। पीपल के बड़े से पेड़ के नीचे शिव मंदिर और फिर आम, आँबला व अन्य पेड़ों के समूहों का हरा-भरा झुरमुट। इसके आगे नीचे गंगा नदी का विस्तार, जो नीचे भीमगौड़ा बैराज तक, तो सामने राजाजी नेशनल पार्क तक फैला है। गंगाजी यहाँ एक दम शांत दिखती हैं, गहराई भी काफी रहती है और जल भी निर्मल। लगता है जैसे पहाड़ों की उछल-कूद के बाद गंगा मैया कुछ पल विश्राम के, विश्राँति भरी चैन के यहाँ बिता रही हैं – आगे तो फिर एक ओर हर-की-पौड़ी, गंग नहर और दूसरी ओर मैदानों के शहरों व महानगरों का नरक...।

यहीं से गंगाजी की एक धारा थोड़ा आगे दायीं ओर मोडी गई है, जो खड़खड़ी शमशान घाट से होकर हर-की-पौड़ी की ओर बढ़ती हैं।

यह घाट नम्बर-1 2010 के पिछले महाकुंभ मेले में ही तैयार हुआ है, जहाँ रात व दिन को बाबाओँ व साधुओं के जमावड़े को विश्राम करते देखा जा सकता है। और यह घाट पुण्य स्नान के लिए आए तीर्थयात्री व पर्यटकों के बीच खासा लोकप्रिय है। बाँध के दूसरी ओर पार्किंग की सुविधा है, जहाँ वाहन खड़ा कर पूरा दलवल यहाँ स्नान कर सकता है। विशेष अवसरों पर तो यहाँ सामूहिक हवन व पूजा आदि भी होते देखे जा सकते हैं। साथ में गाय-बछड़ों के झुण्ड आदि भी यहाँ सहज रुप में चरते व भ्रमण करते मिलेंगे।

घाट न.1 से जब आगे बढ़ते हैं, तो बीच में थोड़ी दूरी पर 2,3,4,5,6,7,8,9 घाट पड़ते हैं। जो सार्वजनिक न होकर थोड़े अलग-थलग हैं। यहाँ प्रायः शात एकांत स्थल की तलाश में घूम रहे यात्री, साधु व स्थानीय लोग जाते हैं, गंगाजी का सान्निध्य लाभ लेते हैं और ध्यान के कुछ पल बिताते हैं। घाट नं 6,7 से नील धारा की ओर से बहकर आती गंगाजी की वृहद निर्मल धारा के भव्य दर्शन होते हैं, जहाँ गंगाजी बहुत सुंदर नजारा पेश करती हैं। वसन्त के मौसम में यहाँ विदेशों से आए माइग्रेटरी पक्षियों के झुण्डों को जल क्रीड़ा करते देखा जा सकता है। इनके झुण्डों का नजारा वेहदर खूवसूरत व दर्शनीय रहता है।

गंगा तीरे, उत्तरीय हरिद्वार
 

घाट 10 – बाबाओं की जल समाधि के लिए बना है, जिसमें अब जन-जागरुकता एवं पर्यावरणीय संवेदना के चलते धीरे-धीरे यह चलन कम हो रहा है। यहाँ से सामने नीलधारा का दृश्य प्रत्यक्ष रहता है और इसके ऊपर घाट 11 – 12 पड़ते हैं, जहाँ साधु-बाबाओं की कुटियाएं सजी हैं। बंधे के पार भूमा निकेतन आश्रम है, जिसके संरक्षण में घाट के मार्ग में बनी कुटियानुमा विश्राम स्थल व नदी के तट पर कलात्मक दृश्यों का अवलोकन किया जा सकता है। यहाँ भी शाम को दर्शनार्थियों की काफी भीड़ रहती है। इसके आगे घाट 13 निर्जन स्थान पर पड़ता है। बहुत कम ही लोग यहाँ तक आ पाते हैं।

फिर घाट 14 – धर्मगंगा घाट के रुप से जाना जाता है, जो तीर्थयात्रिंयों के बीच खासा लोकप्रिय है। यहाँ की एक विशेषता है सामने आ रही गंगा की निर्मल धार, जिसका नजारा देखने लायक रहता है व इसमें पक्षियों का क्रीडा क्लोल बहुत सुंदर नजारा पेश करता है। यह लोकेशन फोटोग्राफी के लिए भी बहुत उपयुक्त रहती है। आश्चर्य नहीं कि दिनभर यहाँ यात्रियों का जमावड़ा लगा रहता है, जिसमें जल का स्तर स्वल्प होने के कारण यह गंगा स्नान के लिए सर्वथा उचित रहता है। पानी का जल स्तर बढ़ने पर यहाँ स्नान के दौरान सावधानी अपेक्षित रहती है। इसमें  परमार्थ आश्रम द्वारा संचालित इस घाट में शाम को गंगा आरती होती है, जिसमें पर्याप्त लोगों की भीड़ रहती है।

घाट 15 – संत पथिक घाट के रुप में जाना जाता है। इसके मार्ग में संत पथिक की समाधि मंदिर है। यह भी साधु भक्तों व साधकों के लिए विश्राम व ध्यान का लोकप्रिय ठिकाना है। भारतमाता मंदिर और शांतिकुंज का ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान भी इसी की सीध में पड़ता है। इसी के आगे है घाट 16, जो बालाजी घाट के नाम से जाना जाता है। इसमें हनुमानजी एवं शिवपरिवार के विग्रह गंगा स्नान के लिए आए दर्शनार्थियों के लिए वंदनीय रहते हैं। यहाँ भी शाम को लोगों को ध्यान विश्राम से लेकर स्नान करते देखा जा सकता है। यहाँ भी गाय-बछडों व पक्षियों का जमावड़ा देखा जा सकता है, जिन्हें श्रद्धालु कुछ न कुछ खिलाते रहते हैं।

इसके आगे आता है, घाट 17 – पाण्डव घाट, जहाँ पंचमुखी हनुमानजी एवं सप्तऋषियों की प्रतिमाएं स्थापित है। पाण्डवों के स्वर्गारोहण के भी यहाँ पार्क में विग्रह स्थापित हैं। इसे सप्तसरोवर घाट के नाम से भी जाना जाता है। यह भी दर्शनार्थियों के बीच लोकप्रिय घाट है, जिसमें आरती पूजा से लेकर धार्मिक कार्यक्रम पास के शिवमंदिर में चलते रहते हैं। यहाँ के प्रशिक्षित पुजारी से विधि विधान से पूजापाठ व कर्मकाण्ड की सेवा उपलब्ध रहती है।

इसके आगे घाट 18 – गंगा कुटीर घाट है, इसके सामने का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। यह स्नान-विश्राम का एक लोकप्रिय स्थल है। इसके आगे आता है घाट 19 - विरला घाट। जिसके सामने थोड़ी आगे गंगाजी की धारा में लोगों को खेलते देखा जा सकता है और यहीं से वे उस पार टापूओं में भी आगे बढ़ते हैं। और अंत में इसके आगे आता है, घाट 20 जिसे व्यास मंदिर घाट के नाम से जाना जाता है। दक्षिण भारत की शैली में बने व्यास मंदिर का निकास यहाँ होता है। इसके किनारे गंगाजी की पतली धारा बहती है, जिसमें यात्रियों को पूजा पाठ से लेकर स्नान करने की सुविधा है। घाट की कुर्सियों व बेंचों पर बैठकर सामने के टापू का सुन्दर नजारा निहारा जा सकता है। दूर पहाड़ व इनकी गोद में बसे गाँवों का विहंगम दर्शन भी यहाँ सुलभ रहता है।

इस तरह गंगा किनारे 1 से लेकर 20 नम्बर तक के घाट यात्रियों, तीर्थयात्रियों, पर्यटकों व स्थानीय नागरिकों के दैनिक जीवन का अहं हिस्सा हैं। सुबह-शाम इनके किनारे बनें बाँध पर टहलने का आनन्द लिया जा सकता है और इनके किनारे गंगातट पर कुछ पल ध्यान, आत्म चिंतन व मनन के बिताए जा सकते हैं। प्रकृति की मनोरम गोद में बसे ये घाट व इनके किनारे बाँध का रुट भ्रमण के लिए आदर्श है। इन घाटों के किनारे गंगाजी के सात्विक प्रवाह के साथ दिव्य वातावरण में कुछ पल बिताकर पुण्य लाभ से लेकर आत्म-शांति सहज रुप में पायी जा सकती है।

गंगा किनारे बाँध के ऊपर भ्रमण-टहल पथ, उत्तरी हरिद्वार

रविवार, 28 फ़रवरी 2021

हरिद्वार से चण्डीगढ़ वाया हथिनीकुँड

गाँव-खेत-फ्लाइऑवरों व नहरों के संग सफर का रोमाँच


हरिद्वार से चण्डीगढ़ लगभग दो सवा दो सौ किमी पड़ता है, जिसके कई रूट हैं। सबसे लम्बा रुट देहरादून-पोंटा साहिब एवं नाहन से होकर गुजरता है। दूसरा बड़ी बसों का प्रचलित रुट वाया रुढ़की-सहारनपुर-यमुनानगर-अम्बाला से होकर जाता है। छोटे चौपहिया वाहनों के लिए शोर्टकट रुट वाया हथिनीकुंड वैराज से होकर है, जिस पर दिन के उजाले में सफर का संयोग पिछले दिनों बना। फरवरी माह के तीसरे सप्ताह में सम्पन्न यात्रा कई मायनों में यादगार रही, जिसे यदि आप चाहें तो इस रुट का चुनाव करते हुए अपने स्तर पर अनुभव कर सकते हैं।

इस रुट की खासियत है, गाँव-खेतों, छोटे कस्वों एवं गंगा-यमुना नदी की नहरों के किनारे सफर, जिसमें कितनी तरह की फसलों, फल-फूलों व वन-बगानों से गुलजार रंग-बिरंगे अनुभव कदम-कदम पर जुड़ते जाते हैं। साथ में मिलते हैं लोकजीवन के अपने विविधतापूर्ण मौलिक रंग-ढंग, जो अपनी खास कहानी कहते प्रतीत होते हैं।



हरिद्वार से बाहर निकलते ही गंगनहर के किनारे सफर आगे बढ़ता है। महाकुंभ 2021 के लिए बने नए फलाई-ऑवर के संग सफर एकदम नया अनुभव रहा, क्योंकि सड़क पहले से अधिक चौड़ी, सपाट, सुंदर और सुव्यवस्थित हो गई हैं, साथ ही एक तरफे ट्रैफिक के चलते काफी सुरक्षित एवं आरामदायक भी। फिर फ्लाई-ऑवर के टॉप से नीचे शहर, गंगा नदी इसके मंदिर-आश्रमों एवं चारों ओर दूर पहाड़ियों के दृश्यों के नजारे स्वयं में दर्शनीय लगे।

गुरुकुल कांगड़ी विवि से होकर ज्वालापुर को पार करते ही सफर शहर के बाहर गंगाजी की छोटी सी धारा (नहर-कुल्ह) के संग आगे बढ़ता है और फिर आता है उत्तराखण्ड संस्कृत विवि और थोड़ी देर में बहादरावाद, जहाँ वाईं ओर सड़क रुढ़की के लिए मुड़ जाती है, लेकिन हमारा रुट दायीं ओर से होकर गंग नहर के संग आगे बढ़ता है, कुछ देर में नहर को पार कर हम भगवानपुर की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में खेत-खलिहानों के दर्शन शुरु हो जाते हैं। बीच-बीच में छोटे कस्बे आते रहे, नाम तो सही ढंग सें याद नहीं, हाँ बीच में बोर्ड देख पता चला कि पिरान कलियर से दो किमी दूरी पर आगे बढ़ रहे थे। मालूम हो कि पिरान कलियर शरीफ, सूफी संत अलाउद्दीन अली अहमद साबिर को समर्पित दरगाह है, जो हिन्दु और मुस्लिम दोनों के लिए महान आध्यात्मिक ऊर्जा का स्थान माना जाता है।

आगे मार्ग में मुस्लिम बहुल आवादी के दर्शन मिले। खेतों में गैंहूं की फसल तैयार हो रही थी, बीच में जौ की खेती भी दिखी। इसके साथ कहीं-कहीं सरसों के खेत कहीं खालिस पीला रंग लिए हुए थे, तो कहीं गैंहूं के बीच हरा पीला रंग लिए अपनी खास उपस्थिति दर्शा रहे थे। 


गन्ने की खेती भी रास्ते भर होती दिखी, कहीं ट्रैक्टरों में गन्ने को लादकर फेक्ट्री में ले जाया जा रहा था तो कहीं सड़क के किनारे गन्ने से ताजा गुढ़ बनते कई ठिकाने दिखे, जो अपनी धुँआ उगलती भट्टियों के साथ बिखरती मिट्ठी खुशबू के साथ अपना परिचय दे रहे थे।

बीच-बीच में आम के बगीचे मिले। इस सीजन में भी आम के फलों को देखकर आश्चर्य हो रहा था, जो सड़क के किनारे दुकानों पर सजे थे। इस बेमौसमी फल के साथ कुछ स्थानों पर अखरोटों से सज्जे ठेले भी दिखे, जिन्हें टोकरियों में सजाया गया था व इन पर काश्मीर के कागजी अखरोट होने के लेबल लगे थे।


सफेदे के पेड़ तो खेत की बाउँडरी पर बहुतायत में दिखे, लेकिन इनके साथ जो अधिक सुंदर लग रहे थे, वे थे पॉपलर के पेड़, जिन्हें खेतों के बीच कतारबद्ध उगाया गया था। आसमान को छूते इनके सीधे खडे पेड़ कौतुहल जगा रहे थे कि इनका क्या मकसद रहता होगा। पता चला कि इन्हें माचिस की तिल्लियों से लेकर प्लाईवुड व पैंसिल के लिए उपयोग किया जाता है, इससे कागज भी तैयार होता है और इनकी फसल किसानों के लिए आमदनी का बेहतरीन स्रोत्र रहती है। यह बहुत तेजी से बढ़ने वाला पौधा है, जो 50 से 165 फीट तक ऊँचाई लिए होता है, जो 5 से 7 साल में 85 फीट व इससे अधिक ऊँचाई पा लेता है। रास्ते में इनकी लकड़ी के लट्ठों से लद्दे ट्रैक्टर एवं ट्रकों को देखकर इसके व्यापार की झलक भी मिलती गई।

इस तरह कई खेत, कस्वे व गाँवों को पार करते हुए सफर आगे बढ़ता रहा। एक दूसरी नहर रास्ते में मिलती है, जिसका जल आसमानी नीला रंग लिए काफी निर्मल दिख रहा था। रास्ते में मिली गंग नहर जहाँ काफी गहरी थी, वहीं यह नई नहर उथली थी, लेकिन अपने दोनों ओर की दृश्यावलियों के साथ अधिक सुंदर एवं भव्य लग रही थी।


अगले लगभग आध-पौन घंटे तक इसके किनारे सुखद सफर आगे बढ़ता रहा, यथासंभव इसके सुंदर नजारों को कैप्चर करते रहे और उस पार बसे गाँव, घर, खेत, बगीचों को निहारते हुए सफर का आनन्द लेते रहे।

अब तक हम इसके उद्गम स्रोत्र की ओर पहुँच चुके थे, आवादी विरल हो चुकी थी, नदी के तट व नहरों के निकास मार्ग दिखे, जिनमें कुछ सूखे प़ड़े थे, तो कुछ में पानी बह रहा था। हम हथिनीकुंड बैराज की ओर बढ़ रहे थे। इसके उत्तर में जल सरोवर के रुप में एकत्र था, लेकिन जालीदार दिवार के कारण इसकी पूरी झलक नहीं मिल पा रही थी। वायीं ओर जल ना के बराबर था, ऐसा लग रहा था कि बाढ़ की स्थिति में ही इससे जल छोड़ा जाता होगा। अगले मुहाने पर जल नीचे एक नहर के रुप में बाहर छोडा गया था, जो आसमानी रंग लिए अपनी निर्मलता का सुखद अहसास दिला रहा था। बाँध के छोर पर एक ऊँट के दर्शन हमें थोड़ा चकित किए। अब हम इसके किनारे दायीं ओर से नीचे बढ़ रहे थे। लगभग आधा किमी तक हम नहर के किनारे दायीं ओर से बढ़ते गए, सुंदर नजारों का शीतल व सुखद अहसास लेते रहे। आश्चर्य़ हुआ कि दिल्ली में गंदे नाले का रुप लिए यमुनाजी यहाँ कितनी साफ व निर्मल थी।



मालूम हो कि हथिनी कुंड बैराज पोंटा साहिब की ओर से आ रही यमुना नदी पर बनी हुई है। इसका जल यमुना नदी के अतिरिक्त पूर्वी और पश्चिमी दो नहरों के माध्यम से निचले इलाकों में खेती के लिए सिंचाई के काम आता है। साथ ही बारिश में बाढ़ की स्थिति में यहाँ से जल को नियंत्रित करके आगे छोड़ा जाता है, हालाँकि पानी के बढ़ने पर इसके फाटकों के खुलने पर नीचे दिल्ली सहित मैदानी इलाकों में स्थिति विकराल हो जाती है, जिस कारण हथिनी बैराज का नाम एक वरदान के साथ एक खतरनाक संरचना के रुप में भी जोड़कर देखा जाता है। लेकिन आज तो हम इसके शांत-सौम्य स्वरुप के दर्शन कर रहे थे।

अब हम नीचे जंगल व खेतों के बीच आगे बढ़ रहे थे। दायीं ओर पीछे उत्तराखण्ड की छोटी शिवालिक पहाड़ियाँ दिख रही थीं और इसकी गोद में दूर तक फैले खेत-खलिहान एवं गाँव। रास्ते में ही एक ढावे में दोपहर के भोजन के लिए रुकते हैं। हम हरियाण में प्रवेश कर चुके थे और यहाँ भोजन में हरियाण्वी तड़का चख्न्ने को मिला। यहाँ मात्र तंदूरी रोटी और दाल-सब्जियाँ ही उपलब्ध थीं। चाबल का अभाव दिखा। बापसी के सफर में भी हथिनीकुँड के पास के वैष्णों ढावे में भोजन का यही अनुभव रहा। यहाँ सब्जी में मिर्च पर्याप्त मिली, जिसका दही के साथ संतुलन बिठाते रहे, हालाँकि लाल मिर्च पाउडर की वजाए यहाँ हरी मिर्च काटकर भोजन में उपयुक्त होती दिखी।


इसी रास्ते में सड़क के किनारे सेंट की दुकानें सजी मिली। फलों की दुकानें तो पूरे मार्ग में कदम-कदम पर आवादी बाले इलाकों में दिखती रही, जहाँ मुख्यता कीनूं, अमरुद, केला, अंगूर जैसे मौसमी फल बहुतायत में दिखे।

आगे का सफर जगाधरी से होकर गुजरा, जो यमुनानगर से पहले ही वाईपास रुट से मुड़ जाता है, जिसमें हम प्रचलित अम्बाला रुट से दूर ही रहे। यह सफर भी नए रुट पर था, जिस पर किसान आन्दोलन का असर साफ दिखा। मार्ग के टोल प्लाजा विरान पड़े थे, कहीं भी पैसा बसूली होती नहीं मिली। सड़क पर्याप्त चौड़ी और फ्लाई ऑवर से लैंस मिली। पंचकुला तक यह चौडी, स्पाट सड़कें हमारे सफर को सुकूनदायी बनाए रही।


 
इस रुट में भी खेत खलिहान, गाँव मिले, लेकिन पिछले रुट से कुछ चीजें नई दिखीं। यहाँ स्ट्रा बैरी की फसल अधिक मिली, जिनको सड़क के किनारे डब्बों में सजाकर बेचा जा रहा था। इनके खेत भी रास्ते में मिले, जिनको कतारबद्ध सुखी तरपाली की छाया में उगाया जाता है। इस राह में आम-अमरुद आदि के बगीचे कम दिखे, फूलगोभी, पत्तोगोभी, मटर जैसी सब्जियों के प्रयोग अधिक दिखे। लगा पास की शहरी आबादी की खपत के लिए इन्हें कैश क्रोप के रुप में तैयार किया जाता होगा। पोपलर के पेड़ इस रुट में भी खेतों में बीच-बीच में अपनी भव्य उपस्थिति दर्शा रहे थे।

साथ ही इस राह में एक नयी चीज दिखी, जो थी ईंट के भट्टे, जहाँ ईंटें तैयार की जा रही थी। शायद जहाँ जमीन अधिक उपजाई नहीं होती, एक खास किस्म की मिट्टी पाई जाती है, वहाँ ऐसे प्रयोग किए जाते होंगे। पंचकुला में प्रवेश करने से पूर्व हिमाचल प्रदेश की नाहन साईड़ की पहाडियाँ मिलती हैं, जिनमें कीकर के जंगल बहुतायत में दिखे और साथ ही बहुमंजिली ईमारतों के दर्शन भी शुरु हो गए थे, जिनमें शहर की फूलती आबादी को समेटने के प्रयास दिखे।

इसी के साथ थोडी देर में पंचकुला से चण्डीगढ़ शहर में प्रवेश होता है। इसके प्लानिंग के तहत बनाए गए सेक्टर, सुंदर गोल चौराहे, सड़कों के किनारे पर्याप्त स्पेस में सजे भव्य एवं सुंदर घर, सड़क के दोनों किनारों पर हरे-भरे सुंदर वृक्षों की कतारें, सिटी ब्यूटीफुल में प्रवेश का सुखद अहसास दिला रहे थे और सफर मंजिल की ओर बढ़ रहा था। इस तरह कई सुंदर चौराहों को पार कर हम अपने ठिकाने पर पहुँचते हैं। आज की शाम आस-पास चण्डीगढ़ में कुछ विशिष्ट स्थलों के नाम थी। धर्मशाला में फ्रेश होकर हम इनके दर्शन के लिए निकल पड़ते हैं, जिनका जिक्र अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

अगले दिन बापसी का सफर एक और शॉर्टकट रुट से होकर रहा, इसमें पंचकुला के थोड़ा आगे से बायीं ओर मुड़ जाते हैं, जिसकी राह में नरायणगढ़ और बिलासपुर जैसे कस्बे पड़े। हिमाचल प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के बाद आज हम हरियाणा के बिलासपुर से परिचित हुए। इस मार्ग में सिक्खों के तीर्थ स्थल बहुतायत में दिखे। रास्ते में काफी दूर तक गुरुगोविंद सिंह मार्ग एवं इस पर बंदा बहादुर सिंह चौक एवं कुछ गुरुद्वारे मिले। बापसी में फिर हथिनीकुंड बैराज पहुँचते हैं, जहाँ बापसी में इससे निस्सृत नहर के किनारे ढलती शाम के साथ एक यादगार सफर पूरा होता है। आगे गंग नहर और फिर हर-की-पौड़ी को पार करते हुए अपने गन्तव्य स्थल पहुँचते हैं। इस तरह दिन के उजाले में हरिद्वार से चण्डीगढ़ वाया हथिनीकुंड का सफर एक यादगार अनुभव के रुप में अंकित होता है।


रविवार, 29 नवंबर 2020

गढ़वाल हिमालय की गोद में बसा देहरादून

 हिमालय के आँचल में बसा देहरादून

Dehradun Valley from Landour, By Paul Hamilton, Wiki

उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून गढ़वाल हिमालय की तराई में बसा एक महत्वपूर्ण शहर है, जो राष्ट्रीय महत्व के कई शिक्षण एवं प्रशिक्षण संस्थानों के लिए जाना जाता है। शहर बहुत पुरातन है। द्रोण नगरी के नाम से माना जाने वाला देहरादून अपना पौराणिक इतिहास लिए हुए है। सहस्रधारा की गुफा में स्थित द्रोणाचार्य की गुफा व उनका विग्रह आज भी इसकी गवाही देते हैं।

द्रोणाचार्य गुफा मंदिर, सहस्रधारा

टपकेश्वर में स्थित गुफा में माना जाता है कि द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा का जन्म हुआ था। आज भी यहाँ की गुफा से गिरता जल शिवलिंग का अभिषेक करता है। इसी परम्परा में भारतीय सैन्य संस्थान (IMA - इंडियन मिलिट्री एकादमी) की स्थापना देहरादून में की गई, जहाँ से भारतीय सेना के लिए कमिशन्ड अफसर तैयार किए जाते हैं। इसके साथ यहाँ कई मिलिट्री स्कूल और कालेज भी हैं। गढ़ी कैंट में पूरी आर्मी की छावनी यहाँ स्थित है।

देहरादून का नाम सिखों के गुरु राम राय से भी जुडा हुआ है। जब वे पंजाब से आकर इस क्षेत्र में बसे तो उनके डेरों के नाम पर यहाँ का नाम देहरादून पड़ा। आज भी गुरु रामराय के आश्रम के साथ इनकी स्थापित शैक्षणिक संस्थाओं की भरमार है। जिसमें स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी से लेकर मेडिक्ल संस्थान एवं अस्पताल यहाँ मौजूद हैं।

गढ़वाल तथा शिवालिक पहाड़ों की तराई पर बसे होने के कारण यहाँ की आवोहवा न अधिक गर्म है और न अधिक ठण्डी। साथ ही घने वनों के बीच बसे होने के कारण प्रारम्भ में इस जगह को स्वास्थ्यबर्धक एवं बेहतरीन माना गया। हालाँकि राजधानी बनने के बाद यहाँ आबादी का दबाव बढ़  गया है तथा प्रदूषण से लेकर घिच-पिच आबादी और ट्रैफिक समस्याएं आए दिन सरदर्द बनती रहती हैं। हालाँकि कई फ्लाईओवर और वाईपास बनने से इससे निजात पाने के प्रयास जोरों से चल रहे हैं।

इसके बावजूद देहरादून में कई दर्शनीय स्थल हैं, जिन्हें व्यक्ति दो-तीन दिन में देख सकता है। सहस्रधारा का जिक्र पहले हो चुका, जो शहर के बाहर मसूरी बाईपास पर रायपुर से लगभग 8 किमी दूरी पर स्थित है। यहाँ गुफा व मंदिरों के अतिरिक्त सहस्रों धाराओं में बह रहे झरनों का प्राकृतिक दृश्य देखने लायक रहता है, जिसके आधार पर इसका नाम सहस्रधारा पड़ा है।

सहस्रधारा

झरनों के बीच कुछ गुफाएं भी हैं, जिनमें फिसलने से बचते हए आनन्द लिया जा सकता है। नीचे नाला बहता है, जिसको रोककर स्नान योग्य छोटी-छोटी झीलें बनाई गई हैं, जिसमें डूबकी का लुत्फ गर्मियों में उठाया जा सकता है। इसके तट पर गंधक का जलस्रोत भी है, जिसका जल चर्म रोगों के लिए उपयोगी माना जाता है।

यहीं से बापसी में मसूरी बाईपास से होकर सीधे साईं मंदिर आता है, जहाँ के शांत-एकांत वातावरण में कुछ भक्तिमय पल बिताए जा सकते हैं। इसके साथ ही बौद्ध गोम्पा के दर्शन किए जा सकते हैं, जिसमें कालेज भी है। सांईं मंदिर के आगे श्रीअरविंद आश्रम भी है, जहाँ ध्यान के कुछ पल विताए जा सकते हैं। इसके आगे माता आनन्दमयी का आश्रम है, माना जाता है कि माता आनन्दमयी ने उत्तराखण्ड में सबसे पहले इस स्थल पर पदार्पण किया था, जो उनकी कई लीलाओं का साक्षी रहा है। इस मार्ग पर नीचे किशनपुर चौराहे के आगे रामकृष्ण मिशन पड़ता है। यहाँ के आध्यात्मिक ऊर्जा से चार्ज शाँत परिसर में मंदिर दर्शन के बाद पुस्तकों का अवलोकन किया जा सकता है, जिसमें रामकृष्ण परमहंस व स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकें उपलब्ध रहती हैं। यहाँ पुस्तकाय भी है, जिसमें बैठकर स्वाध्याय का लाभ लिया जा सकता है।

रामकृष्ण मंदिर

यहाँ से थोड़ा नीचे दायीं ओर लिंक रोड़ से टपकेश्वर पहुंचा जा सकता है जो तमसा नदी पर बसा है। इसी के पीछे कुछ किमी पर गुच्चु पानी पड़ता है, जिसे रोबर्ज केव भी कहा जाता है। अंग्रेजों के समय यह सुल्ताना डाकू के छिपने का ठिकाना था। ऊपर से खुले गुफनुमा मार्ग से इसके अंदर प्रवेश होता है। प्रायः घुटनों तक पानी के बीच इसमें चलना पड़ता है, जो बरसात में बढ़ जाता है। अंदर बैठने के कई ठिकाने हैं और जल-पान की व्यवस्था भी। कुछ स्टुडेंटस यहाँ के एकांत स्थल में परीक्षा की तैयारी करते देखे जा सकते हैं और साथ ही प्रेमी जोड़ों के लिए भी यह मिलने का एक आदर्श स्थल रहता है। अंदर 2-3 किमी तक पैदल चलते हुए दूसरी ओर से बाहर निकलने का रास्ता है। लेकिन इस एडवेंचर को ग्रुप में ही करना उचित रहता है, अकेले में व्यक्ति भटक सकता है और घबराहट में परेशान भी हो सकता है।

गुच्चु पानी गुफा प्रवेश

यहीं से वाहन से आर्मी केंटोनमेंट को पार करते हुए बन अनुसंधान संस्थान (FIR-द फोरेस्ट रिसर्च इंस्टीच्यूट) आता है, जिसे अब डीम्ड-यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया है। वन से सम्बन्धित यह भारत का सबसे बड़ा प्रशिक्षण संस्थान है और अधिकाँश फोरेस्ट अफसर यहाँ से तैयार किए गए हैं। इसका परिसर 450 एकड़ भूमि में फैला हुआ है। ग्रीको रोमन शैली में बना इसका भवन बास्तुशिल्प का एक उत्कृष्ट नमूना है, जो बहुत भव्य लगता है। इसमें वनों का बेहतरीन म्यूजियम बना हुआ है, जिसमें 700 साल पुराने वृक्ष के तने को तक संरक्षित रखा गया है। कुछ फीस के साथ यहाँ के हरे-भरे परिसर में यादगार पल बिताए जा सकते हैं। इसी के आगे आईएमए (इंडियन मिलिट्री एकेडमी) है, जिसके बाहर से दर्शन किए जा सकते हैं।

भारतीय सैन्य संस्थान (IMA)

इसके साथ देहरादून में तमाम राष्ट्रीय महत्व के संस्थान मौजूद हैं, जिन्हें अपनी रुचि के अनुसार भ्रमण किया जा सकता है। जैसे यूकोस्ट, सर्वे ऑफ इंडिया, वाइल्ड लाइफ इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया, वाडिया इंस्टीच्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, ओएनजीसी, इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग, नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ विजुअली हैंडिकेप (एनआईवीएच), बोटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया, सेंट्रल सोइल एण्ड वाटर कंजर्वेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट आदि। इसके साथ कई सरकारी तथा प्राईवेट विश्वविद्यालय एवं कॉलेज यहाँ स्थापित हैं, जैसे – दून विश्वविद्यालय, इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पैट्रोलियम, उत्तराँचल यूनिवर्सिटी, उत्तराँचल टेक्निकल यूनिवर्सिटी, ग्राफिक ईरा यूनिवर्सिटी, आईएमएस यूनिसन यूनिवर्सिटी, डीआईटी, जी हिमगिरि यूनिवर्सिटी, पेट्रोलियम यूनिवर्सिटी, द राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कालेज (आरआईएमसी), बीएफआईटी, डीएवी कालेज आदि।

घंटाघर - देहरादून का केंद्रिय स्थल


खरीददारी के लिए पलटन बाजार यहाँ की प्रमुख मार्केट हैं, जहाँ वीक-एंड में काफी भीड़ और हलचल रहती है। यहाँ पर घरेलु उपयोग की लगभग हर बस्तु उपलब्ध हो जाती है। यदि समय बिताना हो तो गाँधी पार्क में पेड़ों की छाया तले आराम से समय बिताया जा सकता है, जिसके बग्ल में पैरेड ग्राउंड है, जहाँ आए दिन कई तरह के मेले, उत्सब चलते रहते हैं। यहीं पर प्रेस क्लब के साथ एक बड़ी लाइब्रेरी भी है, जहाँ पुस्तक प्रेमी सदस्य बनकर अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं। इसके आस पास खाने-पीने के तमाम विकल्प उपलब्ध हैं। रेड़ी से लेकर ढावे एवं रेस्टोरेंट में आपके खानी-पीने की हर जरुरत पूरी हो जाती है।

बुद्धा टेम्पल, क्लेमेंटाउन

देहरादून का एक विशेष आकर्षण है बुद्धा टेम्पल, जिसका जिक्र किए बिना शायद देहरादून की यात्रा अधूरी मानी जाएगी। यह देहरादून के दक्षिणी छोर में क्लेमेंनटाउन में स्थित है, जहाँ बुद्ध भगवान का भव्य मंदिर है और एक तिबतन मार्केट भी। इसके पीछे साल का घना जंगल है। यहाँ कुछ पल शांति के साथ बिताए जा सकते हैं।

आईएसबीटी देहदरादून में बसों की बेहतरीन सर्विस रहती है, जहाँ से उत्तराखण्ड के किसी भी कौने तथा दूसरे प्राँतों के लिए बस उपलब्ध रहती हैं। यहाँ से मसूरी की पहाड़ियों के दर्शन सहज ही किए जा सकते हैं। रात को इसकी टिमटिमाटी रोशनी बहुत खूबसूरत लगती है। बर्फ पड़ने पर देहरादून से इसके सुन्दर नजारे देखे जा सकते हैं।

इसके अतिरिक्त देहरादून के थोड़ा बाहर हरिद्वार सड़क पर लक्ष्मण सिद्धबली मंदिर, आगे लच्छीवाला पिकनिक स्थल दर्शनीय हैं।

लच्छीवाला

मसूरी रोड़ पर माल्सी डीयर पार्क, क्रिश्चियन रिट्रीट सेंटर पड़ते हैं। ट्रैकिंग प्रेमी यहाँ से थोड़ी आगे शेखर फॉल की पैदल यात्रा कर सकते हैं, जो देहरादून में जल का एक प्रमुख स्रोत है। रायपुर साईड में मालदेवता भी दर्शनीय स्थल है। सांतला माता का मंदिर भी ट्रेकिंग व तीर्थाटन के हिसाब से एक महत्वपूर्ण पड़ाव है।

देहरादून में पुस्तक प्रेमियों के लिए कई बुक शॉप्स भी हैं, जैसे – बुक वर्ल्ड, इंग्लिश बुक डिपो, रमेश बुक डिपो आदि। लेखकों के लिए विंसर पब्लिकेशन, समय साक्ष्य जैसे प्रकाशन भी यहाँ उपलब्ध हैं। इसके साथ कई एनजीओ यहाँ के परिसर में हैं, जैसे नवधानिया, हेस्को आदि। जो जैविक खेती, बीज एवं जैव विविधता संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण एवं ग्रामीण विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, जिनकी ज्ञानबर्धक जानकारी आप आगे दिए गए लिंक्स में पढ़ सकते हैं।

नवधान्या विद्यापीठ

हेस्को - प्रकृति-पर्यावरण एवं ग्रामीण विकास की अभिवन प्रयोगशाला

ऑर्गेनिक फार्मिंग, जैव विविधता संरक्षण की प्रयोगशाला - नवधान्या विद्यापीठ 

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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