शुक्रवार, 30 जून 2017

बाल विकास



अभिभावक समझें अपनी जिम्मेदारी
परिवार व्यक्ति एवं समाज को जोड़ने वाली सबसे महत्वपूर्ण कडी है। शिशु के निर्माण की यह प्राथमिक ईकाई है। इसी के साय में शिशु का निर्माण होता है, यह उसकी पहली पाठशाला है।  माँ-वाप एवं अभिभावक की छत्रछाया में शिशु का लालन-पालन होता है। शिशु के भावनात्मक विकास की नींव अधिकांशतः इस दौरान पड़ जाती है, जो जीवनपर्यन्त उसके व्यक्तित्व का एक अहं हिस्सा बनकर उसके साथ रहती है। इस प्रकार घर-परिवार का वातावरण बहुत अहम है।


शिशु का विकास सही दिशा में हो इसके लिए आवश्यक है कि घर का वातावरण ठीक हो। जैसे कोई भी फसल सही वातावरण में ही पूरा विकास पाती है, और प्रतिकूल आवो-हवा में मुरझा जाती है। बैसे ही शिशु मन, अंकुर सा पनपता एक नन्हें पौध जैसा होता है, जिसको अपने सही विकास के लिए उचित वातावरण एवं खाद-पानी की जरुरत होती है, जिसकी व्यवस्था करना अभिभावकों का पावन कर्तव्य है। शिशु मन मिट्टी के लौंदे की तरह कोमल, सुकुमार होता है, जिसे आप मनचाहा रुप दे सकते हैं।

लेकिन उस बीज की अपनी एक प्रकृति भी होती है, उसका अपना मौलिक स्वरुप एवं विशेषता भी होती है, उसको भी पहचानना है। उस पर अपनी मर्जी थौंप कर उस पर अनावश्यक दवाब डालना  अत्याचार करना होगा। इस दौरान मन पर पड़े जख्म जीवन भर नहीं मिट पाते। यदि ये मधुर व सुखद हैं तो जीवन के संघर्ष में ये हर मोड़ पर प्रेरक शक्ति बन कर साथ देते हैं और यदि स्मृतियाँ कटु, दुखद एवं त्रास्द हैं तो इसके जख्म जीवन पर्यन्त नासूर बन कर रिस्ते रहते हैं।

यदि हम सही मायने में अपनी संतान से प्यार करते हैं, उनका हित चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि कुछ मूलभूत बातों का ध्यान रखें – 
1.     आपसी प्रेम भाव – माँ-बाप के बीच मधुर प्रेम की स्नेहिल एवं शीतल छाया में विकसित हो रहा शिशु मन ऐसा पोषण पाता है, जिससे उसका सशक्त भावनात्मक विकास होता है, जो जीवन भर उसको सकारात्मक दृष्टिकोण, आंतरिक स्थिरता एवं मजबूती देता है। इसके विपरीत मन-मुटाव, क्लह-कलेश से भरा घर का वातावरण शिशु मन पर बहुत ही विषाक्त असर डालता है। उसका सही विकास नहीं हो पाता। मन असुरक्षा के भाव से पीड़ित रहता है। अंदर एक अतृप्ति-खालीपन कचोटता रहता है, जिसकी खोज में वह जिंदगी भर भटकता रहता है।
अतः यह महत्वपूर्ण है कि आपस में प्रेम भाव से रहें, मिल-जुलकर रहें। स्वतः ही संतान का भाव सिंचन एवं पोषण गहनतम स्तर पर होता जाएगा।
2.     सात्विक व्यवहार – शिशु के सामने जो भी व्यवहार करते हैं, वह उसे सीधा ग्रहण करता है। उसमें सही-गल्त को जानने समझने का विवेक नहीं होता है। वह तो कोरी पट्टी की तरह होता है, आस-पास के वातावरण का आचार, व्यवहार एवं विचार सीधे उस पर छपते जाते हैं। आपका सात्विक व्यवहार उसके मन पर ऐसी छाप डालेगा, कि जीवन पर्यन्त वह चरित्र बन कर उसको स्थिरता-शक्ति देता रहेगा और बड़ों की नादानियाँ भी उसी तरह से उनके जीवन को चौपट कर सकती हैं।

यह अभिभावकों का निर्णय है कि वह क्या चाहते हैं। यदि इस कार्य में शुरु में लापरवाही बरती गई, तो बाद में बच्चों के कुसंस्कारी होने व अवांछनीय गतिविधियों में संलिप्त होने के लिए दोषी ठहराने का कोई औचित्य नहीं। समय रहते आपके हाथ में बहुत कुछ था, जिसे आपको करना था।

3.     बच्चों पर अपनी महत्वाकाँक्षा न थोंपे  - शिशु पर कुछ थोपें नहीं। उसके  स्वतंत्र व्यक्तित्व को समझें व उसका सम्मान करें। आशा-अपेक्षाओं का अनावश्य बोझ न लादें। प्रायः यह देखा जाता है। अभिभावक संतान को अपने मन की कुण्ठा, महत्वाकाँक्षा और स्वार्थ का शिकार बनाते हैं। यदि माँ-बाप अफसर न बन पाए तो अब वे वच्चे को अफसर बना कर ही रहेंगे। यदि बड़े डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस न बन पाए तो अब वे अपनी इस दमित इच्छा को बच्चों पर थोंपेंगे। अविभावक यह ध्यान दें कि यदि संतान की रुचि, योग्यता इस काबिल है तो ठीक है अन्यथा उसके स्वभाव के अनुरुप ही उसे पनपने दें। प्रतिभाएँ स्वतंत्र वातावरण में पनपा करती हैं। यदि सचिन पर संगीत थोंपा जाता और लता मुंगेश्कर को क्रिकेट के मैदान में धकेला जाता, तो क्या उनकी प्रतिभा उस रुप में पनप पाती जैसा कि वे आज सभी के लिए एक वरदान सिद्ध हो रहे हैं।
अतः यह माँ-बाप का पावन कर्तव्य है कि अपनी संतान की मूल प्रकृति, स्वभाव एवं रुचि को समझें व उसके अनुरुप उसको बढ़ने में अपना भरपूर सहयोग दें। यही घर में खिल रही नन्हीं कली पर सबसे बड़ा उपकार होगा।

4.     बनाएं आस्तिकता का माहौल – घर-परिवार में आस्तिकता का वातावरण तैयार करें। घर का एक कौना पूजा-पाठ एवं ध्यान-सतसंग आदि के लिए सुरक्षित हो। स्वयं नित्य ध्यान-भजन एवं स्वाध्याय आदि का न्यूनतम् क्रम अपनाएं। और परिवार जनों को भी इसके लिए प्रेरित करें। संभव हो तो सभी मिलकर प्रातः या सांय एक साथ मिल कर साधना-भजन आदि करें। इससे घर में सात्विक विचार तरंगों का संचार होगा और परिवार में दैवीय वातावरण बनेगा। कोमल मन पर इसकी पड़ रही छाप और इसके दुरगामी सुखद परिणाम की आप कल्पना कर सकते हैं। इसे आगे बढ़ाते हुए सामूहिक सतसंग, विचारगोष्ठी आदि का उपक्रम भी सप्ताह अंत में किया जा सकता है। अध्यात्मपरायण माहौल की ही तरह महत्वपूर्ण है बड़ों का आदर्शनिष्ठ आचरण-व्यवहार।

5.     अपने उदाहरण से दें शिक्षण – बच्चों में हम जिन सदगुणों को देखना चाहते हैं, जिस चरित्र की आशा करते हैं, वैसा उदाहरण स्वयं प्रस्तुत करने की कोशिश करें। यह बच्चों के चरित्र निर्माण एवं नैतिक विकास का सबसे प्रभावी एवं सुनिश्चित मार्ग है। जब बड़े खुद अपनी कहे पर अमल करेंगे, तो छोटे स्वतः ही उसका अनुकरण करेंगे। क्योंकि बिना आचरण में लाया गया उपदेश निरर्थक होता है। और सबसे बड़ा उपदेश वह होता है जो वाणी से नहीं अपने आचरण द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
यदि माँ-बाप एवं घर के बड़े लोग इन सरल-सामान्य से सुत्रों का ध्यान रखेंगे और निष्ठापूर्वक पालन करेंगे, तो कोई कारण नहीं कि परिवार का वातावरण शांति, सौहार्द्रय एवं सात्विकता से भरा-पूरा न होगा। इसके साय में पलता बढ़ता शिशु मन ऐसा भावनात्मक पोषण पाएगा, जो उसे जीवन पर्यन्त प्रतिकूलताओं से जुझने की मजबूती देगा। उसके जीवन के भावी रणक्षेत्र में आगे चलकर विचलित होने, भटकने-बहकने का कोई आधार न रहेगा। अपने कृत्यों द्वारा वह न केवल अपने जीवन को धन्य वनाएगा, बल्कि माता-पिता का भी नाम रोशन करता हुए पूरे संसार-समाज के लिए एक वरदान साबित होगा।

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