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वो पल दो-चार

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मई माह में बाद दोपहरी की शीतल वयार , सूरज अस्ताचल की ओर बढ़ रहा , झुरमुट के आंचल में बैठा चाय का कर रहा था इंतजार , गगनचुम्बी देवतरु के सान्निध्य में बैठा विचारमग्न , घाटी की गहराईयों से चल रहा था कुछ मूक संवाद , बाँज-बुराँश के हिलते पत्ते झूम रहे थे अपनी मस्ती में , आकाश में घाटी के विस्तार को नापती बाज़ पक्षियों की उड़ान , वृक्षों पर वानरसेना की उछलकूद , घाटी से गूंजता पक्षियों का कलरव गान , मन में उमड़-घुमड़ रही थी संकल्प-विकल्प की बदलियाँ , चिदाकाश पर मंडरा रहे थे अवसाद के अवारा बादल दो-चार , विदाई के नजदीक आते दिनों के लिए , कर रहा था मन को तैयार। लो आ गई प्रतीक्षित प्याली गर्म चाय की , चुस्की के साथ छंटने लगी आकाश में छाई काली बदलियाँ , अड़िग हिमालय सा ध्यानस्थ हो चला गहन अंतराल , थमने लगी चित्त की चंचल लहरें , शांत हो चली प्राणों की हलचल , मन का ज्वार , भूत भविष्य के पार स्मृति कौंध उठी अंतर में कुछ ऐसे , वर्तमान में चैतन्य हो चला अंतस तब जैसे , नई ताज़गी , नई स्फुर्ति का हो चला संचार , बढ़ चले कदम