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लेखन कला, युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचार्यजी के संग

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  लेखन प्रारम्भ करने से पूर्व मनन करने योग्य कुछ सुत्र 1 उत्कट आकांक्षा महान लेखक बनने की उत्कट अभिलाषा लेखक की प्रमुख विशेषता होनी चाहिए। वह आकांक्षा नाम और यश की कामना से अभिप्रेरित न हो। वह तो साधना के परिपक्व होने पर अपने आप मिलती है, पर साहित्य के आराधक को इनके पीछे कभी नहीं दौड़ना चाहिए। आकांक्षा दृढ़ निश्चय से अभिप्रेरित हो। मुझे हर तरह की कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने ध्येय की ओर बढ़ना है, ऐसा दृढ़ निश्चय जो कर चुका है, वह इस दिशा में कदम उठाए। उत्कृष्ट लेखन वस्तुतः योगी मनोभूमि से युक्त व्यक्तियों का कार्य है। ऐसी मनोभूमी होती नहीं, बनानी पड़ती है। ध्येनिष्ठ साधक ही सफल रचनाकार बन सकते हैं।   2        एकाग्रता का अभ्यास लेखन में साधक को विचारों की एकाग्रता का अभ्यास करना पड़ता है। एक निश्चित विषय के इर्द-गिर्द सोचना और लिखना पड़ता है। यह अभ्यास नियमित होना आवश्यक है। मन की चंचलता, एकाग्रता में सर्वाधिक बाधक बनती है। नियमित अभ्यास इस अवरोध को दूर करने का एकमात्र साधन है। व्यायाम की अनियमितता के बिना कोई पहलवान नहीं बन सकता। रियाज किए बिना कोई संगीतज्ञ कैसे बन

वेदमूर्ति तपोनिष्ठ युगऋषि पं. श्रीरामशर्मा आचार्य

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युग के विश्वामित्र, जिसने दिया 21वीं सदी उज्जवल भविष्य का नारा 20 सितम्बर, 1911 को आंवलखेड़ा, आगरा में जन्में पं. श्रीराम शर्मा आचार्य भारतीय आध्यात्मिक-सांस्कृतिक परम्परा के एक ऐसे प्रकाश स्तम्भ एवं दिव्य विभूति हैं, जिनका जीवन, दर्शन एवं कर्तृत्व समाज-राष्ट्र ही नहीं पूरी विश्व-मानवता के लिए वरदान से कम नहीं है। 80 वर्षों के जीवन काल में आचार्यश्री 800 वर्षों का काम कर गए, जिनका मूल्याँकन अभी पूरी तरह से नहीं हो पाया है। पेश है विहंगावलोकन करते कुछ बिंदु जिनके प्रकाश में आचार्यजी के जीवन व कर्तृत्व की एक झलक पायी जा सकती है -   आदर्श शिष्य, गुरु की आज्ञा के अनुसार, जीवन के हर क्रियाक्लाप का निर्धारण। गायत्री महापुरश्चरण से लेकर हिमालय यात्रा, गृहस्थ जीवन, साहित्य सृजन व वृहद संगठन युग निर्माण आंदोलन, अखिल विश्व गायत्री परिवार का निर्माण।   नैष्ठिक साधक, तप के प्रतिमान, 15 वर्ष की आयु में गुरु के आदेश पर 24 वर्ष तक24 लाख के गायत्री महापुरश्चरण की कठोर तप-साधना। मात्र जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह। जीवन पर्यन्त तप में लीन। विनोवाजी से तपोनिष्ठ नाम मिला।   जूझारु स्वतंत्

सुनसान के सहचर

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युगऋषि पं. श्र ीरामशर्मा आचार्य की हिमालय यात्रा के प्रेरक प्रसंग युग निर्माण आंदोलन के प्रवर्तक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य गायत्री के सिद्ध साधक के साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार, लोकसेवी, संगठनकर्ता , दार्शनिक एवं भविष्य द्र ष्टा ऋषि भी थे। गहन तप साधना, साहित्य सृजन हेतु वे चार वार हिमालय यात्रा पर गए। 1958 में सम्पन्न दूसरी हिमालय यात्रा का सुंदर एवं प्रेरक वर्णन सुनसान के सहचर पुस्तक के रुप में संकलित है, जिन्हें शुरुआत में 1961 के दौर की अखण्ड ज्य ोत ि पत्रिका में प ्रकाशित किया गया था । पुस्तक की विशेषता यह है कि आचार्यश्री का यात्रा वृताँत प्रकृति चित्रण के साथ इसमें निहित आध्यात्मिक प्रेरणा, जीवन दर्शन से ओत प्रोत है। प्रकृति के हर घटक में, राह की हर चुनौती, ऩए दृश्य व घटना में एक उच्चतर जीवन दर्शन प्रस्फुटित होता है। पाठक सहज ही आचार्यश्री के साथ हिमालय क ी दुर्गम, मनोरम एवं दिव्य भूमि में पहुंच जाता है और इसके प्रेरणा प्र वाह को आत्म सात करते हुए, जीवन के प्रति एक न ई अंतर् दृष्टि को पा जाता है।  आचार्यश्री के अनुसार,