अस्पताल की पाठशाला में जीवन का तत्व-बोध
वर्ष 2020 इतिहास के
पन्नों में एक यादगार वर्ष के रुप में अंकित रहेगा, जिसमें इंसान एवं मानवीय
सभ्यता कई ऐतिहासिक एवं युगान्तरीय घटनाओं की साक्षी बनी। घटनाओं का क्रम जिस तरह
से व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं समूचे विश्व को मंथता हुआ आगे बढ़ा, इसमें कोई
संदेह नहीं रहा कि ये ईश्वरीय विधान था, महाकाल की योजना का हिस्सा था, प्रकृति का
अपने बच्चों की नादानियों के लिए कठोर सबक भरा उपचार था, जिसमें सभी को गहन आत्मावलोकन
का अवसर मिला, अपने भूत की भूल-चूकों को सुधारने का संयोग बना और बेहतरीन भविष्य
के लिए सरंजाम जुटाने की समझ मिली।
हमारी भी लम्बे
अर्से की गुफा में प्रवेश करने व धुनी रमा कर रहने की इच्छा इसमें पूरी हुई।
हिमालय यात्रा के दौरान प्रायः पर्वत कंदराओं को देखकर यह इच्छा बलवती होती थी। कोरोना
काल के बीच अस्पताल की परिक्रमा, भर्ती से लेकर तमाम तरह के अनुभवों से रुबरु होते
रहे, जो लगता है कोरोना काल के बीच अपनी पूर्णाहुति की ओर अग्रसर है।
20 फरवरी 2020 के
आसपास लक्ष्ण शुरु हो गए थे। बहाना गंगाजी के बर्फीले जल में डुबकी रहा। लेकिन उसके
पिछले कई माह से चल रही खाँसी व बदन में टूटन अब चरम पर थी। उपचार के नाम पर कोई
खाँसी के नाम पर एलर्जी की दबा देता रहा तो कोई बुखार की। अंततः पीठ में व साइड
पसलियों में ऐसा दर्द उठा कि चलना फिरना दुभर हो गया, रात को करबट बदलना मुश्किल
हो गया। इसके लिए पेन किल्लर मल्हम, स्प्रै व दबाईयों से लेकर एंटिवायोटिक के डोज
चलते रहे। इसी बीच मार्च माह में कोविड-19 का कोरोना काल शुरु हो चुका था। 20
अप्रैल तक आते-आते दो माह तक जब सारे उपचार विफल हुए तो सीटी स्कैन हुआ और
मर्ज पकड़ में आया। इसका शुरुआती उपचार ऐसे अनाड़ी ढंग से हुआ कि दबाईयों के
ऑवरडोज में अस्पताल भर्ती होना पड़ा।
यहाँ बात स्पष्ट हुई
कि रोग का उपचार तब तक निष्प्रभावी रहता है, जब तक कि सही डायग्नोज न हो। अन्यथा शरीर
दवाईयों की प्रयोगशाला बन जाता है और ऐसे में चल रहे एलौपेथिक उपचार और किन रोगों
का कारण बनेंगे, कह नहीं सकते।
अप्रैल-मई के लगभग
दो सप्ताह तक अस्पताल के वार्ड में ऐसा गुफा प्रवेश मिला, जहाँ मात्र एक व्यक्ति
सेवा-सुश्रुषा के लिए साथ में था और चारों ओर था मरीजों का हुजूम, जिन्हें देखकर
स्वस्थ व्यक्ति भी बिमार पड़ जाए। इनके बीच बिमारी को लेकर चिंता-भय एवं उद्गिनता
(हेल्थ एंग्जायटी) के तमाम तरह के अनुभवों से गुजरते रहे, जिसे कोई भुगतभोगी अच्छे से समझ सकता है। बिमारी का आलम कुछ ऐसा रहा कि जीवन से लगभग मोहभंग की स्थिति आ गई
थी। यकायक अपनों से बिछुडने की वेदना अंदर कहीं गहरे कचोट रही थी। बाहरी दुनियाँ
से संपर्क लगभग कट चुका था, जीवन के मायने, अर्थ सब धुँधले हो चले थे। ऐसे में
मोबाईल में तक झाँकने का मन नहीं करता था।
अप्रैल-मई माह में अस्पताल
की गुफा में बिताए दो सप्ताह के अनुभवों में, कुछ पाठकों से शेयर करना चाहूँगा, जो
शायद उनके कभी काम आएं। जो कभी बिमार न पड़ा हो और जो अस्पताल के जीवन से अधिक
परिचित न हो, उसके लिए पहली बार भर्ती होना एक घबराहट भरा अनुभव रहता है। डायग्नोज
से लेकर उपचार की प्रक्रिया के तहत हाथ की नसों से सीरिंज से खून का निकाला जाना,
हाथ या बाँह की नसों में कैनूला डालकर ड्रिप लगाना या इंजेक्शन देना, शुरु में
भयावह प्रतीत होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे समझ आता है कि पूरा अस्पताल, इसके
डॉक्टर्ज, सिस्टर्ज और पूरी टीम रोगी को जल्द से जल्द ठीक कर रोग मुक्त करने में
लगे होते हैं। फिर जब व्यक्ति की स्थिति में थोड़ा सा भी सुधार शुरु हो जाता है,
तो उसकी घबराहट कम हो जाती है और एक नया विश्वास जगता है।
साथ ही समझ आता है कि अस्पताल गाड़ियों को दुरुस्त करने वाले एक गैराज की तरह है जहाँ टूटी-फूटी गाड़ियों ठीक होने के लिए आती हैं और एक्सपर्ट मैकेनिक कुछ मिनट, घंटे या दिनों में उनके खराब या टूटे पूर्जों या हिस्सों की मुरम्मत कर या उन्हें बदलकर नया बना देता है और फिर गाड़ी नए सिरे से सड़क पर सपरट दौड़ने लगती है। ऐसे ही व्यक्ति अस्पताल में कुछ दिन सप्ताह भर्ती होकर भला चंगा हो जाता है और फिर जीवन की गाड़ी अपने ढर्रे पर चल पड़ती है। फिर व्यक्ति अस्पताल के भयावह अंधकार से भरे पलों को यादकर आश्चर्य करता है कि वह इनके पार हो चुका है और अपने अनुभवों को किवदंतियों की भांति सुनाने व चर्चा का आनन्द लेता है। यही जीवन का रंगमंच है, जिसमें व्यक्ति न जाने कितनी भूमिकाओं में हंसते-रोते हुए अभिनय करता हुआ आगे बढ़ता है।
अस्पताल में हर रोगी
अपने कष्टों से उबरने के लिए जूझ रहा होता है और चारों ओर नित नए मरीजों का हुजूम
जुड़ रहा होता है, जिन्हें देखकर कल्पना के घोड़े का यदा-कदा नकारात्मकता के भंवर
में उलझना स्वाभाविक होता है। इन्हीं भंवरों से दो-चार होते हुए हमारी पहली भर्ती
का काल पूरा होता है और फिर 6-7 माह तक दवाओं का कोर्स उचित पथ्य-कुपथ्य के साथ
चलता रहा। माह में दो-तीन चक्र अस्पताल के लगते रहे। इसी परिक्रमा को नियति द्वारा
निर्धारित 2020 का ट्रैब्ल एडवेंचर मानते हुए अपने घूमने के शौक को पूरा करते रहे।
इसी बीच हमारे
गाल-ब्लैडर में स्टोन (पिताशय की पत्थरी) डिटेक्ट हो चुका था। एक दो स्टोन होते तो
दवा दारू से ठीक हो जाते, यहाँ तो पूरी थैली ही पत्थरियों से भरी हुई मिली। भरने
का अर्थ हुआ कि यह प्रक्रिया कई वर्षों से चल रही थी। इसका संकेत भी कभी नहीं मिल
पाया, जो इसका समय रहते उपचार कर पाते। जब पता चला तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अब
ऑपरेशन ही उपचार था। इसे प्रारब्ध का अटल विधान मानते हुए मन को इसके लिए तैयार करते
रहे।
दिसम्बर माह के उत्तरार्ध में सर्जरी तय होती है। इस तरह की शल्य से हम पहली बार रुबरु होने जा रहे थे। अतः मन का एक बार घबराना स्वाभाविक था। लेकिन हम मानसिक रुप से तैयार हो चुके थे, क्योंकि और कोई विकल्प था नहीं। चारों ओर इस तरह के कितने ऑपरेशन के अनुभव के किस्से हम सुन चुके थे, जिनसे मन का ढाढ़स बनता गया। यहाँ मैं आधुनिक चिकित्सा की तारीफ के साथ हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहूँगा कि इसने दर्द के प्रबन्धन (pain management) के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जिसमें रोगी को ऑपरेशन के दौरान पता भी नहीं चलता कि हुआ क्या है, इतनी सफाई के साथ ऑपरेशन हो जाता है। इसके बाद भी घाबों के भरने तक दर्द निवारक दबाईयाँ रोगी को असह्य पीड़ा से बचाए रखती हैं। बाकि चिकित्सकों का संवेदनशील रवैया रोगी को हर कदम पर मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक सहारा देता है। वर्ष 2020 के अस्पताल के अनुभवों के बाद हमें यह बात और गहराई से समझ आई कि एक चिकित्सक रोगी के लिए ईश्वर के माध्यम (Next to God) की भूमिका में होता है, जिसपर पूरा विश्वास कर रोगी निश्चिंत होता है तथा अपने मन के संशयों व प्रश्नों की खुलकर चर्चा कर अपने समाधान पाता है।
ऑपरेशन के पहले और
बाद इससे जुड़े भय एवं उद्गिनता में सारा खेल मन का होता है। मन बेसिर पैर की
कुकल्पानओं एवं आशंकाओं में उलझता रहता है, जो कई बार ऑपरेशन के भय के भूत को इतना
विकराल बना देता है कि ऑपरेशन से पहले ही रोगी अनावश्यक मानसिक यंत्रणा से गुजर
रहा होता है। हालाँकि मन के इस भय भूत से निपटने के तरीके रोगी अंदर से ही ईजाद
करता है। सर्वन्तर्यामी ईश्वर-अराध्य का समरण जिसमें अहम् होता है। इस
बीच बेहतरीन पुस्तकों का स्वाध्याय बहुत सहायक सिद्ध होता है, विशेष रुप से
आध्यात्मिक पुस्तकों का। ये देहबोध से व्यक्ति को ऊपर उठाने में मदद करती हैं और
सकारात्मक सोच के साथ सशक्त मनोभूमि को तैयार करती हैं।
यह समय आत्मचिंतन के
लिए भी श्रेष्ठ होता है। इस दौरान यह बखूबी समझ आता है कि स्वस्थ व निरोग जीवन के
लिए जीवनशैली का सुधार कितना आवश्यक है और इस दिशा में आगे क्या किया जाना है। एक
तरह से पूरे जीवन का ही मंथन तथा चित्त प्रक्षालन ऐसे दौर में हो रहा होता है और
जीवन का तत्वदर्शन गहरे से समझ आता है। जिन बातों को हम पुस्तकें पढ़कर, गुरुजनों
द्वारा बारम्बार समझाए जाने के बावजूद वर्षों, दशकों से नहीं समझ पा रहे होते, वे
अल्प काल में ही ह्दयंगम हो जाती हैं।
इस तरह अस्पताल एक
तरह से जीवन की एक ऐसी पाठशाला सावित होता है, जहाँ रोगी अपने उपचार के साथ जीवंत एवं गहन प्रशिक्षण
से होकर गुजरता है। भगवान करे कि किसी को जीवन के तत्वदर्शन को समझने के लिए ऐसी
प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। वह स्वस्थ एवं निरोग जीवन के रहस्य सामान्य अवस्था
में ही समझे, सीखे व जीए। और प्रारब्धवश यदि कहीं ऐसे दौर से गुजरना पड़े, तो
साहसपूर्वक इसका सामना करे और जीवन के तत्वदर्शन को अल्पकाल में ही आत्मसात कर आगे
अधिक होशोहवाश में जीए।