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रविवार, 13 फ़रवरी 2022

साधु संगत, भाग-3, अध्यात्म पथ

मार्ग कठिन, लेकिन सत्य की विजय सुनिश्चित

 

मनुष्यमात्र का पहला और प्रधान कर्तव्य - आत्मज्ञान

महापुरुषों के जीवन को फूल के समान खिला हुआ, सिंह की तरह अभय, सद्गुणों से ओत-प्रोत देखते हैं, तो स्वयं भी वैसा होने की आकांक्षा जागती है। आत्मा की यह आध्यात्मिक माँग है, उसे अपनी विशेषतायें प्राप्त किये बिना सुख नहीं होता। लौकिक कामनाओं में डूबे रह कर हम इस मूल आकाँक्षा पर पर्दा डाले हुए पड़े रहते हैं, इससे किसी भी तरह जीवन लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती।

श्रेष्ठता मनुष्य की आत्मा है। इसलिए जहाँ कहीं भी उसे श्रेष्ठता के दर्शन मिलते हैं, वहीं आकुलता पैदा होती है।...यह अभिलाषायें जागती तो हैं किन्तु यह विचार नहीं करते कि यह आकांक्षा आ कहाँ से रही है। आत्म-केन्द्र की ओर आपकी रुचि जागृत हो तो आपको भी अपनी महानता जगाने का श्रेय मिल सकता है, क्योंकि लौकिक पदार्थों में जो आकर्षण दिखाई देता है, वह आत्मा के प्रभाव के कारण ही है। आत्मा की समीपता प्राप्त कर लेने पर वह सारी विशेषताएं स्वतः मिल जाती हैं, जिनके लिये मनुष्य जीवन में इतनी सारी तड़पन मची रहती है। सत्य, प्रेम, धर्म, न्याय, शील, साहस, स्नेह, दृढ़ता-उत्साह, स्फूर्ति, विद्वता, योग्यता, त्याग, तप और अन्य नैतिक सद्गुणों की चारित्रिक विशेषताओं के समाचार और दृश्य हमें रोमाँचित करते हैं क्योंकि ये अपनी मूल-भूत आवश्यकताएं हैं। इन्हीं का अभ्यास डालने से आत्म-तत्व की अनुभूति होती है।

आत्म-ज्ञान का सम्पादन और आत्म-केंद्र में स्थिर रहना मनुष्य मात्र का पहला और प्रधान कर्तव्य है। आत्मा का ज्ञान चरित्र विकास से मिलता है। अपनी बुराईयों को छोड़कर सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा इसी से दी जाती है कि आत्मा का आभास मिलने लगे। आत्म सिद्धि का एक मात्र उपाय पारमार्थिक भाव से जीवमात्र की सेवा करना है। इन सद्गुणों का विकास न हुआ, तो आत्मा की विभूतियाँ मलिनताओं में दबी हुई पड़ी रहेंगी।

युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं.श्रीराम शर्मा आचार्य

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तुम्हारी एक मात्र संरक्षिका - सत्यनिष्ठा

सत्यनिष्ठ बनो। दिव्य शांति की ओर जाने का यह प्रथम और अपरिहार्य पग है।...पूर्ण सत्यनिष्ठा का तात्पर्य है – जीवन में पूर्णता की उपलब्धि, निरंतर अधिकाधिक पूर्णता की उपलब्धि करते जाना। पूर्णता की उपलब्धि का दावा कभी नहीं करना चाहिए, बल्कि स्वाभाविक गति से उसे प्राप्त करते रहना चाहि। यही है सत्यनिष्ठा।

सच्चाई प्राप्त करना अत्यंत कठिन कार्य है, पर यह सब चीजों से अधिक अमोघ भी है। अगर तुममें सच्चाई है, तो तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। ...

सबसे पहले तुम्हें इस बात पर ध्यान रखना होगा कि तुम्हारे जीवन में एक भी दिन, एक भी घंटा, यहाँ तक कि एक भी मिनट ऐसा नहीं है, जब कि तुम्हें अपनी सच्चाई को सुधारने या तीव्र बनाने की आवश्यकता न हो। मैं यह नहीं कहती कि तुम भगवान को धोखा देते हो, कोई भी आदमी भगवान को धोखा नहीं दे सकता, यहाँ तक कि बडे-से-बडे असुर भी नहीं दे सकते। जब तुम यह समझ गए हो तब भी तुम अपने दैनंदिन जीवन में ऐसे क्षण बराबर पाओगे, जब कि तुम अपने-आपको धोखा देने की कोशिश करते हो। प्रायः स्वाभाविक रुप में ही तुम जो कुछ करते हो, उसके पक्ष में युक्तियाँ पेश करते हो।

सच्चाई की सच्ची कसौटी, यथार्थ सच्चाई की एकदम कम-से-कम मात्रा बस यही है, एक दी हुई परिस्थिति में होने वाली तुम्हारी प्रतिक्रिया के अंदर, तुम सहज भाव से यथार्थ मनोभाव ग्रहण करते हो या नहीं, और जो कार्य करना है, ठीक उसी कार्य को करते हो या नहीं। उदाहरणार्थ, जब कोई क्रोध में तुमसे बोलता है, तब क्या तुम्हें भी उसकी छूत लग जाती है और तुम भी क्रोधित हो जाते हो या तुम एक अटल शांति और पवित्रता बनाए रखने, दूसरे व्यक्ति की युक्ति को देखने या समुचित रुप में आचरण करने में समर्थ होते हो?

बस, यही है, मेरी राय में, सच्चाई का एकदम आरम्भ, उसका प्राथमिक तत्व। अगर तुम अधिक पैनी आँखों से अपने अंदर ताको, तो तुम वहाँ हजारों अ-सच्चाईयों को पाओगे, जो अधिक सूक्ष्म हैं, पर जो इसी कारण पकड़ी जाने योग्य न हों ऐसी बात नही। सच्चे बनने की कोशिश करो और ऐसे अवसर बढ़ते ही जायेंगे, जब तुम अपने को सच्चा नहीं पाओगे, जब तुम समझ जाओगे की सच्चा बनना कितना कठिन कार्य है।

सच्चाई दिव्य द्वारों की चाबी है। सच्चाई में ही है विजय की सुनिश्चितता। पूर्ण रुप से सच्चे बनो, फिर ऐसी कोई विजय नहीं जो तुम्हें न दी जाए।...सत्यनिष्ठा ही तुम्हारी एक मात्र संरक्षिका है।

-    श्रीमाँ, आत्म-परिपूर्णता

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चरित्र निर्माण अर्थात् सत्य का समना और ज्ञान को अपना बनाना

संसार के दुःख सीधे इच्छाओं के अनुपात में ही हैं। इसलिए अंध आसक्ति न रखो। स्वयं को किसी से बाँध न लो। परिग्रह की इच्छा न करो, वरन् स्वयं में अवस्थित होने की दृढ़ इच्छा करो। क्या कोई भी संग्रह तुम्हारे सत्यस्वरुप को संतुष्ट कर सकेगा? क्या तुम वस्तुओं से बद्ध हो जाओगे? नग्न हो इस संसार में तुम आते हो तथा जब मृत्यु का बुलावा आता हो, जब नग्न हो चले जाते हो। तब फिर तुम किस बात का मिथ्या अभिमान करते हो? उन वस्तुओं का संग्रह करो, जिनका कभी नाश नहीं होता। अन्तर्दृष्टि का विकास अपने आप में एक उपलब्धि है। अपने चरित्र को तुम जितना अधिक पूर्ण करोगे, उतना ही अधिक तुम उन शाश्वत वस्तुओं का संग्रह कर पाओगे, जिनके द्वारा यथासमय तुम आत्मा के राज्य के अधिकारी हो जाओगे।

अतः जाओ, इसी क्षण से आंतरिक विकास में लगो, बाह्य नहीं। अनुभूति के क्रम को अन्तर्मुखी करो। इन्द्रियासक्त जीवन से विरत होओ। प्रत्येक वस्तु का आध्यात्मीकरण करो। शरीर को आत्मा का मंदिर बना लो तथा आत्मा को दिन-दिन अधिकाधिक अभिव्यक्त होने दो। और तब अज्ञानरुपी अंधकार धीरे-धीरे दूर हो जाएगा तथा आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश धीरे-धीरे फैल उठेगा। यदि तुम सत्य का सामना करो, तो विश्व की सारी शक्तियाँ तुम्हारे पीछे रहेंगी तथा समन्वित रुप से तुम्हारे विकास के लिए कार्य करेंगी। शिक्षक केवल ज्ञान दे सकते हैं। शिष्य को उसे आत्मसात करना होगा और इस आत्मसात करने का तात्पर्य है – चरित्र निर्माण, ज्ञान को अपना बना लेना है। स्वयं अपने द्वारा ही अपना उद्धार होना है, दूसरे किसी के द्वारा नहीं।

उपनिषदों के आदेश की तर्ज में, उठो, सचेष्ट हो जाओ। और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो, तब तक न रुको।

-    एफजे अलेक्जेंडर, समाधि के सोपान

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कमर कसकर धैर्य के साथ लक्ष्य की ओर बढे चलो

उद्बुद्ध होओ, जाग उठो, जीवन के महत्तम दायित्व, श्रेष्ठतम कर्तव्य साधन के लिए दृढ़संकल्पबद्ध होओ। सर्वप्रकार के क्लैव्य-दौर्वल्य का विसर्जन दे कर, मलिनता और पंकिलता का परित्याग कर, मोह और आत्मविस्मृति को दूर हटा कर वीर के समान खड़े हो जाओ। जीवन का पथ बड़ा ही कंटकों से परिपूर्ण, बड़ा ही विपदा से पूर्ण, घात संघात, अवस्था विपर्य्यय इस पथ के नित्य साथी एवं दुःख-दैन्य, असुख-अशांति, विषाद-अवसाद इस पथ के नित्य सहचर हैं। बाधा-विघ्न पथ को रोके खड़े रहते हैं। संशय, सन्देह, अविश्वास और आदर्श के प्रति अनास्था उत्पन्न हो कर साधन की नींव का चूरमार कर देती है। कुत्सित कामना, वासना एवं विषय-भोग की आकांक्षा आकर शक्ति-सामर्थ्य बलवीर्य का अपहरण करती है। और मनुष्य की निर्जीव बना डालती है, विभ्रम-विभ्राँति एवं विस्मृति आकर उसे आदर्शभ्रष्ट और लक्ष्यच्युत करके विपथ पर भुला ले जाती हैं। जीवन के इस द्वन्द-संघर्षमय कठिन दुर्योग तथा आत्मविस्मृति एवं आदर्श विभ्राट् के इस विषमय संकट के समय, हे मुमुक्षु साधक। तुम अपने प्रज्ञाबल के द्वारा आत्मबोध और आत्मशक्ति को जाग्रत कर नवीन उत्साह से कमर कस कर धैर्य के साथ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होओ। नैराश्य और निश्चेष्टता को दूर हटाकर पुरुषार्थ का अवलम्बन लो।

आत्मन। दुर्दिन की घन घोर विभीषिका से भयभीत न होना। संग्राम के भय से भाग न जाना। चरम श्रेयः पथ में अभियान कर शान्ति लाभ करो और उत्कर्ण होकर सुनो, श्रुति की वही बज्र गम्भीर चिर जागरण वाणीउत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत्।

स्वामी आत्मानन्द, जीवन साधना के पथ पर

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साधक की परिभाषा

साधक वस्तुतः एक एकाकी पक्षी की तरह होता है।

एकाकी पक्षी की स्थिति पाँच प्रकार से परिभाषित होती है।

§  पहली कि वह अधिकतम ऊँचाई तक उड़ता है।

§  दूसरी यह कि वह किसी साहचर्य और साथ के बिना व्यथित नहीं होता।

§  तीसरी स्थिति यह कि अपनी चंचु का लक्ष्यबिंदु आकाश की ओर ही रहता है।

§  चौथी यह कि उसका कोई निश्चित रंग नहीं होता।

§  पाँचवी स्थिति यह कि वह बहुत मृदु स्वर में गाता है।

 

-    श्रीमाँ, साधक सावधान।।

साधु सगत के पूर्व संकलन

साधु संगत के भाग -2, चित्त् का भ्रम-बन्धन और अपना विशुद्ध आत्म स्वरुप

साधु सगत भाग -1 आत्म कल्याण की भी चिंता की जाए

गुरुवार, 31 जनवरी 2019

महापुरुषों की साधु संगत


चित्त् का भ्रम-बन्धन और अपना विशुद्ध आत्म स्वरुप
चेतना(आत्मा) विशुद्ध तत्व है। चित्त उसका एक गुण है। इच्छाएं, कामनायें यह चित्त हैं, प्रवत्तियाँ हैं, किंतु आत्मा नहीं, इसलिए जो लोग शारीरिक प्रवृत्तियों काम, भोग, सौंदर्य सुख को ही जीवन मान लेते हैं, वह अपने जीवन धारण करने के उद्देश्य से भटक जाते हैं। चेतना का जन्म यद्यपि आनन्द, परम आनन्द, असीम आनन्द की प्राप्ति के लिए ही हुआ है, तथापि यह चित्तवृत्तियाँ उसे क्षणिक सुखों में आकर्षित कर पथ-भ्रष्ट करती हैं, मनुष्य इसी सांसारिक काम-क्रीड़ा में व्यस्त बना रहता है, तब तक चेतना अवधि समाप्त हो जाती है और वह इस संसार से दुःख, प्रारब्ध और संस्कारों का बोझ लिए हुए विदा हो जाता है। चित्त की मलीनता के कारण ही वह अविनाशी तत्व, आप आत्मा बार-बार जन्म लेने के लिए विवश होते हैं और परमानन्द से वंचित होते हैं। सुखों में भ्रम पैदा करने वाला यह चित्त ही आत्मा का, चेतना का बन्धन है।                  
                               – युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

अपने जीवन को सरल बनाइए, सरल

मानवीय योनि मिलने पर भी हमारा जीवन छोटी-छोटी बातों में ही नष्ट हो जाता है। मैं कहता हूँ कि सैंकड़ों-हजारों कामों में उलझने के बजाय दो-तीन काम हाथ में ले लीजिए। इस सभ्य जीवन के सागर में अनगिनत बादल और तुफान होते हैं और जबर्दस्त दलदल हैं। इसमें ऐसी हजारों चीजें हैं कि यदि आदमी रसातल को नहीं जाना चाहता तो उसे बड़े हिसाब से रहना पड़ता है। अपने जीवन को सरल बनाइए, सरल। दिन में तीन चार खाने की जगह, आवश्यक हो तो एक ही बार खाईए। सौ पकवानों की जगह पाँच ही रखिए और इसी अनुपात में और सभी चीजों की संख्या घटाइए। 
                                - हेनरी डेविड थोरो

जगत के ऐश्वर्य में ही न खोएं, इसके मालिक की भी सुध लें
ईश्वर और उनका ऐश्वर्य। यह जगत उनका ऐश्वर्य़ है। लेकिन ऐश्वर्य़ देखकर ही लोग भूल जाते हैं, जिनका ऐश्वर्य है, उनकी खोज नहीं करते। कामिनी-काँचन का भोग करने सभी जाते हैं। परन्तु उसमें दुःख और अशांति ही अधिक है। संसार मानो विशालाक्षी नदी का भँवर है। नाव भँवर में पड़ने पर फिर उसका बचना कठिन है। गुखरु काँटे की तरह एक छूटता है, तो दूसरा जकड़ जाता है। गोरखधन्धे में एक बार घुसने पर फिर निकलना कठिन है। मनुष्य मानो जल सा जाता है।

उपाय - साधुसंग और प्रार्थना।

वैद्य के पास गए बिना रोग ठीक नहीं होता। साधुसंग एक ही दिन करने से कुछ नहीं होता। सदा ही आवश्यक है। रोग लगा ही है। फिर वैद्य के पास बिना रहे नाड़ीज्ञान नहीं होता। साथ साथ घूमना पड़ता है, तब समझ में आता है कि कौन कफ नाड़ी है और कौन पित्त की नाड़ी।.साधु संग से ईश्वर पर अनुराग होता है। उनसे प्रेम होता है। व्याकुलता न आने से कुछ नहीं होता। साधुसंग करते करते ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होता है – जिस प्रकार घर में कोई अस्वस्थ होने पर मन सदा ही चिन्तित रहता है और यदि  किसी की नौकरी छूट जाती है तो वह जिस प्रकार आफिस आफिस में घुमता रहता है, व्याकुल होता रहता है, उसी प्रकार।

एक ओर उपाय है – व्याकुल होकर प्रार्थना करना। ईश्वर अपने हैं, उनसे कहना पड़ता है, तुम कैसे हो, दर्शन दो-दर्शन देना ही होगा-तुमने मुझे पैदा क्यों किया? सिक्खों ने कहा था, ईश्वर दयामय है। मैने उनसे कहा था, दयामय क्यों कहूँ? उन्होंने हमें पैदा किया है, यदि वे ऐसा करें जिससे हमारा मंगल हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है? माँ-बाप बच्चों का पालन करेंगे ही, इसमें फिर दया की क्या बात है? यह तो करना ही होगा। इसीलिए उन पर जबरदस्ती करके उनसे प्रार्थना स्वीकार करानी होगी।
साधुसंग करने का एक और उपकार होता है – सत् और असत् का विचार। सत् नित्यपदार्थ अर्थात् ईश्वर, असत् अर्थात् अनित्य। असत् पथ पर मन जाते ही विचार करना पड़ता है। हाथी जब दूसरों के केले के पेड़ खाने के लिए सूँड़ उठाता है तो उसी समय महावत उसे अंकुश मारता है।                - श्री रामकृष्ण परमहंस
 
    महापुुरुषों की साधुसंगत पर अन्य पोस्ट यहाँ पढ़ सकते हैं - 
 


सोमवार, 26 नवंबर 2018

स्वाध्याय संदोह - महापुरुषों की साधु संगत


आत्म-कल्याण की भी चिंता की जाए


आत्मिक कल्याण आवश्यक होने के साथ-साथ थोड़ कठिन भी है। कठिन इसलिए कि मनुष्य प्रायः जन्म-जन्म के संस्कार अपने साथ लाता है। ये संस्कार प्रायः भौतिक तथा सांसारिक ही होते हैं। इसका प्रमाण यह है कि जब मनुष्य का देहाभिमान नष्ट हो जाता है तो वह मुक्त हो जाता है। उसे शरीर धारण करने की लाचारी नहीं रहती। चूँकि सभी मनुष्य की अभिव्यक्ति शरीर से हुई, इसलिए यह सिद्ध है कि उसमें अभी शारीरिक संस्कार बने हुए हैं। पूर्व संस्कारों पर विजय पाकर इन्हें आधुनिक रुप में मोड़ लेना-या यों कह लिया जाए कि शारीरिक संस्कारों का आत्मिक संस्कारों से स्थानापन्न कर लेना सहज नहीं होता। संस्कार बड़े प्रबल व शक्तिशाली होते हैं। इन दैहिक संस्कारों को बदलने का सरल सा उपाय यह है कि जिस प्रकार सांसारिक कार्यों और शारीरिक आवश्यकताओं की चिन्ता की जाती है, उसी प्रकार आत्म-कल्याण की चिंता की जाए। जिस प्रकार सांसारिक सफलताओं के लिए निर्धारित एवं सुनियोजित कार्यक्रम बनाकर प्रयत्न तथा पुरुषार्थ किया जाता है, उसी प्रकार मनोयोगपूर्ण आध्यात्मिक कार्यक्रम बनाए और प्रयत्नपूर्वक पूरे किए जाते रहें। इस प्रकार मनुष्य अपने विचारकोण के साथ-साथ पुरुषार्थ की धारा बदल डाले तो निश्चत ही उसके संस्कार परिवर्तित हो जायेंगे और वह शरीर की ओर से मुड़कर आत्मा की ओर चल पड़ेगा।                   - युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य






अंतस का दीपक जलता रहे


क्या केवल ध्यान के समय ही ईश्वर का चिंतन करना चाहिए और दूसरे समय उन्हें भूले रहना चाहिए। मन का कुछ अंश सदा ईश्वर में लगाए रखना चाहिए। तुमने देखा होगा, दुर्गापूजन के समय देवी के पास एक दीपक जलाना पड़ता है। उसे लगातार जलाए रखा जाता है, कभी बुझने नहीं दिया जाता। उसके बुझ जाने पर गृहस्थ का अमंगल होता है। इसी प्रकार ह्दयकमल में इष्टदेवता को प्रतिष्ठित करने के बाद उनके स्मरण-चिन्तनरुपी दीपक को सदा प्रज्वलित रखना चाहिए। संसार के कामकाज करते हुए बीच-बीच में भीतर की और दृष्टि डालकर देखते रहना चाहिए कि वह दीपक जल रहा है या नहीं।                           -  श्रीरामकृष्ण परमहंस

प्रेम का पथ


आत्मनिरीक्षण का पथ कठिन है। प्रेम का पथ सहज है। शिशु के समान बनो। विश्वास और प्रेम रखो तब तुम्हें कोई हानि नहीं होगी। धीर और आशावान बनो, तब तुम सहज रुप से जीवन की सभी परिस्थितियों का सामना करने में समर्थ हो सकोगे। उदार ह्दय बनो। क्षुद्र अहं और अनुदारता के सभी विचारों को निर्मूल कर दो। पूर्ण विश्वास के साथ स्वयं  को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दो। वे तुम्हारी सभी बातों को जानते हैं। उनके ज्ञान पर विश्वास करो। वे कितने पितृतुल्य हैं। सर्वोपरि वे कितने मातृतुल्य हैं। अनन्त प्रभु अपनी अनन्ता में तुम्हारे दुःख के सहभागी हैं। उनकी कृपा असीम है। यदि तुम हजार भूलें करो तो भी प्रभु तुम्हें हजार बार क्षमा करेंगे। यदि दोष भी तुम पर आ पड़े तो वह दोष नहीं रह जाएगा। यदि तुम प्रभु से प्रेम करते हो तो अत्यन्त भयावह अनुभव भी तुम्हें प्रेमास्पद प्रभु के सन्देशवाहक ही प्रतीत होंगे। वस्तुतः प्रेम के द्वारा ही तुम ईश्वर को प्राप्त करोगे। क्या माँ सर्वदा प्रेममयी नहीं होती। वह आत्मा का प्रेमी भी उसी प्रकार है। विश्वास करो। केवल विश्वास करो। फिर तुम्हारे लिए सब कुछ ठीक हो जाएगा। तुमसे जो भूलें हो गई, उनसे भयभीत न होओ। मनुष्य बनो। जीवन का साहसपूर्ण सामना करो। जो भी हो होने दो। तुम शक्तिशाली बनो। स्मरण रखो तुम्हारे पीछे अनन्त शक्ति है। स्वयं ईश्वर तुम्हारे साथ है। फिर तुम्हें किस बात का भय हो सकता है।

-   एफ.जे. अलेक्जेंडर



अंतरात्मा की पुकार और समर्पण भाव




अपने कार्य को आरंभ करने के लिए ऊपर की ज्योति हमसे जो कुछ मांगती है वह है अंतरात्मा की पुकार और मन में सहारे के लिए पर्याप्त बिंदु। ........ आरंभ में विचार अपर्याप्त हो सकता है और होना भी चाहिए। अभीप्सा संकीर्ण और अपूर्ण हो सकती है, श्रद्धा धुंधली-सी हो सकती है क्योंकि वह निश्चित रुप से ज्ञान की चट्टान पर आधारित नहीं होती, इसलिए घटती-बढ़ती, अनिश्चित और आसानी से कम होनेवाली होती है। प्रायः वह बुझ भी सकती है और उसे तुफानी घाटी में मशाल की तरह फिर से कठिनाई के साथ सुलगाना होता है। लेकिन अगर एक बार भीतरी गहराईयों में दृढ़ आत्म-समर्पण हो, यदि अंतरात्मा की पुकार के प्रति जाग्रति आ जाए तो ये अपर्याप्त चीजें भागवत प्रयोजन के लिए पर्याप्त उपकरण बन  सकती हैं। इसलिए बुद्धिमान लोग हमेशा भगवान की ओर के रास्तों को सीमित करने से कतराते रहे हैं, वे उनके प्रवेश के लिए सबसे तंग दरबाजे, सबसे निचली और अंधेरी सुरंग, सबसे निचले दरीचे को भी बंद नहीं करते। कोई भी नाम, रुप, प्रतीक, कोई भी भेंट पर्याप्त मानी जाती है यदि उसके साथ समर्पण-भाव हो, क्योंकि स्वयं भगवान खोज करनेवाले के ह्दय में होते हैं और उसके नैवेद्य को स्वीकार करते हैं।     -श्रीअरविंद
 
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