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हे प्रभु कैसी ये तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान

  जीवन – मृत्यु का शाश्वत चक्र, वियोग विछोह और गहन संताप हे प्रभु  कैसी ये  तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान, प्रश्नों के अंबार हैं जेहन में, कितनों के उत्तर हैं शेष, लेकिन मिलकर रहेगा समाधान, है ये पूर्ण विश्वास ।0 आज कोई बिलखता हुआ छोड़ गया   हमें , लेकिन इसमें उसका क्या दोष , उसे भी तो नहीं था इसका अंदेशा , कुछ समझ नहीं आया   प्रभु तेरा ये खेल   । 1   ऐसे ही हम भी तो छोड़ गए होंगे बिलखता कभी किन्हीं को , आज हमें कुछ भी याद तक नहीं , नया अध्याय जी रहे जीवन का अपनों के संग , पिछले बिछुड़े हुए अपनों का कोई भान तक नहीं ।2   ऐसे में कितना विचित्र ये चक्र सृष्टि का , जीवन का , कहीं जन्म हो रहा , घर हो रहे  आबाद , तो कहीं मरण के साथ , बसे घरोंदे हो रहे बर्वाद , कहना मुश्किल इच्छा प्रभु तेरी , लीला तेरी तू ही जाने ।3   ऐसे में क्या अर्थ है इस जीवन का , जिसमें चाहते हुए भी सदा किसी का साथ नहीं , बिछुड़ गए जो एक बार इस धरा से , उन्हें भी तो आगे-पीछे का कुछ अधिक भान नहीं ।4   कौन कहाँ गया , अब किस अवस्था में , काश कोई बतला देता , दिखला

मृत्यु का अटल सत्य और उभरता जीवन दर्शन

जीवन की महायात्रा और ये धरती एक सराय मृत्यु इस जीवन की सबसे बड़ी पहेली है और साथ ही सबसे बड़ा भय भी, चाहे वह अपनी हो या अपने किसी नजदीकी रिश्ते, सम्बन्धी या आत्मीय परिजन की। ऐसा क्यों है, इसके कई कारण हैं। जिसमें प्रमुख है स्वयं को देह तक सीमित मानना, जिस कारण अपनी देह के नाश व इससे जुड़ी पीड़ा की कल्पना से व्यक्ति भयाक्रांत रहता है। फिर अपने निकट सम्बन्धियों, रिश्तों-नातों, मित्रों के बिछुड़ने व खोने की वेदना-पीड़ा, जिनको हम अपने जीवन का आधार बनाए होते हैं व जिनके बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते। और तीसरा सांसारिक इच्छाएं-कामनाएं-वासनाएं-महत्वाकांक्षाएं, जिनके लिए हम दिन-रात को एक कर अपने ख्वावों का महल खड़ा कर रहे होते हैं, जैसे कि हमें इसी धरती पर हर-हमेशा के लिए रहना है और यही हमारा स्थायी घर है। लेकिन मृत्यु का नाम सुनते ही, इसकी आहट मिलते ही, इसका साक्षात्कार होते हैं, ये तीनों तार, बुने हुए सपने, अरमानों के महल ताश के पत्तों की ढेरी की भाँति पल भर में धड़ाशयी होते दिखते हैं, एक ही झटके में इन पर बिजली गिरने की दुर्घटना का विल्पवी मंजर सामने आ खडा होता है। एक ही पल मे