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मंगलवार, 31 जनवरी 2023

हे प्रभु कैसी ये तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान

 

जीवन – मृत्यु का शाश्वत चक्र, वियोग विछोह और गहन संताप

हे प्रभु कैसी ये तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान,

प्रश्नों के अंबार हैं जेहन में, कितनों के उत्तर हैं शेष,

लेकिन मिलकर रहेगा समाधान, है ये पूर्ण विश्वास ।0


आज कोई बिलखता हुआ छोड़ गया हमें,

लेकिन इसमें उसका क्या दोष,

उसे भी तो नहीं था इसका अंदेशा,

कुछ समझ नहीं आया प्रभु तेरा ये खेल 1

 

ऐसे ही हम भी तो छोड़ गए होंगे बिलखता कभी किन्हीं को,

आज हमें कुछ भी याद तक नहीं,

नया अध्याय जी रहे जीवन का अपनों के संग,

पिछले बिछुड़े हुए अपनों का कोई भान तक नहीं ।2

 

ऐसे में कितना विचित्र ये चक्र सृष्टि का, जीवन का,

कहीं जन्म हो रहा, घर हो रहे आबाद,

तो कहीं मरण के साथ, बसे घरोंदे हो रहे बर्वाद,

कहना मुश्किल इच्छा प्रभु तेरी, लीला तेरी तू ही जाने ।3

 

ऐसे में क्या अर्थ है इस जीवन का,

जिसमें चाहते हुए भी सदा किसी का साथ नहीं,

बिछुड़ गए जो एक बार इस धरा से,

उन्हें भी तो आगे-पीछे का कुछ अधिक भान नहीं ।4

 

कौन कहाँ गया, अब किस अवस्था में,

काश कोई बतला देता, दिखला देता,

जीवन-मरण की गुत्थी को हमेशा के लिए सुलझा देता,

लेकिन यहाँ तो प्रत्यक्ष ऐसा कोई ईश्वर का विधान नहीं ।5

 

ऐसे में गुरुजनों के समाधान, शास्त्रों के पैगाम,

शोक सागर में डुबतों के लिए जैसे तिनके का सहारा,

संतप्त मन को मिले कुछ सान्तवना, कुछ विश्राम,

स्रष्टा का ये कृपा विधान भी शायद कुछ कम नहीं ।6

 

बाकि तेरी ये सृष्टि, तेरा ये खेल प्रभु तू ही जाने,

यहाँ तो प्रश्नों के लगे हैं अम्बार और बहुतों के हैं शेष समाधान,

लेकिन अन्तर में लिए धैर्य अनन्त, है तुझ पर विश्वास अपार,

किश्तों में मिल रहे उत्तर, आखिर हो कर रहेगा पूर्ण समाधान ।7

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रविवार, 25 दिसंबर 2022

मृत्यु का अटल सत्य और उभरता जीवन दर्शन

जीवन की महायात्रा और ये धरती एक सराय

मृत्यु इस जीवन की सबसे बड़ी पहेली है और साथ ही सबसे बड़ा भय भी, चाहे वह अपनी हो या अपने किसी नजदीकी रिश्ते, सम्बन्धी या आत्मीय परिजन की। ऐसा क्यों है, इसके कई कारण हैं। जिसमें प्रमुख है स्वयं को देह तक सीमित मानना, जिस कारण अपनी देह के नाश व इससे जुड़ी पीड़ा की कल्पना से व्यक्ति भयाक्रांत रहता है। फिर अपने निकट सम्बन्धियों, रिश्तों-नातों, मित्रों के बिछुड़ने व खोने की वेदना-पीड़ा, जिनको हम अपने जीवन का आधार बनाए होते हैं व जिनके बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते। और तीसरा सांसारिक इच्छाएं-कामनाएं-वासनाएं-महत्वाकांक्षाएं, जिनके लिए हम दिन-रात को एक कर अपने ख्वावों का महल खड़ा कर रहे होते हैं, जैसे कि हमें इसी धरती पर हर-हमेशा के लिए रहना है और यही हमारा स्थायी घर है।

लेकिन मृत्यु का नाम सुनते ही, इसकी आहट मिलते ही, इसका साक्षात्कार होते हैं, ये तीनों तार, बुने हुए सपने, अरमानों के महल ताश के पत्तों की ढेरी की भाँति पल भर में धड़ाशयी होते दिखते हैं, एक ही झटके में इन पर बिजली गिरने की दुर्घटना का विल्पवी मंजर सामने आ खडा होता है। एक ही पल में सारे सपने चकानाचूर हो जाते हैं व जीवन शून्य पर आकर खड़ा हो जाता है।

जो भी हो, मृत्यु एक अकाट्य सत्य है, देर सबेर सभी को इससे होकर गुजरना है, किसी को पहले तो किसी को बाद में, सबका नम्बर तय है, बल्कि जन्म लेते ही इसकी उल्टी गिनती शुरु हो चुकी होती है। हर दूसरे व्यक्ति के मौत के साथ इसकी सूचना की घण्टी बजती रहती है, लेकिन मन सोचता है कि दूसरों की ही तो मौत हुई है, हम तो जिंदा है और मौत का यह सिलसिला तो चलता रहता है, मेरी मौत में अभी देर है। यह मन की माया का एक विचित्र खेल है। लेकिन हर व्यक्ति की सांसें निर्धारित हैं, यहाँ तक की मृत्यु का स्थान और तरीका भी। हालाँकि यह बात दूसरी है इस सत्य से अधिकाँश लोग अनभिज्ञ ही रहते हैं। केवल त्रिकालदर्शी दिव्य आत्माएं व सिद्ध पुरुष ही इसके यथार्थ से भिज्ञ रहते हैं।

जब कोई पूरी आयु जीकर संसार छोड़ता है, तो उसमें अधिक गम नहीं होता, क्योंकि सभी इसके लिए पर्याप्त रुप से तैयार होते हैं, विदाई ले रही जीवात्मा भी और उसके परिवार व निकट परिजन भी। लेकिन जब कोई समय से पहले इस दुनियाँ को अल्विदा कह जाता है, या काल का क्रूर शिंकंजा उसको हमसे छीन लेता है या कहें भगवान बुला लेता है, तो फिर एक बज्रपात सा अनुभव होता है, एक भूचाल सा आ जाता है, जिसमें शुरु में कुछ अधिक समझ नहीं आता। व्यक्ति अपनी कॉम्मन सेंस के आधार पर स्थिति को संभालता है, परिस्थिति से निपटता है। ऐसे में अपनों का व शुभचिंतकों का सहयोग-सम्बल मलमह का काम करता है। धीरे-धीरे कुछ सप्ताह, माह बाद व्यक्ति इस शोकाकुल अवस्था से स्वयं को बाहर निकलता हुआ पाता है।

इस तरह काल जख्म को भरने की अचूक औषधि सावित होता है। लेकिन जख्म तो जख्म ही ठहरे। कुरेदने पर, यादों के ताजा होने पर यदा-कदा रुह को कचोटने वाली वेदना के रुप में उभरते रहते हैं, जो हर भुगत भोगी के हिस्से में आते हैं। ऐसे स्थिति में भावुक होना स्वाभाविक है, आंसुओं का झरना स्वाभाविक है, ह्दय में भावों का स्फोट स्वाभाविक है। लेकिन रोते-कलपते ही रहा जाए, शोक ही मनाते रहा जाए, तो इसमें भी समाधान नहीं, किसी भी प्रकार तन-मन व आत्मा के लिए यह हितकर नहीं। इस स्थिति से उबरने के लिए हर धर्म, संस्कृति व समाज में ऐसी सामूहिक व्यवस्था रहती है, कि शोक बंट जाता है व परिवार का मन हल्का होता है। सनातन धर्म में इसके निमित तेरह दिन, एक माह या चालीस दिन तथा इससे आगे तक धार्मिक कर्मकाण्डों का सिलसिला चलता रहता है, जिनका शोक निवारण के संदर्भ में अपना महत्व रहता है। हर वर्ष पितृ-पक्ष में श्राद्ध तर्पण का विधान इसी तरह का एक विशिष्ट प्रयोग रहता है।

इनके साथ अपनी शोक-वेदना को सृजनात्मक मोड़ दिया जाता है। इसमें जीवन-मरण, लोक-परलोक व अध्यात्म से जुड़ी पुस्तकों का परायण बहुत सहायक रहता है। इनसे एक तो सांत्वना मिलती है, दूसरा इनके प्रकाश में जीवन के प्रति एक नई अंतर्दृष्टि व समझ विकसित होती है, जो इस शोकाकुल समय को पार करने में बहुत कारगर रहती हैं।

साथ ही समझ आता है, कि धरती अपना असली घर नहीं, असली घर तो आध्यात्मिक जगत है, जहाँ जीवात्मा देह छोड़ने के बाद वास करती है। हालाँकि इस मृत्युलोक और जीवात्मा जगत के बीच यात्रा का सिलसिला चलता रहता है, जब तक कि जीवात्मा मुक्त न हो जाए। इस प्रक्रिया पर थोडा सा भी गहराई से चिंतन व विचार मंथन जाने-अनजाने में ही व्यक्ति को आध्यात्मिक जीवन की गहराइयों में प्रवेश दिला देता है। और इसके साथ जीवन-मरण, लोक-परलोक, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, कर्मफल सिद्धान्त जैसी बातें गहराई में समझ आने लगती हैं। समझ आता है कि जन्म-मरण का सिलसिला न जाने कितना बार घटित हो चुका है और आगे कितनी बार इससे गुजरा शेष है, जब तक कि कर्मों का हिसाब-किताब पूरा न हो जाए।

समझ आता है कि धरती पर जन्म अपने कर्मों के सुधार के लिए होता है, यह धरती एक प्रशिक्षण केंद्र है, कर्मभोग की भूमि है और साथ ही कर्मयोग भूमि भी, जहाँ एक अच्छे एवं श्रेष्ठ जीवन जीते हुए अपना आत्म परिष्कार करते हुए, जीवात्मा जगत में अपने स्तर को उन्नत करना है। संयम-सदाचार से लेकर सेवा साधना आदि के साथ अपने सद्गुणों का विकास करते हुए जीवात्मा अपने कर्म सुधार कर सकती है तथा इनके अनुरुप जीवात्मा जगत में उच्चतर लोकों में स्थान मिलता है।

इन सबके साथ जीवन-मरण का खेल और मृत्यु की अबुझ पहेली के समाधान तार हाथ में आने शुरु हो जाते हैं व धरती पर एक सार्थक जीवन के मायने व अर्थ समझ आते हैं। सांसारिक मोह-माया व अज्ञानता-मूढ़ता की बेहोशी टूटती है व एक नए होश, जोश व समझ के साथ जीवन के क्रियाक्लापों का पुनर्निधारण होता है। इस सबमें ईश्वर या किसी दूसरे को दोषी मानने की भूल से भी बचाव होता है। अंततः अपने कर्मों के ईर्द-गिर्द ही सब केंद्रित समझ आता है - जन्म भी, मृत्यु भी, स्वर्ग भी, नरक भी, पुनर्जन्म भी और अन्ततः मुक्ति भी। इसके साथ ही हर स्तर पर अपनी भूल-चूक, त्रुटियों व गल्तियों के सुधार, अपने दोषों के परिमार्जन व अपने कर्मों के सुधार की प्रक्रिया अधिक प्रगाढ़ रुप में गति पकड़ती है।

इस तरह मृत्यु के सत्य से दीक्षित पथिक इस धरती रुपी सराय का बेहतरतम उपयोग करता है और जब मृत्यु रुपी दूत दस्तक दे जाता है, तो पथिक अपनी अर्जित धर्म-पुण्य और सत्कर्मों की पूँजी के साथ बोरिया-बिस्तर समेटते हुए इस धरती पर एक प्रेरक विरासत छोड़ते हुए महायात्रा के अगले पड़ाव की ओर बढ़ चलता है।

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