शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

यात्रा वृतांत - कोरोना काल में हमारी पहली रेल यात्रा

हरिद्वार से सतना वाया लखनउ-चित्रकूट


मार्च 2021 का तीसरा सप्ताह, कोरोना काल के बीच यह हमारी पहली रेल यात्रा थी। देसंविवि से हरिद्वार रेल्वे स्टेशन के लिए ऑटो में चढ़ते हैं, ऑटो के रेट 20 रुपए से बढ़कर 30 रुपए मिले। लगा कोरोना की आर्थिक मार सब पर पड़ रही है। कोरोनाकाल के साथ कुछ असर कुंभ का भी रहा होगा। गंगाजी की पहली धारा को पार करते ही टापुओं में तम्बुओं की सजी कतारों व विभिन्न नगरों को सजा देखकर कुम्भ की भव्य तैयारियों का अहसास हो रहा था, हालाँकि इस बार इसका विस्तार सिमटा हुआ दिखा। नहीं तो सप्तसरोवर से लेकर आगे ऋषिकेश पर्यन्त गंगा किनारे टापुओं में कुंभ नगर बसे होते, जिसके हम वर्ष 1998 और 2010 के हरिद्वार कुंभ के दौरान साक्षी रहे हैं। हाल ही में बने फ्लाइ ऑवर, इनकी दिवालों पर उकेरी गई रंग-बिरंगी सुंदर कलाकृतियों के बीच गंगनहर को पार करते हुए ऑटो-रिक्शा रेल्वे स्टेशन तक पहुँचाता है।

रेल्वे स्टेशन में प्रवेश साइड से हो रहा था। मुख्य द्वार से प्रवेश बन्द था। इसके गेट पर पुलिस की चाक चौबंद व्यवस्था दिखी। कोरोनाकाल में प्रशासन की इस सजगता एवं सावधानी को समझ सकते हैं। अधिकाँश लोग मास्क पहने दिखे, लेकिन कुछ इससे बेपरवाह भी मिले। हमारी ट्रेन स्टेशन पर खड़ी थी। हम निर्धारित समय से आधा घण्टा पहले पहुँच चुके थे। खाली समय में अंकल चिप्स और चाय के साथ रिफ्रेश होते हैं।

कोरोना काल के बीच हमारी पहली रेल यात्रा की उत्सुकता स्वाभाविक थी। मैं अपनी मिसेज के साथ ससुराल जा रहा था, जिसका संयोग अठारह वर्षों के बाद बन रहा था। यह हमारी चौथी यात्रा थी। पिछली यात्राओं में सतना के साथ आसपास चित्रकूट, मैहर, रामवन जैसे दर्शनीय तीर्थस्थल देखे थे। इस बार कोरोना काल के बीच ऐसी यात्राओं की संभावना कम थी, लेकिन कुछ यादगार लम्हे बटोरने का मन तो घुम्मकड़ दिल बना चुका था, जिसका वर्णन आप अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

ठीक चार बजकर बीस मिनट पर हमारी ट्रेन - हरिद्वार-जबलपुर फेस्टिवल स्पेशल चल पड़ती है, जो अगले दिन सुबह साढे आठ बजे सतना स्टेशन पहुँचाने वाली थी। हरिद्वार से सतना सीधे यही एक ट्रेन है, बाकि दिल्ली से होकर इलाहावाद तक जाती हैं और फिर दूसरी ट्रेन पकड़नी पड़ती है। फेस्टिवल ट्रेन हरिद्वार से सतना-जबलपुर की सवारियों के लिए वरदान से कम नहीं, लेकिन इसकी एक कमी भी है। यह सप्ताह में एक ही बार चलती है। गुरुवार को हरिद्वार से छूटती है और गुरुवार को ही वापिस पहुँचती है अर्थात बुधवार को जबलपुर से वापिस आती है।

इस तरह दोपहर 4 बजकर 20 मिनट के बाद शाम 7 बजे तक, अंधेरा होने से पहले के दो-अढ़ाई घण्टे पहले दिन के उजाले में और फिर ढलती शाम के साथ बीते। रास्ते में लक्सर, नजीबाबाद, मुरादाबाद आदि स्टेशन पड़े। छोटे कस्बों, गाँव और खेतों के बीच सफर आगे बढ़ता रहा। खेतों में गन्ने की खेती वहुतायत में दिखी, साथ में गैंहूँ की फसल भी पक रही थी। गन्ना कहीं कट रहे थे, कुछ ट्रैक्टरों में लदे थे तथा कहीं-कही गन्ने की बुआई तक होते दिखी। 

कुछ खेतों में पराली जल रही थी, तो कुछ खेतों में राख का काला रंग इसकी चुगली कर रहा था। खेतों की मेड़ पर सफेदा के पेड़ दिखे। पाप्लर के पेड़ों का चलन कम मिला। मवेशियों में भैंस और बकरियों के दर्शन अधिक हुए, गाय कम दिखीं। हालाँकि बैलगाड़ियों के दर्शन होते रहे।

जल स्रोत के नाम पर ज्वालापुर के पास गंगनहर के दर्शन होते हैं। आगे रास्ते में एक नदी भी पड़ी, जो मौसमी अधिक लगी। लम्बे पुल से होते हुए हम इसको पार किए। 

रास्ते में तालाबों-पोखरों का रुका हुआ जल कई जगह मिला। कहीं कहीं कारखानों का गंदला जल खेतों के किनारे बहता दिखा, जिसका विषाक्त स्वरुप देखकर चिंता हो रही थी कि यह मिट्टी, फसलों व जीव-जंतुओं पर क्या असर डाल रहा होगा। रास्ते में खेतों की सिंचाई भी होती दिखी। कहीं-कहीं पानी उगलते मोटर-पम्पों के आसपास बच्चों व युवाओं को खेलते व जलक्रीड़ा करते देखा।

आम के बगीचे कहीं-कहीं खेतों के बीच खड़े दिखे। फलों का चलन इस रूट पर कम दिखा। कुछ जगह हरे-भरे बाग मिले। कुछ में छोटी पौध तैयार हो रही थी। सब्जियों के नाम पर कुछ स्थानों पर पत्ता गोभी के खेत दिखे। यहाँ कैश क्रोप का भी अधिक चलन नहीं दिखा। रास्ते में नदियों के किनारे सब्जी उत्पादन वहुतायत में होते दिखा।

रेल्वे क्रॉसिंग पर फाटक के दोनों ओर इंतजार करते लोग बीच-बीच में मिलते गए। लोगों की भीड़ को देखकर लगा कि कोरोना काल में भी जीवन गतिशील है। गुरुवार की हाट भी शाम के समय रास्ते में सजी दिखीं। खेतों में काम करते किसान, निराई-गुड़ाई करती महिलाएं, फसल काटते व ढोते लोग, खेतों में खेलते बच्चे-युवा सब मिलाकर एक प्रवाहमय लोक जीवन के दर्शन करा रहे थे।

ढलती शाम के साथ सूर्य भगवान अस्तांचल की ओर बढ़ रहे थे। सूर्यास्त की लालिमा ढलती शाम का सुंदर नजारा पेश कर रही थी। पक्षी जहाँ अपने आशियानों की ओर आकाश में उड़ान भर रहे थे। खेतों में अलसाए अंदाज में काम कर रही महिलाएं व किसान, खेतों की पतली पगडंडियों के संग घर बापिस लौट रहे थे और ये सब मिलकर ग्रामीण जीवन के रोमाँचक भाव जगा रहे थे।

इस बीच ट्रेन में चाय-कॉफी, बिस्कुट-नमकीन की फेरी लगती रही। चाय के साथ बीच-बीच में रिफ्रेश होते रहे। डिब्बे में सवारियाँ कम ही थी। कोरोना काल का असर साफ दिख रहा था। पूरे डिब्बे में मुश्किल से 10-15 सवारियाँ रही होंगी। मास्क व सोशल डिस्टेंसिंग के प्रति जागरुकता का अभाव दिखा। कहने पर कुछ लोग मान जाते। वहीं कुछ इस पर बुरा मान जाते व बड़बड़ाते हुए आगे बढ़ते।

ट्रेन एप्प व्हेयर इज माई ट्रेन से आ रहे व पीछे छूट रहे स्टेशनों का पता चल रहा था। ज्वालापुर से ही ट्रेन समय पर थी व कहीं-कहीं कुछ एडवांस में भी पहुँच रही थी। बीच में थोडा लेट भी हो जाती। अगले दिन तक इसे कवर करते हुए आधा घण्टा ही लेट रही। दौड़ती ट्रेन की स्पीड में फोटो कैप्चर करना मुश्किल हो रहा था, जो ब्लर्र(धूंधले) आ रहे थे। इसलिए जहाँ ट्रेन थोड़ा धीमे होती, वहाँ फोटो खींचते। ऐसे लगता जैसे बीच-बीच में ट्रेन हमें मौका दे रही हो। जब रेल रफ्तार पकड़ती तो बाहर दृश्यों को निहारते हुए इनके विविधपूर्ण रंग व रुप को ह्दयंगम करते रहते।

पूरे रेल रुट में दोनों ओर के खेतों को देखकर लगा कि यहाँ की भूमि पर्याप्त उर्बर है। लहलहाती फसल एवं यहाँ के हरे-भरे आँचल को देख खुशहाल ग्रामीण आँचल का अहसास होता रहा। हालाँकि इनसे जुड़े कई सबाल भी जेहन में उठते रहे, लेकिन ट्रेन में ऐसा कोई किसान, युवा या प्रबुद्ध लोकल सवारी नहीं दिखी, जिससे इन विषयों पर कुछ समाधानपरक चर्चा होती। लगा अभी ऐसी चर्चा का समय नहीं आया होगा, अगली किसी यात्रा में शायद ऐसा संयोग बने।

रात को आठ बजे के करीव हम मुरादाबाद पहुँच चुके थे। अब बाहर के नजारे नदारद थे। अतः खाली समय में साथ ले गई पुस्तकों का स्वाध्याय करते रहे। इसी बीच घर से पैक किया डिनर करते हैं। रात 9,30 बजे तक बरेली शहर पार होता है। कुछ देर में नींद के झौंके आने लगते हैं। सो अपने साइड अप्पर बर्थ में बिस्तर जमाकर लेट जाते हैं। मालूम हो कि रेलवे की ओर से कोविड काल में चादर, कम्बल व तकिए आदि नहीं मिलते। अपने साथ ले गए कपडों से काम चलाना पड़ता है। रात को 1,30 बजे ट्रेन लखनऊ पहुँच चुकी थी। थोड़ा चेंज के लिए कौतुहलवश बाहर निकलते हैं, स्टेशन पर सवारियों को ढोता इलेक्ट्रिक वाहन देखकर आश्चर्य हुआ, जो इन्हें स्टेशन पर ईधर से ऊधर ले जा रहा था। ऐसे वाहन के दर्शन हम फ्रेंक्फर्ट एयरपोर्ट पर कर चुके थे। यहाँ ऐसे ही कुछ वाहन का दर्शन कर अच्छा लगा, कि भारतीय रेलवे धीरे-धीरे अपग्रेड हो रही है।

सुबह 6 बजे भोर होते-होते हम उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर की ओर पहुँच चुके थे। बाहर के नजारे पिछले दिन से एक दम अलग थे। बांदा पहुँचते पहुँचते सुबह हो चुकी थी। आगे रास्ते में गैंहूं की फसल सुखी व भूरी दिखी, जो लगभग पक चुकी थी। कई जगह तो यह कट चुकी थी व कई जगह कटकर कतारों में इसकी ढेरी लगी थी। लगा कि फसल के पकने का सिलसिला दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमिक रुप में होता है। इस सीजन में आम दक्षिण में पक रहे होते हैं, जबकि उत्तरी भारत में बौर निकले होते हैं।

खेतों में काट कर रखी गैंहूँ की पकी फसल

अब साइड में पहाड़ के दर्शन भी शुरु हो गए थे। इनके दर्शन करते हुए 8 बजे हम चित्रकूट पहुँचते हैं। रास्ते में पलाश के गुलावी-लाल फूलों से लदे पेड़ तथा इनके जंगलों के नजारों को रोमाँचित भाव से निहारते रहे। यह हमारे लिए एक नया अनुभव था। यथासंभव इनको केप्चर करते रहे, लेकिन ट्रेन की तेज रफ्तार के कारण अधिकाँश फोटो धुँधले निकले। ट्रेन के धीमें होने पर कुछ काम के फोटो हाथ लगे। जो भी हो पहाड़ों की गोद में इनके जंगलों के बीच सफर एक यादगार अनुभव रहा, जिसका भरपूर आनन्द लेते रहे।

ट्रेन लगभग आधा घंटा लेट थी, सो 9 बजे के आसपास सतना में प्रवेश होता है। सीमेंट फेक्ट्रियों के दर्शन शुरु होते हैं। रास्ते में फ्लाइऑवर पार करते ही रेल्वे स्टेशन आता है। स्टेशन पिछले 18 सालों में पूरी तरह से अपग्रेड हो चुका है। साफ सूथरा और एकदम नया। कोविड को लेकर किसी तरह का कोई भय बाहर नहीं दिखा। कोई रिक्शा व ऑटोवाला मास्क नहीं पहने था। पूछने पर जबाव मिला कि यह मप्र का सबसे कम प्रभावित शहर है और सबसे सुरक्षित भी। खैर इस दावे को जाँचने का हम नवांगुतक के पास कोई पैमाना नहीं था। थोडी देर में मास्क पहने हमारे बड़े साले साहब शैलेंद्र भाई साहब आते हैं। समझ आया कि कोरोना जिस तेजी से फैल रहा है, सावधानी आवश्यक है। भाई साहब अपने वाहन में हमें गन्तव्य स्थल की ओर ले जाते हैं। शहर के बीच गुजरते हुए पुरानी यादें ताजा होती हैं, जिसको आप सतना शहर एवं आसपास के दर्शनीय स्थल की अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

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