बुधवार, 21 दिसंबर 2016

मेरा गाँव मेरा देश – यादें बचपन की

ब्यास नदी का तट और वन विहाल(विहार)-2 (समाप्न किश्त)

देवतरू वन की छाया में –

यहाँ का एक खास आकर्षण रहता गगनचुम्बी देवदारों से अटा टीला। इसके आगोश में हम खुद को जैसे विराट की गोद में पाते और अपने अकिंचन से अस्तित्व को गहराई से अनुभव करते। देवतरुओं की शीतल छाया, शुद्ध वायु. नीरव शांति में विताए पल एक दूसरे लोक में विचरण की अनुभूति देते। इसकी छाया में बने चट्टानी आसन हमारे विश्राम का स्थल होते। यहीँ पर चर कर तृप्त और थके हुए मवेशी भी विश्राम करते और हम निश्चिंत होकर कुछ पल सुकून के बिताते। यहीँ पर बैठकर साथ लाया नाश्ता करते। दोपहर के नाश्ते में प्रायः रोटी, गुढ़, मक्खन, सेब, अखरोट आदि रहते। इसी स्थल पर स्कूल की पिकनिक की यादें भी ताजा हो जाती हैं, जब पूरा स्कूल अपने शिक्षकों के साथ यहाँ पिकनिक मनाने आया था।



शमशान घाट का सन्नाटा

इसी के नीचे ब्यास नदी के तट पर खुले आसमाँ के नीचे शमशान घाट है। यहाँ का सन्नाटा हमें एक अलग ही अनुभूति देता। कल-कल बहती ब्यास नदी के किनारे स्थित इस मरघट में एक अलग ही शांति रहती। इसके किनारे नश्वर जीवन का तीखा बोध होता। हमारे कितने पूर्वजों का दैहिक अस्तित्व यहाँ राख बनकर रेतीली मिट्टी का हिस्सा बन चुका है, ऐसे ही एक दिन अपने सब प्रियजन यहाँ राख हो जाएंगे, सोचकर एक सिहरन सी होती। और अपने बजूद का भी यही अंतिम सत्य सोचकर श्मशान वैराग्य जाग जाता। जीवन की नश्वता और इस संसार की निस्सारता की गहराईयों में कुछ पल डूब जाते। बचपन में लोक किवदंतियों में सुनी भूत-प्रेत की कथाएं यहाँ से गुजरते हुए अवचेतन से उभर जातीं। हालाँकि हमें कभी किसी प्रकार के भूत यहाँ नहीं दिखे और न ही हमारे किसी साथी को। फिर भी प्रकृति की गोद में यह शमशान, वन विहार का एक ऐसा कौना था, जहाँ से विचरण हमें कुछ पल केलिए शाश्वत प्रतीत होते इस जीवन की नश्वरता का बोध अवश्य कराता।


नदी के तट पर रेत का घरौंदा

दिन में जब मवेशी चरकर थक जाते, पेट भर जाता, तो वे छायादार वृक्षों के नीचे बैठकर जुगाली करते, विश्राम करते। यही समय हमारे लिए भी नदी के किनारे खेलकूद का होता। नदी के तट पर हम रेतीले मैदान में खूब खेलते। कभी कब्बड़ी, तो कभी कुश्ती। जब थक जाते तो, बैठकर रेत का घर बनाते। गीली रेत से कई तरह की आकृतियों को उकेरते। दिन में भरी धूप में नदी के शीतल जल में डुबकी लगाते, फिर गर्म रेत पर लोट-पोटकर ठंड का उपचार करते। तैरना कभी सीख नहीं पाए, पायजामा के सिरों को गांठ बाँधकर गीलाकर, हवा भरते। इस पर छाती के बल लेटकर तैरने की कवायद करते। कुछ देर धारा के साथ बहते हुए तैरने का आनन्द लेते। हम तैराकी की इसी प्राथमिक कक्षा में बने रहे। यह बात दूसरी है कि धारा को चीरकर तैरने का सुयोग दशकों बाद गंगाजी के तट पर बनता है।



झूले के उस पार

नदी को पार करने के लिए एक झूल बना हुआ था, जो हमारे वाल मन के लिए कौतुहल का विषय रहता था। इसके आर-पार आते-जाते बढ़े लोग हमारे लिए देखने के लिए तमाशा होते। झूले के उस पार नीचे आईटीबीपी कैंप था तो ऊपर की ओर बवेली मार्केट। उस पार से कभी बन विभाग के कर्मचारी इधर आते, तो कभी मछुआरे पकड़ी मछली बेचने उसपार मार्केट तक जाते। कभी कोई पर्यटक इधऱ घूमने आते, तो कभी कुछ गाँववासी झूले से होकर घर की ओऱ शॉर्टकट मारते हुए इधर आते। शायद ही हम कभी बालपन में झूले को पार करने का दुस्साहस कर पाए हों। झूले से लोगों का आवागमन हमारे लिए मनोरंजन व कौतुहुल का ही विषय बना रहा। जिसे आज हम सोचते हैं कि थोड़ा सा हिम्मत कर आसानी से पार कर सकते थे।

भुट्टों का नाश्ता –

दिन में हमारा दोपहर का नाश्ता सामान्यतया घर से लाए सेब, रोटी, गुड़, मक्खन, आलू, अखरोट, शकोरी (सूखे सेब-खूमानी) आदि होते। लेकिन दिन के नाश्ते में नयापन लाने के लिए कभी-कभी हम खनेड़ के ऊपर भुट्टे के खेतों में घुसपैठ करते। पक रहे भुट्टों को तोड़कर लाते। लकड़ी इकट्ठा कर आग लगाते। फिर को अंगारों पर भूट्टों को भूनकर खाते। इसका एक अलग ही मजा रहता।


शाम को घर बापसी -

शाम को जैसे-जैसे सूर्यदेव सामने पहाड़ के पीछे छुपने लगते, घर बापसी की तैयारी शुरु हो जाती। सभी बिखरे हुए मवेशियों को इकट्ठा कर अतीश की छाया में ब्यास नदी के किनारे चल पड़ते। धीरे-धीरे खनेड़ की चढ़ाई को पार करते। दिन भर चरने से गाय-बैल के पेट फूले रहते। तृप्त पशु धीरे धीरे चढ़ते। शाम तक हम घर पहुँचते। वन विहार की यादें, आज बस यादें भर हैं, लेकिन जब भी घर जाते हैं, तो इस क्षेत्र का दूरदर्शन करते ही यादें ताजा हो जाती हैं। 

पता चला बीच में अतीश के जंगल लगभग समाप्त प्रायः हो गए थे। लेकिन फिर ग्रामीण वासियों के सामूहिक प्रयास से इनका संरक्षण किया गया और आज इनका सघन वन तैयार है। सिर्फ शादी-विवाह या अंतिम क्रियाकर्म के लिए इनकी लकड़ी का उपयोग होता है। हमें देखकर खुशी होती है व अपार सुकून मिलता है कि हमारे बचपन की यादें इस सघन वन में सुरक्षित-संरक्षित हैं।

यदि इसका पहला भाग पढ़ना हो तो आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - ब्यास नदी का तट और वन विहाल (विहार), भाग-1

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