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रविवार, 7 अप्रैल 2024

दैनिक जीवन में अध्यात्म, भाग-2

 

धर्म, अध्यात्म एवं अध्यात्म के सोपान

धर्म बनाम् अध्यात्म

धर्म शब्द आज बदनाम हो चला है। धर्म के नाम पर यदा-कदा उठने वाले क्लह-कलेश, वाद-विवाद, दंगे-फसाद, हिंसा एवं आतंकी घटनाओं ने इस पावन शब्द के प्रति प्रबुद्ध ह्दय में एक अज्ञात सा भय, संशय एवं वितृष्णा का भाव पैदा कर दिया है, जबकि धर्म का मूल भाव बहुत पावन एवं उदात्त है।

व्यापक अर्थों में धर्म का अर्थ धारण करने योग्य उन गुणों से है, जो व्यक्ति को उसके स्वभाव के अनुरुप उसके सर्वाँगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं और उसे पूर्णता की ओर ले जाते हैं। भारत के पहले परमाणु विज्ञानी एवं वैशेषिक दर्शन के जनक महर्षि कणाद के शब्दों मेंयतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः सः धर्म, अर्थात् जिससे लौकिक उत्कर्ष तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसे धर्म कहते हैं। भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के रुप में इसकी यही अवधारणा प्रस्तुत है। जीवन को पूर्णता तक पहुँचाने वाले चार पुरुषार्थों में इसे प्रमुख स्थान प्राप्त है। युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा के शब्दों में, बिना धर्म के नीतिमत्ता व संवेदना को विकसित किए बिना वह अर्थोपार्जन व उसका सुनियोजन नहीं कर सकता, न ही परिष्कृत काम सुख की सिद्धि ही कर सकता है।

आचार्य मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्यम और अक्रोध। सामयिक संदर्भ में पं.श्री रामशर्मा आचार्य धर्म के दस लक्षण इस तरह से बताते हैं सत्य, विवेक, संयम, कर्तव्य परायणता, अनुशासन, आदर्शनिष्ठा-व्रतशीलता, स्नेह-सौजन्य, पराक्रम-पुरुषार्थ, सहकारिता और परमार्थ-उदारता।

एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन के अनुसार रिलीजन का अर्थ चरम अनुभूति से है। धर्म की इस चरम उपलब्धि तक पहुँचने के विविध मार्ग के अनुरुप हिंदु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी जैसे धर्मों के विविध रुप  सामने आते हैं। धर्म की प्रमुख विशेषताएँ व संरचना के अनिवार्य अंग अवयव हैं परम्परा (Traditionalism)मिथक एवं प्रतीक (Myth & Symbol)मुक्ति की अवधारणा (concept of salvation)पवित्र तीर्थ स्थल एव वस्तुएं (Sacred places and objects), कर्मकाण्ड(Sacred actions (Rituals))धर्मग्रंथ (Sacred writings)धर्म समुदाय (Sacred community)और धार्मिक अनुभूतियाँ (Sacred experience).

आचार्य श्रीराम शर्मा के शब्दों में धर्म को संक्षेप में तीन अंगों में समेटा जा सकता है नीति शास्त्र, आस्तिकता प्रधान दर्शन और अध्यात्म। इनमें दर्शन पक्ष उस धर्म के अनुसार इस जगत, परमसत्ता, मनुष्य जीवन के स्वरुप, लक्ष्य आदि पर विचार करता है। नीति शास्त्र उस लक्ष्य की ओर बढ़ने के नीति-नियम, विधि-निषेध आदि का मार्गदर्शन करता है। और कर्मकाण्ड पक्ष पूजा-पाठ एवं साधना पद्वति आदि का निर्धारण करता है।

देश, काल, परिस्थिति के अनुरुप हर धर्म के आचार शास्त्र, कर्मकाण्ड एवं विश्वास के रुप में वाह्य भिन्नता हो सकती है। लेकिन अंततः सभी धर्म एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं। अपने वाहरी स्वरुप के प्रति दुराग्रह ही धर्म के नाम पर तमाम तरह के विवादों का कारण बनते हैं। इसी कारण डॉ. एस. राधाकृष्णन के शब्दों में, सैदाँतिक तौर पर सार्वभौम दृष्टि का प्रतिपादन करते हुए भी व्यवहारिक रुप से धर्मों में सार्वभौम दृष्टि का अभाव रहता है। यद्यपि वे कहते हैं कि सब मनुष्य चाहे वे किसी भी जाति, संप्रदाय, मत, रंग के हों, भगवान की नजर में एक समान हैं। लेकिन कई धर्म संस्थाएं अपने मत-विश्वास को लेकर कट्टर, असहिष्णु व उग्र हो जाती हैं। ऐसे में धर्म राष्ट्र-राज्य की तरह व्यवहार करने लगता है।

वास्तव में धर्म का अनुभूतिपरक उच्चतर स्वरुप अध्यात्म के क्षेत्र में आता है। धर्म और अध्यात्म के इस अनन्य सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए पं.श्री रामशर्मा आचार्य धर्म के तीन अंग बताते हैं धार्मिकता, आस्तिकता और आध्यात्मिकता। धार्मिकता अर्थात् नीति नियम और कर्मकाण्ड, जिसका निष्ठा पूर्वक अभ्यास करते हुए व्यक्ति आस्तिकता अर्थात् अपनी दैवीय प्रकृति एवं असीम संभावनाओं के बोध को पाता है। इसी के साथ वह आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश करता है और अपनी निम्न प्रकृति के क्रमिक रुपांतरण को साधता है। व्यवहारिक रुप में धार्मिकता का अर्थ कर्तव्यपरायण्ता हैआस्तिकता का अर्थ ईश्वरी सत्ता पर विश्वास है, जो कि नैतिकता का मेरुदंड है और आध्यात्मिकता का अर्थ आत्म-विश्वास, आत्म-निष्ठा और आत्म-विस्तार से है।

इस तरह धर्म का जो परिष्कृत रुप या चरम स्वरुप है वह अध्यात्म है। प्रायः अध्यात्म का उभार धर्म के गर्भ से ही होता रहा है। लेकिन धर्म के स्वतंत्र भी अध्यात्म का विकास हो सकता है। बिना किसी संस्थागत धर्म के किसी मत, विश्वास एवं मार्ग का अनुकरण किए भी व्यक्ति अपनी अंतःप्रेरणा, विवेक एवं प्रयोगधर्मिता के आधार पर अपने आत्मिक विकास को सुनिश्चित कर सकता है। अतः अध्यात्म का विकास धर्म के अंदर या बाहर कहीं भी हो सकता है।

अध्यात्म पथ के अनिवार्य सोपान

जीवन जिज्ञासा, आंतरिक खोज, आत्मानुसंधान – अपनी खोज में निकला पथिक जाने अनजाने में अध्यात्म पथ का राही होता है। यह जिज्ञासा जीवन के किसी न किसी मोड़ पर जोर अवश्य पकड़ती है। कुछ जन्मजात यह अभीप्सा लिए होते हैं। किंतु अधिकाँश जीवन के टेड़े-मेड़े रास्ते में राह की ठोकरें खाने के बाद, बाह्य जीवन के मायावी रुप से मोहभंग होते ही या जीवन के विषम प्रहार के साथ सचेत हो जाते हैं और जीवन के वास्तविक सत्य की खोज में जीवन के स्रोत्र की ओर मुड़ जाते हैं। जीवन के नश्वर स्वरुप का बोध एवं जीवन में सच्चे सुख व शांति की खोज व्यक्ति को देर सबेर अध्यात्म मार्ग पर आरुढ़ कर देती है। जीवन की वर्तमान स्थिति से गहन असंतुष्टी का भाव और मुमुक्षुत्व, अध्यात्म जीवन का प्रारम्भिक सोपान है। इसी के साथ साधक किसी आध्यात्मिक महापुरुष के संसर्ग में आता है, स्वाध्याय-सतसंग के साथ अगले सोपान की ओऱ बढ़ता है।

स्वाध्याय-सतसंग – आध्यात्मिक आदर्श एवं महापुरुषों का संग-साथ अध्यात्म का महत्वपूर्ण सोपान है। इसके साथ आत्मचिंतन की प्रक्रिया आगे बढ़ती है, जीवन का गहनतम स्तर पर निरीक्षण-परीक्षण का दौर प्रारम्भ होता है। साथ ही आंतरिक संघर्ष के पलों में इनसे आवश्यक प्रेरणा एवं मार्गदर्शन पाता है। खाली समय में उच्च आदर्श एवं सद्विचारों में निमग्न रहता है और आध्यात्मिक ग्रंथों एवं सत्साहित्य का अध्ययन जीवन का अभिन्न अंग होता है। इस प्रकार सद्विचारों का महायज्ञ साधक के चितकुण्ड में सदा ही चलता रहता है, जो क्रमशः आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के रुप में विकसित होता है। 

आध्यात्मिक जीवन दृष्टि – इसी के साथ अपनी खोज की प्रक्रिया प्रगाढ़ रुप लेती है और जीवन के प्रति एक नई अंतर्दृष्टि का विकास होता है। इस सानन्त वजूद में अनन्त की खोज आगे बढ़ती है। शरीर व मन से बने स्वार्थ-अहं केंद्रित सीमित जीवन के परे एक विराट अस्तित्व का महत्व समझ आता है। अब समाधान की तलाश अपने अंदर होती है। किसी से अधिक आशा अपेक्षा नहीं रहती। पथिक का एकला यात्रा पर विश्वास प्रगाढ़ रहता है। वह यथासंभव दूसरों की मदद करता है और समस्याओं से भरे संसार में समाधान का एक हिस्सा बनकर जीने का प्रयास करता है और अपनी जीवन शैली पर विशेष रुप से कार्य करता है। 

आध्यात्मिक जीवन शैली – आध्यात्मिक जीवन दृष्टि का स्वाभाविक परिणाम होता है आध्यात्मिक जीवन शैली, जो संयमित एवं अनुशासित दिनचर्या का पर्याय है। शील-सदाचारपूर्ण व्यवहार इसके अनिवार्य आधार हैं। अपनी मेहनत की ईमानदार कमाई इसका स्वाभाविक अंग है। इसके तहत वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक सभी पहलुओं के सम्यक विकास के प्रति जागरुक रहता है और एक कर्तव्यपरायण जीवन जीता है। 

कर्तव्य परायण जीवन – आध्यात्मिक जीवन कर्तव्यपरायण होता है। अपने कर्तव्य के प्रति सजग एवं कर्मठ। श्रमशील जीवन अध्यात्मिक जीवन की निशानी है। घर परिवार हों या संसार व्यापार, अपने कर्तव्यों का होशोहवास में बिना किसी अधिक राग-द्वेष, आशा-अपेक्षा या आसक्ति के निर्वाह करता है। जीवन के निर्धारित रणक्षेत्र में एक यौद्धा की भांति अपनी भूमिका निभाता है और धर्म मार्ग पर आरुढ़ रहता है। अपने कर्तव्यकर्मों से पलायन, आलसी-विलासी जीवन से अध्यात्म का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। 

आदर्शनिष्ठ, आत्म-परायण जीवन – अपने परमलक्ष्य की ओर बढ़ रहे आध्यात्मिक जिज्ञासु का जीवन आदर्श के प्रति समर्पित होता है। आदर्श एक व्यक्ति भी हो सकता है, कोई विचार या भाव भी। आदर्श के उच्चतम मानदण्डों की कसौटी पर खुद के चिंतन-व्यवहार को सतत कसते हुए, पथिक अपनी महायात्रा पर अग्रसर रहता है। अपने मन एवं विचारों को उच्चतम भावों में निमग्न रखते हुए आत्म-चिंतन एवं ध्यान परायण जीवन को जीता है। 

आत्म चिंतन ध्यान परायण जीवन – निसंदेह अपने आत्म स्वरुप का चिंतन, जीवन लक्ष्य पर विचार, आदर्श का सुमरण-वरण इसके अनिवार्य सोपान हैं। इसके लिए अभीप्सु ध्यान के लिए कुछ समय अवश्य निकालता है। अपने अचेतन मन को सचेतन करने की प्रक्रिया को अपने ढंग से अंजाम देता है। आत्म-तत्व का चिंतन उसे परम-तत्व की ओर प्रवृत करता है और ईश्वरीय आस्था जीवन का सबल आधार बनती है। 

आत्म-श्रद्धा, ईश्वर-विश्वास –अपनी आत्म-सत्ता पर श्रद्धा जहाँ एक छोर होता है, वहीं ईश्वरीय-आस्था इसका दूसरा छोर। अध्यात्मवादी अपनी आध्यात्मिक नियति पर दृढ़ विश्वास रखता है और अपने पुरुषार्थ के बल पर, अपने सत्कर्मों के आधार पर अपने मनवाँछित भाग्य निर्माण का प्रयास करता है। साथ ही वह ईश्वरीय न्याय व्यवस्था को मानता है। दूसरे जो भी व्यवहार करें, अपने स्तर को गिरने नहीं देता। व्यक्तित्व की न्यूनतम गरिमा एवं गुरुता सदैव बनाए रखता है। अपनी पूरी जिम्मेदारी आप लेता है, अंदर ईमान तथा उपर भगवान को साथ जीवन के रणक्षेत्र में प्रवृत रहता है।  

प्रार्थना – प्रार्थना आध्यात्मिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। अध्यात्मपरायण व्यक्ति अपनी औकात, अपनी मानवीय सीमाओं को जानता है, इससे ऊपर उठने के लिए, इनको पार करने के लिए ईश्वरीय अबलम्बन में संकोच नहीं करता। वह प्रार्थना की अमोघ शक्ति को जानता है और अपनी ईमानदार कोशिश के बाद भी जो कसर रह जाती है उसे प्रार्थना के बल पर पूरी करते का प्रयास करता है।  

निष्काम सेवा – सेवा अध्यात्म पथ का एक महत्वपूर्ण सोपान है। सेवा को आत्मकल्याण का एक सशक्त माध्यम मानता है। जिस आत्म-तत्व की खोज अपने अंदर करता है, वही तत्व बाहर पूरी सृष्टि में निहारने का प्रयास करते हुए यथासंभव सबके साथ सद्भावपूर्ण बर्ताव करता है। अपनी क्षमता एवं योग्यतानुरुप जरुरतमंद, दुखी-पीड़ित इंसान एवं प्राणियों की सेवा सत्कार के लिए सचेष्ट रहता है और निष्काम सेवा को अध्यात्म पथ का महत्वपूर्ण सोपान मानता है। 

सृजनधर्मी सकारात्मक जीवन- अध्यात्म से उपजा आस्तिकता का भाव व्यक्ति में अपने अस्तित्व के प्रति आशा का भाव जगाता है, अध्यात्म से उपजी कर्तव्यपरायणता उसे सृजनपथ पर आरुढ़ करती है और अपने स्रोत की ओर बढ़ता उसका हर ढग उसे सकारात्मक उत्साह से भरता है। अतः अध्यात्म नेगेटिविटी को जीवन में प्रश्रय नहीं देता। वह जिस भी क्षेत्र में काम करता है, एक सकारात्मक परिवर्तन के संवाहक के रुप में अपनी अकिंचन सी ही सही किंतु निर्णायक भूमिका निभाता है। हमेशा सकारात्मकता एवं सृजन के प्रति समर्पित जीवन आध्यात्मिकता का परिचय, पहचान है।

रविवार, 29 मार्च 2020

नवरात्रि साधना का व्यवहारिक तत्वदर्शन

नवरात्रि साधना का राजमार्ग
 
नवदुर्गा

 आजकल नवरात्रि का पर्व अपने पूरे जोरों पर है, आज इसका पांचवाँ दिन है, जो सकन्द माता के लिए समर्पित है। पहले दिन शैलपुत्री के रुप में साधक का संकल्प, ब्रह्मचर्य के तप में तपते हुए (ब्रह्मचारिणी), माँ चंद्रघंटा के दिव्य संदेशों को धारण करते हुए, माँ कुष्माण्डा से इस पिण्ड में व्रह्माण्ड की अनुभूति का वरदान पाते हुए आज बाल यौद्धा के रुप में माँ की गोद में जन्म लेता है। जो क्रमशः भवानी तलवार को धारण करते हुए (माँ कात्यायनी), सकल आंतरिक-बाहरी असुरता का संहार करते हुए (माँ कालरात्रि) एक महान रुपाँतरण (माँ गौरी) के बाद  अंतिम दिन सिद्धि (माँ सिद्धिदात्रि) को प्राप्त होता है।

यह नवरात्रि वर्ष में दो वार ऋतु संधि की वेला में आती है, जिसका विशिष्ट महत्व रहता है। यह तन-मन में ऋतु बदलाव के साथ होने वाले परिवर्तनों के साथ सूक्ष्म लोक में उमड़ते-घुमड़ते दैवीय प्रवाह के साथ जुडने एवं लाभान्वित होने का विशिष्ट काल रहता है। ऋषियों ने इसके सूक्ष्म स्वरुप को समझते हुए इस काल को विशिष्ट साधना से मंडित किया। गायत्री परिवार में नैष्ठिक साधक चौबीस हजार का एक लघु अनुष्ठान करते हैं, जिसमें प्रतिदिन 27 से 30 माला का जप किया जाता है, जिसकी पूर्णाहुति दशांश हवन के साथ होती है। शक्ति उपासक इस दौरान दुर्गासप्तशती के परायण के साथ भगवती की उपासना करते हैं।
 
माँ ब्रह्मचारिणी

इस पृष्ठभूमि में नवरात्रि की साधना के व्यवहारिक तत्वदर्शन को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है, क्योंकि प्रायः लोगों को एक हठयोगी की भाँति नौ दिन उग्र तप करते देखा जाता है, जिसमें कुछ भी बुराई नहीं है। लेकिन नौ दिन के बाद उनके जीवन में क्या परिवर्तन आया व आगे कितना इसको मेंटेन रखा, देखने पर अधिकाँशतः निराशा होती है। अनुष्ठान के बाद फिर येही साधक ऐसा जीवन यापन करते देखे जाते हैं, जिसका साधना से कोई लेना देना नहीं होता। जैसे कि साधना नौ दिन का एक कृत्य था, जिसे पूरा होते ही फिर खूंटी पर टाँग कर रख दिया और अब इसे अगली नवरात्रि में फिर धारण करना है।
 
इसमें चूक शायद हमारी अध्यात्म तत्व एवं साधना की व्यवहारिक समझ का रहता है। नवरात्रि साधना की पूर्व संध्या पर जब संकल्प लिया जाता है, तो उसमें माला का संकल्प तो रहता है, कुछ मौटे-मौटे नियमों को पालन का भी भाव रहता है, लेकिन जीवन साधना को समग्र रुप में निभाने का इसमें प्रायः अभाव देखा जाता है। परमपूज्यगुरुदेव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा ने अध्यात्म को जीवन साधना कहा है, जिसमें उपासना, साधना, अराधना की त्रिवेणी का संगम रहता है। यह जीवन की समग्र समझ के साथ किया गया पुरुषार्थ है, जीवन के किसी एक अंश को लेकर किया जा रहा हठयोग नहीं। यह एक राजमार्ग है, जिसके परिणाम दूरगामी होते हैं, जो दूरदर्शी संकल्प के साथ सम्पन्न होता है।
 
माँ कुष्माण्डा

यह व्यक्ति का अपने ईमानदार मूल्याँकन के साथ शुरु होता है, कि वह खड़ा कहाँ है। अनुभव यही कहता है कि माला की संख्या चाहे तीन ही हो, लेकिन जीवन साधना 24 घंटे की होनी चाहिए। समाज में ही नहीं, एकांत में साधक के पल सोते-जागते होशोहवाश में बीतने चाहिए। इसमें स्वाध्याय एवं आत्मचिंतन-मनन का सघन पुट होना चाहिए। कसा हुआ आहार-विहार, कसी हुई दिनचर्या, सधा हुआ सकारात्मक-संतुलित वाणी-व्यवहार और आदर्शां में सतत निमग्न भाव चिंतन। बिना महापुरुषों के संसर्ग एवं सद्गुरु के प्रति अनुराग के यह कहाँ संभव हो पाता है। बिना उच्चतर ध्येय के तप-साधना मात्र अहं के प्रदर्शन एवं प्रतिष्ठा का एक छद्म प्रयोग भर होता है, जिसके वारे में प्रायः साधक शुरुआती अवस्था में स्वयं भी भिज्ञ नहीं होते। लेकिन तत्वदर्शी सारी स्थिति को समझ रहे होते हैं।
 
माँ सकन्दमाता

इस समझ के अभाव में नौरात्रि में लोगों को ऐसे कृत्यों को साधना मानने की भूल करते देखा जाता है, जिनका जीवन साधना, जीवन परिष्कार, चित्तशुद्धि से अधिक लेना देना नहीं होता। जैसे मौनव्रत। एक विद्यार्थी, एक शिक्षक, एक गृहस्थ, एक व्यवसायी, एक सामाजिक प्राणी के लिए यह संभव नहीं होता। इस मौन को मेंटेन करने में जितना चक्कलस उठाना पड़ता है, उसमें जीवन की शांति, स्थिरता सब भंग हो रही होती है। कुछ इस बीच कोई काम नहीं करने को अपनी महानता मान बैठते हैं। जबकि स्वधर्म का पालन, कर्तव्य निष्ठ जीवन ऐसे में साधना की सबसे बडी कसौटी होती है। साधना जीवन से पलायन नहीं, इसकी चुनौतियों का सामना करने की तैयारी होती है।
 
इसी तरह भूखे प्यासे रह कर, ठंड व गर्मी में शरीर को अनावश्यक रुप में तपाकर-कष्ट देकर, एक आसन में शरीर को तोड़ मरोड़ कर किए जाने वाले हठयौगिक प्रयोगों का जीवन साधना से अधिक लेना देना नहीं रहता। कुछ पहुँची हुई आत्माएं इसका अपवाद हो सकती हैं, लेकिन सर्वसाधारण के लिए ये प्रयोग अपनी समग्रता में नामसमझी भरे कदम ही रहते हैं।

क्योंकि नवरात्र साधना का उद्देश्य जीवनचर्या को, आहार-विहार, विचार-व्यवहार को ठोक-पीट कर ऐसे आदर्श ढर्रे में लाना है कि वह जहाँ खड़ा है, उससे एक पायदान ऊपर उठकर अगले छः माह जीवन को उच्चतर सोपान पर जी सके। यह चरित्र निर्माण की सूक्ष्म एवं ठोस प्रक्रिया है, जो क्रमिक रुप में शनै-शनै मन को अधिक शांत, स्थिर, सशक्त एवं सकारात्मक अवस्था की ओर ले आए। ये साधना की व्यवहारिक कसौटियाँ हैं। यदि साधना व्यक्ति को इस ओर प्रवृत कर रही है, तो उसके सारे प्रयोग सार्थक माने जाएंगे। 
 

और यदि नवरात्रि के बाद भी व्यक्ति की आदतों में सुधार नहीं हो रहा, जीवन शैली उसी ढर्रे पर रहती है, चिंतन सकारात्मक नहीं होता, जीवन कुण्ठाओं एवं घुटन से भरा हुआ है, भावनाएं उदात नहीं हो रही, अपने ईष्ट आराध्य एवं सद्गुरु के प्रति अनुराग नहीं बढ़ रहा, तो फिर गहन आत्म-समीक्षा की आवश्यकता है। 
 
माँ सिद्धिदात्रि
 नवरात्रि साधना बिना अपनी विवेक बुद्धि का प्रयोग किए देखासुनी महज एक हठयौगक क्रिया भर नहीं है, यह तो साधक को जीवन के परमलक्ष्य की ओर प्रवृत करने वाले राजमार्ग पर चलने का नाम है, जिसके व्यवहारिक मानदण्डों को साधक गुरु के बचनों एवं शास्त्रों के सार को समझते हुए स्वयं अपनी स्थिति के अनुरुप निर्धारित करता है।
 
    दुर्गासप्तशति भगवती के उपासकों के बीच एक लोकप्रिय ग्रंथ है, जिसमें भगवती के नौ स्वरुपों का वर्णन इस प्रकार से है -
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्रीनवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।।
 
माँ दुर्गा

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