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शनिवार, 30 सितंबर 2023

वरसात का विप्लवी मंजर और यात्रा का रोमाँच

चैलचोक से पंडोह व कुल्लू की पहली यात्रा

वर्ष 2023 का जुलाई-अगस्त माह भारत के हिमालयी क्षेत्र व साथ में लगे तराई व मैदान के लोगों को लम्बे समय तक याद रहेगा, जब लगातार भारी से भारी मूसलाधार बारिश के बीच कूपित प्रकृति के कोप ने जनमानस को दहशत के साय में जीने के लिए विवश किया था। 9-10 जुलाई, 14-15 अगस्त और फिर 23-24 अगस्त - ये तीन तिथियाँ इस संदर्भ में सदा याद रहेंगी।

इस दौर में बारिश का कहर कुछ इस तरह से बरसा था कि हिमालयी क्षेत्र के हिमाचल प्राँत में कुल्लू-मानाली-मंडी-शिमला-सोलन क्षेत्र विप्लवी मंजर के बीच गुजरते दिखे, जिसका विस्तार नीचे चंडीगढ़ पंजाब से लेकर दिल्ली-आगरा तक रहा। 12 अगस्त को हमारा हरिद्वार से कुल्लू जाने का संयोग बन गया था। मकसद अपने जन्मदिन को मनाने के साथ पिछले माह गृहक्षेत्र में बरसात में हुई भयंकर तबाही को नजदीक से देखने व अनुभव करने का भी था।

इससे पहले 9-10 जुलाई की भयंकर बारिश के दौरान हमारा गृहक्षेत्र कुल्लू-मानाली बूरी तरह से प्रभावित हुआ था। कुल्लू से मानाली के बीच के राइट बैंक का राष्ट्रीय मार्ग जगह-जगह से धड़ाशयी हो गया था, सड़क के नामो-निशान बीच-बीच में मिट गए थे। बस-कारें-ट्रक और नदी किनारे आबाद घर जल में धड़ाशयी होकर बहते नजर आ रहे थे। बादल फटने की तमाम घटनाएं इस दौरान होती रही, जिसमें गाँव के गाँव तथा जंगल-वस्तियाँ उजड़ती दिखीं। चारों ओर हाहाकार औऱ चीत्कार के स्वर उठ रहे थे। खंड जल प्रलय की स्थिति के दर्शन हो रहे थे।

कुल्लू से मंडी के बीच पिछले 50 से 100 वर्षों तक शान से खड़े पुल ब्यास नदी के उफान में ताश के पत्ते की भांति धड़ाशयी होते दिखे थे। जगह-जगह भूस्खलन की घटनाओं के बीच गाँव वासी दहशत में जीने के लिए विवश हो गए थे। इस बीच हमारे ही दोनों पुश्तैनी गाँवों में पीछे से पहाड़ दरकना शुरु हो गए थे, दोनों ओर से भूस्खलन और बादल फटने के बीच आए दिन कभी दिन को तो कभी रात को नालों में ऐसे दृश्य खड़े हो जाते कि समाचार पढ़कर तथा सोशल मीडिया में आ रहे विजुअल देखकर रुह कांप जाती। इस दौरान वहाँ रह रहे लोगों पर क्या बीती होगी, यह भुगतभोगी ही बता सकते हैं।

बरसात की पहली मार में अनुमान था कि कुल्लू-मानाली क्षेत्र 25 साल पीछे चला गया था, क्योंकि अगले 2 माह तक क्षतिग्रस्त सड़कें आंशिक रुप से ही ठीक होती रहीं, जिसमें फल-सब्जी का सीजन बुरी तरह से प्रभावित हुआ, क्योंकि येही सड़के मैदानी इलाकों की बड़ी मंडियों तक इनको ले जाने की लाइफ-लाइन रहती हैं। (पिछले दिन 29 सितम्बर को ही पहली बोल्वो बस के मानाली तक पहुँचने के समाचार मिले हैं। हालांकि मंडी-कुल्लू नेशनल हाइवे आंशिक रुप से बसों के लिए पिछले 2-3 सप्ताह से खुल चुका था।)

9-10 जुलाई के बाद दूसरा मंजर अभी इंतजार में था। इससे बेखबर हम अपने गृहक्षेत्र की यात्रा पर थे, इसके पीछे भी दैवी संयोग ही था, जिसका राज आगे स्पष्ट होगा। बस हरिद्वार से चल पड़ी ही थी कि खबर मिली कि सुंदरनगर क्षेत्र में बारिश बहुत तेज हो रही है और खड्ड़ में अत्यधिक जल भरने से कई किलोमीटर सड़कें जलमग्न हो गई हैं। हल्की बारिश रास्ते भर हो रही थी। हमारी बस रात को अंबाला-चंडीगढ़-रोपड़ को पार करती हुई कीरतपुर से आगे टनल में प्रवेश करते हुए बिलासपुर पहुँचती है। नए रुट पर रोशनी व अंधेरे की आंख-मिचौली के बीच हल्की से तेज बारिश के साथ सफर आनन्ददायक लग रहा था।

ड्राइवर तथा कंडकटर के संवाद से समझ आ रहा था कि रूट डायवर्ट किया जा रहा है। घाघस से धुमारवीं होकर हम आगे बढ़ रहे थे। सुंदरनगर की बजाए हम सीधा नैरचौक पहुंचते हैं और बारिश के बीच रात अढाई बजे मंडी पहुँच चुके थे। पता चला कि आगे 6 मील पर पूरा पहाड़ नीचे आ गया है, रास्ता बंद है और अगले दो दिन तक रस्ता खुलने के आसार नहीं हैं। इसी के साथ बस, बस-स्टैंड पर एक कौने पर खड़ी हो जाती है। प्रातः दस बजे तक बस में ही इंतजार करते बीते, आगे के लिए कोई बैकल्पिक मार्ग की छोटी या बड़ी गाडियां नहीं मिल सकी। भाईयों से टेलिफोनिक संवाद से पता चला कि फल के बाहन भी रास्ते में फंसे हुए हैं, सुंदरनगर साइड में खड़ड में पानी खत्तरे के स्तर को पार कर आसपास के इलाकों को जलमग्न किए हुए है।

मंडी से दो ही वैकल्पिक मार्ग कुल्लु के लिए थे - एक कंडी-कटौला होकर, जहाँ से छोटी गाँडियाँ चलती हैं, लेकिन आज यह भी भूस्खलन के चलते बंद था। दूसरा चैलचोक से होकर, जो पंडोह तक पहुंचाता है। मंडी से पंडोह सीधे मुश्किल से पोन घंटे का रास्ता है, जो कैरचोक के धुमावदार रास्ते से होकर 3-4 घंटे का हो जाता है। खैर आपातकाल में जहां 24 घंटे तक रास्ता खुलने के असार नहीं हों, तो ये 3-4 घंटे भी अधिक नहीं लगते, जब किसी तरह घर पहुंचना प्राथमिकता में रहता है।

किसी भी वैकल्पिक रुट के लिए कोई बस या टैक्सी नहीं मिल रही थी। इसी बीच फ्रेश होकर पास के ढावे में आलू-पराँठा, दही व चाय के नाश्ते के साथ तृप्त होकर अपना सामान पीठ पर लादे पास के पुल तक चहलकदमी करते हैं। कुछ पिछले सात-आठ घंटे तक बस में बैठकर शरीर में हॉवी हो चुकी जकड़न से निजात पाने के लिए, तो कुछ पुल से सुकेत खड्ड़ का मुआइना करने के भाव के साथ, जिसमें भयंकर जलभराव के समाचार आ रहे थे।

पुल पर पहुंचते ही नजारा साफ था, लोग पुल पर खड़े होकर भय मिश्रित आश्चर्य के साथ इसके उग्र स्वरुप के दीदार कर रहे थे। सुकेत नदी विकराल रुप लिए हुए थी। इसका प्रवाह पुल के नीचे से पार होकर आगे ब्यास नदी में मिल रहा था। दोनों के संगम पर दायीं और पंचवक्र शिव मंदिर है, जिसके दीदार 9-10 जुलाई के विप्लवी बाढ़ के मंजर के बीच पूरे विश्व ने किए थे, जिसमें केदारनाथ त्रास्दी की भीमशिला से संरक्षित केदारनाथ मंदिर के समकक्ष भोलेनाथ के दैवीय स्वरुप के भाव शिवभक्तों के ह्दय में झंकृत हुए थे, जब ऐसा लगा था कि स्वयं सावन भोलेनाथ के अभिषेक के लिए उमड़ पड़ा हो। आज पुल से इसके दिव्य तीर्थ का दूरदर्शन कर रहा था। लगा बाबा ने हमारी व्यथा-वेदना सुन-समझ ली थी।

वहाँ से बापिस होते ही बस स्टैंड पर हमें पठानकोट-कुल्लू बस के दर्शन हुए। पूछने पर पता चला कि ये चैलचोक से होकर पंडोह व आगे कुल्लू तक जा रही है। बस में आगे ही ड्राइवर के पीछे दूसरी पंक्ति में सीट मिल जाती है। घर पहुँचने का पहला मोर्चा फतह होते दिख रहा था, आठ घंटे का इंतजार खत्म हो रहा था। अगले आधे घंटे में बस के पूरा भरने के बाद हम चल पड़े नए-अनजान मार्ग पर, जिसके बारे में भाई से बहुत-कुछ सुना था। नए क्षेत्र से होकर यात्रा की उत्सुकतता व रोमाँच का भाव चिदाकाश में उमड-घुमड़ रहा था और हमारी बस मंडी से नैरचोक की ओर बढ़ रही थी।.......(शेष अगली पोस्ट में)     

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच, भाग-2

बाबा शिव का बुलावा और मार्ग का रोमाँचक सफर

रास्ते में शिमला लॉयन क्लब द्वारा वृक्षारोपण का विज्ञापन पढ़कर अच्छा लगा। बाँज के वृक्षों के बीच देवदार के पौधों को बढ़े होते देखकर मन प्रमुदित हुआ। मन में भाव फूट रहे थे कि भगवान शिव इन समझदार व जिम्मेदार लोगों पर अपने अजस्र आशीर्वाद बरसाए। (गॉड शिवा ब्लैस दीज केयरिंग सॉउल)। सीधी उतराई में काफी नीचे उतरते गए। वन की सघनता, नीरवता और गहराती जा रही थी। लो आखिर मंदिर की झलक झाँकी मिल ही गई। थोड़ी की देर में हम इसके पास में थे। वाईं और पहाड़ी शैली में एक छोटा सा मकान, संभवतः जंगलात का है या पूजारीजी के रहने का ठिकाना। दाईं और मंदिर है, छोटा लेकिन कुछ फैला सा, एक मंजिला। लाल रंग से पुता, सीमेंटड़ पिरामिडाकार छत्त लिए हुए। चप्पल, गेट के जुत्ता स्टैंड पर उतारकर आगे बढ़े।

निर्देश पढ़कर बाउड़ी तक उतरे। निर्मल जल ताले में सुरक्षित दिखा। सिक्के पानी की तह में पड़े थे। इसके ऊपर लाल गुलाब स्थिर अवस्था में तैर रहे थे। बाउड़ी का यही जल नीचे पाइप से झर रहा था एक दूसरी बाउड़ी में। यहाँ बाउड़ी से जल कहाँ जाता है, नहीं दिखा, न ही समझ आया, न ही खोज की। संभवतः नीचे कहीं झरता होगा, जायरु (पहाड़ी स्प्रिंग वॉटर) बनकर। पास में रखे जग में झरते निर्मल-शीतल जल को भरकर अपनी तेज प्यास बुझाई। पैरों पर जल डालकर इनपर लगी धूल साफ की और थकान भी। और कुछ छींटे पवित्रिकरण के भाव के साथ छिड़ककर मंदिर में प्रवेश की तैयारी की। बग्ल में ब्रह्मलीन बाबा की अखण्ड धुनी भी थी। पहले मंदिर में पहुँचे। देवदर्शन किए, पूजारीजी से चरणामृत प्रसाद लिए। अनुमति लेकर नीचे धुनी में आ गए।

कमरे में प्रवेश किए। धुना सुलग रहा था। कमरे के कौने में लकड़ी के बड़े-बड़े लट्ठे पड़े थे। एक बड़ा सा लठ धुनी में सुलग रहा था। सामने चौकी पर बाबा का एक फोटो, दूसरा स्कैच चित्र रखा था। सामने चरणपादुकाएं। अखण्ड धुनी की राख को अनिष्ट निवारक, अलौकिक बताया गया था। इस तीर्थ स्थल की कुछ विभूति कागज की पुड़िया में रखकर हम बाहर निहारने लगे। हालाँकि हमारी सीधी सी स्पष्ट सोच है कि इस सृष्टि में कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता, सब अपनी पात्रता के अनुरुप रहता है। हमें यहाँ के एकांत-शांत परिसर, आध्यात्मिक ऊर्जा से आवेशित वातावरण, बाहर दो छोटी-छोटी खिड़कियों से घाटी, जंगल और शिमला के विहंगम दृश्य, अनुपम व अद्वितीय लग रहे थे। हम इन सबके बीच एक दूसरे लोक में विचरण की अनुभूति कर रहे थे।

कुछ देर भोले बाबा का ध्यान किए, जीवन की नीरवता, आध्यात्मिक सत्य और जीवन लक्ष्य पर विचार केंद्रित किए। मन में भाव उठा कि किन्हीं फुर्सत के दिनों में, समय लेकर यहाँ बैठेंगे, साधना-अनुष्ठान करेंगे। जो भी हो, समय सीमा को ध्यान में रखते हुए बाबाजी से मिलने चले। प्रसाद में मिले मीठे दाने गिने, पूरे 22 थे। 2 को शिव शक्ति का रुप मान ग्रहण किए। भाव रहा कि दोनों जगतपिता, जगनमाता का कृपा प्रशाद धारण कर रहे हैं।

पूजारी भीमदास से अपना परिचय कराया। पूजारीजी कुछ रिजर्व प्रकृति के थे, मौन प्रधान लगे। उन्हें सहज करने, खोलने के लिए अपनी पूरी कथा-गाथा बताई। कहाँ से आए हैं, कैसे आए हैं, अकेले क्यों, आगे साधना-अनुष्ठान की मंशा भी जाहिए किए। घड़ी में शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। ऊपर माँ तारा का मंदिर दूर लग रहा था, मन में संशय था कि इस समय वहाँ से शिमला के लिए बस मिलेगी भी या नहीं।

हमारी दुविधा को देखते हुए पूजारीजी ने मार्गदर्शन करते हुए कहा - सीधा रास्ते पर आगे बढ़िए, एक घंटे में तारा देवी स्टेशन पहुँच जाओगे। ऊपर तारा देवी मंदिर से बस अब मिलने से रही। भीमदासजी को प्रणाम कर हम चल दिए। शिवालय मंदिर परिसर से चार सफेद पुष्प (शिव परिवार के प्रतिनिधि) पॉकेट में डालकर, बाँज के बीहड़ वन में प्रवेश कर गए।

वन की सघनता बढ़ती गई, बैसी ही नीरवता और गंभीरता भी। रास्ता पर्याप्त चौढ़ा था, सो गिरने फिसलने का कहीं कोई भय नहीं था। सीधा मार्ग धीरे-धीरे चढ़ाई में बदल गया। इस निर्जन प्रदेश में जंगली जानवरों का अज्ञात सा भय अचेतन मन पर छाना स्वाभाविक था। पूरे मार्ग भर शिव मंत्र का जप एवं सुमरण चलता रहा। अप्रत्याशित खतरे-हमले के लिए हाथ में पत्थर और ड़ंडा ले रखा था। इसी क्रम में जंगल पार हो चला था।

जंगल के लगभग अंतिम छोर पर विश्राम के लिए पत्थर का एक चबूतरा बना था। यहाँ पर कुछ देर विश्राम कर, पीछे मुड़कर तय किए गए मार्ग को निहारा। जंगल की विहंगम दृश्यावली मनोरम, आलौकिक, अद्वितीय और अनुपम थी। आश्चर्य हो रहा था कि इतने सुन्दर व घने जंगल से होकर यह पथिक अकेला सफर तय किया है। 


वन के ऊपर माता का मंदिर और ह्दय क्षेत्र में शिव का प्राचीन मंदिर। काश कैमरा होता। बैसे आँख के कैमरे से चित्त के पटल पर यह विहंगम दृश्य हर हमेशा के लिए अंकित हो गया था। (हालाँकि बाद की समूह यात्रा में अगले वर्ष यहाँ की फोटोग्राफी का संयोग बनता है।)

विश्राम के साथ कुछ दम भरने के बाद फिर मंजिल की ओर आगे बढ़ चले। आगे फिर जंगल आ गया, देवदार से भरा। इसको पार करते ही कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आई। इसकी मालकिन दो पहाड़ी महिलाएं ढलवां पहाडियों में नीचे घास काट रहीं थी। उनके बुलाने पर शेरु कुछ शांत हो गया, हमारे प्यार भरे उद्बोधन और हाथ में डंडे को देखकर भी वह मार्ग से हट चुका था।

आगे रास्ता धार या रिज से होकर आगे बढ़ रहा था। दाएं भी रास्ता और वाएं भी। दाएं का चुनाव किया, यह सोचकर कि शिमला दाएं ओर जो ठहरा। आगे जंगल औऱ घना होता जा रहा था। फिर दो राहें। यहाँ भी दाईं राह परर चल पड़ा। लेकिन थोड़ी दूर पर पत्थर-सीमेंट का गेट मिला। आगे बढ़ने पर समझ आया कि किसी की स्थापना है यह। सो वाएं रास्ते से चल पड़ा। ढलवाँ, संकरा और घने वृक्षों से आच्छादित पगडंडी से होकर अब गुजर रहा था। शीघ्र ही नीचे वाहनों की आवाजें आना शुरु हो गई थी, साथ ही स़ड़क भी दिख रही थी। लगा मंजिल के बहुत करीब हैं अब हम।

लो, सामने भवन दिख रहे हैं। मानवीय बस्ती आ गई है। कुछ देर में हम सड़क पर उतर आए। यह क्या, हम तारा देवी स्टेशन पहुँच चुके थे। यहीं पास के एक पहाडी ढावे में बैठते हैं, इतने लम्बे सफर के बाद शीतल जल। चाय भी बन रही है। एक कप और बना देना। इस तरह चाय की चुस्कियों के साथ पिछले घंटों की यादगार यात्रा की जुगाली के साथ आज के ट्रेकिंग एडवेंचर, शिवालय दर्शन की रोमाँचक यात्रा की पूर्णाहुति होती है।

तारादेवी स्टेशन से सीधे टुटीकंडी आइएसबीटी बस मिलती है। टुटीकंड़ी बस-स्टैंड से पुराने बस-स्टैंड पहुँचते हैं। बहाँ से बालुगंज, जहाँ प्रख्यात कृष्णा स्वीट्स में दूध-जलेबी की मन भावन डिश का आनन्द लेते हैं। यहाँ से एडवांस स्टडीज के शांत कैंपस में प्रवेश कर अपने कमरे में पहुँचते हैं। बिस्तर पर कमर सीधी करते हुए, कुछ पल विश्राम करते हैं। इस बीच दिन की यात्रा के रोँमाँचक अनुभवों को निहारते हुए गाढ़ा अहसास हो रहा था कि कैसे मन की गहरी चाहत या कहें बाबा के बुलावे पर आज की यादगार यात्रा का संयोग बना था और पग-पग पर उसका दिव्य संरक्षण व मार्गदर्शन मिला था।

इसके भाग-1 के लिए पढ़ें - यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच

बुधवार, 31 अगस्त 2022

यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच

 बाबा शिव का बुलावा और मार्ग का रोमाँचक सफर


 दोपहर के भोजन के बाद मन कुछ बोअर सा व अलसाया सा लग रहा था। बोअर कुछ इस तरह से कि एडवांस स्टडीज का कोई सेमिनार या प्रेजेंटेशन आदि का बंधन आज के दिन नहीं था, क्योंकि यहाँ के प्रवास का काल लगभग पूरा हो चुका था, सामूहिक भ्रमण का कार्यक्रम भी सम्पन्न हो चुका था। (संस्मरण वर्ष
2013 मई माह का है)

एक माह के दौरान शिमला के कई स्थलों को मिलकर एक्सप्लोअर किया था, लेकिन शिमला में शिव के धाम की खोज शेष थी। कल सुबह ही विक्रम ने सफाई के दौरान सुबह बीज डाल दिया था कि तारा देवी शिखर के नीचे शिव का बहुत सुंदर व शांत मंदिर है। आज दोपहर के खाली मन में एडवेंचर का कीड़ा जाग चुका था कि आज वहीं हो लिया जाए। कोई साथ चलने को तैयार न था, सो यायावरी एवं तीर्थाटन की मनमाफिक परिस्थितियों सामने थीं। कमरे में आकर विश्राम का विकल्प भी साथ में था, लेकिन परिस्थिति एवं मनःस्थिति का मेल कुछ ऐसे हो रहा था कि लगा जैसे बाबा का बुलावा आ रहा है और मन की पाल को हवा मिल गई, कि चलो शिवालय हो आएं।

एडवांस्ड स्टडी शिमला का ऐतिहासिक भवन एवं भव्य परिसर
 

एडवांस स्टडीज के गेट के बाहर बालूगंज से बस भी मिल गई थी। सीधा शिमला के पुराना बस अड्डा उत्तरे। यह क्या, यहाँ तो एक ही बस खड़ी नहीं थी तारा देवी मंदिर के लिए। रास्ते में शोधी या तारा देवी स्टेशन पर उतरने का कोई ईरादा न था। कौन चलेगा दूसरी बस में। जाएंगे तो सीधा माता के द्वार पर उतरेंगे, फिर देखेंगे आगे की शिव मंदिर यात्रा।

लगभग एक घंटा बीत गया बस के आगे पीछे भागते, ड्राइवर व सवारियों से बस का पता-ठिकाना पूछते..। इसी बीच अपने बी.टेक. लुधियाना के सहपाठी अवस्थीजी की कोचिंग अकादमी - विद्यापीठ के दर्शन भी हो गए। फुर्सत में मिल लेंगे इनसे बाद में। लो बस आ गई, शोघी तक। चलो वहां तक ही सही, वापस आ जाएंगे, यदि वहाँ से सीधे तारा देवी मंदिर के लिए बस न मिली तो। कुछ ऐसा ही हुआ भी। शोघी से स्कूल बच्चों से भरी एक लोक्ल बस में बैठ गए, कुछ मिनट खड़े खड़े यात्रा करते हुए स्कूली बच्चों के साथ बस ने हमें राह में उत्तार दिया। लेकिन तारा देवी का प्रवेश गेट और रास्ता तो पीछे है 300 मीटर लगभग। सवा 2 किलोमीटर ऊपर है मंदिर अभी।

कुछ देर बस-टैक्सी आदि की उम्मीद में खड़े रहे, लेकिन जल्द ही ना उम्मीद होकर अपनी सबसे विश्वस्त 11 नंबर की गाड़ी से चल दिए। सड़क को छोड़कर शॉर्टकट पगडंडी का सहारा लिए। पत्थरों पर बज्री नुमा पत्थरों पर ऊपर चढ़ने से आज की यात्रा की कठिन शुरुआत हो चुकी थी। ऊपर मुख्य मार्ग पर कुछ टैक्सी अभी चल रही थी। लेकिन इन्हें एक अजनबी पथिक से क्या लेना देना। 

शिमला का वैली व्यू (प्रतिनिधि फोटो)
 

ऊपर देखता, मंदिर का भवन काफी ऊपर था। राह में धूप सीधे बरस रही थी, साथ ही ठंडी हवा भी, नीचे गांव सड़क घाटी का हरा-भरा विहंगम दृश्य सुहावना लग रहा था। प्यास भी लग रही थी। पानी की कोई व्यवस्था साथ नहीं थी, क्योंकि सोचा नहीं था कि ऐसी ट्रैकिंग की भी नौबत आएगी। यह आज मेरी कौन सी परीक्षा ली जा रही थी,  व यह कौन सी शक्ति मुझे इन सुनसान राहों पर ऊपर बड़ा रही थी। यह तो भगवान शिव ही जाने, जिनके द्वार तक हम संकल्पित हो कर चल पड़े थे। अभी तो सीधे ऊपर तारा देवी का मंदिर था।  

शॉर्टकट पगडंडी से ऊपर चढ़ा ही था कि बड़ी सी पानी की सीमेंट टंकी दिखी। आवाज आ रही थी अंदर से पाइप में पानी के निकासी की, लेकिन नल कहीं ना दिखा। खाली हाथ ऊपर बढ़ चला। रास्ते में यह क्या, नीचे आवाज आ रही थी जानी पहचानी हॉर्न की और छुक-छुक की भी। तो यहीं नीचे सुरंग से होकर रेल्वे ट्रैक आगे बढ़ता है। कुल मिलाकर सामने एक रोमांचक दृश्य था। शिमला-कालका ट्रैन पहाडियों के बीच लुका-छिपा करती हुई सुरंगों के आर पार हो रही थी।

हम भी अपनी मंजिल तारा देवी शिखर की ओर बढ़ रहे थे, जहाँ से हमें शिव मंदिर के लिए दूसरी ओर नीचे उतरना था। सड़क पार कर चोड़ी पगडंडी मिली, लगा पक्की सड़क बनने से पहले तीर्थ यात्री इसी राह से सामान के साथ घोड़ा आदि के साथ जाते रहे होंगे। आज भी हो सकता है श्रद्धालु पर्व त्योहारों में इसी राह से चढ़ते उतरते होंगे। 

रास्ता चीड़ की सूखी पत्तियों से ढका था, कुछ-कुछ फिसलन भरा। लेकिन इनके साथ अपनी बचपन की विरल यादें अचेतन की अतल गहराईयों से उभर कर आज ताजा हो रहीं थी। भूंतर के आगे मणिकर्ण घाटी में शड़शाड़ी से पुलपार कर ओल्ड़ जाते समय ऐसे ही चीड़ पत्तियों से भरे रास्ते बचपन में देखे थे, बुआजी की बड़ी बेटी की शादी में शरीक होने गए थे। आज वो पुरानी यादें ताजा हो रहीं थीं।

एक ओर याद ताजा हो उठी। यह जंगली झाड़ियों में खट्टी-मिठी आँछ (बुश बैरी) को बीन कर खाने का अनुभव था। कुछ-कुछ पानी की कमी इनसे पूरी होती अनुभव कर रहा था। बीयर ग्रिल के मैन वर्सेज वाइल्ड का एक पात्र खुद को अनुभव कर रहा था। सच में निपट अकेला, बिना किसी तैयारी के भोलेनाथ शिव के दर्शनार्थ उनके धाम की खोज में। बीहड़ वन के सन्नाटे को चीरते हुए हम अकेले बड़ रहे थे।

अब रास्ता मुख्य मार्ग से अलग हो गया था। ऊपर दूर मोड़ दिख रहा था। बीच का सफर अपने गाँव के पीछे (बनोगी गांव के ऊपर और रेऊंश के नीचे का वन क्षेत्र) बीहड़ बनों में बचपन के बिताए रोमाँचक पलों को तरोताजा कर रहे थे। रास्ते भर खट्टी मिठी बुश बैरी की हरी भरी झाडियां जहाँ भी मिलती गईं, उनसे दो-चार दाने तोड़कर सेवन करता रहा।

मार्ग में लेबर काम करते मिले। अपना रोल्लर आगे-पीछे कर रहे थे। एक थके हैरान-परेशान लेकिन लक्ष्य केंद्रित तीर्थ यात्री को वे कौतुक भरी निगाहों से देख रहे थे। बात-चीत करने का न समय था और न ही मनःस्थिति। राह में उतरता हुआ एक यात्री दुआ-सलाम कर कुछ मन हल्का व आश्वस्त करता प्रतीत हुआ। इस निर्जन राह में एक आस्थावान श्रद्धालु के दर्शन व उसका आत्मीय स्पर्श  निःसंदेह रुप में सकूनदायी लगे।

शिमला के ट्रेकिंग ट्रैल्ज - (प्रतिनिधि फोटो)

इनको पार कर आधे से अधिक मार्ग, लगभग डेढ़ किमी तय हो चुका था। आगे मुख्य मार्ग से पत्थर की सीढ़ियाँ और कछ घने वन से होकर रास्ता पार किया। मुख्य मार्ग पर आते ही – लो यह क्या। ऊपर माँ का मंदिर दिख रहा था, सहज विश्वास न हुआ कि पहुँच गए। अब एक मोड़ और बस...। कुछ पल बैठ दम भरा। प्यास लगी थी, लेकिन पानी न था। फिर आगे बढ़ चले। यह क्या मोड़ पर शिव मंदिर का बोर्ड लगा था। क्यों न सीधे इस मार्ग से बढ़ चलें, पहले शिव बाबा के दर्शन कर लें, वहीं तो आज की मूल मंजिल थी, फिर देखेंगे ऊपर माता का द्वार, जहाँ पिछले दो रविवार आ चुके थे वहाँ। तब शिवमंदिर का बोर्ड पढकर उतरने की इच्छा जगी थी, लेकिन साथी लोग तैयार नहीं थे। लगा, जो होता है, अच्छा ही होता है।

अब हम पगडंडी पर बढ़ चल रहे थे, जो बहुत ही संकरी थी। बाँज के पत्तों से भरी, फिसलन भरी थी। एक कदम दाएं कि सीधे नीचे गए गहरी घाटी में। हालाँकि बांज के घने पतले वृक्ष बीच में रोक सकते हैं, लेकिन चोट तो काफी गंभीर लग सकती है ऐसे में...। हम एकाकी आगे बढ़ रहे थे, पीछे ऊपर माता का मंदिर दिख रहा था। शनै-शनै हम जितना नीचे उतरते गए, मंदिर पीछे छूटता गया और अब दृष्टि से औझल हो चुका था व आगे जंगल और घना होता जा रहा था। बढ़ते बढ़ते दूर कुछ हलचल दिखी, बंदर कूद रहे होंगे, नहीं ये तो गाय जैसा पशु लगा। पास में वन विभाग का बोर्ड भी दिखा। यहाँ जंगल में लोगों के छोड़े हुए मवेशी चर रहे थे।

बीच राह में किसी तरह के अप्रत्याशित खतरे या हमले से निपटने के लिए एक हाथ में नुकीला पत्थर और दूसरे हाथ में एक ठूंठ का डंड़ा हम थाम चुके थे। (जारी....शेष भाग-2 व अंतिम किस्त अगली पोस्ट में - यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच, भाग-2)  

तारा देवी हिल्ज के बीहड़ बन और बांजवनों के मध्य शिवमंदिर

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

यात्रा वृतांत - मेरी पहली नेपाल यात्रा

 हिमाच्छादित हिमालय के संग एक रोमाँचक सफर

दिव्य झलक - हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाएं, नेपाल, हिमालय

यह हमारी पहली नेपाल यात्रा थी। वर्ष 2021 के उथल-पुथल भरे कलिकाल का समाप्न जैसे भगवान पशुपति नाथ क्षेत्र से आमन्त्रण के साथ हो रहा था। हरिद्वार से मुरादावाद होते हुए हम भारत की सीमा पर नानकमत्ता, बनवसा की ओर से प्रवेश करते हैं। यहाँ पहुँचते-पहुँचते शाम हो चुकी थी, अतः यहाँ पर काली नदी के दर्शन रात के अँधेरे में बिजली की रोशनी में ही कर पाए। काली नदी के बारे में बहुत कुछ पढ़-सुन चुके थे, सो इसके दर्शन की अभिलाषा दिन के उजाले में आज अधूरी ही रही।

मालूम हो कि काली नदी भारत और नेपाल के बीच एक नैसिर्गिक सीमा रेखा का काम करती है, जिसे महाकाली, कालीगंगा, शारदा जैसे कई नामों से जाना जाता है। यह उत्तराखण्ड के पिथौड़ागढ़ के 36,00 मीटर (लगभग 10,800 फीट) ऊँचे स्थान कालापानी स्थान से प्रकट होती है और उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में शारदा के नाम से 350 किमी लम्बा सफल तय करती हुई अन्ततः सरयू नदी में जा मिलती है। काली नदी सरयू नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी है। तवाघाट, धारचूला, जौलजीबी, झूलाघाट, पंचेश्वर, टनकपुर, बनबसा, महेंद्रनगर आदि इस नदी पर बसे मुख्य नगर हैं। इसकी जलराशि को देखकर इसके विराट स्वरुप का अहसास हो रहा था और इसके प्रत्यक्ष दर्शन की इच्छा को अगले टूर के लिए छोड़ते हुए हम यहाँ की सुरक्षा औपचारिकताएं पूरा करते हुए नेपाल की सीमा में प्रवेश करते हैं और इसके समीपस्थ शहर महेंद्रनगर में रुकते हैं। 

मालूम हो कि महेंद्रनगर नेपाल के सुदूर पश्चिम में भारत का समीपस्थ शहर है, जिसे दिवंगत राजा महेंद्र ने बसाया था और यह एक पूरी योजना के तहत एक सुव्यवस्थित शहर है। नेपाल का यह नौवां सबसे बड़ा शहर है तथा काठमाण्डू से 700 किमी दूरी पर स्थित है। यहाँ के होटल में नेपाल के खान-पान से जुड़ी विशेषताओं से परिचय शुरु हो जाता है। 

महेंद्रनगर में रात्रि विश्राम के यादगार पल

यहाँ रोटी का चलन न के बराबर दिखा, चाबल यहाँ भोजन का प्रमुख हिस्सा है। यहाँ से प्रातः पास के शहर धनगढ़ी तक का सफर गाड़ी से करते हैं, जहाँ से काठमाण्डू के लिए हवाई यात्रा की व्यवस्था हो चुकी थी। रास्ते में हम नेपाल के ग्रामीण परिवेश से पहला परिचय पा रहे थे, जिसे यहाँ की लोकल बसों में देखकर समझ आया कि इसे सुदूर पश्चिम के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह क्षेत्र नेपाल के पश्चिमी छोर की ओर बसा है। हम पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ रहे थे और काठमाण्डू नेपाल के लगभग बीच में पड़ता है। 

रास्ते में हर आध-एक किमी की दूरी पर छोटी-छोटी नदियों के दर्शन निसंदेह रुप में ताजगी भरा अहसास जगाते रहे, क्योंकि जहाँ भी जल दिखता है, वहीं जीवन की सकल संभावनाएं नजर आती हैं, जबकि जल से हीन भू-भाग देखकर मन में एक सुखापन सा कुरेदने लगता है, एक शुष्कता का भाव जेहन को आक्राँत करता है। रास्ते भर दायीं ओर पहाड़ियों के दर्शन होते रहे, लगा जैसे अपने ही गृह प्रदेश में एक नए परिवेश में विचरण कर रहे हैं। यात्रा के दौरान एक स्वप्न सरीखे अनुभव से स्वयं को गुजरता महसूस कर रहे थे और जेहन की कोई गहरी अतृप्त इच्छा जैसे पूरा हो रही थी।

पहाडियों से निस्सृत मार्ग की एक छोटी नदी
 

मार्ग में जीवन्त लोकजीवन के दर्शन होते रहे। बीच में दूल्हे की बारात जा रही थी, जिसमें लोक्ल गीत, संगीत व बाजे के साथ थिरकते लोग, बहुत सुन्दर नजारा पेश कर रहे थे। इसके साथ रास्ते भर कई जंगल, खेत, खलिहान, गाँवों को निहारते हुए हम मार्ग में कृष्णपुर व अटरिया जैसे कस्बों को पार करते हुए आखिर धनगढ़ी पहुँचे। विकास की दृष्टि से निहारने पर लगा की यह क्षेत्र अपनी पुरातन संस्कृति को संजोए हुए नए तौर तरीकों को अपना रहा है। खेती का चलन अधिक दिखा, कहीं-कहीं सब्जियाँ को उगाते देखा। बागवानी का चलन कम ही दिखा। धनगढ़ी के मुख्य मार्ग से अन्दर खेत-खलिहान के बीच होते हुए यहाँ के एयरपोर्ट पहुँचते हैं।

मार्ग के खेत खलिहान
 

थोड़ी ही देर में धनगढ़ी से काठमाण्डू की फ्लाइट मिल जाती है। अगले एक घण्टे जीवन के सबसे रोमाँचक पलों में शुमार होने वाले थे, क्योंकि हम बर्फ से ढकी हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं के दर्शन करने जा रहे थे, जिनमें कुछ तो विश्व के सबसे ऊँचाई बाले शिखरों में शुमार हैं। अभी तक जो हवाई यात्राएं हम दिल्ली व चण्डीगढ़ से हैदरावाद, मुम्बई तथा फ्रैंकर्फट, बिडगोश आदि की किए थे, वे सभी 35,000 फीट ऊँचाई के आसपास की थी। अतः इन यात्राओं में बादलों के अलावा नीचे के नजारे अधिकाँशतः नदारद ही रहे। आज की यात्रा महज 15,000 फीट की ऊँचाई पर होने वाली थी, जिसमें सामने हिमाच्छादित हिमालय और नीचे पर्वतों, घाटियों, नदियों, गाँवों, कस्वों तथा सड़कों को नजदीक से निहारने का अवसर मिल रहा था।

अगले एक घण्टे इन्हीं को निहारते हुए जीवन के बहुत ही रोमाँचक एवं यादगार पल रहे और यथा सम्भव अपने मोबाईल से इनको कैप्चर करते रहे, जिसकी एक झलक आप नीचे दिए विडियो में पा सकते हैं।

 

काठमाण्डू आने से पहले ही पोखरा के समीप से होकर गुजरे। दूर से भी नीचे इसकी झीलें स्पष्ट दिख रही थीं। इससे पहले हम संभवतः गोरखा इलाके से गुजरे, जिसे आठवीं सदी के यौद्धा सिद्ध-संत गुरु गोरखनाथ से जोड़कर देखा जाता है। यहाँ से गुजरते हुए जनरल सैम मनेक्शा के उद्गार याद आए कि यदि कोई कहता है कि मुझे मौत से डर नहीं लगता, वह या तो झूठ बोल रहा है या वह गोरखा है।

रास्ते में नीचे हरी-भरी पहाड़ियां, इनसे फूटती छोटी-बड़ी नदियाँ व इनके मार्ग स्पष्ट दिख रहे थे। कहीं-कहीं कई किमी दूर तक जंगल ही जंगल दिखते, कहीं पहाडियों में बसे गाँव व इनके पास से गुजरती सर्पिली पहाड़ी सड़कें - 15000 फीट से गुजर रहे शौर्य यान से निहारते रहे। इनके पीछे क्रमिक रुप में बढ़ती ऊँचाईयों के साथ सव अल्पाईन, अल्पाईन व हिमाच्छादित पहाड़ पहली बार एक साथ साँसों को थामकर देख रहा था। बर्फ से ढकी हिमालय की पर्वतश्रंखलाएं रास्ते भर दिखती रही, मोबाईल से जूम करने पर इनको इतने पास से देखना एक अलग ही अनुभव था। पर्वतशिखरों के साथ कितने सारे ग्लेशियर (बर्फ की नदियाँ) रास्ते भर दम थामकर देखते रहे और इनको यथासम्भव मोबाईल से कैप्चर भी करते रहे।

काठमाण्डू प्रवेश की एक झलक
 

इन दृश्यों को निहारते हुए पता ही नहीं चला कि हम कब काठमाण्डू के पास पहुँच चुके हैं। नीचे पहाडियों पर राजभवनों के दर्शन के साथ काठमाण्डू शहर में प्रवेश होता है। चारों और पहाड़ियों से घिरा काठमाण्डू शहर अपनी पूरी भव्यता के साथ हमारे सामने नीचे प्रत्यक्ष था। भवनों के जमघट के साथ एक बड़ी आवादी को समेटे काठमाण्डू शहर के दर्शन शुरु हो चुके थे। पीछे पृष्ठभूमि में हरे भरे पहाड, इनके भी पीछे सुदूर हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखाएं और नीचे भवनों के समूह, कहीं अट्टालिकाएं तो बीच में नदियाँ, सड़कें तो कहीं कहीं हरे जंगल व खेतों के दर्शन - इन सबको निहारते हुए हमारा हमारा शौर्य यान धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था और शहर के भवन, सड़कें, नदियाँ व गलियाँ सब स्पष्ट दिख रही थीं। हम नेपाल के सबसे बड़े शहर व इसकी राजधानी काठमाण्डू से गुजर रहे थे, विश्वास नहीं हो रहा था। बाबा पशुपतिनाथ एवं गुरु गोरखनाथ की पावन धरती का भाव सुमरन व धन्यवाद ज्ञापन करते हुए हम काठमाण्डू हवाई अड्डे पर उतरते हैं।

यहाँ के भव्य स्वागत के साथ अपने दिव्य गन्तव्य स्थल तक पहुँचते हैं। फिर अगले कुछ दिन यहाँ के प्रवास के साथ आस-पास के जो दर्शन हुए उनका सारगर्भित वर्णन आप अगली पोस्ट में पढ सकते हैं, जो यहाँ पहली बार पधार रहे यात्रियों के लिए उपयोगी हो सकते हैं।....जारी।

काठमाण्डू की राह में हिमालय के भव्य दर्शन

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

मेरा गाँव मेरा देश - मधुमक्खी पालन

 हिमालय की वादियों में मधुमक्खी पालन

बर्फ में हिमालयन बी फार्म मोहिला का विहंगम नजारा

शहद के साथ बचपन की कितनी सारी यादें जुड़ी हुई हैं। घर की छत्त पर प्राय़ः दक्षिण या उत्तर दिशा में मधुमक्खी के दीवाल के साथ जड़े छत्त लगे होते थे, जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में म़ड्ड़ाम कह कर पुकारते हैं। साल भर में एक बार हमारे बड़े-बुजुर्ग इनसे शहद निकालते। धुँआँ देकर मधुमक्खियों को कुछ देर के लिए बाहर निकाला जाता और इनके छत्तों के बीच शुद्ध शहद से जड़े छत्ते को काटकर अलग किया जाता।

इसको ऐसे ही टुकड़े में खाने का लुत्फ लेते और शेष का कपड़छान कर अलग कर लेते। कभी कभार खाने के लिए इस शहद का उपयोग होता, अधिकाँशतः औषधी के लिए इसको सुरक्षित रखते। या फिर शास्त्र के रुप में इसे पूजा कार्यों के लिए संरक्षित रखा जाता। ऐसे नानीजी के खजाने में कईयों साल पुराने शहद से भरे वर्तन सुरक्षित मिलते। मालूम हो कि शहद एक ऐसा विरल उत्पाद है, जो कभी खराब नहीं होता।

हिमालयन बी फार्म में उपलब्ध शुद्ध देशी शहद
 

अब हालाँकि पारम्परिक रुप में शहद के ये तौर-तरीके पीछे छुटते जा रहे हैं। एक तो फल व सब्जियों में बहुतायत में उपयोग किए जाने वाले रसायन व कीटनाशकों के कारण मधुमक्खियाँ खुलकर परागण नहीं कर पाती, अधिकाँश तो विलुप्त हो चली हैं। इस कारण हिमालयन मधुमक्खियों का शहद अब पहाड़ों में तराई के इलाकों की वजाए अधिक ऊँचाईयों तक सीमित हो चला है, जहाँ अभी भी जंगली फूल व बनौषधियाँ प्रचूर मात्रा में उपलब्ध रहती हैं, जो खिलने पर मधुमक्खियों के लिए परागण का आहार उपलब्ध कराते हैं।

मधुमक्खी पालन का नया चलन – हालाँकि अब बक्सों में शहद की मधुमक्खियों के पालन का चलन चल पड़ा है, जो पारम्परिक तरीके से एक प्रकार से थोड़ा अधिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक लगता है, जिसमें मधुमक्खियों के छत्तों को कम से कम छेड़खान के साथ इससे अधिक शहद प्राप्त किया जा सकता है।

फ्रेमयुक्त बक्से में मधुमक्खी का आवास

वर्ष 2021 का नवम्बर माह और आज हमारी यात्रा का संयोग बन रहा था, ऐसे ही एक हनी कीपर, श्री लाल सिंह ठाकुर के हिमालयन बी फार्म में, जहाँ वे सेब के बगान के बीच पिछले 15-16 बर्षों से मधुमक्खी पालने के अपने शौक को अंजाम दे रहे हैं। इनके बगीचे में फैले 150 के करीब बक्सों में ये हर सीजन का शहद तैयार करते हैं। ये इनके मधुमक्खी पालन के शौक के साथ इनके लिए रोजगार का भी एक सशक्त साधन बन चुके हैं और ये इच्छुक किसानों को इसका प्रशिक्षण भी देते हैं और अपने यू-ट्यूब चैनल हिमालयन बीज (Himalayan Bees) के माध्यम से अपना अनुभव साझा करते रहते हैं, जिससे जुड़कर आप मधुमक्खी पालने की बारीकियाँ सीख सकते हैं। 

नवम्बर माह में Himalayan Bees फार्म, Mohila

नग्गर से होकर यहाँ जाने के लिए पहले पतलीकुहल पहुँचना पड़ता है, जो कुल्लू-मानाली राइट-बैंक का मध्य बिंदु है। यहाँ तक का दूसरा रास्ता कुल्लू की ओर से कटराईं होकर पतलीकुल पहुँचता है। मानाली से भी सीधे पतलीकुहल पहुँचा जा सकता है।

पतलीकुहल से आगे बड़ाग्राँ-पनगाँ लिंक रोड़ के साथ यहाँ तक पहुँचा जा सकता है।

नग्गर से पतलीकुहल की ओर, ब्यास नदी को पार करते हुए

बड़ाग्राँ इस रुट का पहला बड़ा गाँव पड़ता है, इसके आगे आता है पनगाँ गोम्पा। यहां सड़क के नीचे रंग-बिरंगे कपड़ों की झालरें इसका परिचय देती हैं।  इसके आगे सड़क पर बढ़ते हुए समानान्तर उस पार लेफ्ट बैंक में अप्पर बैली का विहंगम दृश्य दर्शनीय रहता है। यहीं से सामने नगर के पीछे चंद्रखणीं पास की बर्फ से ढ़की चौटियों के दर्शन किए जा सकते हैं। और पास में सडक के साथ पहाड़ों पर पहाड़ी घर व गाँव के नजारें बहुत सुन्दर लगते हैं।

उस पार लेफ्ट बैंक नग्गर साईड, चंद्रखणी पास में बर्फ ढके पहाड़
थोड़ी आगे एक डायवर्जन आता है, जहाँ वायीं ओर से सड़क आगे शेगली की ओर जाती है, जो स्वयं में एक लोकप्रिय टूरिस्ट डेस्टिनेशन है, जबकि सीधे आगे सड़क पनगां की ओर जाती है। सड़क के दोनों ओर सेब के बाग स्वागत करते हैं, हालाँकि नवम्बर में इनमें फलों का तुड़ान हो चुका था।

पहाड़ी झरने रास्ते में अपने गर्जन-तर्जन भरे कलकल निनाद के साथ एक बहुत सुखद अहसास दिलाते हैं। साथ ही इस ऊँचाई पर वहने पाली ठण्डी आवोहवा आपको हिमालय की वादियों में विचरण की सघन अनुभूति देती है। थोड़ी ही देर में पनगाँ गाँव आता है, इसको पार करते ही हम अपने गन्तव्य मोहिला गाँव पहुँच चुके थे, जहाँ सेब के बागान में मधुमक्खी के बक्से सजे थे, जहाँ श्री लाल सिंह ठाकुर मधुपालन के अपने शौक को सेब की बगीचे में अंजाम दे रहे हैं।

हिमालयन बीज फार्म, मोहिला

मधुमक्खियाँ इनमें छेद से होकर अंदर-बाहर निकल रहीं थी। कुछ इसके चारों ओर मंडरा रहीं थी। इनकी चाल, इनके बोल व इनकी कार्यशैली तो येही जाने, हम तो बस इनकी मधुर गुंजार को सुन रहे थे, इनकी मस्त चाल को देख रहे थे, जो सब मिलकर इनकी अनवरत सक्रियता व अथक श्रम की बानगी पेश कर रही थी, जिसका मधुर फल शहद के रुप में बक्सों के अंदर छत्तों में तैयार हो रहा था।एक बक्से में औसतन सात फ्रेम जड़े थे, जिनमें मधुमक्खियाँ छत्ता बनाकर शहब इकट्ठा कर रही थीं। जिस फ्रेम में शहद पूरी तरह से भर जाता है, उस को अलग कर एख सेंट्रिफ्यूगल मशीन में फिट कर फिर शहद निकाला जाता है और शहद निकालने के बाद फ्रेम को पुनः बक्से में फिट किया जाता है, जहाँ फिर मधुमक्खियाँ अपना काम शुरु करती हैं।

लकड़ी के घर के बाहर सक्रिय हिमालयन मधुमक्खियाँ

मालूम हो कि एक छत्ते में एक रानी मक्खी होती है। रानी मक्खी का कार्य छत्तों में अण्डे देना होता है। इसके सहयोग के लिए कुछ नर होते हैं, जिन्हें निखट्टू कहा जाता है, क्योंकि प्रजनन के अतिरिक्त इनका कोई कार्य नहीं होता और इसके तुरन्त बाद इनका जीवन समाप्त हो जाता है। इनके साथ मुख्य कार्य श्रमिक मधुमक्खियों का होता है, जो फूलों से परागण लाकर छत्तों में एकत्रित करती हैं व शहद तैयार करती हैं। ये मादा मधुमक्खियाँ होती हैं, जिनमें डंक मारने की क्षमता होती है, लेकिन दुःखद बात यह है कि डंक मारने के बाद इनके प्राण पखेरु उड़ जाते हैं।

हिमालय बी फार्म से सामने लेफ्ट बैंक का खूबसूरत नजारा

कुल्लू-मानाली घाटी के बीच राइट बैंक में मोहिला स्थित इस बी-फार्म में एक प्रगतिशील किसान श्री लाल सिंह ठाकुर के इन प्रयोग को देखकर बहुत कुछ जानने सीखने को मिला। पारम्परिक तरीके से, छत्त पर मड्डाम लगाकर मधुमक्खी पालन या जंगल से इनको छत्तों को निचोड़कर शहद निकालने के तौर-तरीकों से यहाँ चल रहा प्रयोग हमे अधिक व्यवहारिक व मानवीय लगा। साथ ही ग्रामीण परिवेश में स्वाबलम्बन का एक पुख्ता आधार दिखा।

यह सही है कि मधुमक्खी पालन में हम उनके मेहनत का मीठा फल शहद इस मेहनतकश नन्हें जीव से लेते हैं, लेकिन इनको रहने के लिए आवास की भी व्यवस्था करते हैं, सर्दियों में इनके लिए भोजन से लेकर आश्रय की व्यवस्था करते हैं। 

बर्फ की मौसम में बी फार्म

इस तरह मिलजुल कर एक दूसरे के पूरक बनकर काम करते हैं। पूरी संजीदगी व संवदेनशीलता के साथ मधुपालन के पेशे को अपनाया जाए, तो यह सभी के लिए हर दृष्टि से एक उपयोगी कार्य रहता है। यहाँ हमें कुछ ऐसा ही प्रयोग देखने के मिला।

इस सबके साथ यहाँ से सामने चारों ओर घाटी का नजारा लाजबाब लगा। सामने लेफ्ट बैंक के गाँव, खेतों की सेरियाँ, इसके महत्वपूर्ण गाँव-कस्वों तथा पहाड़ों के दर्शन मोहित करने वाले हैं। यहाँ से ऊपर जगतसुख से लेकर नीचे नगर साईड और सामने हरिपुर व सोयल गाँव का नजारा प्रत्यक्ष दिखा। इनके पीछे देवदार से ढके पर्वत व इनके भी पीछे बर्फ से ढके पहाड़ यहाँ की भव्यता को चार चाँद लगाते हैं। नीचे ब्यास नदी के भी हल्के से दर्शन यहाँ से होते हैं। इस सबके साथ सेब के बगीचे में बी-फार्म की लोकेशन व आसपास का व्यू स्वयं में बहुत ही मनोरम व बैजोड़ अनुभव रहा। आप चाहें तो इस सबकी एक झलक नीचे दिए वीडियो में भी पा सकते हैं। 

बर्फ में बी फार्म का नजारा दिलकश रहता है। हालाँकि ठण्ड में मधुमक्खियों की गतिविधियाँ सीमित हो जाती हैं, क्योंकि इस समय फूलों के रुप में आवश्यक आहार इन्हें उपलब्ध नहीं होता। इसके लिए इनके लिए अतिरिक्त आहार की व्यवस्था की जाती है, हालाँकि इनके छत्त में पहले से ही संचित मधु इस समय काम आता है।

धूप के बीच पिघलती बर्फ के बीच हिमालयन बीज फार्म का नजारा


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पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...