गुरुवार, 20 अगस्त 2020

मेरा गाँव मेरा देश - बेसिक कोर्स का रोमाँच, भाग-3

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण और शिखर का आरोहण

यहाँ आकर तम्बू गाढ़ते हैं, थोड़ी ही देर में इस विरान घाटी में तम्बुओं की एक बस्ती बस जाती है। नदी का पानी मिट्टी लगे ग्लेशियर के पिघलने के कारण साफ नहीं था, सो थोड़ी दूरी पर नीचे चश्में से पीने के लिए शुद्ध जल लाते थे। जिगजिंगवार घाटी चट्टानी पहाड़ों के बीच अधिकाँशतः पत्थरीला धरातल लिए एक विरान स्थल है। सड़क के थोडा ही नीचे मैदान में हमारी बस्ती सज चुकी थी। पास में बर्फिली नदी बह रही थी, जिसके उस पार नीचे आढ़ी-तिरछी सड़क और नीचे पहाड़ खड़े थे। हमारे पीछे दायीं ओर चट्टानी पहाड़ खड़े थे, जिनकी गोद से होकर जिग-जैग सड़क आगे लेह की ओर बढ़ रही थी। कभी कभार कोई इक्का-दुक्का बाहन वहाँ से गुजरता तो दूर से हाय-बाय हो जाती, अन्यथा इस निर्जन स्थल पर तो जैसे परिन्दा भी पर नहीं मारने बाली कहावत लागू हो रही थी। वायीं ओर नदी के उस पार बर्फ से ढके पहाड़ दिख रहे थे, जहाँ अगले दिनों हमारा स्नो-क्राफ्ट और आईस-क्लाइंविंग का अभ्यास होना था।

बर्तन धोने के लिए पास में बह रही नदी का पानी प्रयोग करते थे, पानी इतना ठँडा रहता कि, खाने का तेल-घी सब हाथ में जम जाता, जिसे हाथ में मिट्टी लगाकर साफ करना पड़ता।


साबुन से हाथ धोते तो वह भी जम जाता। ऐसे में यहाँ नहाना तो दूर हाथ मुँह धोने की भी नहीं सोच सकते थे। यदि किसी तरह किचन से गर्म पानी की व्यवस्था हो जाती तो कहीं हाथ-मुँह धोने की  सोच सकते थे। आश्चर्य नहीं कि ऐसे दो सप्ताह के प्रवास के बाद हम सबके चेहरों पर एक काली पपड़ी जम चुकी थी, जो कुछ सप्ताह बाद उतरी और यहाँ के बर्फिले रोमाँच की याद दिलाती रही।

यहाँ एक तम्बू में दो-दो लोगों के रुकने की व्यवस्था थी। स्नो फील्ड पास ही थी, नदी के दूसरी ओऱ कुछ पैदल चलने के बाद बहाँ पहुँच जाते। यहाँ स्नो क्राफ्ट, स्कीइंग का अभ्यास चलता रहा। एडवेंचर कोर्स में सीखे गुर व सबक यहाँ काम आ रहे थे। इसके आगे एडवांस प्रेक्टिस भी हुई व कुछ नयी तकनीकों को सीखा। यहाँ की बर्फ की ढलान काफी बड़ी व ढलानदार थी, जिसमें बर्फ पर चलने, फिसने व गिरने का पूरा आनन्द लेते रहे। संयोग से अब तक किसी तरह की दुर्घटना किसी के साथ नहीं हुई।

अंतिम दो दिन पास की जमीं बर्फ की दिवारों पर आइस क्लाइंविंग की प्रेक्टिस होती रही, जो काफी रोमाँचक व थकाऊ अनुभव रहता था, साथ ही खरतनाक भी। क्योंकि आइस एक्स से बर्फ को काटकर सीढ़ी बनायी जाती। एक एक स्टेप कर ऊपर चढते। बर्फ की दीवार के पीछे बहते व झरते पानी की आबाज साफ सुनाई देती। ऐसे आरोहण में थोडी सी भी लापरवाही या घबराहट सीधे नीचे फिसलन को आमन्त्रण था, जो काफी खतरनाक हो सकता था। कुशल ट्रेनर के मार्गदर्शन में यह अभ्यास चलता रहा।

पीक क्लाइंव के एक दिन पहले, जब हमारा बेस कैंप का अभ्यास पूरा हो चुका था, तो पास के ग्लेशियर के बीच कुछ ड्रिल होते हैं, जिसमें दिल्ली के एक सरदार जी दुर्घटना ग्रस्त हो जाते हैं, जिन्हें संस्थान के बाहन में बापिस घर भेजने की व्यवस्था होती है।

हमारा अनुभव रहा कि ऐसे क्षेत्र विरान के साथ बहुत पावन भी होते हैं, जिसकी पावनता का अहसास व तदनुरुप अपना आचरण-व्यवहार ऐसे इलाकों में बहुत मायने रखता है। यहाँ किसी भी तरह की उद्दण्डता और बदतमीजी भारी पड़ सकती है, प्रकृति तुरन्त प्रतिक्रिया करती है। आप ऐसे पावन क्षेत्रों में जितना शुद्ध अन्तःकरण व पावन भाव के साथ रहेंगे, उतना ही यहाँ मौजूद दिव्य शक्तियों का सहयोग संरक्षण अनुभव करेंगे।

इस तरह हम सप्ताह-दस दिन में पूरा ग्रुप पीक क्लाइंव के लिए तैयार था। एक दिन पहले पूरे ग्रुप को बारालाचा के पास सूरजताल तक की ट्रेकिंग कराई जाती है, जिसमें हमारे स्टेमिना की भी परीक्षा हो रही थी और ऊँचाईयों के अनुरुप एक्लेमेटाइजेशन ड्रिल भी।


बारालाचा के पास सूरजताल के ऊपर, 18000 फीट की ऊँचाई पर मंजिल निर्धारित थी, जिसका सिर्फ हमारे इंस्ट्रक्टरों को ही पता था। इसी बीच हमारा पेट खराब चल रहा था, लेकिन परीक्षा की घडियों में अब तन-मन के किसी अबरोध के लिए कोई स्थान नहीं था। फौलादी ईरादों के साथ हम इंस्ट्रक्टरों के निर्देशों को सुन समझकर पालन कर रहे थे। आज हम ग्रुप लीड़र के दायित्व से हल्का अनुभव कर रहे थे। अब तक हम प्रशिक्षण के दौरान ग्रुप लीड़र के रुप में सबके पीछ रहते, सबको साथ लेकर चलते। विशेष रुप से कमजोर व अशक्त सदस्यों को सहारा देते हुए बढ़ते। आज पीक क्लाइंविग का दिन था, सबकी एक ही मंजिल था, एक ही मार्ग था, लेकिन स्पीड अपनी-अपनी, अपने स्टेमिना एवं ईरादों के अनुरुप।
 

आज हम पेट खराब होने के कारण थोड़ा पिछड गए थे और इंस्ट्रक्टर से थोड़ा पीछे चल रहे थे। लेकिन क्रमशः ऊँचाई के साथ हम यह गैप कवर करते गए। अंतिम 100 मीटर का सफर हमें आज भी बखूबी याद है। तीखी हबा चल रही थी। पेट की समस्या अब तक गायब हो चुकी थी। कदम ऑटोमेटिक्ली आगे बढ़ रहे थे, शरीर जैसा निढाल हो चुका था, बस कदम किसी तरह से आगे बढ़ रहे थे। पीक पर इंस्ट्रक्टर के ठीक पीछे हम शिखर तक पहुँच चुके थे। पर्वतारोहण का एक माह का अभियान अनुभूतियों के अपने चरम पर था। यहाँ लुढ़क कर हम कुछ पल आँखें बंद कर अपने ईष्ट-अराध्य को सुमरन करते हैं, धन्यवाद देते हैं। फिर थोड़ा सचेत होकर आँखें खोलते हैं, ग्रुप के सदस्य एक-एक कर पहुँच रहे थे। 


थक कर चूर होने के बावजूद सबके चेहरों पर उपलब्धि की चमक साफ दिख रही थी। पास बर्फ के बीच बिखरे पड़े पत्थरों को इकट्ठा कर हम एक मौरेन खडा करते हैं, यादगार में कि एक दल कभी यहाँ पहुँचा था। यहाँ से चारों ओर के विहंगम दृख्य का अवलोकन एक अद्भुत अनुभव था। सुदूर घाटियाँ, बर्फ से ढकी अनगिन पर्वतश्रृंखलाएं सब हमारी नजर में थी।


कुछ मिनट यहाँ विश्राम के बाद काफिला बापिस चल देता है। रास्ते में मैदानी ढलान पर हम फिसलते हुए नीचे सफर तय करते हैं, स्किंईंग के सीखे गुर काम आ रहे थे। आधे घण्टे में हम घाटी को पार करते हुए बारालाचा मुख्य सड़क तक पहुँचते हैं और पक्के मार्ग के संग सुरजताल की अर्धपरिक्रमा करते हुए बापिस बेसकैंप जिंगजिंगवार पहुँचते हैं। यहाँ भोजन विश्राम के बाद रात को कैंप फायर होता है और अगली सुबह तम्बू पैक कर संस्थान के बाहन में बापिस मानाली आ जाते हैं। ग्रुप लीड़र के रुप में रिपोर्ट तैयार करते हैं और वेस्ट स्टुडेंट का तग्मा पुनः हमारे हिस्से में आता है। इसे हम उन पर्वतों के प्रति भावनाओं के शिखर का विशिष्ट तौफा मानकर स्वीकार करते हैं, जिनके लिए सदा ही हमारा दिल धड़कता रहा है व अंतिम साँस तक धड़कता रहेगा।

इसके बाद अगले वर्ष एडवाँस कोर्स के एक मासीय प्रशिक्षण की योजना थी, क्योंकि इस कोर्स को माउंट एवरेस्ट के आरोहण का क्वालिफाइंग मानक माना जाता है, जोकि हमारा सपना रहा है। लेकिन तब तक हम गंगा के पावन तट पर धर्मनगरी हरिद्वार पहुँच जाते हैं। और फिर एक माह का एक मुश्त समय निकाल पाना हमारे लिए संभव नहीं था और साथ ही यह भी बोध हो चुका था कि बाहर के हिमालय से भी अधिक महत्वपूर्ण है अंदर के हिमालय का आरोहण, जो कि अपनी आदर्शों के शिखर, चेतना के शिखर की यात्रा है। जिसका आरोहण एक पथिक के रुप में करते-करते तीन दशक बीत चुके। खैर यह सफर अपनी जगह और हिमालय के प्रति अनुराग अपनी जगह, जिसकी खाना पूर्ति यदा-कदा इसकी गोद में सम्पन्न ट्रेकिंग व घुमक्कड़ी के साथ होती रहती है। और करोना काल में ऐसे संचित अनुभव कलमबद्ध हो रहे हैं।

इस श्रृंखला के पूर्व भाग यदि न पढ़े हों, तो नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं -

मानाली की वादियों में, बेसिक कोर्स, भाग-1

मनाली से लाहौल घाटी की ओर, बेसिक कोर्स, भाग-2


शनिवार, 15 अगस्त 2020

मेरा गाँव मेरा देश - बेसिक कोर्स का रोमाँच, भाग-2

मानाली से जिंगजिंगवार घाटी का रोमाँचक सफर


पिछली ब्लॉग पोस्ट में पर्वतारोहण संस्थान में बिताए पहले नौ दिनों का वर्णन किया था, जिसमें रॉक क्लाइंबिंग, रिवर क्रॉसिंग, बुश क्राफ्ट जैसी आधारभूत तकनीकों का प्रशिण दिया गया। अब हम अगले पड़ाव के लिए तैयार थे। हिमाचल परिवहन निगम की 2 बसों में सबके सामान की पेकिंग हो जाती है और यात्रा रोहतांग पास के उस पार लाहौल घाटी में स्थित बेस कैंप जिस्पा की ओर बढ़ती है, जहाँ भागा नदी के किनारे पर्वरोहण संस्थान का स्थानीय केंद्र स्थापित है।

मानाली से रोहताँग पास तक इस यात्रा का पहला चरण मान सकते हैं, जब बस पहले पलचान तक बाहंग, नेहरुकुण्ड जैसे स्थलों से होकर ब्यास नदी के किनारे सीधा आगे बढ़ती है। सामने सफेद दिवार की तरह खड़ी पीर-पंजाल की हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं ध्यान को आकर्षित किए रहती हैं। पलचान से चढ़ाई शुरु होती है, जो लगभग 13000 हजार फीट पर स्थित रोहताँग पास तक क्रमशः बढ़ती जाती है। इसके रास्ते में कोठी, गुलाबा फोरेस्ट, मढी आदि स्थल आते हैं। कोठी अंतिम मानव बस्ती है, जहाँ से देवदार के घने जंगल शुरु होते हैं। ब्यास नदी की धार नीचे गहरी खाई में अपनी मौन एवं गुमनाम यात्रा करती प्रतीत होती है। रास्ते के समानान्तर आसमान छूते पहाड़ नजर आते हैं, जिनमें बर्फ से पिघल कर झरते झरने रास्ते भर रोमाँचित करते रहते हैं। थोडी देर में गुलाबा फोरेस्ट आता है, इसके बाद देवदार के वृक्ष विरल होते जाते हैं और मात्र भोज के पेड़ आस-पास या दूर पहाड़ों में दिखते हैं।


इसके बाद मढ़ी बस स्टॉप आता है, जहाँ कुछ दुकानें चाय-नाश्ता व भोजन के लिए खड़ी हैं। इसके रास्ते में ऊँचाईयों से गिर रहा राहला फाल सभी को ध्यान आकर्षित करता है। मढ़ी पहुँचने पर यात्री प्रायः चाय-नाश्ता करते हैं और ड्राइवर भी अगली कठिन यात्रा के लिए रिचार्ज होते हैं। यहाँ पर गर्मियों में पैरा-गलाइडिंग का भी आनन्द लिया जा सकता है। यहां पर पास की चोटी से नीचे घाटी और दूर बर्फ से ढके पर्वतों को बहुत ही सुंदर नजारा लिया जा सकता है।

 मढ़ी से रोहताँग पास तक रास्ता बिना किसी स्टॉप के रहता है। बीच में बायीं ओर ग्लेशियर से पिघलकर निकल रहे जल प्रपात के दर्शन किए जा सकते हैं और समय हो तो ऊपर ग्लेशियर के बीच झरते इसके जल का अवलोकन भी किया जा सकता है। इस रास्ते में किसी तरह के पेड़ के दर्शन तो दूर झाड़ियाँ तक विरल हो जाती हैं। हाँ उस पार जंगलों में भोज के कुछ जंगल अवश्य दिखते हैं और ग्लेशियर से झरते झरने खूबसूरत नजारा पेश करते हैं। बादलों से ढके हिमशिखर भी लुभावने लगते हैं। इस तरह सफर आखिर रोहताँग पास पहुँचता है।


इसे ब्यास नदी के स्रोत के रुप में माना जाता है, हालाँकि एक मान्यता के अनुसार सोलाँग घाटी के आगे ब्यास कुण्ड को ब्यास नदी का उद्गम माना जाता है। हालांकि दोनों जल स्रोतों से निस्सृत धाराओं का संगम नीचे पलचान स्थल पर होता है, जहाँ से ब्यास नदी का समग्र रुप आगे बढ़ता है। रोहताँग दर्रे पर अमूनन साल भर बर्फ रहती है। प्रायः अक्टूबर-नवम्बर से मई-जून तक भारी बर्फ के कारण दर्रा बन्द रहता है, जिस कारण लाहौल-स्पिति घाटी 6-7 महीने प्रदेश के बाकि हिस्से से कटी रहती है। लेकिन हाल ही में सोलाँग घाटी के आगे पहाड़ के नीचे से अटल सुरंग बनने से अब बारह महीने रास्ता खुलने की संभावना साकार हो रही है।

रोहताँग पास में कई फुट ऊँची बर्फ की दिबार के बीच से होकर हमारी बसें पार करती हैं, रास्ते में तो मढ़ी के थोड़ा आगे बस की छत पर पैक कुछ बैग व इनमें लगी आइस-एक्स बर्फ की दिबार में उलझ गयी थीं, जिस कारण बस को बैक कर फिर सफर आगे बढ़ा था। रोहताँग के पार होते ही हम एक दूसरे लोक में पहुँच गए ऐसा अनुभव होता है। सामने बर्फ से ढकी पहाड़ियां, दूर-दूर तक फैले बंजर रेगिस्तान और घाटियों के दर्शन होते हैं। रास्ते भर सड़क में बर्फ से पिघल कर बहती जल राशि से बने उग्र नालों व झरनों के बीच सफर आगे बढ़ता रहा और नीचे घाटी में खोखसर नाम के स्थान पर बस जल-पान के लिए रुकती है। रास्ते भर हिमाचल परिवहन के कुशल चालकों के हुनर को आश्चर्य के साथ निहारते रहे, जब लग रहा था कि बस पानी के तेज बहाव में अब लुढ़क गयी कि तब।

खोखसर से चंद्रा नदी को पार कर हम उसके दायीं ओर से आगे बढ़ते हैं, जबकि इसके बिपरीत मार्ग पीछे स्पीति घाटी की ओर जाता है। आगे रास्ते में पागल नाला को पार कर, सीसू से होते हुए तांदी पहुँचते हैं, जो चंद्रा और भागा नदियों का संगम है। इसके पार वायीं सड़क उदयपुर और त्रिलोकनाथ मंदिर की ओर जाती है, जबकि हम इसके उलट, दायीं और से भागा नदी के किनारे केलाँग की ओर बढ़ते हैं, जो लाहौल-स्पिति जिला का मुख्यालय है। यहाँ सामने की घाटी में कार्दंग गोम्पा अपना ध्यान आकर्षित करता है, साथ ही दूर सामने लेडी ऑफ केलांग का नजारा दर्शनीय रहता है, जिनका अवलोकन आगे कुछ समय तक मार्ग में होता रहा।

इसी राह पर बढ़ते हुए कुछ मिनटों में हम जिस्पा सेंटर पहुँच चुके थे, शाम हो रही थी। यह मानाली स्थित पर्वरोहण संस्थान का रीजनल सेंटर है। यहीं रात के रुकने की व्यवस्था होती है। सुबह जब उठते हैं तो सामने के चट्टानी पहाड़, ग्लेशियर नदी का हाड जमाता पानी, इसके किनारे के रंग बिरंगें पत्थर, आज भी स्मृतियों में ताजा हैं और इसके साथ शांत-एकाँत स्थल पर एक विरल से रोमाँच की दिव्य अनुभूति होती है, जिसे शब्दों में वर्णन करना कठिन है। लगा था कि हम जैसे स्वप्न लोक में विचरण कर रहे हैं और एक नयी दुनियाँ में पहुँच चुके थे।

दिन में नाश्ता करने के बाद यहीं पास की चट्टानी फिल्ड में रोक क्लाइंविगिं का अभ्यास होता है। बर्फीली भागा नदी में रिवर क्रासिंग करते हैं, जब नदी के पार होते ही पैर जैसे नीले और सुन्न से पड़ गए थे। और फिर भोजन-विश्राम के बाद अगले पडाव पटसेउ की ओर कूच करते हैं। रास्ते में दार्चा कस्बा पार करते हैं और फिर चढ़ाई के साथ आगे बढ़ते हुए एक नयी घाटी में प्रवेश होता है।


कभी शॉर्टकट पगडंडियों से तो कभी मुख्य मार्ग से होते हुए हमारा रास्ता आगे बढ़ता है, पीठ में रक्सेक टाँगे हम लोगों की एक्लेमेटाइजेशन वाल्क चल रही थी। धीरे-धीरे ऊँचाईयों के कम ऑक्सीजन बाले दवाव के साथ रहने का अभ्यास हो रहा था। लगभग दो घण्टे बाद हम पटसेऊ पहुँच चुके थे, जहाँ सामने पहाड़ की गोद में हमारा तम्बू गढ़ता है और रात को रुकने का अस्थायी शिविर तैयार होता है। यहाँ पीछे छायादार स्थान पर पहाड़ के नीचे जमीं बर्फ को देखकर इस पर चलने का लोभ संवरण नहीं कर पाए और इस पर कुछ चहल कदमी करते हैं। रात भर यहाँ रुककर हम अगली सुबह अपने बेस केंप जिंगजिंगवार पहुँचते हैं।

यही अब हमारा अगले दो सप्ताह का ठिकाना था, यहीं पर सामने की बर्फीली बादियों में बर्फ और आइस पर चलने का अभ्यास होना था और इसके आगे अंत में पीक क्लाइम्ब अर्थात् एक शिखर का आरोहण, पर्वतारोहण। इसकी रोमाँचक यात्रा अगले ब्लॉग - पीक क्लाइंबिंग या शिखर के आरोहण में पढ़ सकते हैं।

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