3 जुलाई 2025 को प्रातः 8 बजे अतिथि गृह से बाहर निकलकर गेट पर ही एक एक
कैफिटेरिया में सुबह का नाश्ता करते हैं और थोडा पैदल चल कर बाहर मुख्य मार्ग पर
आते हैं, जिसे घनौरा वाइपास कहा जाता है। यहाँ सुदर्शन हॉटल के पास ऑटो में चढ़ते
हैं। लगभग आधा घंटा में हम अयोध्या धाम के समीप थे। रास्ते में लगभग एक किमी पहले
साज-सज्जा युक्त सड़कों के दृश्य हमें किसी विशेष स्थल में प्रवेश का गहरा अहसास
दिला रहे थे। हम पूरे मार्ग का वीडियो कैप्चर कर रहे थे, ऑटो के दाईं ओर से वाइक
सवार इशारा करता है कि आगे का दृश्य विशेष है। पुल से राममंदिर के पहले दर्शन होते
हैं। पुल से नीचे उतर कर ऑटो सड़क के अंतिम छोर पर हमें उतारता है। सुरक्षा कारण व
ट्रैफिक सुविधा के चलते पुलिस इससे आगे नहीं जाने दे रही थी।
अतः लगभग 10-15 मिनट चल कर हम मंदिर के प्रवेश द्वार तक पहुँचते हैं।
अंदर
प्रवेश करते ही बहुत बड़े विश्रामकक्ष के दर्शन होते हैं। यहाँ सीलिंग से जैसे हेलीकॉप्टर
के बड़े-बड़े पंखे लटके हुए थे। साइड में शीतल जल की व्यवस्था थी। साथ ही
स्त्री-पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रसाधन की बेहतरीन सुविधा थी। 15-20 मिनट में बाहर
से आए थके-हारे दर्शनार्थी तरोताजा होकर दर्शन के लिए आगे बढ़ रहे थे। मंदिर के
बाहर का यह प्रयोग हमें बहुत अच्छा लगा। लगा कि क्या अच्छा होता कि हर मंदिर व
तीर्थ स्थल में दर्शन से पूर्व तीर्थयात्रियों की ऐसी स्वागत-विश्राम व्यवस्था हो।
यहाँ से बाहर निकलकर हम आगे बढ़ते हैं। बैरेक के बीच बने मार्ग से,
नीचे दरियाँ बिछी थी। कुछ हिस्सा सीमेंट का होने के चलते बहुत तप रहा था। सो
हियादत है कि कोमल चर्म बाले तीर्थयात्री गर्मी के मौसम में पतली जुराब अवश्य पहनें,
ताकि गर्मी के अनावश्यक ताप से बच सके। हालाँकि आगे दरियाँ बिछी हैं औऱ अंतिम
पड़ाव में तो जल की भी व्यवस्था है।
रास्ते में पीपल के विशाल पेड़ को पार कर
सुरक्षा गेट से प्रवेश करते हैं। सुरक्षा निरीक्षण के बाद बाहर एक भव्य परिसर में
प्रवेश होते हैं, जिसमें भव्य भवन मंदिर का ही प्रतिरुप जैसा दिखता है, जिसके पहली
नज़र में राम मंदिर के प्रवेश द्वार होने का भ्रम हुआ। और हम उसी रुप में इसकी
फोटो व वीडियो भी लेते रहे।
लेकिन बाद में पता चला की यह तो क्लॉक रुम तथा विश्राम की व्यवस्था
है। यहाँ जुत्ते-चप्पल के साथ बेग, बटुआ व मोबाइल पेन सब सामान जमा किया जाता है। फिर
इनको ड्राअर में बंद कर ताला लगाया जाता है और चाबी दर्शनार्थी को दी जाती है,
बापिसी में इसी के आधार पर उनका सामान बापिस होता है।
अगले कुछ सौ मीटर के बाद हम मंदिर में प्रवेश करते हैं। रास्ते में जल
की उचित व्यवस्था थी, जिसमें पैर धुल जाते हैं और मस्तिष्क पर भी इसका शीतल प्रभाव
बहुत राहत देता है। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए परकोटे पर गरुढ़, हनुमानजी व द्वारपाल के
दर्शन होते हैं। मुख्य मंदिर भवन के प्रवेश द्वार पर विभिन्न देवी-देवताओं के
चित्र उत्कीर्ण है, जिनकी सूक्ष्म नक्काशी देखते ही बनती है। यहीं कौने में एक
स्थान पर बैठ कर हवा के झौंके का आनन्द लेते हैं और कुछ मिनट बैठकर ध्यान करते
हैं।
फिर उचित मनोभूमि के साथ मंदिर में प्रवेश करते हैं। रामलल्ला के
चिरप्रतिक्षित दर्शन के हम साक्षी होने जा रहे थे। सामने रामलल्ला की भव्य प्रतिमा
सज्जी थी। राह में खम्बों व ऊपर छत पर की गई नक्काशी भी देखते ही बन रही थी। सामने
रामल्ला के दर्शन कर दर्शनार्थी भावविभोर हो रहे थे। अपनी भी चिरप्रतिक्षित इच्छा
आज पूर्ण हो रही थी। यहाँ के दिव्य परिवेश में स्वयं को डूबा हुआ अनुभव कर रहे थे।
बाहर निकलने पर एक कौने में कुछ पल शांत ध्यान में बैठते हैं, हवा के झौंके को
अनुभव करते हैं, जैसे की तीर्थ परिसर की दैवीय कृपा इनके रुप में सभी के ऊपर बरस
रही हो। हम भी अपने भावों के सागर में गोते लगाते रहे और फिर सुरक्षा कर्मियों की
आबाज़ सुनकर जागते हैं और उठकर आगे बढ़ते हैं।
बाहर निकलते हुए रास्ते में ही प्रसाद को पाते हैं। दूसरे रुट से
परिक्रमा करते हुए नीचे बाहर निकलते हैं। रास्ते में प्राचीन बरगद के पेड़ में
बंदरों के परिवार के खेलते, झूमते व आपस में क्रीड़ा विनोद के दृश्य देख ऐसे लग रहा
था कि जैसे रामराज्य में वानर अपने अधिपति के शासन में निश्चिंत, निर्द्वन्द व
मस्त-मगन विचरण कर रहे हों। थोड़ा आगे क्लॉक रूम के पीछे बड़े-2 एसी कक्ष पड़ते
हैं, जहाँ दर्शन कर बाहर लौट रहे तीर्थयात्री विश्राम कर रहे थे।
हम भी वहाँ कुछ मिनट विश्राम करते हैं और फिर क्लॉक रुम से सामान लेकर
फर्श पर बैठ जाते हैं, जहाँ ताजी हवा के ऐसे झौंके आ रहे थे कि अंदर के एसी इसके
सामने फेल थे। यहाँ चारों ओर का दृश्य देखने लायक था। क्या बच्चे, क्या बुढ़े,
क्या महिलाएं, क्या प्रौढ़ सब फर्श पर लेटकर धन्य अनुभव कर रहे थे। हवा का झौंका
प्राकृतिक एसी का काम कर रहा था। ऊपर छत की ओर वानर सेना अपनी उछल-कूद के साथ जैसे
उत्सव मना रही थी।
यहाँ के बंदर परिसर में कई स्थानों पर मिले। लेकिन इनकी प्रकृति एकदम
उलग दिखी। शांत, सौम्य व स्वयं में मस्त-मग्न। यहाँ आधा घंटा बैठने के बाद बाहर
आते हैं। पियाउ की उचित व्यवस्था परिसर में थी। जल पीकर बाहर शार्टकट से बाहर गेट
तक आते हैं, जहाँ सीता रसोई में खिचड़ी प्रसाद बंट रहा था। स्थानीय महिलाएं ही
इसको परोस रही थी।
इस तरह हमारा राम मंदिर का दर्शन पूरा होता है और कहीं गहरे
अंतरात्मा को छू जाता है।
सैंकड़ों वर्षों के वनवास के बाद जिस तरह से रामलल्ला की प्राण
प्रतिष्ठा होती है, यह भावुक करने वाला प्रकरण है। हालाँकि अभी मंदिर का निर्माण
कार्य चल ही रहा है, लेकिन जितना हो चुका है, वह स्वयं में अभूतपूर्व है, जिसे
मानवीय नहीं दैवीय संकल्प का प्रतीक माना जा सकता है। इसे किसी व्यक्ति या पार्टी
विशेष तक सीमित न कर पीढ़ियों के त्याग-बलिदान व राष्ट्र के संम्वेत संकल्प का
मूर्त रुप माना जा सकता है। हाँ इसके माध्यम सनातन संस्कृति एवं इसकी आध्यात्मिक
विरासत के प्रति संवेदनशील सुपात्र व्यक्ति बने हैं, जो युग परिवर्तन के लिए उदयत
महाकाल की चेतना से संवाहक बनते हैं और इस दैवीय कार्य को सम्पन्न किए हैं, जिसके
साथ नए युग के सुत्रपात का शंखनाद देखा जा सकता है। कोई भी सनातन धर्म में आस्था रखने
वाला व्यक्ति यहाँ पधार कर इसे अनुभव कर सकता है और यहाँ की तीर्थ चेतना का स्पर्श
पाकर रुपांतरित हुए बिना नहीं रह सकता
तीर्थ यात्रियों की अग्नि
परीक्षा लेता यात्रा का सबसे रफ-टफ एवं खतरनाक रुट
सबसे खतरनाक रुट पर सफर के रोमाँच का शिखर आज
जैसे इंतजार कर रहा था। अगले 2 दिन सबसे रोमाँचक औऱ यादगार यात्रा का हिस्सा बनने
वाले थे। एक तरफ आधे सफर को तय करने का संतोष व रोमाँच अंदर हिलोरें मार रहा था, तो दूसरी
ओर आगे का विकट मार्ग जैसे इस उत्साह की अग्नि परीक्षा लेने के सारे सरंजाम जुटाकर बैठा था।
देव-काफिला मलाणा से प्रातः 6.40 पर कूच करता है, 15-20 मिनट में मलाना गाँव पार होते ही धार के उस पार से दूर भेलंग गाँव की हल्की सी झलक मिलना शुरु होती है, जहाँ मलाना वासियों के शॉर्न अर्थात शीतकालीन
आवास व खेत हैं। गाँव के दो हिस्से हैं - अपर भेलंग और लोअर
भेलंग।
कुछ देर चलने के बाद रास्ते में खूबसूरत झरने के दर्शन होते हैं, जिसमें ऊपर पावन चंद्रखणी पास के बर्फ से पिघलकर बह रहा शीतल व निर्मल जल झर रहा था। झरने का शोर करता दिव्य निनाद व इसकी शीतल फुआरें यात्रियों को तरोताजा करने वाला सुखद अहसास दे रहे थे।
पहाड़ी झरने का खूवसूरत दृश्य
रास्ते में भेड़-बकरियों के साथ मवेशियों के दर्शन होते हैं और पीठ पर लकड़ी के भारी स्लीपर को ढो रहे श्रमिक। इनके दर्शन कर इस शांत, एकांत एवं दिव्य क्षेत्र में जीवन के कठोर सत्य के दिग्दर्शन हो रहे थे। इसमें मुख्य था कि यह क्षेत्र सबके लिए संभव नहीं, क्योंकि यहाँ विचरण के लिए न्यूनतम फिटनेस व टफनेस का होना आवश्यक है। स्वयं के साथ 15-20 किलो बजन उठाकर चलने की क्षमता होनी जरुरी है, क्योंकि यहाँ यातायात के कोई साधन नहीं हैं, न ही कोई ढुलाई की सुविधा, जो अमूनन पर्वतीय तीर्थस्थलों पर देखी जाती है। दूसरा, बिना किसी गैजेट, इंटरनेट एवं मोबाइल कनेक्टिविटि के भी जीवन का आनन्द लेने की मानसिक मजबूती। निसंदेह रुप में प्रकृति एवं रोमाँचप्रेमी घुमक्कड़ इन शर्तों को सहज रुप में पूरा करते हैं व इसी के बीच जीवन की सार्थकता और मसकद को खोजते हैं व पाते हैं।
देव काफिला भी आज की तय मंजिल की ओर बढ़ रहा था। रात को हल्की बर्फवारी हुई थी, जिसके निशान रास्ते में जमीं बर्फ की हल्की परत के रुप में मिल रहे थे। काफिला पहले अपर भेलंग गाँव से गुजरता है, यहां लकड़ी से बने पुराने पारंपरिक घर इधर-उधर बिखरे थे।
पहाड़ की गोद में बसे भेलंग गांव का दृश्य
गांव से नीचे उतरते हुए लोअर भेलंग गाँव को पार करते है। गाँव में खेत फसल के लिए तैयार दिख रहे थे, जिसमें महिलाएं व बच्चे काम करते हुए दिख रहे थे, कुछ काम के बाद चट्टानों पर विश्राम कर रहे थे व देव-काफिले को कौतूहक भरी दृष्टि से निहार रहे थे। यहाँ कुछ महिलाएं दोनों हाथों में किल्णीं (छोटी कुदाली) लेकर खुदाई करती हुईं दिखीं, जो स्वयं में एक विरल दृश्य था।
खेत में काम के बाद चट्टान पर विश्राम करती महिलाएं-बच्चे
लोअर भेलंग से सीधे नीचे उतरते हुए नाला क्रोस करते हैं और फिर सीधी चढ़ाई के संग काफिला आगे बढ़ता है। बता दें कि सभी लोग जूता पहनकर ट्रेकिंग कर रहे थे लेकिन गुर व पूजारी पुला (धान की घास के बने पारंपरिक जुत्ते, जिन्हें शुद्ध माना जाता है) पहनकर आगे बढ़ रहे थे। दल लगभग 10
बजे आगम डूगा पहुँचता है, जो चरावाहों के रुकने का एक बेहतरीन मैदानी सा स्थान है, जो खोरशु (हिमालय की ऊंचाई में ओक (बांज) प्रजाति का एक सदावहार वृक्ष) के जंगल से घिरा हुआ स्थान है।
यहाँ से चंद्रखणी साइड की बर्फिली धार स्पष्ट दिख रही थी। यहीं पर भोजन-विश्राम होता है और इसके बाद दोपहर डेढ़ बजे काफिला आगम-डूगा से आगे बाबा ताड़ी की चढ़ाई को चढ़ाई को पार करता है।
यहाँ की खड़ी चढ़ाई को पार करते हुए लगभग अगले आधा घण्टा धार के साथ आगे बढ़ते हुए फिर इस यात्रा का सबसे कठिन रुट सामने था। रास्ते में थकने पर काफिला कुछ देर विश्राम कर दम भरता व आगे के लिए तैयार होता है।
विहड़ वन के बीच मार्ग में दम भरते काफिले के सदस्य
आगे डेंजर जोन की खड़ी चढ़ाई में काफिले की अग्नि परीक्षा शुरु होती है, जहाँ एक किमी को पार करने में लगभग डेढ़ घंटे लग
जाते हैं। आग लगने के कारण मार्ग में पकड़ने के लिए झाड़ियां तक गायब थी। किसी तरह
कुल्हाड़ी तथा किल्हणी (छोटी कुदाली) से जमीं खोदकर खड़ी चढाई में स्टेप्स बनाए
जाते हैं।
मार्ग का सबसे कठिन ट्रैक
पीठ पर 10, 15 से 25 किलो का बोझा लादे हर
व्यक्ति दैवी संरक्षण के भरोसे अपना पूरा साहस बटोरते हुए आगे बढ़ रहा था। खतरे
का आलम यह था कि एक भी कदम किसी का स्लिप हो गया, तो समझो गया सीधा नीचे खाई में।
दिल को धामे, फूलती सांस, धड़कते दिल के साथ चढ़ाई पार होती है। यहां की खड़ी चढ़ाई के नीचे की खाई के उस पार जरी साइड का ब्लाधि नाला पड़़ता है और इस ओर दोहरा नाला, जो आज का अगला पड़ाव था।
इस खाई को पार करते हुए पथिक की सारी हंसी-मजाक गायव
हो चुके थे, सारा ध्यान अगले कदम पर था। जीवन-मृत्यु के बीच झूलते इन पलों में
घर परिवार संसार के सकल विचार गायब हो चुके थे। सिर्फ मंजिल सामने थी और दृष्टि
अपने अगले कदम पर केंदित। काफिला सीधे लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था। देखा जाए तो जीवन
में भी येही पल सबसे वहुमूल्य होते हैं, जब व्यक्ति का पूरा ध्यान लक्ष्य केंद्रित
होता है, जब सारे डिस्ट्रेक्शन्ज विलुप्त हो जाते हैं। येही एकांतिक पल जीवन
में लक्ष्य सिद्धि को संभव बनाते हैं।
इस टफ रुट की खड़ी चढ़ाई का आरोहण कर काफिला दोहरानाला टॉप पहुँचता है, शाम के पाँच बज रहे थे। यहाँ जमीं बर्फ के साथ स्वागत होता है।
दोहरा नाला टॉप से बर्फ के बीच नीचे उतरने की तैयारी में काफिला
इसी बर्फिले रास्ते के संग अगले आधा घंटा काफिला नीचे उतरता है।
बर्फ ले बीच दोहरा नाला की ओर आगे बढ़ता देव-काफिला
चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी। इसी
बर्फ पर चलते हुए काफिला आगे बढ़ रहा था।
बर्फिली राहों में झाड़ियों के बीच आगे बढ़ते हुए देवकाफिला
एक तरफ शरगढ़ की झाडियाँ और दूसरी ओर खोरशु के पेड़ों के बीच बर्फ के ऊपर सब नीचे उतर रहरे थे। आधे घंटे वाद शाम
5.30 बजे दोहरा नाला पर आकर काफिला रुकता है, जो चंद्रखणी की ओर के उम्बला रुआड़ तथा दोहरानाला टॉप से आ रहे दो नालों का संगम स्थल है। इसीलिए इसे दोहरा नाला कहा जाता है औऱ यही आगे चलकर नीचे काईस नाला का रुप लेता है।
यहाँ बर्फ के ग्लेशियर के बीच बहते नाले का निर्मल जल अपने शोर करते कलकल निनाद के साथ एक ताजगी भरा अहसास दिला रहा था। लगा जैसे कि आज तक की पिछली तपस्या
का फल यहाँ मिल रहा हो। कुछ इसके आपपास तो कुछ इससे ऊपर प्राकृतिक रुआड़ (गुफाओं) में रात के रुकने के तम्बू गाड़ लेते हैं।
यहाँ खाना बनाना सबसे कठिन था, बर्फिली हवा और
गीली लकड़ियाँ। काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी आग जलाने व खाना बनाने में यहाँ। औऱ यहाँ
सबसे अधिक ठँड भी थी। तापमान माइनस में था। सुबह जब उठे तो जुत्ते तक जम चुके थे।
बाहर पूरा पाला पड़ा हुआ था। आज की रात अब तक की सबसे ठंडी रात रही।
रास्ते भर बर्फ ही बर्फ और मार्गानुसंधान
यहाँ आस-पास चट्टानी पहाड़ों में प्राकृतिक रुप
से बने कई रुआड़ (गुफाएं) थे जिनमें बारिश-बर्फवारी के बीच गड़रिये व प्रकृतिप्रेमी
ट्रैक्कर रुकते हैं। सुबह 6.30 बजे देव काफिला यहाँ से आगे के लिए कूच करता है।
दिन 7 – दोहरा नाला से
नरेंइंडी
दोहरा नाला से आगे कहीं चढ़ाई, तो कहीं उतराई
भरी राह को पार करते हुए डेढ़ घंटे में काफिला भूचकरी टॉप पहुंचता है। पूरा सफर
बर्फ के ऊपर पूरा होता है। रास्ते भर औसतन दो-अढाई फीट बर्फ थी। रास्ते में कुछ
रुआड़ (प्राकृतिक गुफा) से भी दर्शन होते हैं। रिज पर कभी ऊपर, तो कभी नीचे आगे
बढ़ते हुए एक घंटे के सफर के बाद फुटासोर पहुँचते हैं। जहाँ बर्फ की सफेद चादर
ओढ़े बुग्याल की स्लोप्स (ढलानें) देव काफिले का जैसे विशिष्ट स्वागत कर रही थीं। फुटासोर पहुँचते ही अपने घर पहुँचने का अहसास होता है, क्योंकि यहाँ तक अक्सर विशिष्ट अवसरों पर किसी बहाने आना-जाना होता रहता है।
तीर्थयात्रा के सबसे रोमाँचक एवं दिव्य अनुभव, देवकृपा से कम नहीं
फूटासोर का काईस की भगवती दशमी वारदा के साथ
विशेष सम्बन्ध माना जाता है। खोरसू के जंगल यहाँ वहुतायत में हैं, रखाल के पेड़ भी
यहाँ मिलते हैं। गाँव वासियों के लिए यह एक पावन स्थल है। वास्तव में बिजली महादेव
से लेकर चंद्रखणी पर्यन्त सारा मार्ग देव शक्तियों का पावन स्थल माना जाता है और
क्षेत्रीय परिजन तथा फुआल (चरावाहे) श्रद्धा भाव के साथ इस रुट पर विचरण करते हैं और देवशक्तियों के आह्वाह्न, सूक्ष्म संरक्षण एवं दैवीय मार्गदर्शन में ही उनके हर कृत्य सम्पन्न होते हैं।
इस रुट पर खोरशु के जंगल को पार करते हुए दुआरू
नामक संकरे मार्ग को पार करते हुए काफिला एक घंटे बाद उब्लदा नामक स्थान पर जल स्रोत के पास रुकता है। यहाँ पर भूमिगत जल उबलते हुए जमीं से बाहर निकलता है, इसलिए इसका नाम उब्लदा रखा गया है।
उब्लदा में निर्मल एवं शीतल जल का प्राकृतिक स्रोत
रास्ते में वर्णित दुआरु नामक स्थान पर दोनों ओर की चट्टानों पर भेड़ु के सींग के निशान हैं, जिसकी अपनी कहानी है, जिसकी किसी अन्य प्रसंग में चर्चा की जाएगी।
उब्लदा में सुबह का भोजन तैयार होता है।
जंगल में प्रज्जवलित अगिन के संग तैयार हो रहा भोजन
जब पहुँचे तो मौसम साफ था। भोजन करते-करते
बर्फवारी शुरु होती है और बर्फवारी के बीच ही काफिला आगे बढ़ता है और अगले एक डेढ़ घंटे का सफर तय करता है।
बर्फवारी के बीच आगे का सफर
गंगनचूंबी देवदार व रई-तोस के वृक्षों के बीच सफर तय होता है, रास्ते के विकट मार्ग को पार कर अपने गृह प्रदेश में पहुँचने का संतोष गाढ़ा हो रहा था, जो सबके चेहरे पर स्पष्ट था। रेउंश से होते हुए देव-काफिला सीधी उतराई के संग नरेइंडी पहुंचता है।
रेऊंश की झाडियाँ बहुतायत में होने के कारण स्थान का नाम रेउंश रखा गया है, जहाँ
वन विभाग का गेस्ट हाउस है। यहाँ से कुल्लू घाटी व शहर की ओर का विहंगम दृश्य
देखते ही बनता है। कुल्लु के ढालपुर मैदान की ओर से भी इस स्थान के दर्शन किए जा सकते हैं।
नीचे मार्ग में मातन छेत अर्थात खेत आते हैं। ऊँचाई पर सेब का अंतिम बगीचा यहाँ पर मौजूद है, जो इस समय फ्लावरिंग स्टेज में था। इस समय नीचे सेऊबाग गाँव में सेब के फल चैरी व पीनट साइज ले चुके थे, लेकिन उँचाई में यहाँ अभी सेब में फूल खिले थे। ऊंचाई के साथ सेब की फ्लावरिंग का पैटर्न यहाँ से गुजरते हुए स्पष्ट हो रहा था। आश्चर्य नहीं कि पहाड़ों के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सेब देर से तैयार होता है, जो सितम्बर-अक्टूबर तक चलता रहता है। जबकि नीचले इलाकों में सेब जुलाई-अगस्त में तैयार हो जाता है।
यहाँ से पार
होते हुए नीचे देवदार के वृक्षों के नीचे देवस्थल नरेंइंडी के निर्जन वन में रात्रि का
ठिकाना बनता है।
दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी
एवं घर बापसी
नरेंइंडी में प्रातः हवन यज्ञ व कन्या पूजन के साथ भोजन तैयार
होता है। फिर दोपहर से शाम तक आस-पास व दूर-दराज से देवता के दर्शन एवं हारियानों के स्वागत के लिए आए श्रद्धालुओं का भोजन-भंडारा होता है। शाम को सब नरेइंडी से नीचे बनोगी गाँव में गिरमल देवता
के मंदिर में पहुँचते हैं। देवता को भंडार में स्थापित किया जाता है और फिर देवता से विदाई लेते हुए सभी हारियान अपने-अपने घरों को कूच करते हैं।
गिरमल देवता संग 8 दिन के सफर के बाद सभी
बिल्कुल फ्रेश अनुभव कर रहे थे। पैर में किसी तरह की जकड़न (ऊरा) के निशान नहीं
थे, न ही किसी तरह की कोई थकान। बस रास्ते की खट्टी-मीठी यादों का रोमाँच उमड़ते-घुमड़ते हुए चिदाकाश को पुलकित कर रहा था, रोमाँचित कर रहा था। विश्वास नहीं हो
रहा था कि हम इतना लम्बा व कठिन सफर पैदल पार कर सकुशल आ गए हैं, जिसके बारे में कभी
अपने बुजुर्गों से सुनकर मात्र कल्पना भर कर रोमाँचित होते थे। और आज ये सब अपने अनुभव का हिस्सा बन चुका था।
रास्ते में खोरश (खरशू) के पेड़ बहुतायत में
मिलते हैं और रई तोश के भी, जो देवदार से भी ऊंचाई पर उगते हैं। और भुचकरी के पास
भोजपत्र के वृक्ष। खोरशु के वृक्षों सहित रई-तोस आदि से मेंहदी झरती है, जिसे लोग इकट्ठा कर
व्यापार भी करते हैं, जो ठीक-ठाक दामों में बिकती है। यहाँ की चट्टानों में भी
यह मेंहदी उगती है।
बुराँश के फुल भी कई रंगत में रास्ते भर मिलते गए, लाल से लेकर
गुलावी तक। रसोल साइड लाल बुरांश बहुतायत में मिले। जबकि भुचकरि साइड अधिक ऊँचाई में गुलाबी अधिक थे। रखाल जैसा दुर्लभ एवं वेशकीमती पेड़ भी
रास्ते में मिला (वोटेनिक्ल नाम केक्टस वटाटा), जिससे केंसर की औषधी तैयार
की जाती है। रास्ते में गुच्छी (मौरेन मशरुम) से लेकर लिंगड़ी के दर्शन हुए और
जंगली फूल भी वुग्यालों में खिलना शुरु हो चुके थे। जंगल में भेडों व मवेशियों के संग विचरण करने वाले फुआल तथा ग्वाले प्रकृति के उन उपहारों का विषम परिस्थितियों में अपने सरवाइवल के लिए बखुवी इस्तेमाल करते हैं।
एक कतार में मंजिल की ओर बढ़ता देव-काफिला
बारिश और जुत्ते
ऐसे सफर में छाते का उपयोग किसी ने अपवाद रुप में ही किया होगा। प्लास्टिक
की चादरें व शीटों से काम चलाया गया। अनुभव रहा कि अधिक बारिश में रेन कोट भी
अच्छी क्वालिटी का न हो तो काम नहीं आता, अतः ऐसे में अच्छी प्लास्टिक शीट या
पालिथीन पेपर से बना रेन कोट ही उचित रहता है। आग जलाने व भोजन पकाने के लिए 80 से
90 फीसदी चूल्हे लकड़ी के थे, जिसमें बिरोजा लगी प्राकृतिक शौली की विशेष भूमिका
रहती थी। 2-4 स्टोव तथा कुछ पेट्रोमेक्स के चुल्हे ही साथ में थे।
लकड़ी की आगे के चुल्हे में भोजन को पकाने की तैयारी
इतने लम्बे सफर को पूरा करने के लिए ट्रेकिंग
शूज कुछ ही लोगों के पास थे, अधिकाँश 250 से 400 रुपए की रेंज के रबड के जुत्तों
को पहन कर पूरा सफर तय किए। कुछ तो इन जुत्तों में भी गर्मी अनुभव कर रहे थे व चप्पल
से भी काम चलाते रहे। आयु की बात करें, तो देव काफिले में 16-17 वर्ष के किशोर से
लेकर 72 वर्ष के बुजुर्ग (पीणी के पुजारी) तक साथ में थे, जो पूरी यात्रा को सकुशल
सम्पन्न किए।
इस यात्रा में कुछ एक तरफा मणिकर्ण तक पैदल
यात्रा किए, फिर बस से बापिस आए। कुछ मणिकर्ण तक बस में गए और फिर वहाँ से पहाड़ लांघते हुए यहाँ तक
आए पैदल आए। कुल मिलाकर कुछ अपवादों को छोड़कर हर परिवार से एक सदस्य इस देव स्नान
यत्रा में शामिल रहा।
कितने पुरखों-पीढियों का साक्षी रहा होगा यह विराट वृक्ष
कुल मिलाकर 25 वर्षों के अन्तराल में गिरमल देवता के संग सम्पन्न यह यात्रा एक ऐतिहिसिक यात्रा रही। हल्की बारिश से लेकर बर्फ का अभिसिंचन जहाँ पग-पग पर देवसानिध्य एवं ईश्वरकृपा का अनुभव देते रहे। वहीं भारी बारिश से लेकर राह के विकट मंजर जैसे देव काफिले की आस्था की
परीक्षा के साथ देवसंरक्षण के भाव को पुष्ट करते रहे। भय मिश्रित श्रद्धा एवं रोमाँच के बीच न जाने कितने जन्मों
के कर्म-प्रारब्ध राह में झरे होंगे। हर सफल परीक्षा के बाद सुंदर दृश्य से लेकर
उचित विश्राम एवं सुखद अहसास के पुरस्कार भी तीर्थयात्रियों की झोलियों में
रह-रहकर झरते रहे।
इस तरह यात्रा में भागीदार हर व्यक्ति सौभाग्यशाली
थे, जो इस रोमाँचक यात्रा से जुड़े दिव्य अनुभवों को बटोरते गए और आगे अपने घर-परिवार
में बच्चों, महिलाओं व न जा पाए अन्य परिजनों को कथा-किवदंतियों के रुप में सुनाते
रहेंगे। हम भी कभी इस यात्रा को सम्पन्न किए नानू-मामू साहब से सुनकर रोमाँचित
होते थे और आज स्वयं इसका हिस्सा बनकर, अपनी भाव यात्रा के अनुभवों को लोकहित में शेयर कर रहे
हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसे आधुनिक माध्यमों ने इसे सबके लिए सुलभ कर लिया
है, जो विज्ञान व टेक्नोलॉजी का एक अनुपम वरदान है, इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है।(समाप्त)
तीर्थ यात्रा का सबसे रोमाँचक एवं यादगार पड़ाव - देवकृपा से स्मृति के दुर्लभ पल कैमरे में केप्चर हो सके हैं
पहाडियों से घिरी कुल्लू-मणिकर्ण घाटी का एक एकांतिक गाँव
दिन 4 –
मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर
दिन 5 – रसोल
टॉप से मलाणा गाँव वाया छोरोवाइ
दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से
रसोल टॉप की ओर
प्रातः स्नान के बाद क्लार (सुबह का नाश्ता व
लंच) करके देव काफिला बापिस कसोल की और कूच करता है। मणिकर्ण तीर्थ के तप्त कुण्ड में स्नान कर सभी नई ऊर्जा के साथ लबरेज थे और बापिसी के नए सफर के लिए जिज्ञासा एवं रोमाँच से भरे हुए थे, क्योंकि यह यात्रा रसोल टॉप से होकर मलाना तथा आगे भुचकरी टॉप से होकर सम्पन्न होनी थी, जो अधिकाँश लोगों के लिए एक नया रास्ता था।
मणिकर्ण से प्रस्थान कर काफिला पार्वत नदी पर बने तंग गलु को पार कर लेफ्ट बैंक के मुख्य मोटर मार्ग के संग आगे बढ़ते हुए कसोल पहुँचता है, जहाँ विदेशी पर्यटकों का जमखट लगा रहता है। इस्रायल से पधारे पर्यटकों की बहुलता के कारण इसे मिनी इजराइल भी कहा जाता है। यह खीरगंगा और मलाना गाँव के लिए एक तरह से बेसकैंप का भी काम करता है। अपनी इस विशेषता के साथ यहाँ की शीतल आवोहवा विदेशियों की तरह भारतीय सैलानियों को भी आकर्षित करती है, जिनके जमावड़े को भी यहाँ देखा जा सकता है।
कसोल में पार्वती नदी पर बने पुल
को पार कर देव-काफिला राइट बैंक की नई घाटी में प्रवेश करता है।
उस पार से कसोल कस्वे का विहंगम दृश्य
लगभग आधा घंटा हल्की चढ़ाई को पार करते हुुए छलाल गांव आता है, काफिला इसके पीछे से होते हुए बढ़ी-बढ़ी चट्टानों और चीढ़ के जंगल को पार करते हुए आगे बढ़ता है। छलाल से रसोल लगभग 6 किमी है, जो यात्रियों के अनुभव के स्टेमिना के अनुरुप डेढ़-दो से चार घंटे में तय होता है।
चीढ़ के जंगल को पार करता हुआ देव काफिला
गाँव के पीछे रास्ते में कुछ विश्राम होता है। एक हारियान द्वारा कोल्ड ड्रिंक सर्व किया जाता है, जो सबको रिफ्रेश व रिचार्ज करता है। यहाँ से तरोजाता होकर काफिला छलाल नाले पर बने पुल को पार करते हुए रसोल गाँव की ओर बढ़ता है।
छलाल नाले के पुल को पार करता हुआ देव काफिला
इसी के साथ खड़ी चढ़ाई का दौर भी शुरु होता है, हालाँकि बीच में कुछ राहत भरे छोटे पड़ाव भी मिलते रहे। इन्हीं राहों पर बुराँश के सुर्ख लाल फूल से लदे वृक्ष यात्रियों का स्वागत करते हैं, जो रास्ते भर एक अलग ही लोक में विचरण का अनुभव देते रहे। मालूम हो कि बुराँश पहाड़ों में एक विशिष्ट ऊंचाई का विरल पौधा है, जिसके फूलों औषधीय गुणों से भरपूर पाए गए हैं, इसके फूलों की चटनी से लेकर जूस तैयार किया जाता है, जो पाचन संस्थान से लेकर ह्दय एवं मस्तिष्क के लिए बहुत लाभकारी माना जाता है।
रास्ते में बुराँश के ंजंगल से गुजरते हुए
निसंदेह रुप में वृक्ष-वनस्पतियों का रंग-बिरंगा संसार सफर के बीच आंखों को ठंडक देता है और मन को सुकून। मस्तिष्क भी इसके बीच अपनी स्थिति के अनुरुप ताने-बाने बुनता रहता है और पग मंजिल की ओर आगे बढ़ते रहते हैं। सदैव की तरह गिरमल देव संग देवशक्तियों का सान्निध्य निसंदेह रुप में एक अभेद्य रक्षा कवच तथा अटल सम्बल का काम कर रहा था।
छलाल से लगभग ड़ेढ घंटे की कठिन यात्रा के बाद रसोल गाँव के दर्शन होते हैं। चारों और खड़ी पहाड़ियों के बीच एकांत घाटी में बस यह गाँव आश्चर्यचकित करता है। एक मायने में यह गाँव मलाना से भी अधिक रहस्यमयी लगता है कि कैसे लोग तंग घाटी में छिपे इस स्थान में बसे होंगे। मलाना तो फिर भी खुले स्थान पर बसा है। मलाना के विपरीत यहाँ भगवती के महामाया स्वरुप की पूजा की जाती है और मलाना की ही तरह यहाँ भी मंदिर परिसर में बाहर से पधारे लोग एक सीमा के अंदर मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते तथा न ही चीजों को छू सकते।
यात्रियों के जीवट की परीक्षा लेती खड़ी चढ़ाई
गाँव की दुकानों से कुछ यात्री आगे के मार्ग के लिए कुछ राशन (पाथेय) खरीदते हैं। रसोल गाँव कसोल से मलाना गाँव के बीच के ट्रैक का मुख्य पड़ाव है। गाँव को पार करते ही सफर की कठिन चढ़ाई भी शुरु हो जाती है।
गहरी घाटी की ढलान पर बसे रसोल गाँव का विहंगम दृश्य
रसोल गाँव को पार करते-करते मुसलाधार बारिश शुरु
हो जाती है, पत्थरीला रास्ता और फिसलन भरा हो जाता है। इसी के साथ रसोल गाँव के पीछे
खड़ी चढ़ाई को धीरे-धीरे पार करते हुए काफिला आगे बढ़ता है।
इसे पार करते हुए लगभग ड़ेढ घंटे बाद शाम 6.35
बजे काफिला रसोल टॉप के नीचे खेचुमारु स्थान पर रुकता है। चट्टानी बुग्याल के संग प्रकृति की गोद में आज की रात्रि विश्राम का ठिकाना निसंदेह रुप में रोमाँचप्रेमियों के एडवेंचर की भूख को शांत करने वाला रहा।
रसोल टॉप के नीचे वीहड़ वन में रात्रि विश्राम की व्यवस्था
यहीं पर रात्रि विश्राम
व भोजन की व्यवस्था होती है और प्रातः यहाँ से रवाना होते हैं। रोज की तरह रात को तंबुओं में मोबाइल व टॉर्च की व्यवस्था और बाहर चुल्हे में प्रज्जवलित आग अंधेरे में रोशनी के साधन थे। बाकि दिन भर की थकान के बाद खा-पीकर सभी लोग अपने तंबु्ओं में सो जाते हैं।
प्रातः आगे के सफर की तैयारी के साथ देव-काफिला
प्रातः देव-काफिला तैयार होकर अगले सफर के लिए चल पड़ता है, जिसकी मंजिल थी मलाना गाँव वाया छोरोवाई।
काफिले में 50-60 सदस्य देवता (की टीम) के
साथ के थे, जिनमें 10-12 बाजा बजाने बाले बजंतरि, 10 नरकाहल बजाने वाले। फिर सभी
देवी-देवताओं के एक-एक गुर व पजियारे। 8 बारी और उनके साथ 1 साथी-सहचर, इस तरह 16 और
इनके साथ कारदार सहित देवता के अन्य सेवक। इनके भोजन की व्यवस्था देवता की तरफ से
होती थी। इनका भोजन बड़े पतीले (पोतलू) व वर्तनों में तैयार होता है। पहले देवता
को भोग लगता है और फिर भोजन-प्रसाद ग्रहण किया जाता है और फिर वर्तन साफ। इसके बाद
की आगे की यात्रा शुरु होती थी। बाकि 200 लोग अपना-अपना भोजन अपने समूह में बनाते
हैं।
खेचुमारु से रसोल टॉप की ओर अब तक के सफर का सबसे कठिन पड़ाव पूरा होना था। एकदम सीधी खड़ी चढ़ाई के संग तीर्थ यात्रियों के जीवट की अग्नि परीक्षा का दौर जैसे शुरु होता है।
रसोल टॉप की ओर - अब तक का सबसे कठिन व थकाऊ ट्रैक
दिन 5 – रसोल टॉप से होकर
मलाणा गाँव,
प्रातः 6.45 पर काफिला खेचुमारु से रवाना होता
है और एकदम खडी चढाई के साथ लगभग एक घंटे की कठिन यात्रा के बाद कसोल टॉप पहुँचता है, जहाँ हल्के स्नोफॉल के साथ
स्वागत होता है।
बर्फ के बीच सफर का रोमाँचक एवं कठिन दौर
लगता है कि जैसे घाटी की देवशक्तियों द्वारा देव काफिले का विशिष्ट
स्वागत-अभिसिंचन किया जा रहा हो।
बर्फ के बीच रसोल टॉप की फिसलन भरी राहों को पार करते हुए
रसोल टॉप से उस पार सीधे दूर नीचे चंद्रखणी धार (रिज) के दर्शन हो रहे थे, जिसे घाटी का पावन क्षेत्र माना जाता है व ठारा करड़ु देवी-देवताओं का उद्गम स्थल। हालाँकि धुंध के कारण नजारा बहुत साफ नहीं था। रसोल टॉप पर पहले
से जमी हुई बर्फ भी मौजूद थी, जिस कारण फिसलन भरी राह में सावधानी के साथ रास्ता पार करना पड़ रहा था। अगले लगभग आधे घंटे का सफर इसी तरह तय होता है।
टॉप से उतराई भरे रास्ते में नीचे उतरते हुए लगभग ड़ेढ घंटे बाद सुबह 10.30 तक छोरोवाई स्थान
पर पहुँचते हैं, जहाँ बारिश शुरु हो जाती है।
छोरोवाइ में बारिश के बीच देवकाफिला देवदार के वृक्ष की शरण में
यहां मार्ग से मलाणा गाँव के दर्शन घाटी के
उस पार प्रत्यक्ष थे। विश्व का प्राचीनतम लोकतंत्र मलाना कभी अपनी पुरातन संस्कृति
व पारम्परिक घर-गांव के लिए जाना जाता था। लेकिन आज यह आधुनिकता के दौर में प्रवेश कर शहरनुमा
स्वरुप ले चुका है। हरी चादर से ढके चार मंजिला घर यहाँ की बढ़ती समृद्धि औऱ आधुनिकता
की कहानी व्यां करते हैं। हालाँकि यहाँ के अधिकांश घर भूकम्परोधी काठकुणी शैली से बने हुए हैं और कुछ ही सीमेंट के लैंटर होंगे।
छोरोवाई से उस पार मलाना गाँव का विहंगम दृश्य
घाटी के बीच में नीचे मलाणा नाला बह रहा था। जैसे
ही खाना बनाना शुरु करते हैं बारिश और तेज हो जाती है और झमाझम बारिश के बीच चुल्हे
जलते हैं, भोजन तैयार होता है। सभी भोजन-प्रसाद ग्रहण करते हैं और बारिश के बीच ही आगे चलना शुरु करते हैं, क्योंकि बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। इस तरह काफिला दोपहर के 2.30
बजे आगे बढ़ता है और सभी यहाँ से सीधा नीचे उतरते हुए मलाणा नाला पहुँचते हैं। रास्ते में जरी-मलाना के लिए निर्माणाधीन सड़क को पार करते हुए नीचे मलाना नाले को पार करते हैं और फिर खड़ी चढ़ाई के संग मलाना गाँव की ओर बढ़ते हैं। बारिश रास्ते भर थमने का नाम नहीं ले रही थी।
शाम 6 बजे देव काफिला बारिश के बीच मलाणा गांव पहुँचता है। रास्ते
में काफिला पूरी तरह से भीग चुका था, जिसके कारण पीठ में लदा सामान भी भारी हो गया था। बरसाती भी काम नहीं आ रही थी, उसमें भी पानी व
नमी घुस गई थी। लगा कि बढ़िया पॉलीशीट ऐसी स्थिति के लिए आवश्यक है, जिससे यात्रियों
से लेकर उनके बेग बारिश से सुरक्षित रह सके। रास्ते भर बारिश के इस मंजर के बीच मोबाइल खोलने की फुरसत नहीं थी, अतः इस रास्ते की कोई फोटो नहीं खींच सके।
रास्ते में ही लैंड-स्लाईड (भूस्खलन) की लोमहर्षक घटना
घटती है, जिसमें मल्बे के साथ एक बहुत बड़ी चट्टान कई टुकड़ों में चटककर तीव्र वेग के साथ नीचे गिरती है। काफिले के 8-10 लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं और इनके सर के ऊपर से चट्टान के टुकड़े गिरते हैं और ये किसी तरह बाल-बाल बचते हैं। लगा कि जैसे दैवी संरक्षण ने रक्षा क्वच की
भाँति सबको सुरक्षित इस प्राकृतिक आपदा के पार लगा दिया हो।
मलाना गाँव में प्रवेश करते हुए देवकाफिला
मलाना पहुँचने पर मलाणा वासियों द्वारा देव
काफिले के देउड़ुओं की भावभरी आव-भगत होती है। हर घर के लिए 2-4 खिंडु (मेहमान)
बाँटे जाते हैं। गाँववासी उसी हिसाब से मेहमानों को अपने-अपने घर में ठहराते हैं,
भोजन कराते हैं। गिरमल देवता को गाँव में देवप्रांगण के भण्डार (विशिष्ट विश्रामगृह) में ठहराया जाता है।
मलाना गाँव का ह्दय क्षेत्र, देव प्रांगण (देउए-री-सोह)
देवता सहित देवलुओं की यह स्वागत व मेहमानवाजी कुल्लू घाटी की देवसंस्कृति की
आतिथ्य-सत्कार को देव-परम्परा का एक अभिन्न हिस्सा है। घरों में आग के चुल्हे व तंदूर जल रहे
थे। सभी गीले कपड़े सुखाते हैं। बाहर ठंड का अनुमान लगा सकते हैं, जो यह गाँव समुद्र तल से लगभग दस हजार (9,938) फीट की उंचाई पर बसा है।
मालूम हो कि मलाना विश्व के सबसे प्राचीन लोकतंत्र व्यवस्था के लिए जाना जाता है, जहाँ इसके अपर और लोअर हाउस हैं। गाँव की पूरी शासन व न्याय व्यवस्था जमलू देवता (ऋषि जमदग्नि) के इर्द-गिर्द केंद्रित है। निर्धारित नियमों का सख्ती से पालन किया जाता है। मंदिर परिसर में बाहर से आए लोगों को पावन क्षेत्र में प्रवेश का निषिध रहता है और वे हर चीज को छू नहीं सकते। संभवतः इस नियम के चलते गाँव की कुछ पावनता बची हुई है। मलानावासियों की देव आस्था इतनी प्रबल है कि देवता जमलू की हर बात को पत्थर की लकीर माना जाता है तथा इसका हर कीमत पर पालन किया जाता है।
रात्रि विश्राम के बाद सुबह 6 बजे देव काफिला देव प्रांगण
(देउए-री-सोह) में एकत्र होता है, और 6.40 पर आगे के लिए कूच करता है।
आगे के सफर के लिए कूच की तैयारी में देव-काफिला
मलाणा गाँव की कच्ची-पक्की पगडंडियों के बीच देव-काफिला आगे बढ़ता है। और पंद्रह मिनट में गाँव को पार करते हुए अगली धार पर पहुंचता है और गाँव पीछे रह जाता है और धार के उस पार नई घाटी में प्रवेश होता है। (जारी, भाग-3, मलाना से बनोगी एवं घर बापसी वाया दोहरा नाला-भुचकरी टॉप)