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सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

जब आया बुलावा माता वैष्णों देवी का, भाग-3,

 

यादगार सवक से भरा सफर बापिसी का

प्रातः जागरण के बाद फ्रेश होते हैं, नीचे स्नान घर के पास ही शिव गुफा बनी है। उसमें दर्शन करते हैं। इसका इतिहास पढ़ते हैं। कल्पना उठती है कि काश ऐसे स्थान पर साधना का मौका मिलता। गुफा की लोकेशन चट्टान के नीचे, नाले के संग एकांत स्थान पर है, जहाँ आस-पास पानी लगातार झर रहा था। एकांतिक ध्यान साधना के लिए आदर्श स्थल प्रतीत हो रहा था।

मौसम में ठंडक के चलते सुबह की चाय ना ना करते 3 बार हो जाती है, वह भी खाली पेट। इसका खामियाजा आगे भुगतने वाला था, जिसका अंदेशा ठंड में नहीं हो पाया था। जिस हॉल में रुके थे, वहाँ से नीचे घाटी का नजारा दर्शनीय था। कुछ यादगार क्लिप्स के साथ यहाँ से चल पड़ते हैं।

कतार में पूरा दल तीन किमी हल्की व खड़ी चढ़ाई के साथ बाबा भैरों के द्वार में लगभग एक घंटे में पहुंचता है। हालाँकि वहाँ पहुंचने की उड़न खटोले से भी व्यवस्था थी, लेकिन इसकी 1-2 किमी लम्बी लाइन देखकर लगा की पैदल ही इसके पहले पहुँच जाएंगे। रास्ते में जहाँ भक्तों की किलोमीटर लम्बी कतारें दर्शन के लिए लगी थी, वहीं दूसरी कतार उड़न खटोले के लिए। हमारा पूरा दल कतार बद्ध होकर धीरे-धीरे हल्की चढ़ाई को पार करता है। बीच में उड़न खटोले बिल्कुल पास से सर के ऊपर से गुजर रहे थे।

इस मार्ग में भी कुछ शॉर्ट कट सीढ़ियों के बने हैं, इनको पार करते हुए आगे बढ़ते हैं। रास्ते में एक-दो स्थान पर कुछ विश्राम करते हैं। कुछ दल के सदस्यों को भूख सताना शुर कर चुकी थी, वे कुछ चुगने के लिए निकालते हैं। पास में बैठे बंदर बीच में कूद पड़ते हैं। पहली वार बंदरों का दर्शन कर रहे सदस्य भय से चीख-पुकार कर ईधर उधर भागते हैं। जबकि ऐसे में बिना डरे, शांत-स्थित व मजबूती से रहो, तो बंदर बॉडी लैंग्वेज समझ कर चुपचाप गुजर जाते हैं। उनकी नजर खाने के समान पर होती है, किसी को काटने या परेशान करने पर नहीं। भयवश ही वे हमला कर सकते हैं। वाकि बंदर घुड़की तो मश्हूर है ही। इनका मनोविज्ञान समझने वाले इनसे शांति से निपट लेते हैं। लेकिन हमारे ग्रुप में नौसिखिए यात्रियों के लिए यह शायद पहला सबक था।  

भैरों मंदिर पहुँच कर हम लाइन में लगते हैं, दर्शन करते हैं और नीचे छत को ऊपर के समतल मैदान पर धूप का आनन्द लेते हैं। भौरों मंदिर का अपना इतिहास है। माना जाता है कि जब माता वैष्णु देवी ने भैरों का बध किया था तो उनका सर धड़ से अलग होकर यहाँ पहाड़ी पर गिरा था। माता ने उन्हें आशीर्वाद दिया था कि जो भी मेरे दर्शन करने आएगा, वह तेरे भी दर्शन करेगा और तभी उसकी यात्रा पूर्ण मानी जाएगा। इसलिए वैष्णों माता आया हर भक्त यहाँ दर्शन जरुर करता है।

यहाँ से नीचे व चारों ओर का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। यहाँ पर फोटो व सेल्फी प्रेमियों का तांता लगा हुआ था। साथ ही यहाँ की खिली हुई धूप भी ठंड से बहुत राहत दे रही थी। कुछ समय यहाँ से नीचे के नजारों का विहंगावलोकन करते हैं, यहाँ से नीचे हेलीपैड का नजारा स्पष्ट था और इसमें उतरते और यहाँ से उड़ान भरे हेलीकॉप्टरों का नजारां एक नया अनुभव दे रहा था।

यहाँ से फिर बापिसी के रास्ते में आगे बढते हैं, जो आगे अधकुमारी की ओर से जाता है। रास्ते में साँझी छत पहला मुख्य पड़ाव था, जहाँ चाय-नाश्ता आदि की व्यवस्था रहती है। इस रास्ते में जंगली मुर्गों के झुंड के दर्शन हुए, जो सड़क के एकदम साथ लगभग 100 मीटर तक सटे जंगल में शौर करते हुए गुजर रहे थे। थोड़ी दूर पर एक बांज के पेड़ पर ध्यानस्थ लंगूर को देख बहुत अच्छा लगा, कि कितनी शान के साथ सारे जहाँ का सुख-सुकून बटोरे, ये लंगूर महाराज अपने साम्राज्य में ध्यानस्थ होकर बैठे हैं।

थोड़ी देर में नीचे उतरते हुए हम सांझी छत पहुंचते हैं। यहाँ समूह फोटो होता है। पीछे से उड़ान भरते हेलीकॉप्टर ठीक हमारे सर से होकर जुगरते प्रतीत हो रहे थे। इसके बाद सरांय बोर्ड की ओऱ से लगाए गए भंडारे में हलुआ, चना और चाय का नाशता करते हैं। यहीं से टीम आगे-पीछे होना शुरु हो गई थी, जो अपने-अपने समूह बनाकर अधकुमारी की ओर दल बढ़ रहे थे।

इसी के साथ हमारी तवीयत बिगड़ना शुरु हो चुकी थी। सुबह खाली पेट तीन बार चाय और दस बजे नाश्ता, यह रुटीन भारी पड़ रहा था। लगा भैरों बाबा के यहाँ सुवह का नाश्ता किए होते तो पेट में बन रहा एसिड शांत होता और यह नौवत नहीं आती। इस रुट पर यात्रा करने वालों को यही सलाह है कि सुबह का नाश्ता स्किप न करें। चाय के साथ कुछ खाने का सामान अवश्य रखें।

कई शोर्टकट सीढ़ियों को पार करते हुए हम अधकुमारी की ओर बढ़ रहे थे। सीधे नीचे उतराई में पैरों पर ठीक-ठाक दवाव पड़ रहा था। कहीं-कहीं सीढ़ियों का सहारा लेकर उतर रहे थे और जहाँ पैर जबाव दे जाते, वहाँ कुछ देर विश्राम करते। बिगड़ती तवीयत के साथ कुछ थकान के साथ हालात वदतर हो रहे थे। अधकुमारी पहुँच चुके थे। यहाँ अन्दर देखने का अधिक समय नहीं था। इसे अगली यात्रा के लिए छोड़कर आते बढ़ते हैं। मान्यता है कि यहीं पर माता वैष्णु देवी ने एक गुफा में रहकर साधना की थी।

आगे की यात्रा हम सीढ़ियों के सहारे पुरा करते हैं। पैर जबाव दे रहे थे। बुजुर्गों व बच्चों के इस राह पर चढ़ते-उतरते देखकर जोश आ रहा था। लेकिन अपनी स्थिति देखते हुए अंतिम दो किमी खच्चर का सहारा लेना पड़ा। यह भी कम झकझोरने वाला अनुभव नहीं था। खच्चर पर बिठाकर मालिक टिकट कटाने जाता है। टीन बाली छत पर बंदरों की उछलकूद से घबराया खच्चर विदक जाता है। लगा हम अब गिरे कि तब। किसी तरह से आकर मालिक संभालता है। चोटिल दुर्घटना होने से टली और लगा हमारा कोई प्रबल प्रारब्ध कट रहा था।

हम खच्चर के सहारे बाणगंगा के किनारे टीन शैड में अड्डे पर उतरते हैं। यहाँ बाकि सहयात्रियों का इंतजार करते हैं। लगा कि वे पीछे से आ रहे होंगे, जबकि वे शॉर्टकट से नीचे उतरकर हमसे आगे पहुंच चुके थे। इस बीच हम अपना विश्लेषण करते रहे। हेमकुण्ड की गलती आज पुनः कर बैठे थे, ऑवर काँफिडेंस में सुबह खान-पान की लापरवाही हुई थी, जो भारी पड़ गई थी।

हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। आगे से सौरभजी हमें खोजते हुए आ रहे थे। मिलकर बहुत राहत मिलती है। फिर हमलोग ऑटो-टेक्सी से कटरा रेल्वे स्टेशन पर पहुँचते हैं। पहले होटल पहुँची टीम सामान लेकर पहुँच रही थी। यहाँ फ्रेश होकर हेमकुंट एक्सप्रेस ट्रेन में बापिसी का सफर करते हैं। शाम को साढ़े चार बजे चलती है, हरिद्वार सुबह 7 बजे पहुँचा देती है।

माता वैष्णु देवी के इस तीर्थाटन के साथ लगा जैसे दिल के तार इस स्थल से जुड़ चुके हैं, अगली बार और होशोहवास व तैयारी के साथ यहाँ का तीर्थाटन करेंगे। कुछ दिन रुककर यहाँ विचरण करेंगे और पूरा आध्यात्मिक लाभ लेते हुए इस पावन तीर्थ का वास करेंगे।

भाग -1 के लिए पढ़ें, जब आया बुलावा माता वैष्णों देवी का।

यात्रा वृतांत - हमारी पहली वैष्णों देवी यात्रा, भाग-2


बाणगंगा से माता वैष्णों देवी का सफर

मुख्य द्वार से प्रवेश के बाद दो-तीन किमी के बाद बाणगंगा पहला मुख्य पड़ाव है। यहाँ तक बाणगंगा के किनारे पैदल मार्ग पर बने टीनशैड़ के नीचे से सफर आगे बढ़ता है। यहीं पर खच्चर व अन्य यात्रा सेवाएं (बच्चों के लिए पिट्ठू, बुजुर्गों के लिए पालकी आदि) उपलब्ध रहती हैं, जो पैदल चलने में असक्षम लोगों के लिए उचित दाम पर उपलब्ध रहती हैं। रास्ते में ढोल ढमाके के साथ यात्रियों का स्वागत होता है, जो हर एक-आध किमी पर रास्ते में देखने को मिलता है। नाचने के शौकीन यात्रियों को इनके संग थिरकते देखा जा सकता है। जो भी हो यह प्रयोग यात्रा में एक नया रस घोलता है व थकान को कुछ कम तो करता ही है। कुछ दान-दक्षिणा भी श्रद्धालुओं से इन वादकों को मिल जाती है।

बाणगंगा के वारे में मान्यता है कि माता वैष्णों ने यहीं पर बाल धोए थे व स्नान किया था। अमूनन हर नैष्ठिक तीर्थयात्री इस पावन नदी में स्नान करके, तरोताजा होकर आगे बढ़ता है। लेकिन सबके लिए यह संभव नहीं होता।

हम पहली बार इस मार्ग पर थे। हमारे मार्गदर्शक रजत-सौरभजी यहाँ पहले आ चुके हैं। हम उनके निर्देशन में आगे बढ़ रहे थे। वे पहले पड़ाव में बाणगंगा के ऊपर सामान्य मार्ग से न होकर सीधे सीढ़ी मार्ग से चढ़ाते हैं। एक ही बार में लगभग 450 से अधिक सीढ़ियाँ। चढ़ते-चढ़ते थोड़ी देर में सांस फूलने लगती है, ऊपर से दिन की धूप सीधे सर पर बरस सही थी, सीमेंटेड सीढ़ियों के रास्ते में छाया की सुविधा न के बरावर थी। आधी चढ़ाई तक चढ़ते-2 फेफड़ों पर जोर बढ़ गया था, लग रहा था कहीं फट न जाएं। इस विकट अनुभव के बीच कुछ पल विश्राम के राहत अवश्य दे रहे थे, वदन पसीने ते तर-वतर हो रहा था, दिल की धड़कने अपने चरम पर थीं। किसी तरह इन सीढ़ियों को पार कर मुख्य मार्ग पर आते हैं।

इस प्रारम्भिक कवायद का लाभ यह रहा कि अब आगे की चढ़ाई हमारे लिए अधिक कठिन प्रतीत नहीं हो रही थी। हालाँकि आगे सीढ़ियों बाले शॉर्टकट के प्रयोग से बचते रहे, और हल्की ढलाने वाले खच्चर मार्ग से ही टीन शेड के नीचे चलते रहे। हालांकि दूसरे दिन बापिसी में इन सीढियों के शॉर्टकट्स का हम सबने भरपूर उपयोग किया

इस राह पर पहला पड़ाव था चरणपादुका। माना जाता है कि यहाँ माता वैष्णु के चरणों के चिन्ह हैं, जहाँ उन्होंने एक पैर पर खड़े होकर तप किया था।

मार्ग में बाँस के झुरमुटों के दर्शन प्रारम्भ हो चुके थे। नीचे घाटी का नजारा भी रोमाँचित कर रहा था। हम क्रमशः ऊंचाइयों की ओर बढ़े रहे थे। छोटी पहाडियां व गाँव नीचे छुटते जा रहे थे।

रास्ते में जहां थक जाते, कुछ पल विश्राम करते, और कुछ भूख-प्यास का अधिक अहसास होता तो पानी पी लेते और कुछ चुग लेते। अधिक प्यास थकान लगने पर पसीने से हो रहे साल्ट की कमी को पूरा करने के लिए नींबूज का सहारा लेते। हम पहली बार नींबूज का स्वाद चख रहे थे व इसके मूरीद हो चुके थे। मूड़ बदलने के लिए चाय का उपयोग एक आध जगह करते हैं। रास्ते में यह डायलॉग सहज ही फूट रहा था कि नींबूज का कोई जबाब नहीं, पानी का कोई विकल्प नहीं और सही समय पर मिली चाय की तृप्ति का भी कोई जबाब नहीं।

अब हम लगभग आधा रास्ता पार कर चुके थे। यहाँ से रास्ता दो हिस्सों में बंटता है। एक अधकुमारी की ओर से होकर जाता है, तो दूसरा हिमकोटी मार्ग की ओर से। हम हिमकोटी का ही चयन करते हैं, क्योंकि यह कम चढ़ाई वाला मार्ग है। अधकुमारी में आगे खड़ी चढ़ाई पड़ती है, जिसे हम बापिसी के लिए रखते हैं।

हिमकोटी से बाहनों की सुविधा भी थी, लेकिन हम पैदल ही चलते हैं। इस रास्ते में लगा पहाड़ों से पत्थरों के गिरने की खतरा अधिक रहता है, सो बीच-बीच में इनको रोकने के विशेष प्रयास किए गए थे। रास्ते में बंदरों के दर्शन भी बहुतायत में शुरु हो गए थे। खाने की बस्तु को देखकर यात्रियों के बीच छीना-झपटी के नजारे भी देखने को मिलते रहे।

आगे एक बेहतरीन रिफ्रेशिंग प्वाइंट पर रुकते हैं, चाय-नाशता करते हैं और बैट्री रिचार्ज कर आगे बढ़ते हैं। यहाँ से हेलिकॉप्टरों का नजारा भी देखने लायक था। नीचे घाटी के खुले आसमां से चिडियों के समान दिखते इन हेलिकॉप्टरों की आवाज पास आने पर और तेज हो जाती और हमारे पास से ऊपर पहाड़ों से होकर पार हो रहे थे। पता चला थोड़ी ही दूरी पर हवाई अड्डा है। हर पांच-दस मिनट में इनके आने-जाने का सिलसिला चल रहा था।

आगे मार्ग में बढ़ते-बढ़ते दोपहर ढल चुकी थी, पश्चिम की ओर सूर्यास्त का अद्भुत नजारा देखने लायक था, जिसे हर यात्री केप्चर कर रहा था। हम भी इसका लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे और कुछ बेहतरीन यादगार तस्वीरें मोबाइल में कैप्चर करते हैं।

हम मंजिल के समीप बढ़ रहे थे और साथ ही शाम का धुंधलका भी छा रहा था और धीरे-धीरे रात का अंधेरा साया अपने पांव पसार रहा था। मंजिल के समीप पहुंचने की खुशी के चलते थकान कम हो गई थी, हालांकि ठंड का अहसास तीखा हो रहा था। लो ये क्या, माता वैष्णो देवी के द्वार महज आधा किमी, इसके भव्य परिसर के दूरदर्शन यहीं से हो रहे थे। झिलमिलाती सफेद रोशनीं से पूरा तीर्थ स्थल जगमगा रहा था।

कुछ ही मिनटों में तीर्थ परिकर में जयकारों के साथ प्रवेश होता है, शुरु में ही लाइन में लगकर प्रसाद, क्लावा आदि खरीदते हैं। रिजर्व किए हॉल में पहुंचकर ऑनलाइन प्रसारित हो रही आरती एवं सतसंग में भाग लेते हैं। आज के सतसंग में हमारे सकल समाधान हो रहे थे। चित्त के गहनतम व जटिल प्रश्नों के एक-एक कर उत्तर मिल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि माता का वुलावा कितने सटीक समय पर आया है। लगा जैसे अंतर्यामी, त्रिकालदर्शी भगवती अपनी संतानों का सदा हित चाहती है, उसका सही समय भी वही जानती हैं। उसके भक्तों, बच्चों के लिए क्या उचित है, उसकी यथासमय व्यवस्था करती है।

इसके उपरान्त रात्रि को ही गुफा दर्शन करते हैं। लाइन में लगते हैं। दर्शन अलौकिक अनुभव रहा। माता का द्वार स्वप्नलोक जैसा लग रहा था। पहाडी की गोद में सुरंग से प्रवेश करते हुए गुफा में स्थित तीन पिंडियों के रुप में माता रानी के विग्रह के दर्शन करते हैं। बापिसी में जलधार के अमृत तुल्य जल का पान करते हैं, जिसके साथ प्यास मिटती है और गहरी तृप्ति का अहसास होता है।

नीचे उतर कर पास की कैंटीन में रात का भोजन करते हैं और फिर अपने हॉल में विश्राम करते हैं। इसके आगे लिए पढ़ें - यादगार सवकों से भरा सफर बापिसी का

रविवार, 31 दिसंबर 2023

जब आया बुलावा माता वैष्णों देवी का, भाग-1


स्वर्णमंदिर से होकर भगवती माँ के द्वार तक

लम्बे समय के बाद चिरप्रतिशित शैक्षणिक भ्रमण का संयोग बन रहा था। ऐसे लग रहा था कि जैसे माता का बुलावा आखिर आ ही गया। क्योंकि दो-तीन वार पहले पूरी योजना के वावजूद यहाँ नहीं जा पाए थे। इस बार भी एक तिथि निर्धारित होने के बावजूद एक बार फिर स्थगित करना पड़ा, क्योंकि किसान आंदोलन के कारण इन तिथियों में पंजाब बंद का ऐलान हुआ और बस तथा रेल यातायात बाधित हो गए थे।

आखिर जैसे हमारे पुण्य उदय हो गए थे और रास्ता खुल गया। रात को शिक्षक और विद्यार्थियों का पूरा दल हरिद्वार से वैष्णुदेवी एक्सप्रैस में चढता है, पहला पड़ाव स्वर्णमंदिर अमृतसर था। यहां पर माथा टेकने और तन-मन से शुद्ध होकर माता के दरवार की यात्रा से बेहतर क्या हो सकता था। हरिद्वार से अमृतसर का रात का सफर सोते-सोते बीत गया। प्रातः अमृतसर पहुँचते हैं।


अमृतसर के ऐतिहासिक रेल्वे स्टेशन के बाहर से स्वर्णमंदिर के लिए बस में बैठते हैं, जो गुरुद्वारे के बाहर कुछ दूरी पर छोड़ती है। परिसर की ओर पैदल मार्ग की भव्यता देखते ही बन रही थी। पहले तंग गलियों से होकर गुजरना पड़ता था, लगा हाल ही में इस मार्ग का पुनर्निमाण हुआ है। गुरुद्वारे के बाहर स्नानगृह में यात्रियों के फ्रेश होने की उम्दा व्यवस्था है, जहाँ सभी तरोताजा होकर क्लॉक रुप में सामान जमा करते हैं और फिर मंदिर में दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं।  

स्वर्ण मंदिर के दिव्य दर्शन

मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही पावन सरोवर और स्वर्ण मंदिर की पहली झलक के साथ दिव्य भावों की झंकार होती है। पावन सरोवर में आचमन के साथ तन-मन व अन्तःकरण की शुद्धि करते हुए, तीर्थ चेतना का भाव सुमरण करते हुए आगे बढ़ते है। हाथ जोड़े श्रद्धालुओं की अनुशासित भीड़, वातावरण में शब्द-कीर्तन की मधुर संगीतमय ध्वनि दर्शनार्थियों को रुहानी भाव के सागर में गोते लगाने के लिए प्रेरित करती है। भाव समाधि की इस अवस्था की अनुभूति वर्णनातीत है। इसे तो वस अनुभव किया जा सकता है, जिया जा सकता है।

परिक्रमा एवं भाव सुमरण के बाद यहाँ के यादगार पलों को केप्चर करने के लिए सेल्फी एवं फोटो का क्रम चलता है। हम इससे निवृत होकर परिक्रमा पथ के एक कौने में बैठ ध्यान सुमरण में मग्न होते हैं। किसी दर्शनार्थी का सर कहकर संबोधन हमें चौंकाता है, कोई हमारी कुशल-क्षेम पूछता प्रतीत होता है। ये सज्जन शिमला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र सिमरनजीत सिंह निकले, जिनसे मिलकर अतीव प्रसन्नता हुई। वो सपरिवार यहाँ दर्शन के लिए आए थे। किन्हीं पलों में हुई प्रगाढ मुलाकातें कैसे समय के धुंधलके में ढकी होने के वावजूद आज तरोताजा हो रहीं थी। इसके बाद पूरा दल एकत्र होकर लंगर छकता है, जहां का अनुशासन, भक्ति और सेवा का भाव सदा ही आह्लादित करता है।

जलियाँवाला बाग दर्शन

इसके बाद गुरुद्वारा के बाहर जलियाँबाला बाग का दर्शन करते हैं, जो यहाँ से मुश्किल से 200 मीटर दूर होगा। अंग्रेजी जनरल डायर की क्रूरता की कहानियाँ यहाँ दिवारों में गोली को निशांनों से लेकर कुँए में देखी जा सकती है, जिसमें भीड़ जान बचाने के लिए कूद पड़ी थी। इतिहास के इस काले अध्याय को स्मरण कर ह्दय व्यथित रहोता है, आक्रोश जगाता है। और स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वजों के त्याग-बलिदान और खूनी संघर्ष की याद दिलाता है। जिस स्वतंत्रता की हवा में आज हम सांस ले रहे हैं, यह किस कीमत पर हमें मिली है। काश, हम इसकी कीमत को याद रखते।

अमृतसर से बाघा बोर्डर की ओर -

अमृतसर की ही छात्रा से पूछने पर कि अमृतसर की खास डिश क्या है, तो जबाव लस्सी मिला। यहीं की गलियों में एक लस्सी की दुकान पर, इसका आनन्द लिया और फिर अगले पड़ाव बाघा बोर्डर की ओऱ ऑटो टैक्सी में चल दिए। ऑटो टैक्सी स्टैंड पर छोड़ दिया और हम पैदल 2 किमी चलते हैं। रास्ते में मूँछों वाले फौजी भाई के साथ एक यादगार फोटो लेते हैं। और अंत में बोर्डर पर बने स्टेडियम नुमा भवन में अंदर प्रवेश करते हैं, जहाँ आमने-सामने भारी भीड़ थी और बोर्डर के दूसरी ओर पाकिस्तान की जनता व सैनिक मौजूद थे।

इस ओर तथा उस ओर भीड़ ही भीड़ थी, लेकिन फौजियों के ड्रिल व देशभक्ति के गीतों के साथ झूमती भीड़ का दृश्य एक अलग ही दृश्य था, जिसे हम जीवन में पहली बार अनुभव कर रहे थे। जोशिले नारों के बीच जनता का जोश देखते ही बन रहा था। बीच गलियारे में देश भक्ति के गीतों पर कन्याओं व महिलाओं को झिरकने व झूमने का विशेष आमंत्रण मिल रहा था। देश भक्ति के गीतों के संग इनकी सामूहिक थिरकन समां बांध रही थी। फिर बीएसएफ की स्पेशल पलटन के स्त्री व पुरुष फौजियों का एक-एक कर ड्रिल होता है। इनके शौर्य, पराक्रम, अनुशासन व जीवट की झलक इनकी पैरेड व ड्रिल में स्पष्ट थी, जिसका संचार सीधे दर्शकों के अंतःकरण में हो रहा था। इसी के साथ भारत-पाकिस्तान सीमा पर झंडों का अवरोहण होता है। पाकिस्तान की ओर सैनिकों व जनता की भीड़ कम ही थी। पलड़ा इधर भारी दिख रहा था।

बापिसी में ग्रुप फोटो के साथ सेल्फी लेते हैं। आकर्षण रहता है गगनचुंबी तिरंगे और अशोक स्तम्भ का। ऑटो से पुनः स्वर्णमंदिर के बाहर उतरते हैं, लंगर छकते हैं और स्वर्ण मंदिर को प्रणाम कर बुक की गई बस से कटरा के लिए प्रस्थान करते हैं।

अमृतसर से कटरा की बस यात्रा

अमृतसर से हम रात को 10 बजे बस में चल पड़े। यह एक ऐसी बस में यात्रा का पहला अनुभव था, जिसमें कोई सीट नहीं थी। ऊपर-नीचे, आगे-पीछे केविन बने थे, जिसमें नीचे गद्दे बिछे थे अर्थात पालथी मारकर या लेटकर सफर की व्यवस्था थी। कुल मिलाकर रात के हिसाब से सोने के लिए माकूल व्यवस्था थी। हर केबिन में दो लोग रुक सकते थे। हम भी सोते हुए सफर पूरा किए। नई रुट पर सफर के रोमाँच के चलते नींद नहीं आ रही थी, बाहर पर्दे से झांककर देखते रहते कि कहाँ से गुजर रहे हैं। रास्ते में पठानकोट, जम्मु जैसे स्टेशन आने हैं, इसका अनुमान था, पहली बार यहाँ से गुजरते हुए, इनको एक नजर देखने की उत्सुक्तता थी।

इसी बीच बस रास्ते में 15-20 मिनट रुकी। अधिकाँश सवारियाँ घोड़े बेचकर सो रही थी। हमारे सहित कुछ एक लोग ही बाहर निकले, फ्रेश हुए व चाय की चुस्की के साथ तरोताजा हुए। आगे रास्ते में कुछ-कुछ पहाड़ दिखने शुरु हो गए थे। बीच में नींद का गहरा झौंका आ गया और जब नींद खुली तो स्वयं को जम्मु से गुजरते पाया। बाहर सुंदर नक्काशी, हरी-भरी लताओं से सज्जा बस स्टेशन तथा रोशनी की जगमगाहट के बीच बस को गुजरते पाया। फिर नींद का झौंका आया और जब आँख खुली तो बाहर ऊंचे-ऊँचे पहाड़ों की गोद में बस को झूमते पाया। पहाड़ों के शिखर व गोदी में टिमटिमाटी रोशनियाँ, बलखाते मोड़, दूर रोशनियों से जगमाते गाँव व कस्वे मंजिल के करीब पहुंचने का गाढ़ा अहासस दिला रहे थे।

रास्ते में ही भौर हो चुकी है, हमारी बस का गन्तव्य कटरा आने वाला था। लो ठीक छः बजे हमारी बस स्टेशन पर खड़ी हो गई। 

बाहर निकलते ही चारों ओर गगनचुम्बी पहाड़, इनमें माता वैष्णुदेवी की ओर बढते राह का दृश्य हमें रोमाँचित कर रहा था, जिसे आज कुछ घंटों बाद हमें तय करना था। पहाड़ों को काटकर बनाए गई सड़कें, टीनशैड़ से ढ़के मार्ग, बीच में मुख्य पड़ावों के दिग्दर्शन। इस रुट पर पहली तीर्थ यात्रा कर चुके विभाग के युवा शोधार्थी एवं शिक्षक रजत हमें दूर से ही मार्ग के पड़ावों का विहंगावलोकन करबा रहे थे।

बस स्टैंड से समान उतरता है, मौसम में ठंड का अहसास हो रहा था, जो हरिद्वार से अधिक कड़क था। सभी लोगों के गर्म कपड़ों की उचित व्यवस्था थी, सो कोई परेशानी की बात नहीं थी। सभी एक भिन्न परिवेश में, एक नए देश में स्वयं को पाकर रोमाँचित थे। आगे की यात्रा के लिए तैयार थे। किसी होटल या धर्मशाला में फ्रेश होने से लेकर सामान रखना था, ताकि फ्रेश होकर आवश्यक सामान के साथ आगे की यात्रा पर कूच किया जा सके। बस स्टैंड के पास ही एक होटल की व्यवस्था हो जाती है, सभी फ्रेश होते हैं, कुछ विश्राम करते हैं और फिर बाहर एक ढावे में नाश्ता कर माता बैष्णुदेवी के धाम की ओर चल पड़ते हैं।

होटल से ही एक बैन में बारी-बारी 8-10 लोगों की टुकड़ियों में हम कटरा के बाजार को पार करते हुए बैरी के पेड़ के पास उतरते हैं। ग्रुप फोटो खेंच, माता के जयकारे के साथ आगे बढ़ते हैं। यहाँ से मुख्य द्वार 3 किमी के लगभग था। रास्ते में ही एक बुढ़ी अम्मा से 20 रुपए में एक लाठी खरीदते हैं, जिसका पहाड़ी सफर में विशेष सहारा व योगदान रहता है। सभी लोग मुख्य द्वार में इकटठे हो जाते हैं। ऑनलाइन बुकिंग के कारण सभी निश्चिंत थे कि यहाँ से अब सीधे आगे की यात्रा करेंगे। लेकिन पता चला कि ऑनलाइन बुकिंग स्वीकार्य नहीं है, पिछले महीनों विवाद व तोड़फोड़ के कारण इस व्यवस्था को निरस्त किया गया था। कटरा में बस स्टैंड के आसपास दो स्थानों पर ऑफलाइन बुकिंग की व्यवस्था है। लगा अभी माता रानी परीक्षा ले रही हैं, पूरा दल बापिस 3 किमी आटो में बैठकर बुकिंग स्थल पर पहुँचता है, लाइन में लगकर टिकट लेता है औऱ फिर मुख्य द्वार पर पहुँचता है। और माता के जयकारे के साथ उत्साह से लबरेज मंजिल की ओर आगे बढ़ता है। 

आगे की यात्रा के लिए पढ़ें - बाणगंगा से माता वैष्णों देवी तक का सफर, भाग-2

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रविवार, 27 अक्तूबर 2019

यात्रा वृतांत – पराशर झील, मण्डी,हि.प्र. की हमारी पहली यात्रा, भाग-3


धुंध के बीच लुकाछिपी करती पराशर झील 


पिछली पोस्ट में हम पराशर झील के किनारे मंदिर परिसर तक पहुँच चुके थे, लेकिन पूरी यात्रा घनी धुंध के बीच रही। लेकिन अब धुंध थोड़ा सा छंट रही थी। झील का किनारा दिख रहा था और इसमें तैरता टापू भी। झील के चारों ओर तार का बाढ़ा लगा हुआ था, जिसके अंदर प्रवेश करना मना है। बाढ़े के पास बुर्ज के साथ अलग-अलग रंग के झंड़े लगे हैं, जो यात्रियों को धुंध में परिक्रमा पथ का दिशा बोध कराते हैं। मंदिर की ओर सटी झील में छोटी मछलियों की अठखेलियाँ स्पष्ट दिख रही थी।


हम जुता स्टैंड में जुता उतारकर परिसर की एक दुकान से प्रसाद लेते हैं व मंदिर में प्रवेश करते हैं। ऋषि पराशर की प्रतिमा के सामने माथा टेककर पूजारीजी से प्रसाद लेकर प्राँगण के मध्यम में बने स्थान पर धूप-अग्रबती जलाते हैं और कुछ पल ध्यान के बाद फिर कुछ पारिवारिक फोटो लेते हैं और इसके बाद पूजारीजी से बात करते हैं। तीर्थ स्थल से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ बटोरते हैं व कुछ शंकाओं का समाधान करते हैं।
पूजारीजी के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण तो लगभग 500 साल पहले एक छः माह के बालक ने एक ही पेड़ से किया था। हालाँकि झील का निर्माण पाण्डवों में महाबली भीम ने किया था, अपनी कोहनी से पहाड़ में गडढा को बनाकर। इसी झील के किनारे ऋषि पराशर ने घोर तप किया था, जिसके कारण यहाँ का नाम पराशर झील पड़ा।


मालूम हो कि ऋषि पराशर ऋषि वशिष्ठ के पौत्र माने जाते हैं व महर्षि व्यास के पिता। इस तरह पाण्डव इनकी दो पीढ़ी बाद के वंशज हैं। फिर ऋषि पराशर ने यहाँ तप कब व कैसे किया। प्रश्न के समाधान में हमें लगा कि द्वापर युग में व्यक्ति की आयु सैंकड़ों-हजारों वर्ष होती थी। ऐसे में हो सकता है कि पराशर ऋषि में अपने जीवन के उत्तरार्ध में यहाँ तप किया हो। दूसरा ऋषि पराशर के तप की चर्चा यमुना नदि के तट पर भी आती है, यहाँ तक कि दक्षिण भारत में उनका वर्णन आता है। फिर कुल्लू घाटी में ही महर्षि व्यास एवं वशिष्ट के विशिष्ट मंदिर व तपःस्थलियाँ क्रमशः व्यासकुण्ड एवं वशिष्ठ गाँव में प्रचलित हैं। मानाली में हडिम्बा मंदिर एवं घटोत्कच का वर्णन आता है। पाण्डवों से जुड़े तमाम स्थल यथा - पाण्डु रोपा, पाण्डु चूली, अर्जुन गुफा आदि स्थान यहाँ प्रचलित हैं।
मंदिर जहाँ पैगोड़ा शैली में बना है, जिसकी दो मंजिलें हैं, वहीं मंदिर परिसर में पहाड़ी शैली में लकड़ी के बने सुंदर भवन यू आकार में शोभायमान हैं। सफाई की यहाँ विशेष व्यवस्था दिखी। पुजारीजी के अनुसार यहाँ कमरे आसानी से सस्ते दामों में मिल जाते हैं, हालाँकि भीड़ रहने पर समय पर बुकिंग करनी पड़ती है।

यहाँ दर्शन के बाद हम झील की परिक्रमा करने के लिए बाहर निलकते हैं। बाहर धुंध पूरी तरह छंट चुकी थी। पूरी झील का एकदम स्पष्ट विहंगम दृश्य देखने लायक था। हम इसके चारों ओर मखमली घास पर बने परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ रहे थे। इस समय यहां परिक्रमा पथ की ढलान पर लम्बी घास के साथ जैसे फूलों के गलीचे बिछे थे। 

मुश्किल से पाँच मिनट में ही पहाड़ की चोटी से बादल उमड़ना शुरु हो गए थे। अगले पाँच मिनट में पूरी झील इसके आगोश में आ चुकी थी। हम पुनः धुंध के बीच गुजर रहे थे, इसकी जलकणों को हम अनुभव कर रहे थे। जैसे हल्का सा अभिसिंचन शुरु हो चुका था, जिसे हम शुभ संकेत मान रहे थे। तैरता हुआ टापू हमारे सामने था, धुँध के बीच हम इसको नजदीक से देख पा रहे थे।


पूजारी जी के अनुसार इस छोर पर यह टापू पिछले तीन माह से टिका है। झील का 10 फीसदी यह भूभाग झील में एक छोर से दूसरे छोर तक तैरता रहता है। हालांकि यह गति धीमी होती है, लेकिन पूजारीजी एक ही दिन में इसको ईधर-उधर चलता देख चुके हैं।

अगले पाँच मिनट में बारिश कुछ तेज हो गयी थी। झील व घाटी पूरी तरह से धुँध में ढक चुकी थी। हम हल्का भीगते हुए पुनः मंदिर परिसर तक पहुँचते हैं, व इसके एक कौने में शरण लेते हैं। अब तो बारिश और तेज हो गयी थी, अगले 10-15 मिनट तक बरसने के बाद बारिश थमी व इसके साथ धुँध भी। 


इसके साथ ही हम बापिस अपने वाहन की ओर चल पड़ते हैं। ऊपर टीले तक हम धीरे-धीरे पक्की सड़क के साथ चलते रहे और झील व मंदिर का नजारा भी कैप्चर करते रहे। अब बादलों के झुंड नीचली पहाडियों से होकर आ रहे थे। मंदिर परिसर पुनः इसके आगोश में आ चुका था व झील को ढकते हुए घाटी के पार हमको छुता हुआ पहाड़ी के पार जा चुका था। जिस धुँध के बीच हम मंदिर घाटी में प्रवेश किए थे, बिल्कुल बैसी ही धुंध के बीच हम इसके बाहर निकल रहे थे।

पिछले आधे-पौन घंटे में हम हर तरह का नजारा परिसर झील व मंदिर के चारों ओर देख चुके थे। ऋषि परिशर की तपःस्थली का प्रताप हमारे जैसे जिज्ञासु के लिए प्रत्यक्ष था व हमारी आस्था इस तीर्थस्थल की दैवीय शक्ति के प्रति प्रगाढ़ हो चुकी थी, जहाँ प्रकृति ने कुछ ही पलों में हमें इसके सारे रंग दिखाकर सुरक्षित यात्रा को पूरा कर दिया था।



पहाड़ी के टॉप से हम मोटर मार्ग तक फिर पक्की पगडंडी के सहारे आ रहे थे, सड़क लगभग सीधी, हल्की उतराई लिए हुए धुंध से ढकी थी। अपनी गाड़ी के पास पहुँचकर हम अपना चाय-नाश्ता करते हैं। वुग्याल में चादर बिछाकर नाश्ता करने, लेटने, विश्राम व ध्यान के मंसूबे हमारे आज अधूरे रह गए थे। बाहर हल्का अभिसिंचन जारी था। नाश्ता करने के बाद हम बापिस गन्तव्य की ओर कूच करते हैं।
पुनः वुग्याल के बीच होकर नीचे ट्रीलाईन में प्रवेश करते हैं।

बीच में गुज्जरों की छानकियों (कच्चे घर) के दर्शन हुए, जिसकी छत्त को मिट्टी व देवदार के पत्तों से ढककर बनाया जाता है। भैंसों की चरते हुए पाया। रास्ते भर डायवर्जन प्वाइंट शेगली का साइनबोर्ड हर किमी पर मिला, जो यहाँ से 23 किमी था। इस तरह क्रमशः संख्या कम होती गयी व हम नीचे बागी से होकर मुख्यमार्ग में पहुंच चुके थे। वहाँ से दायीं ओर मुड़कर बजौरा-कुल्लू मार्ग की ओर चल देते हैं।


अब यात्रा चढाईदार थी, अगले आधे घंटे पहाड़ी टॉप कांडी तक के थे। घने देवदार-बुराँस के जंगले के बीच यहाँ पहुँचे, फिर अगली उतराई क्रमशः ऐसी ही राह पर अगले आधे घंटे की रही, जब तक कि हम बजौरा नहीं पहुँचते। अगले पौन घंटे में हम घर पहुँच चुके थे। 


इस सफर का एक सबक रहा कि, इस सीजन में यात्रा के दौरान एक छत्ता या वाटरप्रूफ विंडचीटर अवश्य रखें, जो बरसात के असर के खलल को कम करेगा। अपने थर्मस में चाय-काफी या होट-ड्रिंक की व्यवस्था अति उत्तम रहती है। यदि घर का ही नाश्ता पानी हो तो इससे बेहतर कुछ भी नहीं। बाकि हमारे अनुभव में पराशर झील एक प्रत्यक्ष तीर्थ है, आप जिस भी भाव से जाएंगे, उसका प्रत्युत्तर अवश्य मिलेगा।
 
यदि इस यात्रा के पिछले भाग न पढ़े हों, तो नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं - 
 


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