दुनियां को हिलाने जो मैं चला

सार्थक परिवर्तन का सच जवानी के जोश में होश कहाँ रहता है। सो इस जोश में दुनियाँ को बदलने , समाज में क्राँति-महाक्राँति की बातें बहुत भाती हैं। और वह जवानी भी क्या जो एक बार ऐसी धुन में न थिरकी हो , ऐसी रौ में न बही हो। हम भी इसके अपवाद नहीं रहे। स्वामी विवेकानंद के शिकागो धर्मसभा के भाषण का संस्मरण क्या पढ़ा कि , अंदर बिजली कौंध गई , लगा कि हम भी कुछ ऐसी ही क्राँति कर देंगे। दुनियाँ को हिला कर रख देंगे। आदर्शवाद तो जेहन में नैसर्ग से ही कूट कर भरा हुआ था , दुनियाँ को बेहतर देखने का भाव भी प्रबल था। लेकिन अपने यथार्थ से अधिक परिचति नहीं थे। सो चल पड़े जग को हिलाने , दुनियाँ को बदलने। घर परिवार , नौकरी छोड़ भर्ती हो गए युग परिवर्तन की सृजन सेना में। धीरे-2 गुरुजनों , जीवन के मर्मज्ञ सत्पुरुषों के सतसंग , स्वाध्याय व आत्म मंथन के साथ स्पष्ट हो चला की क्रांति , परिवर्तन , दुनियाँ को हिलाने का मतलब क्या है। इसके साथ दुनियाँ को हिलाने की बजाए खुद को हिलाने वाले अनगिन अनुभवों से भी रुबरु होते रहे। समझ में आया कि , दुनियाँ को हिलाने से पहले खुद को हिलाना पड़ता है ,