शनिवार, 30 नवंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-5

 

मुखबा गाँव के दर्शन और घर बापिसी

रोज रात को और सुबह होटल की वाल्कनी से भगीरथी नदी के पार मुखबा गाँव  की टिमटिमाती रोशनी ध्यान आकर्षित करती रही। अपने गृह प्रदेश में ठीक कुछ ऐसा ही दृश्य घर के सामने गाँव पेश करता। बैसे ही गगनचूम्बी पर्वतों की गोद में बसे यह गाँव दिखता। लेकिन शैक्षणिक भ्रमण के व्यस्त कार्य़क्रम के चलते मुखबा गाँव छूटता दिख रहा था, लगा कि अगली बार ही यहाँ के दर्शन संभव होंगे।

टूर के अंतिम दिन प्रातः 6 बजे हरिद्वार के लिए कूच करना था, सो पिछली रात को नौ बजे ही निद्रा देवी की गोद में सो गए थे और प्रातः स्नान-ध्यान के पश्चात पौने छः बजे ही नीचे बस की ओर निकल देते हैं। लेकिन दल के सदस्यों की तैयारी देखकर लगा कि आधा-पौन घंटा अभी इनको तैयार होने में लगेगा, तब तक हम कल्प-केदार मंदिर के समीप स्थित तपोवनी माता की तपःस्थली के दर्शन कर आते हैं। यह मंदिर तो हमें नहीं मिला, लेकिन भटकते-भटकते 10 मिनट में नीचे भगीरथी पुल तक पहुँच गए।

राह में सेब से लदे बगीचों के सुंदर नजारों को यथासंभव मोबाईल में कैप्चर करते रहे और पुल से भगीरथी का दृश्य देखते ही बन रहा था। इसको पार कर एक स्थान पर आसन जमाकर धराली साइड के दृश्य का अवलोकन करते हैं। यहाँ से सामने गाँव, पहाड़ और पीछे हिमशिखर का दृश्य देखते ही बन रहा था और उत्तर की ओर मार्कण्डेय ऋषि का मंदिर, भगीरथी नदी का विस्तार, देवदार के जंगल और पीछे गंगोत्री साइड की चोटियाँ – ध्यान के लिए एक आदर्श लोकेशन प्रतीत हो रही थी। कुछ मिनट सड़क किनारे चबूतरे पर यहाँ पालथी मार कर इसी दृश्य में खोए रहे।

स्थानीय लोगों से पता चला कि यहाँ से मुखबा मंदिर महज 1 किमी सीधी चढ़ाई के बाद पड़ता है, सो दल के शेष सदस्यों को फोन से बुलाकर वहाँ दर्शन की योजना बनती है। लगा कि दो दिन से चल रही ह्दय की उहापोह और गंगा मैया की कृपा के चलते संयोग घटित हो रहा था और जैसे बुलावा आ गया है।

कुछ ही मिनट में दल यहाँ पहुंचता है और मुख्य द्वार से प्रवेश करते हुए खेत-बगीचों के बीच ऊपर चढ़ते हैं। रास्ते में नए दर्शकों को राजमाँ, बागुकोशा, खुमानी, गोल्डन व रॉयल एप्पल, अखरोट आदि के वृक्षों, फलों व खेती से परिचय करवाते हैं। साथ ही जंगली पालक, बिच्छु बूटी व अन्य स्थानीय जंगली जड़ी बूटियों की भी जानकारी देते हैं।

आधे-पौन घंटे में हम सीधी चढ़ाई पार करते हुए ऊपर मोटर मार्ग तक पहुँच गए थे, जहाँ से बाईं ओर आगे का रास्ता हर्षिल की ओर जा रहा था। हम यहाँ से दाईं ओर ऊपर चढ़ते हैं और सौ मीटर ऊपर मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैं।

मुखबा के मंदिर को मुखीमठ बोलते हैं, जो गंगाजी का शीतकालीन आवास है, जहाँ नबम्वर से अप्रैल तक छः माह इनका वास रहता है औऱ फिर गंगोत्री धाम के कपाट खुलने पर इनका प्रस्थान होता है और गंगोत्री में विधिवत पूजा शुरु होती है।

इस शांत एकांत गाँव में स्थित मंदिर का स्थापत्य देखते ही बनता है। लकड़ी के मंदिर में बहुत सुंदर नक्काशी हुई है। संयोग से पुरोहित जी मंदिर में हाजिर होते हैं, इसके बाद ये मार्कण्डेय ऋषि के मंदिर में प्रस्थान करने वाले थे। लगा हमारी टाइमिंग गंगा मैया ने निर्धारित कर रखी थी। विधिवत पूजन के बाद पंडित जी से यहाँ का संक्षिप्त व सारगर्भित परिचय प्राप्त होता है।

दर्शन के बाद मंदिर प्रांगण में सामूहिक फोटोग्राफी होती है। मंदिर के ठीक सामने दूसरी पहाड़ी से झांकते हिमाच्छादित श्रीखण्ड शिखर के दर्शन देखते ही बन रहे थे। नीचे उतरते हुए सामने धराली साइड के दर्शन करते रहे। उगते हुए सूरज की रोशनी में घाटी जगमगा रही थी। बापिसी में पेड़ से गिरे सेब, बागूकोश आदि फलों को प्रसाद रुप में एकत्र करते हैं। और आधे घंटे में धराली पहुँचते हैं।

समूह का एक दल जो छूट गया था, उसे भी दर्शन के लिए भेजते हैं। और धराली में बाजिव दाम पर यहाँ से सेब खरीदते हैं। यहाँ की एक दुकान में परांठा चाय का नाश्ता होता है। कस्बा कहें या गाँव, धरारी मार्केट का शांत माहौल भीड-भाड से भरे हिल स्टेशन के अशांत वातावरण के एकदम विपरीत शांति-सुकून भरा लग रहा था, यहाँ का जीवन ठहरा हुआ सा दिखा। जीवन जैसे प्रकृति की गति से धीरे-धीरे अनन्त धैर्य के साथ प्रवाहमान है।

इसी बीच समय निकाल कर हम यहाँ माँ सुभद्रा (तपावनी माता) की तपःस्थली के भी दर्शन किए, जो कल्प-केदार होटल के एकदम पास में निकला, जिसकी खोज में सुबह हम भगीरथी नदी तक पहुँच गए थे। यहाँ उनके शिष्य बाबा कालू से मुलाकात हुई, इस तपःस्थली के बारे में अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया। कालू बाबाजी इस समय मंदिर की देखभाल कर रहे हैं और नैष्ठिक तीर्थयात्रियों के लिए अखण्ड भण्डारे व ठहरने की व्यवस्था देखते हैं।

अब तक पूरा दल बस में बैठ चुका था। और हमारी बापिसी का सफर आगे बढ़ता है। रास्ते में हर्षिल के दर्शन होते हैं, बगोरी गाँव को दूर से विदा करते हैं। और रास्ते में जो रुट तीन दिन पहले आते समय अंधेरे में कवर किए थे, उसे दिन के उजाले में देखने की तमन्ना पूरी होती है। इसी क्रम में झाला से लेकर सुक्खु टॉप तक पहुँचते हैं।

रास्ते भर सड़क के दोनों ओऱ सेब से लदे बगान, देवदार के जंगल, छोटे-छोटे कस्बे, होटल, होम-स्टे और सेब की पैकिंग के दृश्य। पहले ऊपर चढाई, फिर सीधे आगे दो-तीन किमी लम्बा मार्ग औऱ फिर सुक्खु टॉप से नीचे की जिगजैग उतराई। रास्ते भर छोड़े बड़े झरने व नालों के दर्शन होते रहे। उस पार बर्फ से ढके पहाड़ों से नीचे दनदनाते नाले भी दर्शनीय रहे। जिनको देखकर सहज ही परमपूज्य गुरुदेव की पुस्तक सुनसान के सहचर पुस्तक के संस्मरण याद आ रहे थे।

सुक्खु टॉप से नीचे घाटी में पहुँचने पर वायीं ओर गर्जन-तर्जन करती रौद्र रुप लिए भगीरथी के संग आगे बढ़ते हैं तथा पुल पार कर लेफ्ट बैंक में गंगनानी के दर्शन और राइट बैंक में भटवारी, गंगोरी और फिर वाईपास से होते हुए उत्तरकाशी पहुँचते हैं। रास्ते में दिन के ऊजाले में उत्तरकाशी शहर के दर्शन होते हैं और भूस्खलन के कारण समाचार में अक्सर सुर्खी बनते वर्णावत पर्वत को भी देखते हैं। यहाँ एक मैदान में भोजन के लिए गाड़ी रुकती है।

पहले हम पास ही स्थिति भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते हैं। इसके भव्य परिसर में दिव्य दर्शन का लाभ लेकर इससे जुड़े इतिहास, पौराणिक मान्यताओं एवं भविष्य कथन को पढ़कर अविभूत होते हैं, हालाँकि आज का दर्शन परिचयात्मक भर था। अगली बार अधिक समय लेकर उत्तरकाशी को एक्सप्लोअर करेंगे, ऐसा भाव प्रवल हो रहा था।

पेट पूजा कर पूरा दल बस में चढ़ता है और कमान्द से होकर चम्बा से पहले उस ठिकाने पर रुकता है, जहाँ जाते समय हम लोग रुके थे। यहाँ चाय-नाश्ता कर रोचार्ज होते हैं और किबी के पैकेट खरीदते हैं।

बापिसी में चम्बा पार करते-करते अंधेरा हो चुका था और आल बेदर रोड़ के संग सरपट दौड़ती हुई गाड़ी आगराखाल को पार करते हुए नरेंद्रनगर और फिर ऋषिकेश पहुँचती है तथा अगले आधा घंटे में 9 बजे तक देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रांगण में पहुंचते हैं।

इस तरह गंगा मैया की कृपा से तीन दिन में सम्पन्न गंगोत्री धाम की यह सकुशल यात्रा एक अमिट छाप छोड़ जाती है, जिसमें कई प्रश्नों के उत्तर मिले, कई जिज्ञासाओं को शाँत किया और जिज्ञासाओं की कुछ नई कौंपलें भी फूंटी, जो अगली यात्राओं के लिए प्रेरक ईँधन का काम करती रहेंगी।


मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-4

 

उत्तराखण्ड का स्विटजरलैंड हर्षिल और बगोरी गाँव

गंगोत्री धाम से आने के बाद हम सभी कल्प-केदार होटल में विश्राम करते हैं और फ्रेश होकर दोपहर बाद हर्षिल के लिए निकल पड़ते हैं। इस रास्ते में झरने व नाले बहुतायत में मिले। कारण पीछे चोटियों में ग्लेशियर की मौजूदगी, जो पिघल कर इस क्षेत्र को जलराशि की प्रचुरता का वरदान दे जाती हैं। इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य में इनका अपना महत्व है और सेब की उत्कृष्ट फसल का भी यह एक कारण है।

दो-तीन किमी बाद बस मुख्य मार्ग से दायीं ओर मुडती है, एक बड़ा सा सुसज्जित प्रवेश द्वार आपका स्वागत करता है। लगा कि हम कुछ दूर तक किसी मिलिट्री क्षेत्र से गुजर रहे हैं। इसके बाद भगीरथी नदी पर बने एक पुल को पार कर हम हर्षिल कस्बे में प्रवेश करते हैं, जो 9006 फीट (2745 मीटर) ऊँचाई पर बसा हिल स्टेशन है। हर्षिल मार्केट में पर्यटकों की वहुतायत के चलते ट्रैफिक से गाडी को निकालने में थोड़ा समय लगा।

यहाँ के छोटे-छोटे पहाड़ी घर व होटल यहाँ की पहचान करवा रहे थे। मार्केट की अगली साइड पार्किंग में गाड़ी को खड़ा कह हम पैदल चलते हैं। मोड के बाद एक पुलिया पर चढ़ते हैं। दायीं ओर से एक सड़क मुखबा गाँव (गंगा मैया का शीतकालीन आवास) की ओर जा रही थी। ऊपर पुल पर तेज हवा वह रही थी। पहाड़ी नाला कहें या छोटी नदी में जल बहुत तेज गति से बह रहा था। पुल पर फोटोशूट करने वालों का तांता लगा हुआ था, हर कोई गगनचूंबी देवदार, संग बह रहे झरनों व पहाड़ों की पृष्ठभूमि के सुंदर दश्य को कैप्चर करना चाह रहा था। मालूम पड़ा कि राम तेरी गंगा मैली फिल्म की शूटिंग यहीं की लोकेशन्ज में हुई थी।

इस पुल से आगे दायीं ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ के साथ हम आगे बढ़ रहे थे। कुछ दुकानें, कुछ होटल व बगीचे पार करते हुए रास्ते में वाइं ओर लक्ष्मी नारायण मंदिर का बोर्ड मिला, जिसे हम बापिसी के लिए छोड़ देते हैं। रास्ते में ही दायीं और एक मैदान में बिल्सन की कोठी मिली, जिसे अब एक होटल में कन्वर्ट किया गया है। माना जाता है कि हर्षिल को हिल स्टेशन का रुप देने में इन ब्रिटिश सैन्य अधिकारी का विशेष योगदान रहा है। कुछ इन्हें नायक तो कुछ खलनायक का दर्जा देते हैं।

थोड़ी देर बाद दुबारा एक पुल आता है, जिसके नीचे से बहुत तीव्र वेग से एक नदी का निर्मल जल बह रहा था, लगा पीछे किसी घाटी से यह नदी आ रही है। यहाँ पर भी पुल के ऊपर लोगों को फोटोशूट में मश्गूल देखा। हमारे दल के युवा फनकार भी इसमें शामिल हो जाते हैं। यहाँ से पार होते ही हम थोड़ी ढलान के साथ नीचे उतर रहे थे। नीचे खुली घाटी से तेज हवा जैसे हमारी गति को थाम रही थी।

और एक बड़े गेट के साथ बगोरी गाँव में प्रवेश होता है, जिसमें यहाँ का संक्षिप्त परिचय, इतिहास व विशेषताएं लिखी थीं। प्रवेश करते ही दाइँ ओर इनके कुलदेवी-देवता के मंदिर दिखे। और आगे सड़क के दोनों ओर घर में ही दुकानें सजी दिखीं। कुछ ने घरों को होम स्टे के रुप में सुसज्जित कर रखा था औऱ कुछ ने होटल के रुप में।

घर आँगन रंग-बिरंगे फूलों से सज्जे थे। छोटे-छोटे लकड़ी के पारम्परिक घर बहुतायत में दिखे, कुछ एक ही सीमेंट लेंटर के दिखे। घर के बाहर काली व सफेद ऊन को सुखाते देखा। कुछ बुजुर्ग इनको कात रहे थे, तो कुछ इन से बुनाई कर रहे थे। इनकी दुकानों पर इनसे तैयार स्वाटर, टोपे, मफलर, जुराबें, गलब्ज आदि बिक्री के लिए रखे गए थे। अधिकाँश पुरुष व महिलाएं इन उत्पादों को तैयार करने में व्यस्त दिखे।

कुल मिलाकर गाँव के मेहनतकश लोगों को स्वरोजगार के संसाधनों को तैयार करते देखा। जो हर ठंडे इलाके के लोगों की फितरत रहती है। ठंड में एक तो यह सक्रियता कुछ गर्माहट देती है और कुटीर उद्योग के ये छोटे-बड़े प्रयोग रोजगार एवं आर्थिक स्बाबलम्वन का साधन बनते हैं।

घरों के बाहर सेब की पेटियाँ भी बिक्री के लिए दिखीं, जो घर के साथ जुड़े बगीचों से तोड़े गए थे। बगीचों में जाकर फार्म फ्रेश सेवों की भी व्यवस्था थी। कुछ केफिटेरिया भी सेब के बगीचों में सजे दिख रहे थे।

गंगोत्री की राह का यह क्षेत्र सेब के साथ राजमाह की फसल के लिए प्रख्यात है। यहाँ भी गाँव के घर आंगनों व खेतों में राजमाह की फसल को पकते व सूखते देखा। जो ऑर्गेनिक होने के कारण स्वाद व पौष्टिकता के हिसाब से लाजबाव माने जाते हैं।

रास्ते में गाय बैल व बछड़े मिले, जो काफी छोटे आकार के थे। मानकर चल रहे थे कि इनका दूध बहुत पौष्टिक, सात्विक व स्वादिष्ट होगा, जैसा कि इस क्षेत्र में विचरण किए कई साधकों व योगियों से सुन रखा है।

गाँव में छोटा सा बौद्ध गोंपा भी मिला, जो आजक रविवार के चलते बंद था। गांव के छोर पर पहुँचकर हम बाहर एक मैदान में पहुँच जाते हैं, जहाँ नीचे मैदान के पार तट पर भगीरथी नदी बह रही थी। सभी यहाँ के किनारे कुछ यादगार पल बिताते हैं।

छात्र-छात्राएं अपने मन माफिक फोटो खींचते हैं, क्योंकि पृष्ठभूमि में घाटी व पर्वतों का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। चारों और उत्तर औऱ दक्षिण में आसमान छूते बर्फीले शिखर दिख रहे थे और सामने गंगोत्री से हर्षिल की ओर जा रहा मोटर मार्ग। सामने ही देवदार के जंगल के बीच सेब से लदे बगीचे व स्थानीय ग्रामीण परिवेश भी मन को मोहित कर रहा था।

इस पृष्ठभूमि में ग्रुप फोटो भी होता है। और छात्र-छात्राओं के साथ यहाँ के विकास पत्रकारिता से जुड़े प्रश्नों व मुद्दों पर भी कुछ चर्चा होती है।

बापिसी में एक होम स्टे में नूडल व चाय का आनन्द लेते हैं और यहाँ की भाव भरी मेहमानवाजी (हॉस्पिटेलिटी) को अनुभव करते हैं। समूह के कुछ छात्र-छात्राएं इनके किचन में हाथ बंटाते हैं। स्वभाव से यहाँ के लोग ईमानदार, मेहनतकश और भावनाशील लगे।

बापिसी में सड़क मार्ग से लगभग 200 मीटर नीचे लक्ष्मी नारायण मंदिर के दर्शन करते हैं औऱ साथ ही थोड़ी दूरी पर बहती भगीरथी मैया को भी प्रणाम कर आते हैं। ध्यान साधना के लिए यहाँ का एकांतिक वातावरण आदर्श लगा, जिसका वर्णन हम यू-ट्यूब में भी किसी बाबाजी के वीडियों में कभी देख चुके थे।

इस तरह हमारी आज की हर्षिल का विहंगावलोकन करती संक्षिप्त यात्रा पूरी होती है। तीन-चार घंटों में ही उत्तरकाशी से 78 किमी और गंगोत्री धाम से 26 किमी दूर हर्षिल की वादियाँ जेहन में एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं। यहाँ भगीरथी और जालंधरी नदीं के संगम पर बसे उस घाटी में प्राकृतिक सौंदर्य़, आध्यात्मिक प्रवाह, शाँति एवं रोमाँच का अद्भूत स्पर्श मिलता है।

बस तक पहुँचते-पहुंचते अंधेरा हो चुका था और सभी बस में बैठकर बापिस धराली आते हैं। और रात्रि भोजन के बाद 9 बजे तक कल की तैयारी के साथ निद्रा देवी की गोद में चले जाते हैं, क्योंकि कल सुबह 6 बजे बापिस हरिद्वार के लिए कूच करना था।

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-3

 

गंगोत्री धाम के दिव्य लोक में

यात्रा का दूसरा दिन हमारे गंगोत्री दर्शन के लिए समर्पित था। सो सुबह जल्दी ही धराली से निकल पड़ते हैं, जो गंगोत्री से 20 किमी की दूरी पर पड़ता है। भौर में जब हम बाहर निकलते हैं, तो उत्तर दिशा में गंगोत्री की ओर हिमशिखरों मध्य टिमटिमाते तारों से सजे नीले आकाश में बीचों-बीच स्थित अर्दचंद्र की शोभा देखते ही बन रही थी। लग रहा था कि वे ध्यानस्थ भगवान शिव के सर पर सुशोभित हों। गंगोत्री धाम की यात्रा व दर्शन का उत्साह सबके चेहरे पर स्पष्ट था, जिनमें अधिकाँश वहाँ पहली वार पधार रहे थे।

धराली से गंगोत्री की 20 किमी की यात्रा देवदार के घने जंगलों के बीच होती है। शुरु में वायीं ओर साथ में भगीरथी नदी प्रवाहमान थी। चौड़ी घाटी क्रमिक रुप से संकरी हो रही थी। रास्ते भर देवदार के जंगल और भगीरथी नदी के विस्तार को निहारते हुए यहाँ की सुंदर वादियों के बीच एक नई घाटी में प्रवेश होता है। गगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ दोनों ओर एक दम पास दिख रहे थे।

पुल को पार कर अब भगीरथी हमारे दायीं ओर थी और चट्टानी रास्ते से चढ़ाई पार करते हुए कुछ ही पलों में हम भैरों घाटी पहुँचते हैं, जहाँ पर गहरी घाटी में एक नदी नेलाँग की ओर से आती है और यहाँ की चट्टानी दिवारों के संग गार्दांग गली का प्राचीन ट्रैकिंग रुट प्रख्यात है। बापिसी में इसके दर्शन की योजना थी। भैरों घाटी के पुल को पार हम गंगोत्री धाम की ओर बढ़ते हैं। राह में हिमाच्छादित शिवलिंग पर्वत के दर्शन प्रारम्भ हो गए थे।

देवदार से अटे गगनचुंबी पहाड़ दोनों ओर जैसे हमारा स्वागत कर रहे थे। रास्ते में आईटीवीपी कैंप से गुजरते हैं। पहाड़ों से गिरी चट्टानों के बीच बसा यह कैंप इन ऊंचाईयों के चट्टानी सत्य का दिग्दर्शन करा रहे थे, जहाँ जीवन कितना रिस्क से भरा हो सकता है। रास्ते भर तीखे मोड़ और देवदार के जंगल एक नए प्रदेश एवं परिवेश में प्रवेश का सुखद अहसास जगा रहे थे, साथ ही राह में आंख मिचौली करते हिमाच्छादित शिवलिंग पर्वत गंगोत्री धाम के समीप होने का तीखा अहसास दिला रहे थे और मन में गंगोत्री धाम के पहले दर्शन-दीदार के जिज्ञासा और रोमाँच से भरे भाव हिलोरें मार रहे थे।

राह में ही भैरों मंदिर आता है, जहाँ से आगे सड़क मार्ग वायीं ओर से नेलांग की ओर जाता है, जिसे चीन की सीमा से अटा अंतिम स्टेशन माना जाता है, जो यहाँ से 22 किमी था। लो, कुछ ही मिनट में हम गंगोत्री में प्रवेश करते हैं, गाडियों का जमघट और पर्यटकों की भीड़ इसका अहसास दिला रही थी। हमारी गाड़ी भी बाहर सड़क के किनारे निर्देशित स्थान पर पार्क होती है।

सड़क के साथ पहाड़ों को छूते चट्टानी शिखर भय मिश्रित श्रद्धा का भाव जगा रहे थे। मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा था कि इन चट्टानी पहाड़ों से चट्टान टूटकर नीचे आती होंगी, तो क्या होता होगा। बाद में लोगों से बातचीत करने पर समाधान मिला कि ये चट्टानें स्थिर हैं, आए दिन गिरने की कोई ऐसी घटना यहाँ नहीं होती।

लगभग 2 किमी पैदल यात्रा, जिसमें गंगोत्री धाम की मार्केट, आश्रम, होटल, होम-स्टे आदि के दर्शन करते हुए अंततः एक बड़ा सा द्वार पार करते हुए गंगोत्री मंदिर में प्रवेश होता है। यहाँ के दिव्य प्रांगण में जुत्ते उतार कर दर्शनार्थियों की पंक्ति में खड़ा होकर मंदिर में गंगा मैया के दर्शन करते हैं। और बाहर निकल कल समूह फोटो लेते हैं।

गंगोत्री मंदिर की लोकेशन स्वयं में अद्भुत है, चारों और गंगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ों के बीच में स्थित धाम, एक नए लोक में विचरण का दिव्य अहसास दिला रहा था। लग रहा था कि हम एकदम नए संसार में पहुँच गए हैं। यहाँ से प्रसाद ग्रहण कर नीचे स्नान घाट पहुँचते हैं। भगीरथी नदी के ग्लेशियर से निकले बर्फीले जल से आचमन कर अपने पात्र में गंगाजल भरते हैं। बापिसी में भगीरथी शिला के दर्शन करते हैं, जहाँ भगीरथ ने भगीरथी तप कर गंगा अवतरण को संभव किया था और सगरसुतों के उद्धार के साथ जगत के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था।

परमपूज्य गुरुदेव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य़जी के हिमालय प्रवास के दौरान गंगोत्री धाम में रुकने व आगे तपोवन में साधना करने के प्रसंगों को यहाँ प्रत्यक्ष देखने का मन था। तीर्थ की सूक्ष्म चेतना ने जैसा इसका भी इंतजाम कर रखा था। यहाँ के साठ वर्षीय कुलपुरोहित से अचानक परिचय होता है औऱ वे आचार्यजी से जुड़े रोचक प्रसंगों का भाव भरा वर्णन करते हैं। और भगीरथी के उस पार सामने के आश्रमों - ईशावास्य, कृष्णानन्द आश्रम, तपोवन आश्रम आदि से भी परिचय करवाते हैं, जहाँ गुरुदेव का प्रवास रहा।

परिसर में ही जाह्नवी माता के दर्शन होते हैं, लगा कि जैसे गंगा मैया के ही मूर्तिमान अंश से मुलाकात हो रही है। इन्हीं के सान्निध्य में यहाँ कृष्णानन्द आश्रम के वयोवृद्ध शिष्य स्वामी जी के दर्शन होते हैं, जो अपने आश्रम में आने का नेह भरा आमंत्रण दे जाते हैं। इस तरह मंदिर से नीचे उतरते हुए एक पुलिया को पार कर हम कृष्णानन्द आश्रम पहुँचते हैं। रास्ते में पुल से शिवलिंग एवं भागीरथी पर्वत के दिव्य दर्शन होते हैं। कृष्णानन्द आश्रम में गुरुदेव की साधना स्थली गुफा के दर्शन करते हैं। बाबाजी का स्वागत सत्कार और भक्ति भाव हम सबको भाव विभोर करता है। उनके द्वारा खिलाए गए छेने के रस्गुल्ले और सुर्ख लाल सेब यदा रहेंगे।

फिर जाह्नवी माता के आश्रम में पधार कर यहां के दिव्य भाव को ग्रहण करते हैं। माताजी पिछले तीन दशकों से साधनारत हैं और तपोवन में भी प्रवास कर चुकी हैं। यहाँ देवस्थापना कर हम, ब्रह्मकल का प्रसाद लेकर बापिस आते हैं। समय कम होने के कारण तपोवन आश्रम, सूर्य कुण्ड व अन्य स्थानों के दर्शन नहीं कर पाते और इनको अगले विजिट के लिए छोड़कर पुलिया को पार कर नीचे उतरते हैं।

बापिसी में एक आश्रम के भंडारे में भोजन-प्रसाद का संयोग बनता है। यहाँ अध्यात्मिक कंटेट को प्रसारित करने वाले यू-ट्यूबर युवा सन्यासी स्वामी अद्वैतानन्दजी से भेट होती है। संवाद के कुछ संक्षिप्त और यादगार पल इनके साथ बिताते हैं और बापिस गाड़ी तक आते हैं।

राह में चार शाखा वाले देवदार के वृक्ष के सामने सेल्फी लेते हैं। यह वृक्ष हमें जीवन के चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूर्तिमान प्रतीक लग रहा था, जो गंगोत्री धाम पधार रहे जागरुक तीर्थ यात्रियों को सतत एक मूक संदेश दे रहा हो।

दिन में सीधी धूप औऱ लगातार पिछले 3-4 घंटों से चलते रहने के कारण काफी गर्मी का अहसास हो रहा था, साथ ही भोजन उपरान्त की सुस्ती भी छा रही थी। अतः बापिसी में कार्दांग गली का प्लान छोड़ देते हैं, क्योंकि वहाँ सीधे धूप पड़ रही थी और नीचे सीधे खाई में नदी बहती हैं। किसी तरह का रिस्क लेने की स्थिति में नहीं थे और न ही समूह की मनःस्थिति अभी इसको कवर करने की थी और इसे भी अगली यात्रा के लिए छोड़ आते हैं।

पाठकों को बता दें कि यह भारत तिब्बत के बीच व्यापार का पुरातन रुट था, जब किसी तरह की सड़क व्यवस्था नहीं थी। आज तो नेलाँग तक सड़क मार्ग बन चुका है, जो उत्तराखण्ड का इस इलाके का अंतिम गाँव है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद वहाँ के लोग हर्षिल में बगोरी गाँव में विस्थापित होकर रह रहे हैं। आज शाम हो हम वहीं पधारने जा रहे थे।

बस से हम बापिस धराली पहुँचते हैं औऱ होटल में कुछ देर रुककर तरोताजा होते हैं और दोपहर वाद आज के गन्तव्य हर्षिल और बगोरी गाँव के लिए निकल पड़ते हैं। (जारी, भाग-4)

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-2

उत्तरकाशी से हर्षिल - धराली

उत्तरकाशी से गंगोरी को पार करते हुए हम मनेरी से होकर गुजरते हैं, जहाँ भगीरथी पर विद्युत परियोजना के कारण ठहरी हुई जलराशि के दर्शन होते हैं।

02:00 PM, CHECK POST

मनेरी को पार करते हुए हम भटवारी पहुँचते हैं, जहाँ एक स्थान पर गाड़ी नीचे मैदान में रुकती है, कई टैंट लगे थे। वहाँ गंगोत्री के लिए पंजीयन होता है। जितना देर पंजीयन की औपचारिकता पूरी होती रही, हम नीचे भगीरथी नदी के दर्शन करते हैं। यह समीप से गंगा मैया के पहले दर्शन थे।

02:38 PM, MANERY WATERFALL

आगे मनेरी बांध के झरने के दर्शन करते हुए आगे बढ़ते हैं, जो एक वृहद जलराशि के रुप में एक सुरंग से नदी के तट पर गिरता है, जिसे शायद ही ऐसा कोई राही हो, जो दिल थामकर न निहारता हो।

आगे रास्ते भर स्थान-स्थान पर पानी के झरनों की भरमार दिखी। हर मोड़ पर इनके दर्शन होते रहे, जो उत्तरकाशी से पूर्व के मार्ग के एकदम विपरीत अनुभव था।

रास्ते में ही दयारा वुग्याल के लिए वायीं ओर से लिंक रोड़ जाता दिखा।

04:00 PM, TEA BREAK

इस घाटी के अंतिम स्टेशन में गाड़ी रुकती है, जहाँ कुछ चाय-नाश्ते व फल-सब्जी की दुकानें सजी थी। चाय नाश्ते के साथ काफिला रिफ्रेश होता है। यहाँ पालतु पहाड़ी गाय व बछ़डों के दर्शन होते हैं, जो आकार में काफी छोटे थे। ये यात्रियों से सहज ही घुलमुल जाते हैं। कारण, यात्री इन्हें श्रद्धावश कुछ खिलाते रहते हैं। हमने भी साथ लाई पुड़ियाँ खिलाई और इनके साथ फोटो खिंची।

चाय-नाश्ते के साथ तरोताजा होकर हम आगे के लिए कूच करते हैं। रास्ते की आवोहवा में हिमालयन टच के साथ एक नया सुकून व शांति का अहसास शुरु हो चुका था। यहाँ से पुल पार कर हम अब भगीरथी के वाएं तट के संग संकरी घाटी में आगे बढ़ रहे थे। कुछ ही देर में आता है इस रुट का महत्वपूर्ण तीर्थस्थल गंगनानी, जो तप्तकुंडों के लिए प्रख्यात है।

05:00 – 05:30 PM, GANGNANI

माना जाता है कि यहाँ भगवान व्यास के पिता ऋषि पराशर ने तप किया था। यहां पुरुषों व महिलाओं के लिए अलग-अलग कुंड बने हुए हैं। बाहर खुले में वाईं ओर झर रहे झरनों में भी स्नान किया जा सकता है। यहाँ के गर्म कुँडों में स्नान कर हम सभी तरोताजा होते हैं और पितृपक्ष होने के कारण अपने पितरों का सुमरन करते हुए उनके कल्याण के लिए भाव निवेदन और प्रार्थना करते हैं।

यहाँ से सफर संकरी घाटी से होते हुए मंजिल की ओर बढता है। रास्ते में हर मोड़ पर खड़ी चट्टानें और मोड खतरनाक अहसास दिला रहे थे। लग रहा था कि कुशल चालक ही इस राह पर वाहन को चला सकते हैं। उस पार ऊंचे पहाड़ों की गोद में विरल गाँव के दृश्य देखकर आश्चर्य एवं रोमाँच होता रहा कि लोग इन ऊंचाइयों व निर्जन क्षेत्र में किन मजबूरियों या प्रेरणा के वश बसे होंगे।

06:00 PM

लेफ्ट बैंक के छोर पर एक पुल पार होता है, जिसके नीचे भगीरथी नदी गर्जन-तर्जन करती हुई बह रही थी। और पुल के पार झरने की कई धाराओँ में जलराशि झर रही थी, जहाँ फोटो खींचने के लिए लोगों की भीड़ लगी थी।

इसके आगे चट्टानों के बीच रास्ता बढ़ रहा था और वायीं और गगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ों के संग हम आगे बढ़ रहे थे। यहीं मैदान में एक स्थान पर भेड़-बकरियों के झुंड के साथ गड़रिए रात्रि विश्राम के लिए अपना ठिकाना तैयार कर रहे थे।

6:15 – 6:30 PM

शाम का धुंधलका धीरे-धीरे हॉवी हो रहा था। भगीरथी नदी दायीं ओर अपने रौद्र रुप में ढलान के संग नीचे मैदानों की ओर बढ़ रही थीं। अपने मायके को छोड़कर मैदानों की ओर उसके उतरने का उत्साह देखते ही बन रहा था।

आगे रास्ते में अंधेरा शुरु हो चुका था। बस अब जिग्जैग सड़क के साथ ऊपर चढ़ रही थी। बाद में पता चला कि हम सुखू टॉप की ओर बढ़ रहे थे। मार्ग में सेब से लदे वृक्षों के दर्शन शुरु हो गए थे, जो पहली बार पहाड़ों में सफर कर रहे विद्यार्थी और शिक्षकों के लिए एक सुखद अहसास था। रास्ते भर सड़क के ऊपर और नीचे सेब के बगीचों के दर्शन होते रहे। लगा कि दिन के उजाले में इनके दर्शन होते, तो कितना अच्छा रहता। हम काफी ऊंचाई पर सफर कर रहे थे, नीचे घाटी में वस्तियों की टिमटिमाती रोशनी इसका अहसास दिला रही थी। बस आगे चलकर फिर नीचे उतरती दिखी। 

07:00 PM

हम अब नीचे उतर रहे थे और रोशनी से जगमग बस्ती को पार करते हैं। और भगीरथी के ऊपर एक पुल को पार कर फिर लेफ्ट बैंक के साथ आगे बढ़ते हैं। पता चला कि हम हर्षिल घाटी में प्रवेश कर चुके हैं। रास्ते में बस की रोशनी में देवदार के वृहद पेड़ों के दर्शन होते रहे और अंधेरे में भी इनको यथासंभव कैप्चर करने के प्रयास चलते रहे। अब हम आज के गन्तव्य के मात्र 2-3 किमी दूर थे। रास्ते में दनदनाते नाले व झरने बहुतायत में मिलते रहे। मंजिल के समीप पहुँचने का सुकून व उत्साह भी हिलोरें मार रहा था। वाइं और भगीरथी समीप ही विस्तार लिए बहती दिख रही थीं, जो पिछली संकरी घाटी के अनुभव के विपरीत खुली घाटी में पहुँचने का एक नया अहसास था।

08:00 PM

लो हम धराली में प्रवेश कर चुके थे और कुछ ही पलों में अपने होटल कल्प-केदार के सामने हमारी बस खड़ी होती है।

इस तरह लगभग 14 घंटे के सफर के बाद हम अपनी मंजिल पर पहुंचते हैं। मालूम हो कि धराली इस घाटी के 8 गावों में एक प्रमुख गाँव है, जो पौराणिक कल्प-केदार मंदिर के लिए प्रख्यात है, जो गंगोत्री से 20 किमी पहले पड़ता है। गौमुख के आगे तपोवन में रिकार्ड समय तक रहने वाली सुभद्रा माता की मुख्य तपःस्थली भी यहीं धराली में स्थित है। अपने सेब के बगानों के लिए धराली प्रख्यात है और इसके ठीक सामने भगीरथी नदी के उस पार मुख्वा गांव पड़ता है, जो गंगा मैया का शीतकालीन आवास है।

कमरों की व्यवस्था व भोजन आदि के साथ रात के दस बज जाते हैं। सफर में पहने हुए कपड़े कम प्रतीत हो रहे थे, क्योंकि यहाँ तापमान 12-14 डिग्री सेंटिग्रेट था, जो रात को 3-4 डिग्री तक तेजी से गिरने वाला था। रात को ही समीपस्थ कल्प-केदार मंदिर में भी माथा टेक आते हैं, जो एक सुंदर, स्वच्छ व भव्य कत्यूरी शैली में बना प्राचीन मंदिर है। इसे केदारनाथ मंदिर का ही समकालीन माना जाता है और पांडवों से जुड़ा हुआ है। दल के होटल में व्यवस्थित होने के बाद हम कमरे में प्रवेश करते हैं।

कमरा होटल की तीसरी मंजिल पर था, जहां की वाल्कनी से बाहर सेबों से लदा बगीचा प्रत्यक्ष था और सामने मुख्वा गाँव की टिमटिमाटी रोशनी से सजा आलौकिक दृश्य। चारों और गंगनचूंबी हिमालय के दर्शन आह्लादित कर रहे थे औऱ भगीरथी नदी की कलकल निनाद करती मधुर ध्वनि गृहप्रदेश की व्यास नदी की याद दिला रही थी। अगले दिनों इन सबका दीदार किया जाना था। इसी भाव के साथ कंबल व रजाई में प्रवेश कर, स्वयं को गरमाते हुए निद्रा देवी की गोद में प्रवेश करते हैं। (भाग-3, जारी)

यात्रा वृतांत - मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-1

हरिद्वार से उत्तकाशी

आज एक चिरप्रतिक्षित यात्रा का संयोग बन रहा था। पिछले कई वर्षों से बन रही योजना आज पूरा होने जा रही थी। लग रहा था कि जैसे गंगोत्री धाम का बुलावा आ गया। पत्रकारिता के 31 सदसीय छात्र-छात्राओं के दल के साथ गंगोत्री का शैक्षणिक भ्रमण सम्पन्न हो रहा था। पूरी यात्रा के पश्चात समझ आया कि इसकी टाइमिंग यह क्यों थी, जबकि पिछले चार-पांच वर्षों से गंगोत्री जाने की योजना बन रही थी, लेकिन किसी कारण टलती रही। इस बार की यात्रा के साथ घटित संयोग एवं सूक्ष्म प्रवाह के साथ स्पष्ट हुआ कि तीर्थ स्थल का बुलावा समय पर ही आता है, जिसमें अभीप्सुओं की संवेत पुकार के साथ जेहन के गहनतम प्रश्नों-जिज्ञासाओं के प्रत्युत्तर मिलते हैं और यह सब दैवीय व्यवस्था के अचूक विधान के अंतर्गत होता है, विशेषकर जब मकसद आध्यात्मिक हो।

6:15 AM, DSVV

29 सितम्बर की सुबह विद्यार्थियों एवं शिक्षकों का 39 सदसीय दल देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रांगण से गायत्री महामंत्र की गुंजार के साथ प्रातः सवा छः बजे निकल पड़ता है। सभी के चेहरे पर नए गन्तव्य की ओर कूच करने के उत्साह, उमंग एवं रोमाँच के भाव स्पष्ट थे।

आधे घंटे में काफिला ऋषिकेश को पार करते हुए दोराहे पर माँ भद्रकाली के द्वार से आशीर्वाद लेते हुए वाईं सड़क पर नरेंद्रनगर की ओर बढ़ता है।


आल वेदर रोड़ की चौड़ी एवं साफ सड़क पर गाड़ी सरपट दौड़ रही थी। रास्ते में घाटी से उठते व बस का आलिंग्न करती धुंध और बादलों के फाहे खुशनुमा अहसास दिला रहे थे। स्थान-स्थान पर जलस्रोत ध्यान आकर्षित कर रहे थे। नरेंद्रनगर के प्रख्यात आनन्दा रिजॉर्ट को पार करते हुए बस कुंजापुरी के नीचे हिंडोलखाल से होते हुए आगरा खाल पहुंचती हैं, जहाँ प्रातःकालीन चाय-नाश्ता के लिए गाड़ी रुकती है।

8:30-9:00 AM, HINDOLKHAL, BREAKFAST

इस रुट पर अक्टूवर 2018 में सम्पन्न यात्रा वृतांत (गढ़वाल हिमालय की गोद में सफर का रोमाँच https://www.himveeru.dev/2018/11/blog-post.html) में इस रुट की तात्कालीन स्थिति को पढ़ सकते हैं और इस बीच हुए परिवर्तनों को भी समझ सकते हैं।

बांज बहुल इस क्षेत्र में हिमालयन वृक्षों के वनों व इनकी विशेषताओं से विद्यार्थियों को परिचित कराते है और साथ ही पनपे हुए चीड़ के वृक्षों से भी।


साथ लाई गई पूरी-सब्जी के साथ चाय का नाश्ता होता है और रिफ्रेश होकर काफिला आगे बढ़ता है। पहाड़ों में हिमालयन गांव के दृश्यों को देखकर रहा नहीं गया और केबिन में बैठकर मोबाईल से इनके सुंदर दृश्यों को कैप्चर करने का क्रम शुरु होता है।

बस में चल रहे सुमधुर गीतों की धुन एवं कालजयी संगीत के साथ किसी जमाने के फिल्मी गीतों की अपार सृजनात्मकता क्षमता पर विचार आता रहा और आज के अर्थहीन, वेसुरे और हल्के गीत-संगीत पर तरस आता रहा।

सेम्बल नदी पारकर बस इसके संग नई घाटी में प्रवेश करती है और चम्बा वाईपास से होकर आगे बढ़ती है।


इस संकरी घाटी में सफर एक नया ही अनुभव रहता है, जिसमें सड़क के किनारे तमाम ढावे-रेस्टोरेंट्स यात्रियों को चाय-नाश्ता का नेह भरा निमंत्रण देते रहते हैं, जिनके आंगन में सजी लोक्ल दालों, सब्जियों व फलों की नुमाइश भी दर्शनीय रहती है। इनकी विशेषता इनका आर्गेनिक स्वरुप रहता है, जिसे बापिसी में देवभूमि की याद के रुप में प्रसाद रुपेण खरीदा जा सकता है।

10:00 AM, CHAMBA

चम्बा शहर को वाईपास से पार करते हैं और अनुमान था कि हम नई टिहरी से होकर उत्तरकाशी की ओर बढ़ेंगे। लेकिन पता चला कि हम टिहरी से न होकर नए रास्ते से आगे जा रहे हैं। पहले टिहरी से होकर उत्तरकाशी का रास्ता जाता था। आल वेदर रोड़ के चलते नया रुट शुरु हो गया है, जिसमें संभवतः कई गाँव कवर होते हैं और साथ ही दूरी भी शायद कम पड़ती हो। चम्बा से लगभग 12 किमी आगे एक शांत-एकाँत स्थल पर बस चाय के लिए रुकती है।


10:30-11:00 AM, TEA BREAK

प्रकृति की गोद में बसे ढावे के संग बह रहा पहाड़ी नाला कलकल निनाद के साथ गुंज रहा था। साथ ही झींगुरों की सुरीली तान भी गुंज रही थी, जो स्थल की निर्जनता को पुष्ट कर रही थी। ढावे के बाहर साइड में एक क्षेत्रीय महिला वाजिब दामों में लोक्ल किवी बैच रही थी, जिसे हम बापिसी में खरीदने की योजना बनाते हैं।

सफर फिर आगे बढ़ता है। वृक्ष वनस्पतियों व जंगल पहाड़ों के स्वरुप को देखकर स्पष्ट था कि हम मध्य हिमालय की खूबसूरत वादियों से गुजर रहे थे। बीच-बीच में सुंदर-स्वच्छ पहाड़ी बस्तियों के दर्शन होते रहे।


रास्ते में टिहरी बाँध के वेकवाटर से बनी झील के दर्शन होते हैं, जो हमारे लिए एक नया आकर्षण था। उस पार के गाँव में चल रहे खेती के साथ सोलर लाइट के प्रयोग भी ध्यान आकर्षित करते रहे।

पूरा मार्ग जल स्रोतों की न्यूनता की मार से ग्रस्त दिखा। हाँ पीछे गगनचूंबी पहाड़ों से पुष्ट नाले व छोटे नद बीच-बीच में अवश्य दिखते रहे। अगले कुछ घंटों में सर्पिली सड़क के संग, कई पुलों को पार करते हुए हम 12 बजे तक कमान्द को पार करते हैं और चिन्यलिसौर, धरासु जैसे स्थलों को पार करते हुए उत्तरकाशी की ओर बढ़ते हैं।

1:00 PM, UTTARKASHI

दिन के 1 बजे हम उत्तरकाशी शहर में प्रवेश करते हैं, जो इस राह का एक प्रमुख स्थल है। यह विश्वनाथ मंदिर के लिए प्रख्यात है, जहाँ परशुरामजी द्वारा निर्मित विशाल त्रिशूल विद्यमान है। उत्तरकाशी में पर्य़ाप्त गर्मी का अहसास हो रहा था। यहाँ आल वेदर रोड़ भी समाप्त हो गया था। और अब आगे तंग रास्ते से होकर सफर शुरु होता है, जो बीच-बीच में उबड़-खाबड़ होने के कारण कहीं-कहीं थोड़ा असुविधाजनक भी अनुभव हो रहा था। इस रास्ते में आगे का अहम पड़ाव था गंगोरी। जहाँ कई आध्यात्मिक संस्थानों के आश्रम, मंदिर व धर्मशालाएं दिखी। अब हम हिमालय की गहन वादियों में प्रवेश कर चुके थे। मौसम की गर्मी कम हो रही थी और एक शीतल अहसास अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रोमाँच के भाव को तीव्र कर रहा था। (भाग-2, जारी...)

शनिवार, 7 सितंबर 2024

प्रभावी लेखन कला के स्वर्णिम सुत्र

 

प्रभावशाली लेखन के सुत्र 

प्रमुख बाधक तत्व

सहायक तत्व

लेखन एक कला है और एक विज्ञान भी। मूलतः यह एक ऐसा कौशल है, जो अभ्यास के साथ सिद्ध होता है। प्रभावी लेखन के मूल में कुछ तत्व कार्य करते हैं, जिनका यदि ध्यान रखा जाए, तो लेखन प्रभावशाली हो जाता है। यहाँ इन्हीं की चर्चा बिंदुवार की जा रही है। साथ ही प्रभावी लेखन में सहायक एवं बाधक मुख्य तत्वों पर भी प्रकाश डाला जा रहा है।

    लेखन सीखने की तीव्र इच्छा, उत्कट आकांक्षा –

यह पहला सुत्र है, बिना तीव्र इच्छा, उत्कट आकांक्षा के वह धैर्य, उत्साह, लगन एवं संघर्ष शक्ति नहीं आ पाती, जो लेखन से जुड़ी प्रारम्भिक दुश्वारियों से नए लेखक को पार लगा सके। क्योंकि लेखन सीखना एक समय साध्य प्रक्रिया है, धीरे-धीरे इसमें माहरत हासिल होती है। लम्बे समय तक गुमनामी के अंधेरे में लेखक को तपना पड़ता है, संघर्ष करना पड़ता है। तब जाकर एक समय के बाद इसके सुखद परिणाम आने शुरु होते हैं।

एक उत्कट आकांक्षा वाला साधक अपने ध्येय के लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहता है और देर-सबेर एक सफल लेखक के रुप में अपनी पहचान बनाने में सफल होता है। जबकि ढुलमुल रवैये बाला व्यक्ति रास्ते में ही प्रारंभिक असफलताओं के बीच अपना प्रयास छोड़ देता है, जब उसे रातों-रात सफलता व पहचान बनती नहीं दिखती।

 

2.    लेखन में नियमितता एवं मानसिक एकाग्रता का अभ्यास –

हर कला की तरह लेखन में भी नियमित अभ्यास की आवश्यकता रहती है। और फिर लेखन बिशुद्ध रुप से एक मानसिक कार्य है, जिसके लिए मन का शांत, स्थिर और एकाग्र होना आवश्यक रहता है, तभी उत्कृष्ट लेखन संभव होता है। अशांत, अस्थिर और बिखरे हुए मन से उमदा लेखन की आशा नहीं की जा सकती।

इसके लिए नित्य अभ्यास का क्रम निर्धारित करना पडता है। शुरुआत 15-20 मिनट से की जा सकती है। नित्य एक पेज लेखन से की जा सकती है। लेखन का एक नियमित लेखन रूटीन और नित्य अभ्यास प्रभावशाली लेखन को संभव बनाता है, जिसकी किसी भी रुप में उपेक्षा नहीं की जा सकती।

 

3.    गहन एवं व्यापक अध्ययन

लेखन में अध्ययन का विशेष महत्व है, जितना व्यापक एवं गहन अध्ययन होगा, विचार भी उतने ही परिपक्व, समग्र एवं धारदार होंगे, जो लेखन को प्रभावशाली बनाते हैं। अध्ययन के अभाव में मात्र अपने मौलिक विचार-भावों के आधार पर शुरु में प्रभावी लेखन की आशा नहीं की जा सकती। एक सर्वमान्य नियम है कि एक पेज लेखन के लिए चार से पांच पेज का अध्ययन अभीष्ट रहता है। एक ही विषय पर जब चार-पांच अलग-अलग पुस्तकों व उत्कृष्ट लेखकों के विचारों को पढ़ेंगे तो विचारों में गंभीरता, समग्रता और व्यापकता आती है, जो लेखन को प्रभावशाली बनाती है।

4.    शब्द भण्डार

लेखन में शब्दों का विपुल भंडार भी आवश्यक रहता है, तभी प्रभावशाली लेखन संभव होता है। और इसका आधार भी अध्ययन ही होता है। नित्य अमुक भाषा के अखबारों व पत्रिकाओं का वाचन, विषय की नई-नई तथा मानक पुस्तकों का परायण शब्द भण्डार में इजाफा करता है, जो लिखते समय सटीक शब्दों के चयन को संभव बनाता है। शब्द भण्डार के अभाव में लेखन प्रक्रिया बाधित होती है। विचार एवं भावों का समंदर तो मन में लहलहा रहा होता है, लेकिन सटीक शब्द के अभाव में कलम आगे नहीं बढ़ पाती या फिर इसका प्रवाह बाधित हो जाता है। अतः लेखक को अपने शब्द भण्डार को सचेष्ट रुप से समृद्ध करने का भरसक प्रय़ास करना चाहिए। अध्ययन व श्रवण जिसका एक प्रमुख माध्यम है।

 

5.    भाषा की सरलता-तरलता एवं लेखन प्रवाह – 

प्रभावशाली लेखन उसे माना जाता है, जो पठनीय है, पाठकों को आसानी से समझ में आए। सीधे उसके मन-मस्तिषक व ह्दय को छू सके। इसके लिए शब्दों का सरल होना अपेक्षित है, वाक्य छोटे हों, लेखन में प्रवाह हो। हर पैरा इस तरह से आपस में गुंथे हों कि पाठक शुरु से अंत तक इसको पढ़ता जाए और इसके प्रवाह में बहता जाए।

और यह तभी संभव होता है, जब लेखन अनुभव से लिखा जाता है, सीधा दिल से निकलता है। बिना फीलिंग के मात्र बुद्धि से किए गए लेखन में शब्द क्लिष्ट, वाक्य लम्बे होते हैं और प्रवाह का अभाव रहता है। पाठक को लगता है कि कहीं का ईंट, तो कहीं को रोढ़ा लेख में फिट किए गए हैं। और प्रवाह के अभाव में पाठक बीच में ही लिखे को पढना छोड देता है। अतः रोचक लेखन शैली के लिए संवेदनशीलता एक महत्वपूर्ण गुण है।

6.    भाव-संवेदना का तत्व

संवेदनशीलता लेखन का प्राण है। जितनी भी कालजयी रचनाएं विश्व के कौने-कौने से उपलब्ध होती हैं, ये भावों के शिखर पर लिखी गई रचनाएं हैं। अतः अनुभव से किया गया लेखन ही प्रभावशाली होता है। जीवन को, अस्तित्व को लेखक किस गहराई में अनुभव करता है, उसकी छाप लेखन पर पढ़ती है और पाठक जाने-अनजाने में ही उस भाव सागर में गोते लगाने को विवश-वाध्य होता है और एक नई ताजगी, स्फुर्ति, चैतन्यता एवं बोध के साथ बाहर निकलता है। उत्कृष्ट लेखन में व्यक्ति को गहनतम स्तर पर छूने, संवेदित-आंदोलित करने व रुपांतरित करने की सामर्थ्य होती है, जिसके केंद्र में लेखक का भाव-संवेदनाओं से ओत-प्रोत ह्दय ही होता है।

7.    विषय केंद्रिकता

लेखन को प्रभावशाली बनाने के लिए उसका विषय के ईर्द-गिर्द केंद्रित होना भी अभीष्ट होता है। इसीलिए लेखन की शुरुआत एक शीर्षक (हेडिंग) से होती है, फिर आमुख (इंट्रो) और आगे सबहेडिंग्ज के साथ दूसरे पैरा आगे बढ़ते हैं और अन्त में निष्कर्ष के साथ इसका समाप्न होता है। और पूरा लेखने एक विषय पर केंद्रित रहता है और इसका हर पैरा पिछले से जुड़ा हुआ, एक प्रवाह में आगे बढ़ता है, कुछ ऐसे ही जैसे नदी का प्रवाह, जो अलग-अलग पड़ावों को पार करते हुए अंततः सागर में जा मिलती है। लेखन की यह सामर्थ्य समय के साथ आती है, वैचारिक एकाग्रता, अभ्यास के साथ सधती है तथा एक प्रभावशाली लेखन को संभव बनाती है।

 

प्रभावशाली लेखन के इन सुत्रों के साथ लेखन में बाधक प्रमुख तत्व पर चर्चा करना भी उचित होगा। सबसे प्रमुख बाधा लेखन में परफेक्शन की चाह रहती है। परफेक्ट समय के इंतजार में लेखन नहीं हो पाता और नया सृजन साधक इंतजार करता रह जाता है। जबकि लेखक जहां खड़ा है वहीं से आगे बढ़ने की उक्ति उचित रहती है। और जिस समय मन विचार एवं भावों से भरा हो, उसी पल कलम-कापी लेकर बैठना चाहिए और पहला रफ ड्राप्ट तैयार करना चाहिए, जिसको बाद में संशोधित व संपादित किया जा सकता है।

लेख में मुख्य बाधक तत्व के साथ प्रमुख सहायक तत्व पर प्रकाश डालना भी उचित होगा, जो है - डायरी लेखन। नित्य अपने दिन भर का लेखा-जोखा, निरीक्षण करते हुए शाम को डायरी लेखन के क्रम को निर्धारित किया जा सकता है। इसका नित्य अभ्यास खेल-खेल में ही लेखक के शब्द भण्डार को बढ़ाता है, उसकी अपनी लेखन शैली की विकसित करता है। इसी के साथ विचारों में भी परिपक्वता आती है, जो आगे चलकर प्रभावशाली लेखन का आधार बनती है।

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प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...