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पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

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हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं और वह भी पहाड़ों में और हिमालय की वादियों में, तो यह पुस्तक – हिमालय की वादियों में आपके लिए है। यह पुस्तक उत्तराखण्ड हिमालय और हिमाचल प्रदेश की वादियों में लेखक के पिछले तीन दशकों के यात्रा अनुभवों का निचोड़ है, जिसे 36 अध्यायों में बाँटा गया है। इसमें आप यहाँ की दिलकश वादियों, नदियों-हिमानियों, ताल-सरोवरों और घाटियों के प्राकृतिक सौंदर्य से रुबरु होंगे। हिमालय की विरल ऊँचाईयों में ट्रैकिंग, एडवेंचर और पर्वतारोहण का रोमाँचक अहसास भी आपको इसमें मिलेगा। इसके साथ इन स्थलों की ऐतिहासिक, पौराणिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विशेषताओं से भी आप परिचित होंगे। इन क्षेत्रों की ज्वलंत समस्याओं व इनके संभावित समाधान पर एक खोजी पत्रकार की निहारती दृष्टि भी आपको इसमें मिलेगी। और साथ में मिलेगा घूम्मकड़ी के जुनून को पूर्णता का अहसास देता दिशा बोध, जो बाहर पर्वतों की यात्रा के साथ आंतरिक हिमालय के आरोहण का भी गाढ़ा अहसास दिलाता रहेगा। इस तरह यह पुस्तक आपके लिए एक

खेल जन्म-जन्मांतर का है ये प्यारे

  जब न मिले चित्त को शांति, सुकून, सहारा और समाधान जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं, ऐसी घटनाएं घटती हैं, ऐसी समस्याओं से जूझना पड़ता है, जिनका तात्कालिक कोई कारण समझ नहीं आता और न ही त्वरित कोई समाधान भी उपलब्ध हो पाता। ऐसे में जहाँ अपना अस्तित्व दूसरों के लिए प्रश्नों के घेरे में रहता है, वहीं स्वयं के लिए भी यह किसी पहेली से कम नहीं लगता। यदि आप भी कुछ ऐसे जीवन के अनुभवों से गुजर रहे हैं, या उलझे हुए हैं, तो मानकर चलें कि यह कोई बड़ी बात नहीं। यह इस धरती पर जीवन का एक सर्वप्रचलित स्वरुप है, माया के अधीन जगत का एक कड़ुआ सच है। वास्तव में येही प्रश्न, ये ही समस्याएं, येही बातें जीवन को ओर गहराई में उतरकर अनुसंधान के लिए प्रेरित करती हैं, समाधान के लिए विवश-वाधित करती हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत तक व्यवहार में व्यक्तित्व की परिभाषा खोजने वाला आधुनिक मनोविज्ञान मन की पहेलियों के समाधान खोजते-खोजते फ्रायड महोदय के साथ  वीसवीं सदी के प्रारम्भ में   मनोविश्लेषण की विधा को जन्म देता है। फ्रायड की काम-केंद्रित व्याख्याओं से असंतुष्ट एडलर, जुंग जैसे शिष्य मनोविश्लेषण कि विधा में नया आयाम

हे प्रभु कैसी ये तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान

  जीवन – मृत्यु का शाश्वत चक्र, वियोग विछोह और गहन संताप हे प्रभु  कैसी ये  तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान, प्रश्नों के अंबार हैं जेहन में, कितनों के उत्तर हैं शेष, लेकिन मिलकर रहेगा समाधान, है ये पूर्ण विश्वास ।0 आज कोई बिलखता हुआ छोड़ गया   हमें , लेकिन इसमें उसका क्या दोष , उसे भी तो नहीं था इसका अंदेशा , कुछ समझ नहीं आया   प्रभु तेरा ये खेल   । 1   ऐसे ही हम भी तो छोड़ गए होंगे बिलखता कभी किन्हीं को , आज हमें कुछ भी याद तक नहीं , नया अध्याय जी रहे जीवन का अपनों के संग , पिछले बिछुड़े हुए अपनों का कोई भान तक नहीं ।2   ऐसे में कितना विचित्र ये चक्र सृष्टि का , जीवन का , कहीं जन्म हो रहा , घर हो रहे  आबाद , तो कहीं मरण के साथ , बसे घरोंदे हो रहे बर्वाद , कहना मुश्किल इच्छा प्रभु तेरी , लीला तेरी तू ही जाने ।3   ऐसे में क्या अर्थ है इस जीवन का , जिसमें चाहते हुए भी सदा किसी का साथ नहीं , बिछुड़ गए जो एक बार इस धरा से , उन्हें भी तो आगे-पीछे का कुछ अधिक भान नहीं ।4   कौन कहाँ गया , अब किस अवस्था में , काश कोई बतला देता , दिखला

जीवन दर्शन - मन की ये विचित्र माया

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  बन द्रष्टा, योगी, वीर साधक                                      मन की ये माया गहन इसका साया चुंगल में जो फंस गया इसके तो उसको फिर रव ने ही बचाया ।1।   खेल सारा अपने ही कर्मों का इसी का भूत बने मन का साया आँखों में तनिक झाँक-देख लो इसको फिर देख, ये कैसे पीछ हट जाए ।2।   मन का बैसे कोई वजूद नहीं अपना अपने ही विचार कल्पनाओं की ये माया जिसने सीख लिया थामना इसको उसी ने जीवन का आनन्द-भेद पाया ।3।   वरना ये मन की विचित्र माया, गहन अकाटय इसका आभासी साया नहीं लगाम दी इसको अगर, तो उंगलियों पर फिर इसने नचाया ।4।   बन योगी, बन ध्यानी, बन वीर साधक, देख खेल इस मन का बन द्रष्टा जी हर पल, हर दिन इसी रोमाँच में देख फिर इस जगत का खेल-तमाशा ।5।

मृत्यु का अटल सत्य और उभरता जीवन दर्शन

जीवन की महायात्रा और ये धरती एक सराय मृत्यु इस जीवन की सबसे बड़ी पहेली है और साथ ही सबसे बड़ा भय भी, चाहे वह अपनी हो या अपने किसी नजदीकी रिश्ते, सम्बन्धी या आत्मीय परिजन की। ऐसा क्यों है, इसके कई कारण हैं। जिसमें प्रमुख है स्वयं को देह तक सीमित मानना, जिस कारण अपनी देह के नाश व इससे जुड़ी पीड़ा की कल्पना से व्यक्ति भयाक्रांत रहता है। फिर अपने निकट सम्बन्धियों, रिश्तों-नातों, मित्रों के बिछुड़ने व खोने की वेदना-पीड़ा, जिनको हम अपने जीवन का आधार बनाए होते हैं व जिनके बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते। और तीसरा सांसारिक इच्छाएं-कामनाएं-वासनाएं-महत्वाकांक्षाएं, जिनके लिए हम दिन-रात को एक कर अपने ख्वावों का महल खड़ा कर रहे होते हैं, जैसे कि हमें इसी धरती पर हर-हमेशा के लिए रहना है और यही हमारा स्थायी घर है। लेकिन मृत्यु का नाम सुनते ही, इसकी आहट मिलते ही, इसका साक्षात्कार होते हैं, ये तीनों तार, बुने हुए सपने, अरमानों के महल ताश के पत्तों की ढेरी की भाँति पल भर में धड़ाशयी होते दिखते हैं, एक ही झटके में इन पर बिजली गिरने की दुर्घटना का विल्पवी मंजर सामने आ खडा होता है। एक ही पल मे

पुस्तक समीक्षा, हिमालय की वादियों में

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  यायावरी का तिलिस्म प्रो. शंकर शरण, राष्ट्रीय अध्येता, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (IIAS), शिमला, हिं.प्र.   मात्र पचास - साठ वर्ष पहले तक यात्रा और भ्रमण साहित्य अच्छे प्रकाशन संस्थानों का एक विशिष्ट भाग होता था। न केवल बनारसी दास चतुर्वेदी , राहुल सांकृत्यायन , और कवि अज्ञेय जैसे ख्यातनाम , अपितु सामान्य व्यक्तियों द्वारा लिखे यात्रा - वृत्तांत भी प्रकाशक सहर्ष छापते थे । यहाँ तक कि बड़े लोग उस की भूमिकाएँ तक लिखते थे। कदाचित कारण यही रहा हो कि तब यात्राएँ उतनी सुलभ और प्रचलित नहीं थीं। इसलिए जो लोग यात्राएँ और भ्रमण करते थे , उनके विवरणों से सहृदय पाठक उसका घर बैठे आनंद , कल्पना और जानकारी प्राप्त कर लियाकरते थे। अब यातायात, संचार और पर्यटन उद्योग का ही भारी विस्तार हो चुका है। संभवतः इसीलिए अब इस विधा का महत्त्व कम हो गया   इसीलिए प्रो . सुखनन्दन सिंह जैसे जन्मजात घुमक्कड के प्रथम यात्रा वृत्तांत को जितना महत्त्व मिलना चाहिए था , वह नहीं मिला है। वह देव