प्रभावशाली लेखन के सुत्र,
प्रमुख बाधक एवं सहायक तत्व
1.
लेखन सीखने की तीव्र इच्छा, उत्कट आकांक्षा –
यह पहला सुत्र है, बिना
तीव्र इच्छा, उत्कट आकांक्षा के वह धैर्य, उत्साह, लगन एवं संघर्ष शक्ति नहीं आ
पाती, जो लेखन से जुड़ी प्रारम्भिक दुश्वारियों से नए लेखक को पार लगा सके।
क्योंकि लेखन सीखना एक समय साध्य प्रक्रिया है, धीरे-धीरे इसमें माहरत हासिल होती
है। लम्बे समय तक गुमनामी के अंधेरे में लेखक को तपना पड़ता है, संघर्ष करना पड़ता
है। तब जाकर एक समय के बाद इसके सुखद परिणाम आने शुरु होते हैं।
एक उत्कट आकांक्षा वाला
साधक अपने ध्येय के लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहता है और देर-सबेर एक
सफल लेखक के रुप में अपनी पहचान बनाने में सफल होता है। जबकि ढुलमुल रवैये बाला
व्यक्ति रास्ते में ही प्रारंभिक असफलताओं के बीच अपना प्रयास छोड़ देता है, जब
उसे रातों-रात सफलता व पहचान बनती नहीं दिखती।
2.
लेखन में नियमितता एवं मानसिक एकाग्रता का अभ्यास –
हर कला की तरह लेखन में भी
नियमित अभ्यास की आवश्यकता रहती है। और फिर लेखन बिशुद्ध रुप से एक मानसिक कार्य
है, जिसके लिए मन का शांत, स्थिर और एकाग्र होना आवश्यक रहता है, तभी उत्कृष्ट
लेखन संभव होता है। अशांत, अस्थिर और बिखरे हुए मन से उमदा लेखन की आशा नहीं की जा
सकती।
इसके लिए नित्य अभ्यास का
क्रम निर्धारित करना पडता है। शुरुआत 15-20 मिनट से की जा सकती है। नित्य एक पेज
लेखन से की जा सकती है। लेखन का एक नियमित लेखन रूटीन और नित्य अभ्यास प्रभावशाली
लेखन को संभव बनाता है, जिसकी किसी भी रुप में उपेक्षा नहीं की जा सकती।
3.
गहन एवं व्यापक अध्ययन –
लेखन में अध्ययन का विशेष
महत्व है, जितना व्यापक एवं गहन अध्ययन होगा, विचार भी उतने ही परिपक्व, समग्र एवं
धारदार होंगे, जो लेखन को प्रभावशाली बनाते हैं। अध्ययन के अभाव में मात्र अपने
मौलिक विचार-भावों के आधार पर शुरु में प्रभावी लेखन की आशा नहीं की जा सकती। एक
सर्वमान्य नियम है कि एक पेज लेखन के लिए चार से पांच पेज का अध्ययन अभीष्ट रहता
है। एक ही विषय पर जब चार-पांच अलग-अलग पुस्तकों व उत्कृष्ट लेखकों के विचारों को
पढ़ेंगे तो विचारों में गंभीरता, समग्रता और व्यापकता आती है, जो लेखन को
प्रभावशाली बनाती है।
4.
शब्द भण्डार –
लेखन में शब्दों का विपुल
भंडार भी आवश्यक रहता है, तभी प्रभावशाली लेखन संभव होता है। और इसका आधार भी
अध्ययन ही होता है। नित्य अमुक भाषा के अखबारों व पत्रिकाओं का वाचन, विषय की
नई-नई तथा मानक पुस्तकों का परायण शब्द भण्डार में इजाफा करता है, जो लिखते समय
सटीक शब्दों के चयन को संभव बनाता है। शब्द भण्डार के अभाव में लेखन प्रक्रिया
बाधित होती है। विचार एवं भावों का समंदर तो मन में लहलहा रहा होता है, लेकिन सटीक
शब्द के अभाव में कलम आगे नहीं बढ़ पाती या फिर इसका प्रवाह बाधित हो जाता है। अतः
लेखक को अपने शब्द भण्डार को सचेष्ट रुप से समृद्ध करने का भरसक प्रय़ास करना
चाहिए। अध्ययन व श्रवण जिसका एक प्रमुख माध्यम है।
5. भाषा की सरलता-तरलता एवं लेखन प्रवाह –
प्रभावशाली लेखन उसे माना
जाता है, जो पठनीय है, पाठकों को आसानी से समझ में आए। सीधे उसके मन-मस्तिषक व
ह्दय को छू सके। इसके लिए शब्दों का सरल होना अपेक्षित है, वाक्य छोटे हों, लेखन
में प्रवाह हो। हर पैरा इस तरह से आपस में गुंथे हों कि पाठक शुरु से अंत तक इसको
पढ़ता जाए और इसके प्रवाह में बहता जाए।
और यह तभी संभव होता है, जब
लेखन अनुभव से लिखा जाता है, सीधा दिल से निकलता है। बिना फीलिंग के मात्र बुद्धि
से किए गए लेखन में शब्द क्लिष्ट, वाक्य लम्बे होते हैं और प्रवाह का अभाव रहता
है। पाठक को लगता है कि कहीं का ईंट, तो कहीं को रोढ़ा लेख में फिट किए गए हैं। और
प्रवाह के अभाव में पाठक बीच में ही लिखे को पढना छोड देता है। अतः रोचक लेखन शैली
के लिए संवेदनशीलता एक महत्वपूर्ण गुण है।
6.
भाव-संवेदना का तत्व –
संवेदनशीलता लेखन का प्राण
है। जितनी भी कालजयी रचनाएं विश्व के कौने-कौने से उपलब्ध होती हैं, ये भावों के
शिखर पर लिखी गई रचनाएं हैं। अतः अनुभव से किया गया लेखन ही प्रभावशाली होता है। जीवन
को, अस्तित्व को लेखक किस गहराई में अनुभव करता है, उसकी छाप लेखन पर पढ़ती है और
पाठक जाने-अनजाने में ही उस भाव सागर में गोते लगाने को विवश-वाध्य होता है और एक
नई ताजगी, स्फुर्ति, चैतन्यता एवं बोध के साथ बाहर निकलता है। उत्कृष्ट लेखन में
व्यक्ति को गहनतम स्तर पर छूने, संवेदित-आंदोलित करने व रुपांतरित करने की
सामर्थ्य होती है, जिसके केंद्र में लेखक का भाव-संवेदनाओं से ओत-प्रोत ह्दय ही
होता है।
7.
विषय केंद्रिकता –
लेखन को प्रभावशाली बनाने
के लिए उसका विषय के ईर्द-गिर्द केंद्रित होना भी अभीष्ट होता है। इसीलिए लेखन की
शुरुआत एक शीर्षक (हेडिंग) से होती है, फिर आमुख (इंट्रो) और आगे सबहेडिंग्ज के
साथ दूसरे पैरा आगे बढ़ते हैं और अन्त में निष्कर्ष के साथ इसका समाप्न होता है।
और पूरा लेखने एक विषय पर केंद्रित रहता है और इसका हर पैरा पिछले से जुड़ा हुआ,
एक प्रवाह में आगे बढ़ता है, कुछ ऐसे ही जैसे नदी का प्रवाह, जो अलग-अलग पड़ावों
को पार करते हुए अंततः सागर में जा मिलती है। लेखन की यह सामर्थ्य समय के साथ आती
है, वैचारिक एकाग्रता, अभ्यास के साथ सधती है तथा एक प्रभावशाली लेखन को संभव
बनाती है।
प्रभावशाली लेखन के इन
सुत्रों के साथ लेखन में बाधक प्रमुख तत्व पर चर्चा करना भी उचित होगा।
सबसे प्रमुख बाधा लेखन में परफेक्शन की चाह रहती है। परफेक्ट समय के इंतजार
में लेखन नहीं हो पाता और नया सृजन साधक इंतजार करता रह जाता है। जबकि लेखक जहां
खड़ा है वहीं से आगे बढ़ने की उक्ति उचित रहती है। और जिस समय मन विचार एवं भावों
से भरा हो, उसी पल कलम-कापी लेकर बैठना चाहिए और पहला रफ ड्राप्ट तैयार करना
चाहिए, जिसको बाद में संशोधित व संपादित किया जा सकता है।
लेख में मुख्य बाधक तत्व के
साथ प्रमुख सहायक तत्व पर प्रकाश डालना भी उचित होगा, जो है - डायरी
लेखन। नित्य अपने दिन भर का लेखा-जोखा, निरीक्षण करते हुए शाम को डायरी लेखन के
क्रम को निर्धारित किया जा सकता है। इसका नित्य अभ्यास खेल-खेल में ही लेखक के
शब्द भण्डार को बढ़ाता है, उसकी अपनी लेखन शैली की विकसित करता है। इसी के साथ
विचारों में भी परिपक्वता आती है, जो आगे चलकर प्रभावशाली लेखन का आधार बनती है।