गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

यात्रा वृतांत - जब आया बुलावा बाबा नीलकंठ महादेव का, भाग-1


नीलकंठ महादेव ऋषिकेश-पौढ़ी गढ़वाल क्षेत्र का एक सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थल है, जो अपनी पौराणिक मान्यता, प्राकृतिक मनोरमता और धार्मिक महत्व के कारण पर्यटकों, खोजी यात्रियों, श्रद्धालुओं एवं प्रकृति प्रेमियों के बीच खासा लोकप्रिय है। 2003 में देसंविवि बायो-इंफोर्मेटिक्स ग्रुप के साथ सम्पन्न पहली यात्रा के बाद यहाँ की पिछले पंद्रह वर्षों में विद्यार्थियों, मित्रों व परिवारजनों के साथ दर्जन से अधिक आवृतियाँ पूरी हो चुकी हैं। हर बार एक नया रोमाँच, नयी ताजगी, नयी चुनौतियाँ, नए सबक व कृपावर्षण से भरे अनुभव जुड़ते जाते हैं।

आज फिर यात्रा का संयोग बन रहा था, कहीं कोई योजना नहीं थी। जिस तरह कुछ मिनटों में इसकी रुपरेखा बनीं, लगा जैसे बाबा का बुलावा आ गया। रास्ते में पता चला कि आज के ही अमावस्य के दिन ठीक 8 वर्ष पूर्व एमजेएमसी बैच 2010-12 के साथ यहाँ की यात्रा सम्पन्न हुई थी। आज पूरी टीम को शामिल न कर पाने का मलाल अवश्य रहा, लेकिन इसकी भरपाई किसी उचित अवसर पर पूरा करेंगे, इस सोच के साथ हल्के मन के साथ यात्रा पर आगे बढ़े। इस बार की यात्रा इस मायने में नयी थी कि हम पहली वार इस ट्रेक पर हरिद्वार चंड़ीपुल से होकर चीलारेंज से प्रवेश कर रहे थे, जो प्राकृतिक सौंदर्य से जड़ा हुआ एक बहुत ही सुंदर, एकांतिक एवं रोमाँचक मार्ग है। गंग नहर और राजाजी टाईगर रिजर्व से होकर घने जंगलों से गुजरता जिसका रास्ता स्वयं में बेजोड़ है।

चीला रेंज से होकर सफर – चंड़ी चौक से होकर बना चंड़ी पुल क्षेत्र का सबसे लम्बा पुल है, जहाँ से गंगाजी का विहंगम दृश्य देखने लायक रहता है। कुंभ के दौरान इसके दोनों ओर बसे बैरागी द्वीप में तंबुओं की कतार देखने लायक रहती है। इसके वाईं ओर दिव्य प्रेम सेवा मिशन का कुष्ठ आश्रम पड़ता है, जो सेवा साधना की एक अनुपम मिसाल है। 
पुल से आगे की सड़क नजीबावाद, हल्दवानी-पंतनगर, अल्मोड़ा-नैनीताल की ओर जाती है अर्थात, यह कुमाऊँ क्षेत्र में प्रवेश का द्वार है। यहाँ से बाईं ओर मुड़ते ही कुछ दूरी पर गंगाजी एवं नीलपर्वत के बीच ऐतिहासिक सिद्धपीठ दक्षिणकाली मंदिर आता है, जिसकी स्थापना बाबा कामराजजी द्वारा लगभग 800 वर्ष पूर्व की गयी थी, यह सदियों से तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र रहा है।
यहीं से दायीं ओर पहाड़ी पर स्थापित चंड़ीदेवी माता का मंदिर है, जो लगभग 1.5 किमी ट्रेकिंग का सफर है। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी मेंं इसकी स्थापना की थी। पहाड़ी पर उड़नखटोला से भी पहुँचने की भी उम्दा व्यवस्था है।

रास्ता आगे घने जंगल में प्रवेश करता है, यह राजाजी टाइगर रिजर्व का क्षेत्र आता है। हरे-भरे आच्छादन के बीच बलखाती मोड़दार सड़कें इसकी विशेषता हैं। रास्ते में हरिद्वार बैराज से आता मार्ग पड़ता है, जो सिर्फ सरकारी व छोटे वाहनों के लिए खुला होता है। यहां से आगे रास्ते में नांले पड़ते हैं, जो इस मौसम में कलकल बह रही जलराशि से गुलजार थे।
प्रायः इस राह में हिरनों के झुंड़ मिलते हैं, मोर के दर्शन भी सहज ही होते हैं, जो आज संयोगवश नहीं हो पाए। कुछ ही देर में राजाजी नेशनल पार्क का गेट आता है। ऑफ सीजन होने के कारण आज यहाँ माहौल शांत था।
यहाँ सीजन में सफारी जीपें और पालतु हाथियों के झुंड रहते हैं। रिजर्व के जंगल में जीप सफारी का लगभग 33 किमी सफर बेहद रोमाँचक रहता है, जब घने जंगल से होते हुए उतार-चढ़ाव भरे नदी-नालों व घाटियों के बीच चीतल, साँभर, हाथी, मोर, यहाँ तक कि बाघ जैसे जंगली जानवरों तथा पक्षियों को नजदीक से देखने का मौका मिलता है।
कुछ ही मिनटों में हम चीलारेंज के बिजली घर से होकर गुजर रहे थे। सुरक्षाकारणों से यहाँ फोटोग्राफी मना है। यहाँ बिजलीघर से गिरती वृहद जलराशि और नहर के रास्ते इसका निकास, सब दर्शनीय रहता है। इसको नीलधारा कहते हैं, जो आगे घाट नम्बर 10 के पास सप्तसरोवर की ओर से आ रही गंगा की धारा में मिलती है, जहाँ गंगाजी हरिद्वार क्षेत्र में अपने शुद्धतम रुप में प्रकट होती हैं।

इस बिजली घर से आगे का नजारा नहर के किनारे बढ़ता है, जो स्वयं में एक मनभावन सफर रहता है। नहर के किनारे हरे-भरे वृक्ष, इनकी पृष्ठभूमि में घने जंगल, वायीं ओर गंगाजी की जलधार और उस पार घाटी का नजारा तथा शिवालिक पर्वत श्रृंखलाएं – सब मिलकर सफर का खुशनुमा अहसास दिलाते रहते हैं।
आगे रास्ते में गंगाभोगपुर तल्ला गाँव पड़ता है, बीच में खेत और लगभग वृताकार में इनको घेरे घर, एक अद्भुत नजारा पेश करते हैं। यहाँ दिव्य प्रेम सेवा मिशन द्वारा संचालित कुष्ठ आश्रम के व स्थानीय बच्चों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है। गांव को एक आदर्श गाँव का रुप देने के प्रयास यहाँ देखे जा सकते हैं।

आगे पुल पारकर दायीं ओर गंगाभोगपुर मल्ला से रास्ता गुजरता है। यहाँ से सीधा रास्ता बिंध्यवासनी मंदिक तक बाहन से होकर जाता है, लेकिन आगे नीलकंठ के लिए यहाँ से पैदल ही चलना पड़ता है। लेकिन हमारा सफर पूरी तरह से जीप सफारी का था, सो हम नहर के वांएं किनारे ऋषिकेश बैराज तक नहर के किनारे आगे बढ़ते रहे। बीच में बरसाती नाला पड़ता है, जिसे हम कई वर्षों से बरसात में यातायात को ध्वस्त करते देख रहे हैं, अभी पुल नहीं बन पाया है। आज भी हम इसी के बीच बनी कच्ची सड़क से बहते पानी के बीच सड़क पार किए।
थोड़ी देर में ऋषिकेश बैराज आती है, जहाँ गंगाजल का एक हिस्सा नहर से होकर चीलारेंज की ओर बहता है तो शेष हिस्सा गंगाजी की मुख्यधारा से होकर वीरभद्र, रायावाला से होकर सप्तसरोवर के आगे घाट नम्बर10 पर नीलधारा में मिलता है। यहाँ तक नहर के किनारे का सफर सचमुच में बहुत ही अद्भुत रहता है, यथासंभव इसके मनोरम दृश्य को अपने मोबाईल में कैप्चर करते रहे।

बैराज के थोड़ी दूरी पर दाईं ओर का सीधा पगड़ंडी वाला मार्ग पहाड़ी की रीढ़ पर बसे गंगादर्शन ढावा तक जाता है, लेकिन घने जंगल, खुंखार जानवरों व बरसात में ध्वस्थ पगडंडियों के चलते यह पर्यटकों के लिए बंद रहता है। क्षेत्रीय लोग हालांकि अपने रिस्क पर अपने अनुभव के आधार पर इस मार्ग से आवागमन करते रहते हैं। 
आज से ठीक आठ वर्ष पूर्व हम अमावस्य की घुप अंधेरी रात में पूरे काफिले के साथ इसी मार्ग में लगभग दो-अढाई घंटे भटकते हुए बाहर निकले थे, जिसका वर्णन अगली पोस्ट के अंत में करेंगे।

यहाँ से आगे की सड़क घने जंगल से होकर गुजरती है। रास्ते भर कहीं नाले, तो कहीं झरने हमारा स्वागत करते रहे। हरा-भरा घना जंगल हमारी राह का सहचर रहा। वन गुर्जरों की वीरान बस्ती के दर्शन भी राह में हुए, जिनका जीवन दूर से देखने पर बहुत रोचक लगता है।
रास्ते में रामझूला से नीलकंठ के पैदल मार्ग के दर्शन हुए। लंगूरों के झुंड यहाँ इकट्ठा थे। ये शांत एवं सज्जन जंगली जीव यात्रियों के हाथों से चन्ना खाने के अभ्यस्थ हैं। ये झुंडों में रहते हैं, इनसे यदि भय न खाया जाए, तो इनकी संगत का भरपूर आनन्द उठाया जा सकता है।

लक्ष्मण झूला का नजारा – यहाँ से पार करते ही कुछ मिनटों में हम ऐसे बिंदु पर पहुँचे, जहाँ से रामझूला तो पीछे छुट चुका था लेकिन लक्ष्मण झूले का नजारा प्रत्यक्ष था। यह क्षेत्र आजकल योग एवं अध्यात्म केपिटल के रुप में प्रख्यात है, जहाँ विदेशी पर्याप्त संख्या में शांति की खोज में भारतीय अध्यात्म, चिकित्सा एवं योग का अपनाते देखे जा सकते हैं।
लक्ष्मण झुले के ईर्द-गिर्द पूरा शहर बसा है, एक के ऊपर, दूसरे कई मंजिलों ऊँचे भवनों का नजारा हतप्रत करता है, लगता है जैसे कंकरीट का जंगल खड़ा हो चुका है। इन भवनों के जमघट के बीच बढ़ती जनसंख्या का दबाव, मानवीय लोभ, बेतरतीव पर्यटन और प्रकृति के साथ खिलवाड़ की विसंगतियाँ प्रत्यक्ष दिखती हैं।
पृष्ठभूमि में कुंजा देवी की चोटी, पहाड़ों से होकर जा रही सड़कें हमें नीरझरना-कुंजापूरी के सफर की याद दिला रही थी। कुछ यादगार स्नैप्स के साथ सफर आगे बढ़ता है।

गंगा किनारे सफर का रोमाँच – लक्ष्मण झूला को पार कर हम गंगाजी के किनारे आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में बानर सेना के दर्शन बीच-बीच में होते रहे। लगा कि यात्रियों के द्वारा दया एवं कौतुकवश इनको दिए जा रहे चारे के कारण इनकी आदतें कितना बिगड़ चुकी हैं। दिन भर जंगलों में उछल-कूद व भोजन की खोज  की बजाए, अब ये सड़क के किनारे ठलुआ बैठकर, भिखारी की तरह भोजन के इंतजार में रहते हैं।
रास्ते में दायीँ ओर की पहाडियों से आ रहे नालों व झरनों में पानी की प्रचुरता एक सुखद एहसास दिला रही थी, लगा इस वर्ष सितम्बर माह में लगातार हुई बारिश यहाँ भी फलित हुई है। क्षेत्र के जलस्रोत पूरी तरह से रिचार्ज हो चुके हैं। वायीं ओर गंगाजी की ओर दनदनाते हुए वह रहे पहाड़ी नाले रास्ते भर इसकी झलक दिखा रहे थे।

हेंवल नदी के किनारे – रास्ते में गंगाजी से हटते ही गढ़वाल हिमालय से आने वाली हेंवल नदी भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रही थी। आज इसमें भी भरपूर जलराशि दिख रही थी। इसके नीलवर्णी जल में लोग पूरी मोजमस्ती करते दिखे। इसकी पानी इतना साफ था कि इसके तल के दर्शन तक स्पष्टतयः हो रहे थे। इसके किनारे बसे गाँव व कैंपिक साइट्स के दृश्य बहुत संदुर दिखते हैं, मन कर रहा था कि कभी फुर्सत में यहाँ की शांत वादियों में कुछ दिन विता सकते हैं, खासकर नदी के उस पार के जंगल में एक गुफा तलाशकर।

मौनी बाबा, मायादेवी के चरणों में – अब रास्ता पहाड़ियों की चढ़ाईयों को पार कर रहा था, सड़क के किनारे बनी चट्टियां चाय-नाश्ता के लिए यात्रियों का इंतजार व स्वागत कर रही थी। हम कुछ ही मिनटों में पहाडियों के चरणों में थे, जिसके शिखर पर मंदिर की पताका लहरा रही थी। पता चला कि ये महामाया का मंदिर है, जहाँ तक चढ़ने के लिए कई सौ सुंदर सीढ़ियाँ की सड़क बनीं हैं। 
इसी के पास सड़क के किनारे मौनी बाबा की कुटिया का बोर्ड मिला। यहाँ तो हम नहीं जा पाए, लेकिन रामझूला से नीलकंठ पैदल मार्ग पर चट्टान की गोद में बसे मौनी बाबा के आश्रम की याद बरबस ताजा हो गयी, जहाँ कभी तीर्थयात्रियों के लिए चाबल-कड़ी का भंडारा चौबीस घंटे चलता रहता था।
अब हम नीलकंठ क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे। नीलकंठ महादेव महज 5 किमी दूर थे। उस पार पहाड़ों की गोद में बसे गाँव, सीढ़ीदार खेतों में पक रही धान की फसल सफर के आनन्द में एक नया रोमाँच घोल रही थी।  
यात्रा वृतांत का अगला भाग आप इसके खण्ड-2, पर्वत की गोद में बाबा का कृपा प्रसाद में पढ़ सकते हैं। 

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