रेल यात्रा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
रेल यात्रा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 31 दिसंबर 2023

मेरी चौथी झारखण्ड यात्रा, भाग-1


हरिद्वार से टाटानगर (जमशेदपुर) की रेल यात्रा

हरिद्वार रेल्वे स्टेशन, 17 दिसम्बर, 2023

नौ वर्ष वाद मेरी यह चौथी झारखण्ड यात्रा थी, 2014 में संयोगवश प्रारम्भ यात्रा अभियान की पूर्णाहुति जैसी और एक नए अभियान के शुभारम्भ जैसी। यहाँ हमारे अंतिम शोध छात्र की पीएचडी उपाधि पूर्ण हो रही थी। जीवन की विषम परिस्थितियों के साथ कोविड की दुश्वारियों को पार करते हुए तमाम विघ्न-बाधाओं के बावजूद कार्य पूर्ण हो रहा था, यह दर्शाते हुए कि जिसके भाग्य में जो वदा होता है, वह उसको मिलकर रहता है। हालाँकि इसमें व्यक्ति का श्रम, लग्न, त्याग और अपनों के सहयोग की अपनी भूमिका रहती है। बस व्यक्ति हिम्मत न हारे, आशा का दामन न छोड़े और अपने लक्षिय ध्येय की खातिर अनवरत प्रय़ास करता रहे, जो मंजिल देर-सबेर मिलकर ही रहती है।

इस बार धनवाद-रांची की वजाए पहले टाटानगर - जमशेदपुर जाने का संयोग बन रहा था। इसलिए पहली बार कलिंगा उत्कल एक्सप्रेस रेल से जा रहा था, जो सीधा हरिद्वार से होकर जमशेदपुर-टाटानगर पहुंचती है और इसका अंतिम पड़ाव रहता है उड़ीसा प्रांत का प्रख्यात तीर्थ स्थल श्री जगन्नाथधाम पूरी। दस दिवसीय यह यात्रा कई मायनों में यादगार रही। रेल से लेकर बस तथा हवाई सफर के रोमाँच के बीच अनुभव की कमी तथा कुछ लापरवाही के चलते छोटी-छोटी चूकें कड़क सवक देती गई और अनुभव से शिक्षण का क्रम भी यात्रा के समानान्तर चलता रहा। फिर कुछ देव निर्धारित जीवन के संयोग, जिनके साथ ईश्वर हर जीवात्मा की विकास यात्रा को अपने ढंग से पूर्णता के मुकाम की ओर गतिशील करता है। अगले 4-5 ब्लॉगज की सीरिज में इन्हीं जीवन यात्रा के अनुभवों को साझा करने का प्रयास रहेगा, जो शायद पाठकों के लिए कभी कुछ काम आएं। 

इस यात्रा का शुभारम्भ ही अद्भुत रहा, रेल अपने प्रारम्भिक पड़ाव योग-नगरी ऋषिकेश से ही पूरा तीन घंटा लेट थी। यात्रा के प्रारम्भ में ही ऐसी लेट-लतीफी का यह हमारा पहला अनुभव था, कि ऐसा भी हो सकता है। आगे से फिर घर से ही रेल के स्टेटस का अपडेट लेकर चला जाए, जिससे रेल्वे स्टेशन पर मौसम की विषमता के बीच अनावश्यक तप न करना पड़े। हालाँकि आज के अनुभव का अपना कड़क मजा रहा। आधा समय तो स्टेशन के प्रतीक्षालय कक्ष में इंतजार करते बीते, एक चौथाई समय स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर टहलते हुए और शेष चौथाई समय ट्रेन की आने की घोषणा के चलते ट्रेन के इंतजार में टकटकी लगाए हुए। सूर्योदय से पहले की ठण्डी में हाथ जैसे जम रहे थे, गंगाजी से बह रहे ठंडी हवा के तीखे झौंके सीधे टोपी के आर-पार हो रहे थे। क्योंकि हमारे इंतजार का स्थल स्टेशन के थोड़ा बाहर पड़ रहा था, रेल की सेकण्ड लास्ट बोगी में हमें चढ़ना था। लेकिन यात्रा के उत्साह की ऊर्जा इंतजार की वाध्यता और शीतल हवा के तीखे झौंको पर भारी पड़ रही थी।

दिसम्बर की सर्दी के बीच सफर का रोमाँच 

फिर शरीर को गर्म रखने के लिए प्लेटफॉर्म पर लगे स्टाल पर बीच-बीच में गर्म पेय का सहारा लेते रहे, जिससे कड़क ठंड के बीच कुछ राहत अवश्य महसूस होती रही। जिस रेल से 6.55 पर प्रातः हरिद्वार से कूच करना था, वो आखिर पौने 10 बजे पहुँचती है और दस मिनट के विराम के बाद लगभग 10 बजे चल पड़ती है। इस तरह पूरा 3 घण्टा लेट। 2 बजे के आसपास गाजियावाद और पौने 3 बजे निजामुद्दीन से होती हुई, मथुरा को पार कर सवा छः बजे आगरा पहुँचती है। रेल साढ़े तीन घंटा लेट हो चुकी थी। ग्वालियर पहुँचते-पहुँचते रेल लगभग 4 घंटा लेट थी। रात को पौने 9 बजे यहाँ पहुंचती है। साइड अपर बर्थ में सीट होने के कारण नीचे उतर कर बाहर देखने की अधिक गुंजाइश नहीं थी और मनःस्थिति भी एकांतिक चिंतन-मनन तथा अध्ययन के साथ विश्राम करते हुए सफर की थी। रास्ते में साथ लिए ब्रेड तथा जैम के साथ गर्म पेय का मिश्रण रात्रि आहार बनता है। रात को रेल थोड़ा गति पकड़ती है। प्रातः दिन खुलते-खुलते साढ़े 6 बजे हम वीरसिंहपुर पहुंच चुके थे। रेल अब 2 घंटे लेट थी। अपने बर्थ में ही बैठे-लेटे भाव सुमिरन के साथ मानसिक ध्यान-पूजा आदि का क्रम चलता रहा।

सुबह 9 बजे के आस-पास पेंद्रा रोड़ पर रेल रुकती है। यहाँ छुट्टियों में घर गई विभाग की एक छात्रा से मुलाकात होती है, जो हमारे लिए नाश्ते की व्यवस्था कर रखी थी। 

पेंद्रा रोड़ स्टेशन का दृश्य

बिलासपुर आते-आते रेल 3 घंटे लेट हो चुकी थी और 11 बजे के आसपास यहाँ पहुंचते हैं, जहाँ विश्वविद्यालय के योगा में दीक्षित पुराने छात्रों से मुलाकात होती है, जो सफर के लिए लंच की व्यवस्था कर बैठे थे। हालाँकि हम स्वभाववश ऐसी सेवा लेने से संकोच करते हैं, लेकिन संयोग से घटी ये अप्रत्याशित मुलाकातें विश्वविद्यालय परिवार के आत्मीय विस्तार से गाढ़ा परिचय करवा रही थी और इनका भावनात्मक स्पर्श अंतःकरण को कहीं गहरे स्पर्श कर रहा था। 

रात को राउरकेला पहुँचते – पहुंचते रेल पाँच घंटा लेट हो चुकी थी और रात के आठ बज चुके थे। शाम छः बजे जमशेदपुर पहुंचने वाली रेल रात 12 बजे पहुँचती है और रेल 6 घण्टे लेट हो चुकी थी। इस तरह रेल की लेट-लतीफी का यह हमारा पहला अनुभव था। स्टेशन पर मार्ग में आतिथ्य के सुत्रधार डॉ. दीपकजी हमारा इंतजार कर रहे थे, जिन्होंने रात्रि विश्राम की व्यवस्था घर पर कर रखी थी। 

रेल में हमारी सीट साइड अपर बर्थ की थी, सो हमें किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई। रेल के लम्बे सफर में यह सीट हमारे अनुभव में सबसे विश्रामदायी रहती है। एक बैग को पैर की और रखे, तो दूसरे को साइड में टांगे आराम से कभी लेटे, तो कभी उठकर पढते-लिखते व चिंतन-मनन करते बिताते रहे। बीच-बीच में अधिक बोअर होते तो गर्म पेय की चुस्कियों के साथ मूड बदलते। केविन में बैठे परिवार की बातें, छोटे बच्चों की आपसी नोक-झौंक भरी शरारतें, बड़ों से खाने-पीने की उनकी तमाम तरह की फरमाइशें रास्ते भर केविन में घर-परिवार जैसा माहौल बनाऐ रखीं। 

एक नन्हें शिशु की चपलता भरी तोतली बातें विशेषरुप से आकर्षित कर रही थीं। छोटे बालक से भावनात्मक तार जुड़ रहे थे, लेकिन बहुत घुलने-मिलने से बचते रहे। क्योंकि सफर कुछ घंटों का साथ का था, फिर रास्ते में अलग होना था। परिवार पुरी धाम जा रहा था। ऐसे में अस्तित्व के सुत्रधार भगवान जगन्ननाथ को सुमरण करते हुए तटस्थ भाव से वाल गोपाल की भोली चपलता को निहारते रहे। लगा प्रभु ही आखिर हर जीवात्मा के स्वामी, परमपिता हैं, और उनकी लीला वही जाने। आज इस नन्हें बालक के माध्यम से प्रभु एक ओर हमारे सफर को आनन्ददायी बना रहे हैं और साथ ही जीवन के किन्हीं गहनतम भावनात्मक तारों को भी झंकृत कर रहे थे। 

पास के केविन में एक बाबाजी का कथा-प्रवचन भी इस यात्रा की विशेषता रही, जो पहली वार घटित होता देख रहा था। केविन की सवारियाँ भी सतसंग का पूरा आनन्द ले रही थी और बाबाजी की बातों के साथ हामी भरती हुई, इनके समर्थन में अपनी दो बातें जोड़ती हुई ज्ञान-गंगोत्री में डुबकी लगा रहीं थी। काफी देर यह सतसंग चलता रहा। हालांकि छोटा बालक बोअर हो रहा था, जब उसके धैर्य का बाँध टूट गया तो वह रोने व चिल्लाने तक लगा था। हमारा बाबाजी से विनम्र निवेदन था कि सत्संग को बालक के स्तर पर क्यों नहीं ले आते, बाल-गोपाल की लीला-कथाओं के साथ इसका मन क्यों नहीं बहलाते। खेैर, रेल में ऐसे सत्संग का माहौल हमारे लिए एक नया अनुभव था। इसके साथ रेल की लेट-लतीफी का मलाल जाता रहा। साथ ही बीच-बीच में नीचले बर्थ में आकर बाहर निहारते तो हरियाली की चादर औढे खेत खलिहान व जंगल के दृश्य मन को तरोताजा करते।

हरियाली की चादर औढे खेत-खलिहान व जंगल का बाहरी दृश्य

अगले दिन इसी रेल से आ रहा विश्वविद्यालय के छात्रों का दल, जिसे शाम 6 बजे टाटानगर पहुँचना था, वो ब्रह्ममुहूर्त में सवा 3 बजे प्रातः पहुचता है। अर्थात आज रेल पूरा 9 घंटा लेट थी। थोड़ा बहुत कोहरे का भी असर रहा होगा, लेकिन पता चला कि यह रेल ऐसी लेट-लतीफी के लिए कुख्यात है, जो प्रायः सवारियों के लिए परेशानी का सबब बनती है। विशेषकर जब किसी को आपात में जल्दी पहुँचना हो, या आगे की यात्रा इससे जुड़ी हुई हो, तो ऐसी लेत-लतीफी घातक एवं अक्षम्य श्रेणी की चूक में गिनी जा सकती है। रेल मंत्रालय को इस ओर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

रास्ता भर मसाले वाली इलायची व अदरक चाय तथा कॉफी ही गर्म पेय में मिलती रही। पहले दिन सर्विस चुस्त-दुरुस्त रही, दिन भर पेंट्री सेवाकर्मियों के केविन में यदा-कदा चक्कर लगते रहे। कितनी बार भोजन और नाश्ते के वारे में पूछते रहे। लेकिन दूसरे दिन सर्विस ढीली पड़ गई थी, दिन में 12-1 बजे तक पानी की बातल तक नसीव नहीं हो पायी थी। मसाला चाय से तंग आ चुकी सवारियों के लिए स्टेशन पर केतली में ताजा चाय और लेमन टी की व्यवस्था स्वागत योग्य अनुभव था। स्वाभाविक रुप में स्वारियां दिन भर टाइमपास के लिए कुछ न कुछ चुगती रहती हैं। ऐसे में लंच या डिन्नर में हल्का भोजन अपेक्षित रहता है। लेकिन रेल में पूरी थाली से कम कोई दूसरी व्यवस्था नहीं दिखी, जिसमें लगा सुधार की जरुरत है। हल्का आहार लेने के इच्छुक सवारियों के लिए हाल्फ प्लेट जैसी व्यवस्था रेल विभाग कर सकता है।

टाटानगर पहुँचकर संक्षिप्त विश्राम कर हम, प्रातः अगले गन्तव्य की ओर बढ़ते हैं, जो था यहाँ से 132 किमी की दूरी पर स्थित झारखण्ड की राजधानी रांची का एक अकादमिक संस्थान। पिछली तीन झारखण्ड यात्राओं में हम अधिकाँशतः धनवाद से होकर राँची आए थे और इस बार टाटानगर से राँची की ओर जाने का संयोग बन रहा था। सुवर्णानदी के किनारे टाटानगर-राँची एक्सप्रेैस मार्ग पर हमारी पहली यात्रा होने वाली थी। नए रुट पर सफर की उत्सुक्तता और रोमाँच का भाव स्वाभाविक था, जिसका यात्रा विवरण आप अगली पोस्ट में पढ़ सकते हैं। सुवर्णरेखा के संग टाटानगर से राँची का सफर

जुबिली पार्क, टाटानगर, जमशेदपुर, झारखण्ड, भारत

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

यात्रा वृतांत - कोरोना काल में हमारी पहली रेल यात्रा

हरिद्वार से सतना वाया लखनउ-चित्रकूट


मार्च 2021 का तीसरा सप्ताह, कोरोना काल के बीच यह हमारी पहली रेल यात्रा थी। देसंविवि से हरिद्वार रेल्वे स्टेशन के लिए ऑटो में चढ़ते हैं, ऑटो के रेट 20 रुपए से बढ़कर 30 रुपए मिले। लगा कोरोना की आर्थिक मार सब पर पड़ रही है। कोरोनाकाल के साथ कुछ असर कुंभ का भी रहा होगा। गंगाजी की पहली धारा को पार करते ही टापुओं में तम्बुओं की सजी कतारों व विभिन्न नगरों को सजा देखकर कुम्भ की भव्य तैयारियों का अहसास हो रहा था, हालाँकि इस बार इसका विस्तार सिमटा हुआ दिखा। नहीं तो सप्तसरोवर से लेकर आगे ऋषिकेश पर्यन्त गंगा किनारे टापुओं में कुंभ नगर बसे होते, जिसके हम वर्ष 1998 और 2010 के हरिद्वार कुंभ के दौरान साक्षी रहे हैं। हाल ही में बने फ्लाइ ऑवर, इनकी दिवालों पर उकेरी गई रंग-बिरंगी सुंदर कलाकृतियों के बीच गंगनहर को पार करते हुए ऑटो-रिक्शा रेल्वे स्टेशन तक पहुँचाता है।

रेल्वे स्टेशन में प्रवेश साइड से हो रहा था। मुख्य द्वार से प्रवेश बन्द था। इसके गेट पर पुलिस की चाक चौबंद व्यवस्था दिखी। कोरोनाकाल में प्रशासन की इस सजगता एवं सावधानी को समझ सकते हैं। अधिकाँश लोग मास्क पहने दिखे, लेकिन कुछ इससे बेपरवाह भी मिले। हमारी ट्रेन स्टेशन पर खड़ी थी। हम निर्धारित समय से आधा घण्टा पहले पहुँच चुके थे। खाली समय में अंकल चिप्स और चाय के साथ रिफ्रेश होते हैं।

कोरोना काल के बीच हमारी पहली रेल यात्रा की उत्सुकता स्वाभाविक थी। मैं अपनी मिसेज के साथ ससुराल जा रहा था, जिसका संयोग अठारह वर्षों के बाद बन रहा था। यह हमारी चौथी यात्रा थी। पिछली यात्राओं में सतना के साथ आसपास चित्रकूट, मैहर, रामवन जैसे दर्शनीय तीर्थस्थल देखे थे। इस बार कोरोना काल के बीच ऐसी यात्राओं की संभावना कम थी, लेकिन कुछ यादगार लम्हे बटोरने का मन तो घुम्मकड़ दिल बना चुका था, जिसका वर्णन आप अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

ठीक चार बजकर बीस मिनट पर हमारी ट्रेन - हरिद्वार-जबलपुर फेस्टिवल स्पेशल चल पड़ती है, जो अगले दिन सुबह साढे आठ बजे सतना स्टेशन पहुँचाने वाली थी। हरिद्वार से सतना सीधे यही एक ट्रेन है, बाकि दिल्ली से होकर इलाहावाद तक जाती हैं और फिर दूसरी ट्रेन पकड़नी पड़ती है। फेस्टिवल ट्रेन हरिद्वार से सतना-जबलपुर की सवारियों के लिए वरदान से कम नहीं, लेकिन इसकी एक कमी भी है। यह सप्ताह में एक ही बार चलती है। गुरुवार को हरिद्वार से छूटती है और गुरुवार को ही वापिस पहुँचती है अर्थात बुधवार को जबलपुर से वापिस आती है।

इस तरह दोपहर 4 बजकर 20 मिनट के बाद शाम 7 बजे तक, अंधेरा होने से पहले के दो-अढ़ाई घण्टे पहले दिन के उजाले में और फिर ढलती शाम के साथ बीते। रास्ते में लक्सर, नजीबाबाद, मुरादाबाद आदि स्टेशन पड़े। छोटे कस्बों, गाँव और खेतों के बीच सफर आगे बढ़ता रहा। खेतों में गन्ने की खेती वहुतायत में दिखी, साथ में गैंहूँ की फसल भी पक रही थी। गन्ना कहीं कट रहे थे, कुछ ट्रैक्टरों में लदे थे तथा कहीं-कही गन्ने की बुआई तक होते दिखी। 

कुछ खेतों में पराली जल रही थी, तो कुछ खेतों में राख का काला रंग इसकी चुगली कर रहा था। खेतों की मेड़ पर सफेदा के पेड़ दिखे। पाप्लर के पेड़ों का चलन कम मिला। मवेशियों में भैंस और बकरियों के दर्शन अधिक हुए, गाय कम दिखीं। हालाँकि बैलगाड़ियों के दर्शन होते रहे।

जल स्रोत के नाम पर ज्वालापुर के पास गंगनहर के दर्शन होते हैं। आगे रास्ते में एक नदी भी पड़ी, जो मौसमी अधिक लगी। लम्बे पुल से होते हुए हम इसको पार किए। 

रास्ते में तालाबों-पोखरों का रुका हुआ जल कई जगह मिला। कहीं कहीं कारखानों का गंदला जल खेतों के किनारे बहता दिखा, जिसका विषाक्त स्वरुप देखकर चिंता हो रही थी कि यह मिट्टी, फसलों व जीव-जंतुओं पर क्या असर डाल रहा होगा। रास्ते में खेतों की सिंचाई भी होती दिखी। कहीं-कहीं पानी उगलते मोटर-पम्पों के आसपास बच्चों व युवाओं को खेलते व जलक्रीड़ा करते देखा।

आम के बगीचे कहीं-कहीं खेतों के बीच खड़े दिखे। फलों का चलन इस रूट पर कम दिखा। कुछ जगह हरे-भरे बाग मिले। कुछ में छोटी पौध तैयार हो रही थी। सब्जियों के नाम पर कुछ स्थानों पर पत्ता गोभी के खेत दिखे। यहाँ कैश क्रोप का भी अधिक चलन नहीं दिखा। रास्ते में नदियों के किनारे सब्जी उत्पादन वहुतायत में होते दिखा।

रेल्वे क्रॉसिंग पर फाटक के दोनों ओर इंतजार करते लोग बीच-बीच में मिलते गए। लोगों की भीड़ को देखकर लगा कि कोरोना काल में भी जीवन गतिशील है। गुरुवार की हाट भी शाम के समय रास्ते में सजी दिखीं। खेतों में काम करते किसान, निराई-गुड़ाई करती महिलाएं, फसल काटते व ढोते लोग, खेतों में खेलते बच्चे-युवा सब मिलाकर एक प्रवाहमय लोक जीवन के दर्शन करा रहे थे।

ढलती शाम के साथ सूर्य भगवान अस्तांचल की ओर बढ़ रहे थे। सूर्यास्त की लालिमा ढलती शाम का सुंदर नजारा पेश कर रही थी। पक्षी जहाँ अपने आशियानों की ओर आकाश में उड़ान भर रहे थे। खेतों में अलसाए अंदाज में काम कर रही महिलाएं व किसान, खेतों की पतली पगडंडियों के संग घर बापिस लौट रहे थे और ये सब मिलकर ग्रामीण जीवन के रोमाँचक भाव जगा रहे थे।

इस बीच ट्रेन में चाय-कॉफी, बिस्कुट-नमकीन की फेरी लगती रही। चाय के साथ बीच-बीच में रिफ्रेश होते रहे। डिब्बे में सवारियाँ कम ही थी। कोरोना काल का असर साफ दिख रहा था। पूरे डिब्बे में मुश्किल से 10-15 सवारियाँ रही होंगी। मास्क व सोशल डिस्टेंसिंग के प्रति जागरुकता का अभाव दिखा। कहने पर कुछ लोग मान जाते। वहीं कुछ इस पर बुरा मान जाते व बड़बड़ाते हुए आगे बढ़ते।

ट्रेन एप्प व्हेयर इज माई ट्रेन से आ रहे व पीछे छूट रहे स्टेशनों का पता चल रहा था। ज्वालापुर से ही ट्रेन समय पर थी व कहीं-कहीं कुछ एडवांस में भी पहुँच रही थी। बीच में थोडा लेट भी हो जाती। अगले दिन तक इसे कवर करते हुए आधा घण्टा ही लेट रही। दौड़ती ट्रेन की स्पीड में फोटो कैप्चर करना मुश्किल हो रहा था, जो ब्लर्र(धूंधले) आ रहे थे। इसलिए जहाँ ट्रेन थोड़ा धीमे होती, वहाँ फोटो खींचते। ऐसे लगता जैसे बीच-बीच में ट्रेन हमें मौका दे रही हो। जब रेल रफ्तार पकड़ती तो बाहर दृश्यों को निहारते हुए इनके विविधपूर्ण रंग व रुप को ह्दयंगम करते रहते।

पूरे रेल रुट में दोनों ओर के खेतों को देखकर लगा कि यहाँ की भूमि पर्याप्त उर्बर है। लहलहाती फसल एवं यहाँ के हरे-भरे आँचल को देख खुशहाल ग्रामीण आँचल का अहसास होता रहा। हालाँकि इनसे जुड़े कई सबाल भी जेहन में उठते रहे, लेकिन ट्रेन में ऐसा कोई किसान, युवा या प्रबुद्ध लोकल सवारी नहीं दिखी, जिससे इन विषयों पर कुछ समाधानपरक चर्चा होती। लगा अभी ऐसी चर्चा का समय नहीं आया होगा, अगली किसी यात्रा में शायद ऐसा संयोग बने।

रात को आठ बजे के करीव हम मुरादाबाद पहुँच चुके थे। अब बाहर के नजारे नदारद थे। अतः खाली समय में साथ ले गई पुस्तकों का स्वाध्याय करते रहे। इसी बीच घर से पैक किया डिनर करते हैं। रात 9,30 बजे तक बरेली शहर पार होता है। कुछ देर में नींद के झौंके आने लगते हैं। सो अपने साइड अप्पर बर्थ में बिस्तर जमाकर लेट जाते हैं। मालूम हो कि रेलवे की ओर से कोविड काल में चादर, कम्बल व तकिए आदि नहीं मिलते। अपने साथ ले गए कपडों से काम चलाना पड़ता है। रात को 1,30 बजे ट्रेन लखनऊ पहुँच चुकी थी। थोड़ा चेंज के लिए कौतुहलवश बाहर निकलते हैं, स्टेशन पर सवारियों को ढोता इलेक्ट्रिक वाहन देखकर आश्चर्य हुआ, जो इन्हें स्टेशन पर ईधर से ऊधर ले जा रहा था। ऐसे वाहन के दर्शन हम फ्रेंक्फर्ट एयरपोर्ट पर कर चुके थे। यहाँ ऐसे ही कुछ वाहन का दर्शन कर अच्छा लगा, कि भारतीय रेलवे धीरे-धीरे अपग्रेड हो रही है।

सुबह 6 बजे भोर होते-होते हम उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर की ओर पहुँच चुके थे। बाहर के नजारे पिछले दिन से एक दम अलग थे। बांदा पहुँचते पहुँचते सुबह हो चुकी थी। आगे रास्ते में गैंहूं की फसल सुखी व भूरी दिखी, जो लगभग पक चुकी थी। कई जगह तो यह कट चुकी थी व कई जगह कटकर कतारों में इसकी ढेरी लगी थी। लगा कि फसल के पकने का सिलसिला दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमिक रुप में होता है। इस सीजन में आम दक्षिण में पक रहे होते हैं, जबकि उत्तरी भारत में बौर निकले होते हैं।

खेतों में काट कर रखी गैंहूँ की पकी फसल

अब साइड में पहाड़ के दर्शन भी शुरु हो गए थे। इनके दर्शन करते हुए 8 बजे हम चित्रकूट पहुँचते हैं। रास्ते में पलाश के गुलावी-लाल फूलों से लदे पेड़ तथा इनके जंगलों के नजारों को रोमाँचित भाव से निहारते रहे। यह हमारे लिए एक नया अनुभव था। यथासंभव इनको केप्चर करते रहे, लेकिन ट्रेन की तेज रफ्तार के कारण अधिकाँश फोटो धुँधले निकले। ट्रेन के धीमें होने पर कुछ काम के फोटो हाथ लगे। जो भी हो पहाड़ों की गोद में इनके जंगलों के बीच सफर एक यादगार अनुभव रहा, जिसका भरपूर आनन्द लेते रहे।

ट्रेन लगभग आधा घंटा लेट थी, सो 9 बजे के आसपास सतना में प्रवेश होता है। सीमेंट फेक्ट्रियों के दर्शन शुरु होते हैं। रास्ते में फ्लाइऑवर पार करते ही रेल्वे स्टेशन आता है। स्टेशन पिछले 18 सालों में पूरी तरह से अपग्रेड हो चुका है। साफ सूथरा और एकदम नया। कोविड को लेकर किसी तरह का कोई भय बाहर नहीं दिखा। कोई रिक्शा व ऑटोवाला मास्क नहीं पहने था। पूछने पर जबाव मिला कि यह मप्र का सबसे कम प्रभावित शहर है और सबसे सुरक्षित भी। खैर इस दावे को जाँचने का हम नवांगुतक के पास कोई पैमाना नहीं था। थोडी देर में मास्क पहने हमारे बड़े साले साहब शैलेंद्र भाई साहब आते हैं। समझ आया कि कोरोना जिस तेजी से फैल रहा है, सावधानी आवश्यक है। भाई साहब अपने वाहन में हमें गन्तव्य स्थल की ओर ले जाते हैं। शहर के बीच गुजरते हुए पुरानी यादें ताजा होती हैं, जिसको आप सतना शहर एवं आसपास के दर्शनीय स्थल की अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

यात्रा वृतांत - मेरी पहली मुम्बई यात्रा, भाग-2


अक्सा बीच व कान्हेरी गुफाओं की गोद में


पिछले ब्लॉग में हम मुम्बई में प्रवेश से लेकर, वाशी सब्जी मंडी व यातायात का वर्णन कर चुके हैं, इस पोस्ट में हम अगले दिनों मुम्बई के कुछ दर्शनीय इलाकों के रोचक एवं ज्ञानबर्धक अनुभवों को शेयर कर रहे हैं, जिनमें अक्सा बीच का सागर तट और कान्हेरी गुफाएं शामिल हैं।

मुम्बई की गगनचुम्बी इमारतें महानगर को विशेष पहचान देती हैं, जिनमें अधिकाँशतः कंपनियों के ऑफिस रहते हैं।
महानगरों की आबादी को समेटने के उद्देश्य से कई मंजिले भवनों का निर्माण समझ आता है। फिर यहाँ शायद भूकम्प का भी कोई बड़ा खतरा नहीं है। सागर, नदियाँ व बाँध पास होने की बजह से पीने के पानी भी यहाँ कोई बड़ी समस्या नहीं है। जिंदगी यहाँ भागदौड़ में रहती है, जिसे यहाँ के व्यस्त ट्रेफिक को देखते हुए समझा जा सकता है। नवी मुम्बई के रास्ते में पवाई लेक के दर्शन हुए, जो काफी बड़ी दिखी। इसके किनारे रुकने व अधिक समझने का तो मौका नहीं मिला, लेकिन यह महानगर का एक आकर्षण लगी, जिसके एक ओर आईआईटी मुम्बई स्थित है और पीछे पहाड़ियाँ व घने जंगल।
इसके आगे सागर के बेकवाटर पर बने पुल व पृष्ठभूमि में हरी-भरी पहाड़ियाँ सब मुम्बई को एक खास पहचान देते है और यात्रा में एक नया अनुभव जोड़ते हैं।

पता चला कि यहाँ भागती दौड़ती जिंदगी के बीच बड़ा पाव आम जनता का सबसे लोकप्रिय आहार है। एक तो यह सस्ता है, पेट भराऊ है, तुरन्त तैयार हो जाता है व मिर्च-मसाला अपनी क्षमता के अनुसार एडजेस्ट हो जाता है। फिर चलते-फिरते इसको खा सकते हैं। भाग दौड़ भरे महानगर की जीवनशैली से यह खास मैच करता है। इसके साथ पावभाजी, इडली बड़ा आदि यहाँ के लोकप्रिय स्ट्रीट फूड दिखे।

     एक शाम मुम्बई के अक्सा बीच पधारने का संयोग बना। यह मलाड़ से उत्तर-पश्चिम का सागर तट है, जो एक पिकनिक स्पॉट के रुप में लोकप्रिय है। समुद्र के किनारे सड़क यहाँ तक पहुँचती है, जिसकी राह में नौसेना का एक प्रशिक्षण केंद्र भी पड़ता है। बीच में प्रवेश का कोई शुल्क नहीं रहता। इसमें प्रवेश करते ही स्थानीय फल, फूल तथा व्यंजन के ठेले व दुकानें सजी मिली, जिनका स्वाद हम बापसी में चख्ते हैं। एक बड़ा रिजोर्ट भी यहाँ है और फिर सामने सागर तट, जो ज्वार भाटे के अनुरुप अलग-अलग रुप लेता रहता है। आज की शाम पानी उतार पर था, सो रेतीले तट पर काफी पैदल चलने के बाद हम सागर किनारे पहुँचते हैं। पता चला कि मछुआरों की बस्तियाँ आगे किनारे पर बसी हैं, जहाँ से पानी पीछे से रेतीली मिट्टी को काटते हुए छोटी धाराओं के रुप में सागर में आ रहा था।

     बाद में पता चला कि यहाँ का सागर तट सबसे खरतनाकर तटों में से हैं, जहाँ दो सागर की धाराएं मिलती हैं, जिसके कारण तट बनता-बिगड़ता रहता है। पानी में अंदर घुसने का दुस्साहस करने वाले कई पर्यटकों के इसके रेतीले तटों में अंदर धंसने व सागर में समा जाने की दुर्घटनाएं होती रहती हैं। अतः यहाँ सागर तट में अधिक अंदर प्रवेश करना खतरे से खाली नहीं रहता। 
आज की ढलती शाम अ्ंधेरे की काली चादर औढ चुकी थी, ऐसे में बीच के किनारे की टिमटिमाती रोशनियाँ सागर में अपनी परछाई के साथ बहुत सुंदर नजारा पेश कर रही थी।


     इसी दिशा में कुछ नीचे एक बड़ा बौद्ध स्तूप बना हुआ है, जिसके भव्य दर्शन दिन के उजाले में यहाँ से होते हैं। यह बीच एक लोकप्रिय शूटिंग स्पॉट भी है, जिसके नयनाभिराम दृश्य के कारण कई फिल्मों के गीत व दृश्यों की शूटिंग यहाँ हो चुकी है। जो भी हो यहाँ सागर व आसमान को छूते अनन्त क्षितिज को निहारते हुए कुछ पल विराट प्रकृति से मूक संवाद के विताए जा सकते हैं। हम भी कुछ पल इसका आनन्द लेते हुए फिर बापिस आते हैं।
बापसी में भूट्टा, नारियल पानी, यहाँ के जंगली फलों के खट्टे-मिठे स्वादों का लुत्फ उठाते हुए बीच से बाहर निकले।




मुम्बई के दूसरे छिपे प्राकृतिक खजाने से परिचय अभी शेष था, जो इस पहली यात्रा का एक विशिष्ट अनुभव बनने  बाला था और मुम्बई के बारे में हमारी धारणा को आमूल बदलने बाला भी। यह मुम्बई में बॉरिबली से सात किमी अंदर जंगल में घुसकर बसाल्ट चट्टानों को काटकर बनायी गई एक हजार से दो हजार साल पुरानी गुफाएं थीं, जो कान्हेरी गुफाओं के नाम से प्रख्यात हैं। यहाँ बाहर गेट पर निर्धारित शुल्क के साथ प्रवेश होता है। बसें हर आधा घण्टे में चलती रहती हैं। घने जंगल से होकर सात किमी सफर तय होता है।
माना जाता है, कि जंगल में स्थित ये गुफाएं प्राचीन काल में सागर मार्ग से आने वाले यात्रियों के मार्ग की पड़ाव रहती थी, जो व्यापार के उद्देश्य से मुम्बई से होकर भारत के उत्तरी क्षेत्रों में आगे बढ़ते थे। ये गुफाएं रुकने व विश्राम का स्थल हुआ करती थी। धीरे-धीरे ये बौद्ध भिक्षुओं के रुकने व साधना का स्थल बनती गयी। राजाश्रय में इन्हें विधिवत ढंग से तराशा गया, जो बाद में बौद्ध विहार एवं प्रशिक्षण केंद्र के रुप में विकसित हुई।

यहाँ पर अभी भी उपलब्ध लगभग 108 गुफाओं में इनकी झलक पायी जा सकती है। कुछ रुकने के लिए हैं, कुछ पूजा व सामूहिक ध्यान के हिसाब से विकसित। कुछ में सामूहिक कक्षाओं की व्यवस्था दिखती है। कुछ विश्राम व शयन के हिसाब से बनी हुई हैं। इनके बीचों बीच झरना स्नान व धोबीघाट के रुप में बहुत उपयुक्त लगता है। यहाँ जल संचय की भी समुचित व्यवस्था देखी जा सकती है।
भारतीय पुरातत्व विभाग की देख-रेख में इनकी साज-संभाल अभी हो रही है। इन गुफाओं के शिखर पर या चट्टानी छत से जंगल के पार पहाड़ों के बीच झांकती मुम्बई शहर की गगमचूम्बी ईमारतों को देखा जा सकता है, साथ ही अक्सा-बीच, बौद्ध विहार आदि के साथ सागर तट की झलक भी यहाँ से मिलती है। यहाँ के घने जंगल में शेर, चिता, हिरन आदि भी रहते हैं, जिनके दर्शन की सफारी टूर व्यवस्था यहाँ रहती है। आज रविवार होने के कारण यहाँ प्रवेश बंद था।

अब तक कन्हेरी गुफाओं की छत तक पहुँचते-पहुँचते हम थक कर चूर हो चुके थे, शरीर पसीने से भीग रहा था। लेकिन दूर सागर से जंगल की ओर आ रहे हवा के झोंके हरे बनों की खुशबू को समेटे हमारी थकान पर मलहम लगा रहे थे, पसीना सूख रहा था। यहीं पर एक उपयुक्त स्थान पर बैठकर प्रियंका, संगम एवं भाई के संग इन विशिष्ट पलों को केप्चर करती एक ग्रुप फोटो खिंचवाते हैं। कुछ पल यहाँ की ठंडी हवा में विश्राम करते हैं, साथ लिए फलों का सेवन करते हैं और तरोताजा होकर बापिस चल देते हैं।




यहाँ से धीरे-धीरे सीढ़ियों को उतरते हुए बापिस प्रवेश गेट की ओर आते हैं। रास्ते में एक विदेशी यात्रियों का वीआईपी डेलीगेशन भी इनके दर्शन के लिए अपने गाईड़ के साथ रास्ते में मिला। जो भी हो कान्हेरी गुफा प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ों के लिए रोमाँच का खजाना है और अगर आपका ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक रुझान भी है, तो ये स्थल किसी वरदान से कम नहीं है। आप स्वयं को खोजने, खोदने व जानने के कुछ बहुमूल्य पल यहाँ बिता सकते हैं।
गेट पर हम आदिवासी महिलाओं द्वारा पत्तों पर काटकर रखे जंगली खट्टे-मीठे फलों का स्वाद चखते हैं। इनमें एक फल काटने पर स्टार फिश जैसा लग रहा था।
आते समय हम लोग लोकल बस में सात किमी जंगल का सफर किए थे, लेकिन बापसी में कोई बस उपलब्ध न होने के कारण हम पैदल ही चल देते हैं। आधे रास्ते तक यहाँ के घने जंगल, शांत प्राकृतिक वातावरण, कलकल बहती जल धाराओं के बीच जंगल पार करते गए। यहाँ की वृहदाकार बेलों से लदे पुराने पेड़ इस जंगल की पुरातनता की कहानी को व्यां कर रहे थे, कितने व्यापारी, बौद्ध भिक्षु एवं यात्री प्राचीनकाल से इस जंगल व राह से होकर गुजरे होंगे।


यात्रा की थकान धीरे-धीरे हॉवी हो रही थी, बीच में एक पुलिया पर वृक्षों की छाया में कुछ पल विश्राम कर आगे चल देते हैं। एक जंगली बस्ती के समीप बस मिलने पर शेष आधा मार्ग बस में बैठकर तय करते हैं। गुफा के बाहर सडक पर छन रहे गर्मागर्म ताजे बड़ा पाव का आनन्द लिया, जिसकी यहाँ के लोकजीवन में विशेषता के बारे में हम काफी सुन चुके थे। 

हमारे बिचार में मुम्बई जैसे महानगर में सप्ताह भर मेहनतकश लोग प्रकृति की गोद में रिलेक्स होने व बैट्री चार्ज करने के लिए कान्हेरी गुफाओं में आ सकते हैं। यहाँ के नीरव परिवेश में कुछ पल आत्मचिंतन, मनन व ध्यान का बिताकर जीवन में एक नयी ताजगी का संचार कर सकते हैं। ऐसे में मुम्बई वासियों के लिए ये गुफाएं किसी बरदान से कम नहीं है। यदि कोई यहाँ रहते हुए भी इनसे परिचित नहीं है, तो उसे अभागा ही कहा जाएगा। 


यहाँ की सात नम्बर गुफा में चट्टानी आसन पर विताए चिंतन-मनन व ध्यान के पल हमें याद रहेंगे और फिर अगली बार और गहराई में इन अनुभवों से गुजरना चाहेंगे।



मुम्बई शहर के नाम का अर्थ खोजते हुए हमें पता चला की यह मुम्बा माता(माँ पार्वती का रुप) के नाम पर पडा है, जो यहाँ की कुलदेवी हैं। फिर राह में सिद्धि विनायक और महालक्ष्मी जैसे सिद्ध मंदिर मुम्बई को एक आध्यात्मिक संस्पर्श देते हैं। सागर तट पर हाजीअली की दरगाह, सागर पर एलिफेंटा गुफाएं, चर्च आदि सभी धर्मों को अपने आध्यात्मिक मूल से जुड़ने के तीर्थ स्थल हैं। मुम्बई को इस नज़रिए से भी एक्सप्लोअर करने का मन था, लेकिन समय अभाव के कारण संभव नहीं हो पाया। लगा ये अगली यात्रा के माध्यम बनेंगे।

इसी भाव के साथ कार्य पूरा होने पर हम मुम्बई सेंट्रल स्टेशन पर आ जाते हैं और शाम को राजधानी एक्सप्रैस में बैठकर मुम्बई को विदा करते हैं।


बापसी में रेल्वे ट्रेक के दोनों ओर हम मुम्बई शहर के दर्शन करते रहे। लोकल ट्रेन में सरपट भागती दौडती जिंदगी के बीच यहाँ महानगर के लोकजीवन को निहारते हुए हम महानगर से बाहर निकलते हैं।
महानगर के बाहर रास्ते में बंजर जमीन बहुतायत में दिखी। किसी तरह की खेती वाड़ी का अभाव दिखा। यात्रियों से चर्चा करने पर समझ आया कि यह क्षेत्र समुद्री इलाके का हिस्सा है, जो ज्वार-भाटे व बाढ़ आदि से अधिक प्रभावित रहता है। रास्ते में  ही नदी व बेकवाटर के कारण जलमग्न भूमि को देख इसकी पुष्टि हुई।
आगे अंधेरा शुरु होता है व गुजरात के सूरत, बड़ोदरा जैसे शहरों से होकर रात का सफर आगे बढ़ता है। रात नींद की गोद में बीत जाती है और प्रातः हम दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर पहुँच जाते हैं।
यहाँ से आईएसबीटी बस स्टेंड पहुँचते हैं। भाई सीधा दिल्ली-मानाली बस से हिमाचल अपने गाँव की ओर कूच करता है, तो हम हरिद्वार।
इस तरह हमारी पहली मुम्बई यात्रा इस महानगरी को एक नया अर्थ दे जाती है। इसके प्रति हमारी भाँत धारणाओं का कुहासा छंटता है, एक नया भाव जगता है, जो इसे हमारे लोकप्रिय महानगरों की श्रेणी में शुमार करता है। इसे अभी ऊपर दी गई दो पोस्टों में शेष रह गए बिंदुओं के एंग्ल से एक्सप्लोअर करना शेष है। देखते हैं कब बुलावा आता है व अगली यात्रा का संयोग बनता है।
यदि आपने यात्रा का पहला भाग नहीं पढा हो, तो आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - मेरी पहली मुम्बई यात्रा, भाग-1

चुनींदी पोस्ट

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...