मंगलवार, 26 मई 2020

यात्रा वृतांत – 6, पोलैंड का छिपा नगीना, तोरुण शहर


तोरुण के मध्यकालीन ऐतिहासिक शहर में...

आज का दिन हमारा बिडगोश शहर के पास के ऐतिहासिक शहर तोरुण के दर्शन का था। ज्ञात हो कि यह पोलैंड ही नहीं पूरे यूरोप का अपनी ऐतिहासिक विरासत को संजोए सबसे सुन्दर शहर माना जाता है। यह एक ऐसा सौभाग्यशाली शहर है जो द्वितीय विश्वयुद्ध में हुए ध्वंस एवं हवाई हमलों से बचा रहा। अतः इस की ऐतिहासिक इमारतों एवं समारकों का अपना विशिष्ट महत्व है, जो पौलेंड की मध्यकालीन संस्कृति की झलक देते हैं। अपनी ऐतिहासिक विशेषताओं के कारण तोरुण यूनेस्को द्वारा नामित विश्व की ऐतिहासिक धरोहरों में शुमार है, साथ ही प्रख्यात खगोल वैज्ञानिक कॉपर्निक्स की जन्म एवं कर्मस्थली होने के कारण इस शहर का अपना महत्व है।
बिडगोश शहर से प्रातः नाश्ता कर हम तोरुण शहर के लिए निकल पड़ते हैं। काजिमीर विल्की यूनिवर्सिटी से काल्का मेडेम के पति प्रो. क्रिस्टोफ स्वयं ड्राईविंग कर रहे थे। वे कॉपर्निक्स विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं। मितभाषी, स्वयं में मस्त-मग्न सरल स्वभाव के धनी प्रोफेसर साहब 100-120 किमी प्रति घंटे की गति के साथ गाड़ी को यहाँ की स्पाट, सुंदर सड़कों पर दौड़ा रहे थे। ट्रैफिक के नियम स्पष्ट होने के कारण शायद यहाँ ड्राइविंग सरल रहती होगी। गाड़ी की वायीं ओर ड्राईवर सीट हमारे लिए सदा की तरह नया अनुभव थी। रास्ता घने जंगलों, हरे-भरे खेतों एवं सुंदर गाँवों से होकर गुजर रहा था। बिडगोश शहर के बाहर निकलते ही विस्तुला नदी को पार करते हुए लगा जैसे गंगा नदी को पार कर रहे हैं।
यह नदी पोलैंड की सबसे लम्बी नदी है, जो पौलेंड के आर-पार 1047 किमी की यात्रा तय करते हुए बाल्टिक सागर में जा गिरती है। पौलेंड के दक्षिण की पर्वतश्रृंखलाओं से निकलने वाली इस नदी को पोलैंड की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पहचान के रुप में देखा जाता है। तोरुण में पुनः इसके दर्शन होने वाले थे, जो इसके किनारे बसा हुआ ऐतिहासिक शहर है।
रास्ते में ही भव्य गिरिजाघर के दर्शन हुए, जो आधुनिक वास्तुशिल्प के साथ एक अलग ही नजारा पेश कर रहा था। एक घण्टे के सुखद सफर के बाद हम तोरुण के कॉपर्निक्स विश्वविद्यालय के कैंप्स में पहुँच चुके थे, जहाँ हमें यहां की गाईड केरोलिना शहर का भ्रमण करवाती हैं। यहीं शहर में ही निर्मित ईँट से बने ऐतिहासिक भवन में प्रवेश से शुरुआत होती है, जिसके अन्दर नगरीय व्यवस्था की प्रारम्भिक प्रशासनिक एवं कानूनी प्रक्रिया के हिसाब से बने भवन की जानकारी मिलती है।
इसी के मार्ग में गगनचूम्बी चार दिवारी में बने मध्यकालीन चर्च के दर्शन होते हैं। यहाँ मदर मेरी की प्रतिमा को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे माँ भगवती के ही दर्शन हो रहे हों और प्रेम के प्रतीक भगवान ईसा मसीह की भव्य प्रतिमा बहुत सुंदर लग रही थी।
दिवार में संत भाई लारेंस के चित्र हमें इनके अगाध प्रभु प्रेम की याद दिलाते हैं। गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा इन पर लिखी पुस्तक – भाई लारेंस के पत्र सहज ही स्मरण आईं, जो हर आध्यात्मिक जिज्ञासु के लिए पठनीय है। लगा सभी धर्म बाहरी रुप में भिन्न होते हुए, मूल भाव तो सबके एक ही हैं, जिन्हें एक आध्यात्मिक पिपासु होकर, खुले मन से विचार कर ह्दयंगम किया जा सकता है।
यहीं चौराहे पर खगोलविद कोपर्निक्स का समारक शहर का विशिष्ट आकर्षण लगा, जिसके सामने पर्यटकों की फोटो खिंचाने की होड़ लगी थी, हम भी एक यादगार फोटो के साथ आगे बढ़ते हैं। शहर के ही दूसरे छोर पर कोपर्निक्स की जन्म स्थली के भी दर्शन होते हैं, जो इनके समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डालते हैं व अब यह भव्य भवन संग्रहालय के रुप में विकसित एवं संरक्षित है। मालूम हो कि कॉपर्निक्स ने सबसे पहले यह बताने की कोशिश की थी कि पृथ्वी सूर्य के गिर्द घूमिती है, जो प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ था। इससे पहले कि इनको कोई सजा होती, कॉपर्निक्स अपना शरीर छोड़ चुके थे।
यहीं चौराहे के उस पार एक स्टील का गधा बना हुआ दिखा, जिसके चारों ओर काफी भीड़ लगी थी। पता चला कि यह यहाँ की मध्यकालीन न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा था, जब अपराधियों को इसके ऊपर कई घण्टों बैठने की सजा दी जाती थी। इसकी पीठ पर कुछ सेमी ऊँची पट्टी लगी हुई है, जिस पर बैठना निसन्देह रुप में अपराधियों के लिए एक कष्टदायक अनुभव रहता रहा होगा।
यहाँ के ऐतिहासिक भवनों को पार करते हुए हम जिंजर-कूकीज की सजी दुकानों को देखते हुए आगे बढ़ते हैं, जिन्हें यहाँ के पारम्परिक आटे, शहद एवं विशिष्ट मसालों के साथ बनाया जाता है।
यह परम्परा चौदहवीं सदी से चल रही है, अतः तोरुण शहर की जिंजर कुकीज पौलेंड में विशेष दर्जा रखती हैं। यूरोप के व्यवसायिक मार्ग पर स्थित होने के कारण तोरुण की ये कूकीज पौलेंड एवं यूरोप के दूसरे हिस्सों में भी निर्यात होती रही हैं व हो रही हैं।
विस्तुला नदी भी शहर का एक प्राकृतिक आकर्षण है, जिसके तट पर यह बसा हुआ है। शहर को बाढ़ एवं बाह्य हमलों से संरक्षण देती ईंट की मोटी चार दिवारी को पार करते ही हम बिस्तुला नदी के सामने खड़़े थे। नदी का तट बहुत सुन्दर एवं भव्य लग रहा था, जिसमें छोटी नाव एवं बड़े स्टीमर चल रहे थे। स्पष्ट था कि नदी भी यहाँ यातायात का एक प्रमुख साधन है, जिसके माध्यम से व्यापार की बात हम कर चुके हैं।
शहर के एक कौने पर हमें झूकी मीनार के दर्शन होते हैं, जिसे पीसा की झुकी मीनार से भी अधिक प्राचीन माना जाता है औऱ लोग यहाँ खड़ा होकर स्वयं के पापी एवं पुण्यात्मा होनी की परीक्षा करते हैं। यदि मीनार के साथ खड़े होकर कुछ सैकण्ड टिककर खड़े हो सके तो पुण्यात्मा अन्यथा पापात्मा। इस परीक्षा में कोई विरला ही पास होता हो।
शहर का चप्पा-चप्पा मध्यकालीन वास्तुशिल्प की सुंदर स्मृतियों को समेटे हुए एक अलग ही अनुभव दे रहा था। यहाँ के गोइथिक शैली में बने भवन एवं एतिहासिक इमारतें अपनी अलग-अलग कहानी व्याँ कर रहे थे।
इसकी पारम्परिक साज-सज्जा में घर-आंगन एवं चौराहे पर रंग-विरंगे फूलों के गमलों की सजावट प्राकृतिक सौंदर्य से जुड़़ी भव्य सांस्कृतिक परम्परा का अहसास दिला रही थी।
यहीं बीच में देशी जायके वाले रुबरु रेस्टोरेंट में हमारा दिन का भोजन होता है, जहाँ काल्का मेडेम और उनके पतिदेव प्रो. क्रिस्टोफ हमारा इंतजार कर रहे थे। रुचि के अनुकूल उनके लिए नोन-वेज भोजन आता है और हम शाकाहारी भोजन ग्रहण करते हैं।
यह बिडगोश के रुबरु होटल की ही श्रृंखला का विस्तार था, जिसे यहाँ के स्थानीय लोग चला रहे थे, लेकिन कुक नेपाल के भाई रोमेश थे, जिनसे मिलकर आत्मीयता का अहसास हुआ।
भोजन के बाद हम यहाँ की स्थानीय दुकानों से स्मृति स्वरुप कुछ उपहार खरीदते हैं, जो जलोटी में उचित दाम पर हमें मिले। गाइड केरोलिना के साथ भावभरी विदाई के साथ तोरुण के ऐतिहासिक शहर का यादगार सफर पूरा होता है। हालाँकि इतने कम समय में इस ऐतिहासिक शहर का एक विहंगावलोक ही हो सकता था, इसके विस्तार से दर्शन को भविष्य के लिए छोड़, हम हरे-भरे सुंदर मार्ग से होते हुए बापिस बिडगोश शहर आते हैं, जहाँ आकादमिक एक्सचेंज के कार्यक्रम सम्पन्न होने थे, जिसे आप अगली ब्लॉग पोस्ट, पोलैंड यात्रा, भाग-7 अकादमिक संवाद एवं पारंपरिक कॉफी का स्वाद, में पढ़ सकते हैं।

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