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मंगलवार, 30 सितंबर 2025

नवरात्रि का तत्वदर्शन एवं साधना पथ

हठयोग से बचें, मध्यमार्ग का वरण करें

नवरात्रि सनातन धर्म की अध्यात्म परम्परा का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो वर्ष में दो बार क्रमशः मार्च और सितम्बर माह में क्रमशः चैत्र वासंतीय नवरात्रि और आश्विन शारदीय नवरात्रि के रुप में देशभर में धूमधाम से मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त दो बार क्रमशः आषाढ़ और माघ माह में गुप्त नवरात्रि के रुप में भी इसका समय आता है, जो सर्वसाधारण के बीच कम प्रचलित है।

नवरात्रि वर्ष भर की ऋतु संध्या के मध्य के पड़ाव हैं, जब सूक्ष्म प्रकृति एवं जगत में तीव्र हलचल होती है और स्थूल रुप में यह ऋतु परिवर्तन का दौर रहता है। इस संधि वेला में एक तो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से और दूसरा आध्यात्मिक दृष्टि से नवरात्रि साधना का विधान सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने सोच समझकर रचा है। और भगवती की उपासना के साथ स्थूल एवं सूक्ष्म प्रकृति के संरक्षण संबर्धन का संदेश भी इन नवरात्रियों में छिपा रहता है।

इस समय व्रत उपवास एवं अनुशासन से देह मौसमी विकारों से बच जाता है और ऊर्जा के संरक्षण एवं अर्जन के साथ साधक आने वाले समय के लिए तैयार हो जाता है। मन भी आवश्यक शोधन की प्रक्रिया से गुजर कर परिष्कृत हो जाता है और व्यक्ति बेहतरीन संतुलन एवं दृढ़ता को प्राप्त कर जीवन यात्रा की चुनौतियां का सामने करने के लिए तैयार हो जाता है। सामूहिक चेतना के परिष्कार का उद्देश्य भी इसके साथ सिद्ध होता है। 

नवरात्रि के दौरान शक्ति उपासना भारतीय अध्यात्म परम्परा की एक विशिष्ट विशेषता को भी दर्शाता है। भारत में ईश्वर को जितने विविध रुपों में पूजा जाता है, वह स्वयं में विलक्षण है। यहाँ तो नदी, पहाड़ों, पर्वतों, वृक्षों से लेकर जीव-जंतुओं में, यहाँ तक कि पाषाण में भी भगवान की कल्पना कर उसे जीवंत किया जाता है। नवरात्रि में देवी के दिव्य नारी रुप में ईश्वर की उपासना का भाव है, जो मुख्यतया शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा है। हालाँकि देश के विभिन्न क्षेत्रों में देवी की, भगवती की, माँ दुर्गा की उपासना नाना रुपों में प्रचलित है, जिसे किसी साम्प्रदाय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह तो लोक आस्था का पर्व है, जो हर क्षेत्र में अपनी क्षेत्रीय भाषा में वहाँ के भजन, कीर्तन व विधि-विधान के साथ मनाया जाता है।

जो भी हो नवरात्रि में माँ दुर्गा की उपासना नौ रुपों में की जाती है। जो नारी शक्ति के रुप में भगवती की विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाते हैं। शैलपुत्री हिमराज हिमालय की पुत्री के रुप में भगवती की प्रतिष्ठा है, ब्रह्मचारिणी के रुप में भगवती के कन्या रुप में, तपस्विनी स्वरुप की उपासना की जाती है। चंद्रघण्टा भगवती की किशारोवस्था के दिव्य स्वरुप की कल्पना है, तो कुष्माण्डा ब्रह्माण्ड को स्वयं में धारण करने में सक्षम भगवती के यौवनमयी दिव्य स्वरुप को दर्शाती है। सकन्दमाता के रुप में देवी देवसेनापति कार्तिकेय की मातृ शक्ति के रुप में पूजित हैं, तो कात्यायनी के रुप में वे अपने कुल एवं प्रजा की रक्षा के लिए खड़गधारिणी माँ भवानी के रुप में विद्यमान हैं।

कालरात्रि के रुप में भगवती सत्य, धर्म एवं श्रेष्ठता की विरोधी प्रतिगामी और आसुरी शक्तियों के जड़मूल उच्छेदन एवं परिष्कार के लिए कटिबद्ध विकराल एवं प्रचण्डतम शक्ति की द्योतक हैं, तो महागौरी के रुप में देवी का शांत-सौम्य, दिव्य एवं सात्विक प्रौढ़ स्वरुप व्यक्त होता है औऱ सिद्धिदात्री के रुप में वे भक्तों की मनोकामना को पूर्ति करने वाली, सिद्धियों की अधिष्ठात्री करुणामयी माँ हैं और दुर्गा के रुप में उपरोक्त सभी रुपों का सम्मिलित रुप अष्टभूजाधारिणी, सिंहारुढ़ दुर्गा शक्ति रुप में प्रत्यक्ष है।

इस तरह शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्माण्डा, सकन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिदधिदात्री के रुप में भगवती के नौ स्वरुपों की उपासना की जाती है। इसके अतिरिक्त मूल रुप में सृष्टि की आदि स्रोत के रुप में वे आद्य शक्ति माँ गायत्री-दुर्गा के रुप में पूजित हैं। सृजन, पालन एवं ध्वंस की शक्ति के रुप में क्रमिक रुप में महासरस्वती, महालक्ष्मी एवं मकाहाली के रुप में पूजित-वंदित हैं।

साधना विधान – नवरात्रि के प्रारम्भ में घर के पावन कौने या पूजा कक्ष में भगवती की दिव्य प्रतिमा के साथ कलश एवं अखण्ड दीपक की स्थापना की जाती है, जहाँ नवरात्रि संकल्प के बाद नित्य पूजा, जप-ध्यान एवं साधना का क्रम चलता है। अपनी श्रद्धा अनुसार गायत्री उपासना, नवाण मंत्र जप, दुर्गा सप्तशती पाठ आदि का साधना विधान सम्पन्न होता है। पूजा-पाठ, उपासना एवं स्वाध्याय परायण की नियमितता के साथ साधना पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

इन नौ दिनों में नियम, व्रत एवं संयम का विशेष ध्यान रखा जाता है। जिसमें अपनी क्षमता के अनुसार उपवास से लेकर मौन व्रत आदि का अभ्यास किया जाता है। युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्यजी ने तप के अंतर्गत 12 विधानों का वर्णन किया है, जौ हैं - अस्वाद तप, तितीक्षा तप, कर्षण तप, उपवास, गव्य कल्प तप, प्रदातव्य तप, निष्कासन तप, साधना तप, ब्रह्मचर्य तप, चान्द्रायण तप, मौन तप और अर्जन तप। (गायत्री महाविज्ञान, भाग-1, पृ. 182-188) इन्हें साधक अपनी स्थिति एवं क्षमता के अनुरुप पालन कर सकता है।

यहाँ किसी भी नियम व्रत में अति से सावधान रहना चाहिए। जो सहज रुप में निभे, बिना मानसिक संतुलन खोए, वही स्थिति श्रेष्ठ रहती है। नियम व्रत का स्वरुप कुछ ऐसा हो, जिसका परिणाम नौ दिन के बाद एक परिमार्जित जीवन शैली एवं श्रेष्ठ भाव-चिंतन के रुप में आगे भी निभता रहे। साधना के संदर्भ में व्यवहारिक नियम एक ही है कि जहाँ खड़े हैं, वहाँ से आगे बढ़ें। देखा देखी कोई अभ्यास न करें और हठयोग से बचें।

इस दौरान भगवती की कृपा बरसे, इसके लिए नारी शक्ति को भगवती का रुप मानते हुए पवित्र दृष्टि रखें, घर-परिवार में नारी का सम्मान करें। इसी तरह बाहर प्रकृति के प्रति भी सम्मान एवं श्रद्धा का भाव रखें और तदनुरुप पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन में अपना योगदान दें। नवरात्रि के अंत में कन्या पूजन, प्रीतिभोज एवं यज्ञादि के साथ पूर्णाहुति की जाती है और उचित जल स्रोत में देवी की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।

नवरात्रि के दौरान उपासना-साधना के साथ अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी का भाव भी जुड़ा हुआ है। अपने पारिवारिक, सामाजिक एवं व्यवसायिक जीवन के दायित्वों की कीमत पर किए गए साधना-अनुष्ठान को बहुत श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता। साथ ही इस दौरान झूठ, प्रपंच, ईर्ष्या-द्वेष, कामचौरी, आलस, प्रमाद आदि से दूर रहें। इस तरह जीवन साधना के समग्र भाव के साथ किया गया नवरात्रि का व्रत-अनुष्ठान हर दृष्टि से साधक का उपकार करने वाला रहता है और साधक भगवती की अजस्र कृपा को जीवन में नाना रुपों में बरसते हुए अनुभव करता है।



रविवार, 29 मार्च 2020

नवरात्रि साधना का व्यवहारिक तत्वदर्शन

नवरात्रि साधना का राजमार्ग
 
नवदुर्गा

 आजकल नवरात्रि का पर्व अपने पूरे जोरों पर है, आज इसका पांचवाँ दिन है, जो सकन्द माता के लिए समर्पित है। पहले दिन शैलपुत्री के रुप में साधक का संकल्प, ब्रह्मचर्य के तप में तपते हुए (ब्रह्मचारिणी), माँ चंद्रघंटा के दिव्य संदेशों को धारण करते हुए, माँ कुष्माण्डा से इस पिण्ड में व्रह्माण्ड की अनुभूति का वरदान पाते हुए आज बाल यौद्धा के रुप में माँ की गोद में जन्म लेता है। जो क्रमशः भवानी तलवार को धारण करते हुए (माँ कात्यायनी), सकल आंतरिक-बाहरी असुरता का संहार करते हुए (माँ कालरात्रि) एक महान रुपाँतरण (माँ गौरी) के बाद  अंतिम दिन सिद्धि (माँ सिद्धिदात्रि) को प्राप्त होता है।

यह नवरात्रि वर्ष में दो वार ऋतु संधि की वेला में आती है, जिसका विशिष्ट महत्व रहता है। यह तन-मन में ऋतु बदलाव के साथ होने वाले परिवर्तनों के साथ सूक्ष्म लोक में उमड़ते-घुमड़ते दैवीय प्रवाह के साथ जुडने एवं लाभान्वित होने का विशिष्ट काल रहता है। ऋषियों ने इसके सूक्ष्म स्वरुप को समझते हुए इस काल को विशिष्ट साधना से मंडित किया। गायत्री परिवार में नैष्ठिक साधक चौबीस हजार का एक लघु अनुष्ठान करते हैं, जिसमें प्रतिदिन 27 से 30 माला का जप किया जाता है, जिसकी पूर्णाहुति दशांश हवन के साथ होती है। शक्ति उपासक इस दौरान दुर्गासप्तशती के परायण के साथ भगवती की उपासना करते हैं।
 
माँ ब्रह्मचारिणी

इस पृष्ठभूमि में नवरात्रि की साधना के व्यवहारिक तत्वदर्शन को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है, क्योंकि प्रायः लोगों को एक हठयोगी की भाँति नौ दिन उग्र तप करते देखा जाता है, जिसमें कुछ भी बुराई नहीं है। लेकिन नौ दिन के बाद उनके जीवन में क्या परिवर्तन आया व आगे कितना इसको मेंटेन रखा, देखने पर अधिकाँशतः निराशा होती है। अनुष्ठान के बाद फिर येही साधक ऐसा जीवन यापन करते देखे जाते हैं, जिसका साधना से कोई लेना देना नहीं होता। जैसे कि साधना नौ दिन का एक कृत्य था, जिसे पूरा होते ही फिर खूंटी पर टाँग कर रख दिया और अब इसे अगली नवरात्रि में फिर धारण करना है।
 
इसमें चूक शायद हमारी अध्यात्म तत्व एवं साधना की व्यवहारिक समझ का रहता है। नवरात्रि साधना की पूर्व संध्या पर जब संकल्प लिया जाता है, तो उसमें माला का संकल्प तो रहता है, कुछ मौटे-मौटे नियमों को पालन का भी भाव रहता है, लेकिन जीवन साधना को समग्र रुप में निभाने का इसमें प्रायः अभाव देखा जाता है। परमपूज्यगुरुदेव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा ने अध्यात्म को जीवन साधना कहा है, जिसमें उपासना, साधना, अराधना की त्रिवेणी का संगम रहता है। यह जीवन की समग्र समझ के साथ किया गया पुरुषार्थ है, जीवन के किसी एक अंश को लेकर किया जा रहा हठयोग नहीं। यह एक राजमार्ग है, जिसके परिणाम दूरगामी होते हैं, जो दूरदर्शी संकल्प के साथ सम्पन्न होता है।
 
माँ कुष्माण्डा

यह व्यक्ति का अपने ईमानदार मूल्याँकन के साथ शुरु होता है, कि वह खड़ा कहाँ है। अनुभव यही कहता है कि माला की संख्या चाहे तीन ही हो, लेकिन जीवन साधना 24 घंटे की होनी चाहिए। समाज में ही नहीं, एकांत में साधक के पल सोते-जागते होशोहवाश में बीतने चाहिए। इसमें स्वाध्याय एवं आत्मचिंतन-मनन का सघन पुट होना चाहिए। कसा हुआ आहार-विहार, कसी हुई दिनचर्या, सधा हुआ सकारात्मक-संतुलित वाणी-व्यवहार और आदर्शां में सतत निमग्न भाव चिंतन। बिना महापुरुषों के संसर्ग एवं सद्गुरु के प्रति अनुराग के यह कहाँ संभव हो पाता है। बिना उच्चतर ध्येय के तप-साधना मात्र अहं के प्रदर्शन एवं प्रतिष्ठा का एक छद्म प्रयोग भर होता है, जिसके वारे में प्रायः साधक शुरुआती अवस्था में स्वयं भी भिज्ञ नहीं होते। लेकिन तत्वदर्शी सारी स्थिति को समझ रहे होते हैं।
 
माँ सकन्दमाता

इस समझ के अभाव में नौरात्रि में लोगों को ऐसे कृत्यों को साधना मानने की भूल करते देखा जाता है, जिनका जीवन साधना, जीवन परिष्कार, चित्तशुद्धि से अधिक लेना देना नहीं होता। जैसे मौनव्रत। एक विद्यार्थी, एक शिक्षक, एक गृहस्थ, एक व्यवसायी, एक सामाजिक प्राणी के लिए यह संभव नहीं होता। इस मौन को मेंटेन करने में जितना चक्कलस उठाना पड़ता है, उसमें जीवन की शांति, स्थिरता सब भंग हो रही होती है। कुछ इस बीच कोई काम नहीं करने को अपनी महानता मान बैठते हैं। जबकि स्वधर्म का पालन, कर्तव्य निष्ठ जीवन ऐसे में साधना की सबसे बडी कसौटी होती है। साधना जीवन से पलायन नहीं, इसकी चुनौतियों का सामना करने की तैयारी होती है।
 
इसी तरह भूखे प्यासे रह कर, ठंड व गर्मी में शरीर को अनावश्यक रुप में तपाकर-कष्ट देकर, एक आसन में शरीर को तोड़ मरोड़ कर किए जाने वाले हठयौगिक प्रयोगों का जीवन साधना से अधिक लेना देना नहीं रहता। कुछ पहुँची हुई आत्माएं इसका अपवाद हो सकती हैं, लेकिन सर्वसाधारण के लिए ये प्रयोग अपनी समग्रता में नामसमझी भरे कदम ही रहते हैं।

क्योंकि नवरात्र साधना का उद्देश्य जीवनचर्या को, आहार-विहार, विचार-व्यवहार को ठोक-पीट कर ऐसे आदर्श ढर्रे में लाना है कि वह जहाँ खड़ा है, उससे एक पायदान ऊपर उठकर अगले छः माह जीवन को उच्चतर सोपान पर जी सके। यह चरित्र निर्माण की सूक्ष्म एवं ठोस प्रक्रिया है, जो क्रमिक रुप में शनै-शनै मन को अधिक शांत, स्थिर, सशक्त एवं सकारात्मक अवस्था की ओर ले आए। ये साधना की व्यवहारिक कसौटियाँ हैं। यदि साधना व्यक्ति को इस ओर प्रवृत कर रही है, तो उसके सारे प्रयोग सार्थक माने जाएंगे। 
 

और यदि नवरात्रि के बाद भी व्यक्ति की आदतों में सुधार नहीं हो रहा, जीवन शैली उसी ढर्रे पर रहती है, चिंतन सकारात्मक नहीं होता, जीवन कुण्ठाओं एवं घुटन से भरा हुआ है, भावनाएं उदात नहीं हो रही, अपने ईष्ट आराध्य एवं सद्गुरु के प्रति अनुराग नहीं बढ़ रहा, तो फिर गहन आत्म-समीक्षा की आवश्यकता है। 
 
माँ सिद्धिदात्रि
 नवरात्रि साधना बिना अपनी विवेक बुद्धि का प्रयोग किए देखासुनी महज एक हठयौगक क्रिया भर नहीं है, यह तो साधक को जीवन के परमलक्ष्य की ओर प्रवृत करने वाले राजमार्ग पर चलने का नाम है, जिसके व्यवहारिक मानदण्डों को साधक गुरु के बचनों एवं शास्त्रों के सार को समझते हुए स्वयं अपनी स्थिति के अनुरुप निर्धारित करता है।
 
    दुर्गासप्तशति भगवती के उपासकों के बीच एक लोकप्रिय ग्रंथ है, जिसमें भगवती के नौ स्वरुपों का वर्णन इस प्रकार से है -
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्रीनवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।।
 
माँ दुर्गा

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