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सार्थक यौवन की दिशा धारा

वसंत के आगमन के साथ सृजन के, उल्लास के, क्राँति के स्वर फिर चहु दिशाओं में गूंजने लगे हैं। प्रकृति का हर कौना एक नई स्फूर्ति, एक नए उत्साह, एक नई उमंग के साथ तरंगित हो चला है। ऐसे में सृष्टि का हर जीव प्रकृति के माध्यम से झर रहे परमेश्वर के दिव्य प्रवाह में वहने के लिए विवश है बाध्य है। जीवन के प्रति एक नई सोच, एक नई संकल्पना, एक नए उत्साह का उमड़ना स्वाभाविक है। यदि कोई ह्दय इन विशिष्ट पलों में भी अवसाद ग्रस्त है, जीवन के प्रति उत्साह-उमंग से हीन है, तो समझो जीवन का प्रवाह कहीं बाधित हो चला है, उसका यौवन कहीं ठहर गया है। यौवन का उमर से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं। यदि ह्दय में उत्साह, उमंग और कुछ कर-गुजरने का जज्बा है तो वह आयु में वयोवृद्ध होता हुआ भी युवा है। और यदि ह्दय उत्साह से हीन, जीवन की चुनौतियों से थका हारा और हर चीज को नकारात्मक भाव में लेने लगा है, तो समझो वह युवा होते हुए भी बृद्ध हो चुका है। जीवन में सार्थकता की अनुभूति से शून्य ऐसा जीवन एक भारभूत त्रास्दी से कम नहीं। ऐसे जीवन के प्रवाह को उत्साह, उमंग, सृजन से भरना ही जीवन का वसंत है, जीने की कला है और सार्थक यौवन

वर्तमान दुर्दशा, दुर्गति का जिम्मेदार कौन

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अपनी जिम्मेदारी आप उठाएं और विषाद-अवसाद से बाहर उबरें हमारी वर्तमान दुर्दशा-दुर्गति का कौन जिम्मेदार है। दूसरों को इसका जिम्मेदार ठहरा कर हम थोड़ी देर के लिए स ु कून-राहत अवश्य महसूस कर सकते हैं, लेकिन इसमें जीवन का दीर्घकालीन समाधान नहीं, इससे स्थिति सुधरने वाली नहीं। यह कुल मिलाकर खुद से धोखा है, जो आगे चलकर हमारे चारित्रिक पतन और दुर्गति को ही सुनिश्चित करता है। यदि हमारा वर्तमान संतोषजनक नहीं है तो इसके समाधान के लिए सबसे पहले हमें अपनी वर्तमान दुर्दशा, दुर्गति के पीछे सक्रिय दुर्मति, नेगेटिव सोच को पहचानना होगा, उसका जिम्मा लेना होगा। हम परिस्थितियों, वाहरी व्यवस्था से शिकायत कर सकते हैं आवश्यक संसाधनों की, अपेक्षित सहयोग की, निहायत जरुरतों की, लेकिन ये हमारे सकल आशा, उत्साह, साहस को कुंद करने के कारण नहीं हो सकते। ये हमें अवसाद-विषाद में डूबने, जीवन के प्रति नकारात् मक होने व खुद में उल झने के कारण नहीं हो सकते।  एक इंसान होने के नाते, ईश्वर के दिव्य अंश होने के नाते, हमारे अंदर वह अग्नि, वह ज्वाला, वह चेतना, वह संकल्प, वह शक्ति, वह जिजीविषा, वह बल, वह संभ