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बुधवार, 29 नवंबर 2017

मेरा गाँव मेरा देश - हिमालय की गोद में बचपन की यादों को कुरेदती एक यात्रा

कुल्लू से रायसन वाया व्यासर-माछिंग

बादलों के संग कुल्लू-मानाली घाटी का मनोरम दृश्य

2011 के नवम्बर माह में सर्दी का दौर शुरु हो चुका था। कितने वसन्त विताए होंगे, सामने पश्चिम की ओर की घाटी को घर से निहारते हुए। पर्वत शिखरों पर सुबह का स्वर्णिम सूर्योदय, फिर धीरे-धीरे धूप का पहाड़ की चोटी से घाटी में नीचे उतरना, घरों में लगे सीसों से टकराकर झिलमिलाना। फिर नीचे ब्यास नदी को छूकर हमारी घाटी में प्रवेश और धीरे-धीरे खेत-खलियान, बगीचों से होते हुए सूर्योदय का आलौकिक नजारा। पूर्व की ओर से पहाड़ियों के शिखर पर आसमान को छूते देवदार के वृक्षों के पीछे से सूर्य भगवान का प्रकट होकर पूरी घाटी को अपने आगोश में लेना।

सामने पहाड़ की गोद में बसी घाटी को बचपन से निहारते आए थे, हर मौसम में इसके अलग-अलग रुप-रंग, मिजाज व स्वरुप को देख चुके थे, लेकिन सब दूर से, घाटी के इस ओर से। चाहते हुए भी संयोग नहीं बन पाया था उस पार जाने का। मन था कि कभी उस पार गाँवों को पार करते हुए उस पहाड़ी के शिखर तक जाएंगे, वहाँ से चारों ओर क्या नजारा रहता है, इस रहस्य को निहारेंगे। लेकिन यह सब खुआब ही बना रहा। तब उस पार के लिए कोई पक्की सड़क थी नहीं, जहाँ से होकर किसी वाहन से होकर आसानी से वहाँ घूमकर आया जा सके। उस पार के गाँवों (माछिंग, बवेली, बनोगी, नलहाच) से बच्चे हमारे गाँव के मिडल स्कूल में पढ़ने आते थे। वे पहाड़ों व नदियों को लाँघते हुए रोज पैदल ही यहाँ आते और बापिस घर जाते।

हिमाच्छादित घाटी से उतरता सूर्योदय

लेकिन आज लगभग तीन दशकों के बाद स्थिति पूरी तरह से पलट चुकी है। आज उस पार घाटी में पहाड़ों को आर-पार चीरते हुए सड़क बन चुकी हैं। कुल्लु से रायसन तक वाया माछिंग-व्यासर इसका मुख्य लिंक रोड़ है। आज इसी घाटी को एक्सप्लोअर करने का मन था, भाईयों के साथ। वाहन की व्यवस्था हो चुकी थी। बचपन की चिरआकाँक्षित इच्छा पूरा होने वाली थी कि उस पार की घाटी व पहाड़ों के नजदीक से अवलोकन का तथा यह जानने का कि वहाँ से हमारा गाँव व घाटी कैसी दिखती है।

घर से यात्रा शुरु होती है, पहले लुग्डीभट्टी से होकर रामशीला, कुल्लू वाइपास पहुँचते हैं। मुख्य मार्ग से भेखली मार्ग पर चल पड़ते हैं। जैसे-जैसे जलेबी सड़क पर आगे बढ़ते हैं, ऊपर चढ़ते हैं, बैसे बैसे नीचे कुल्लू-अखाड़ा बाजार का तथा उस पार खराहल घाटी का विहंगम नजारा निखरता जाता है। 

ब्यास नदी के संग खराहल घाटी कुल्लू का नजारा

कुछ ही देर में हम भेखली गाँव के नीचे से गुजरते हैं, यहाँ कन्या रुप में भगवती का रुप भेखली माता प्रतिष्ठित हैं, मालूम हो कि भेखली माता का कुल्लू के दशहरे के साथ रोचक सम्बन्ध है। भगवती की ओर से आदेश मिलने के बाद ही दशहरे का आगाज होता है। भेखली धारा से पंचम स्वरों में घोषणा होती है, ईशारा किया जाता है, जिसे पाकर फिर सुलतानपुर से रघुनाथजी की यात्रा शुरु होती है और ढालपुर मैदान में रथ यात्रा के साथ कुल्लू के दशहरे का शुभारम्भ होता है।
 
भेखली गाँव की राह में

भगवती को दूर से ही अपना भाव निवेदन करते हुए हम यहाँ से आगे बढ़ते हैं, अब यात्रा कोंगती गाँव को पार करते हुए उत्तर की ओर कुछ चढ़ाईदार सड़क के संग आगे बढ़ रही थी। रास्ते में देवदार के घने जंगल से प्रवेश होता है। रास्ते में स्कूल के बच्चे मिलते हैं, जो पैदल अपने घरों की ओर बढ़ रहे थे। इनको देखकर अपने बचपने के दिनों की याद आना स्वाभाविक थी। रास्ते में बनोगी और नलहाच गाँवों की झलक मिलना शुरु हो गई थी। इनके पास साथ ही पहाड़ियों के ऊपर जड़े टावर भी, जो हमारे गाँव के ठीक सामने पड़ते हैं। 

पहाड़ की गोद में बसे बनोगी-नलहाच गाँव की ओर

कुछ ही मिनटों में हम गाँव के बीच से गुजर रहे थे। यहाँ पारम्परिक लकड़ी के घर अधिक दिखे, साथ ही खेतों में मक्का की फसल अपने अंतिम चरणों में थी। कुछ छत्तों पर मक्की के लालिमा लिए भुट्टे सूख रहे थे। मालूम हो कि यहाँ इनको स्लेट की छत पर कई दिनों तक धूप में सुखाया जाता है और फिर सूखने पर भारी लट्ठों के सहारे इनकी मंडाई की जाती है, जिससे बीज अलग हो जाते हैं, जिन्हें फिर बोरी में एकत्र किया जाता है और पारम्परिक रुप में घराटों (पानी से चलने वाली पहाड़ी चक्की) में इनका आटा तैयार किया जाता था, जबकि आज बिजली से चलने वाली चक्कियों में आटा पीसा जाता है। 

छत पर सूखते मक्की के भुट्टे

किसी जमाने (अस्सी के दशक) में जब हम कुल्लू के स्कूल में पढने जाया करते थे, तो इस घाटी के मेहनतकश लोग प्रचूर मात्रा में उपलब्ध सूखी लकड़ी तथा घास को वहुतायत में बाजार में बेचा करते थे, आज समय के साथ फल-सब्जी उत्पादन की ओर रुझान तेजी से बढ़ रहा है, हालाँकि इस क्षेत्र में कृषि के पारम्परिक तौर तरीके अभी भी बर्करार दिख रहे थे।

लो हम एक ऐसे बिंदु पर आ गए थे, जहाँ से सामने का नजारा स्पष्ट था। गाड़ी को साइड में रोककर यहाँ से नदी के पार अपने गाँव, घाटी, पहाड़ों का अवलोकन करने के लिए बाहर निकलते हैं। 

सामने ब्यास नदी के संग हिमालयन गाँव-घाटी का विहंगम दृश्य

हमारा रोमाँचित होना स्वाभाविक था सामने के विहंगम दृश्य को देखते हुए, जिसकी गोद में हमारा बचपन और किशोरावस्था बीती थी। नजारे को जीभर कर निहारते रहे, यथासम्भव हर एंग्ल से केप्चर करते रहे। सूर्यास्त का नजारा, घाटी में पीछे की ओर चढ़ते सूरज के साथ अद्भुत लग रहा था।

इस स्थान पर हवा बहुत तेज बह रही थी। कुछ देर तसल्लीबख्श अवलोकन एवं फोटोग्राफी के बाद फिर हम गाड़ी में बैठकर आगे चल देते हैं। घाटी के नाले को पार कर जंदोउड़ गाँवों से होकर गुजरते हैं। यहाँ भी विकास की व्यार के स्पष्ट दर्शन हो रहे थे। सड़क के दोनों ओर सेब के बगीचे तैयार हो रहे थे, हालाँकि अभी ये प्रारम्भिक अवस्था में थे। गाँव तक बिजली, पानी, स्कूल व सड़कों की बुनियादी सुबिधाएं पहुँचने के साथ निश्चित रुप में लोगों के जीवन स्तर में इजाफा होता दिख रहा था। आज समय अधिक नहीं था कि किसी ढावे पर बैठकर या गाँववासियों से इस बारे में कुछ गुप्तगुह व चर्चा की जाए।

सामने शिखर की गोद में बसा व्यासर गाँव

 अब हमारा प्रवेश पहाड़ के पीछे एक नई घाटी के व्यासर गाँव में हो रहा था, जो हमारे गाँव से नहीं दिखता है, बस चर्चा में अपने बुजुर्गों से इसकी बातें सुनते रहे थे। क्योंकि पहाडों की ओट में छिपे इस गाँव में बादल पहाडियों में घिर जाते हैं और बरसकर ही बाहर निकल पाते हैं। अतः यहाँ खूब बारिश होती है, ऊँचाई भी ठीक-ठाक है। कुल्लू-नग्गर सड़क पर काईस गाँव की ओर अपने खेतों से तो इसकी हल्की सा झलक कई बार पा चुके थे, लेकिन नजदीक से इसको आज पहली बार देख रहे थे। प्रवेश करते ही सड़क के ऊपर नीचे सेब के बाग दिखे। शाम हो रही थी, अतः बहुत रुकने का समय नहीं था, लेकिन गाँव का विहंगम अवलोकन करते हुए हम पार हो जाते हैं, जहां से उस पार पीछे की ओर खराहल खाटी के सहित बिजली महादेव की झलक मिल रही थी।

कुल्लू घाटी के शिखर पर बिजली महादेव के दूरदर्शन

मालूम हो की इस घाटी एवं फाटी में सितम्बर माह में फुंगली का मेला हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, जब लगभग हर गाँव के लोग इसमें भाग लेते हैं। इसके तहत गाँवों के पीछे शिखर पर बसे बुग्यालों का पैदल आरोहण होता है, ट्रैकिंग की जाती है। और शिखर पर स्थित भुंगली माता को भेंट व श्रद्धाँजलि दी जाती है। फुंगली चोटी का ट्रैकिंग रुट अद्भुत दृश्यावलियों से भरा हुआ है, जिसे प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ ट्रैक करते रहते हैं।

व्यासर गाँव के वायीं और पहाड़ में एक स्पाट चट्टान है, जो हमारे गाँव से दिखती है, माना जाता है, जिसको महाभारत कालीन पाण्डवों के अज्ञातवास से जोड़कर देखा जाता है। माना जाता है कि पाण्डव यहाँ से गुजरे थे। इसके थोड़ा आगे एक व्यू प्वाइंट पर हम फिर रुकते हैं। यहाँ पर ढलती शाम के संग घाटी के कुछ यादगार फोटो लेते हैं। अब यहाँ से सामने काईस, सोईल, राऊगी नाला आदि गाँव दर्शनीय थे और ऊपर की ओर नग्गर, कटराईं, बड़ाग्राँ तथा अप्पर बैली के पहाड़। 

 कुल्लू-मानाली, अप्पर वैली का विहंगम दृश्य

रास्ते में ही हमें हिमाचल पथ परिवहन की एक लोकल बस मिली, जो इस रुट पर अपनी सेवा दे रही थी। यह संभवतः इसकी दिन की अंतिम पारी थी।

आगे फिर घने जंगलों और सेब के बगानों के बीच हमारा सफर पूरा होता है। रास्ते में जल्लोहरा गाँव को पार करते हुए आगे, शील्ड गाँव के सामने से गुजरते हैं, जहाँ रामगढ़िया के सेब के विशाल बागान मिलते हैं। मालूम हो कि बागवानी इस क्षेत्र में आर्थिकी का एक प्रमुख आधार है, जिसे प्रगतिशील एवं पढ़े-लिखे बागवानों ने समय रहते अपनी पहल के आधार पर अपनाया। यह बगीचा इसी का एक उदाहरण है। रास्ते में हमें अंधेरा हो चुका था। इसी को चीरते हुए हम नीचे मुख्य मार्ग में रायसन पहुँचते हैं, यहाँ पुल पार कर लेफ्ट बैंक से होते हुए काईस को पार करते हुए अपने गाँव में प्रवेश करते हैं।

पूरी यात्रा के साथ हमारे मन में बचपन से जेहेन को कुरेदती कई जिज्ञासाओं तथा कौतुहलों के समाधान मिल गए थे। इस क्षेत्र का नक्शा भी काफी साफ हो चुका था। साथ ही आगे के लिए कुछ नई यात्राओं का आधार भी तैयार हो गया था। शायद यात्राओं का उद्देश्य कुछ ऐसा ही रहता है, जो हमें कुछ शिक्षित करती हैं, कुछ आनंदित करती हैं, कुछ हमारे ज्ञान के दायरे को बढ़ाती हैं तथा स्मृति कोश में कुछ सुखद अनुभवों को जोड़कर जीवन को समृद्ध करती हैं।
 
हिमालय शिखरों पर सूर्यास्त, देवभूमि कुल्लू घाटी

रविवार, 31 जनवरी 2016

यात्रा वृतांत - शिमला से कुल्लू वाया जलोड़ी पास


शिमला की एप्पल बेल्ट का एक यादगार, रोमांचक सफर

शिमला, प्रदेश की राजधानी होने के नाते हमारा बचपन से ही आना जाना रहा है। यहां जाने का कोई मौका हम शायद ही चूके होंशुरु में अपने स्कूल, कालेज के र्टिफिकेट इकट्ठा करने, तो बाद में एडवांस स्टडीज में शोध-अध्ययन हेतु। यहां घूमने के हर संभव मौकों पर शिमला शहर के आसपास के दर्शनीय स्थलों को अवश्य एक्सप्लोअर करते रहे। लेकिन शिमला के असली सुकून और रोमांच भरे दर्शन तो शहर से दूर-दराज के ग्रामीण आंचलों में हुए, जहाँ किसान अपनी पसीने की बूंदों के साथ माटी को सींच कर फल-सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में जमींन से सोना उपजा रहे हैं।

पिछले ही वर्ष शिमला के कोटखाई इलाके में ढांगवी गांव में प्रगतिशील बागवान रामलाल चौहान से मिलने का सुयोग बना था, जिसमें यहां चल रहे सेब-नाशपाती जैसे फलों की उन्नत प्रजातियों के साथ सफल प्रयोग व इनके आश्चर्यजनक परिणामों को देखने का मौका मिला। सुखद आश्चर्य हुआ था देखकर कि इनके बगीचों में वैज्ञानिक की प्रयोगधर्मिता और दत्तचित्तता के साथ विश्व की आधुनिकतम फल किस्मों को आजमाया जा रहा है। वर्षों की मेहनत के इनके परिणाम भी स्पष्ट थे। राष्ट्रीय स्तर पर 2010 का फार्मर ऑफ द ईयर का पुरस्कार के साथ प्रदेश के कई पुरस्कार इनकी झोली में हैं। 


प्रदेश के बागवानों सहित हॉर्टिक्लचर यूनिवर्सिटी के छात्रों एवं वैज्ञानिकों के लिए बगीचे में चल रहे प्रयोग गहरे शैक्षणिक अनुभव से भरे रहते हैं। इस दौरान से की रेड चीफ, सुपर चीफ, जैरोमाईन, रेड विलोक्स जैसी वैरायटीज से परिचय हुआ। इसी तरह नाशपाती की का्रेंस, कांकॉर्ड जैसी विदेशी किस्मों को देखने व स्वाद चखने का मौका मिला था।
आश्चर्य नहीं कि आज शिमला सेब की आधुनिकतम खेती की प्रयोगशाला है, जिसका संचार पूरे प्रदेश व देश के अन्य क्षेत्रों में हो रहा है। प्रदेश के अन्य स्थलों के बागवान भी इसकी व्यार से अछूते नहीं हैं। सेब उत्पादन के संदर्भ में यह ब्यार एक क्रांति से कम नहीं है। इसके चलते हम जिन विदेशी सेबों को मार्केट में 200 से 300 रुपय किलो खरीदते हैं, वे आगे बहुत बाजि दामों मेें उलब्ध होंगे। और किसानों की आर्थिक स्थिति भी इससे निश्चित ुप से सुदृढ़ होगी।



सेब का संक्षिप्त इतिहास – हिमाचल प्रदेश में सेब की उन्नत किस्मों की व्यावसायिक तौर पर शुरुआत का श्रेय शिमला के कोटगढ़ क्षेत्र को जाता है। जहाँ 1918 में अमेरिकन मिशनरी सत्यानंद स्टोक्स में सेब की रेड डिलीशियस और रॉयल प्रजातियों को बारूवाग गांव में रोपा था। इससे पूर्व शौकिया तौर पर कुल्लू के मंद्रोल, रायसन स्थान पर अंग्रेज कैप्टन आरसी ली ने 1870 में अपना सेब बाग लगाया था। गौरतलब हो कि भारत में सबसे पहले सेब को अंग्रेज, लीवरपूल से मंसूरी 1830 में लाए थे। इसके बाद दक्षिण के हिल स्टेशन ऊटी मे लगाए गए। आज हि.प्र. में शिमला सहित कुल्लू, किन्नौर, लाहूल-स्पीति, चम्बा, सिरमौर, मंडी जिलों में सेबों का उत्पादन होता है। भारत में सेब उत्पादक प्रांतों में काश्मीर, हिमाचल और उत्तराखण्ड क्रमशः प्रमुख हैं।



इस बार भी अपने बागवान भाई के साथ इस क्षेत्र में जाने का मौका मिला। रात को बस में हरिद्वार से निकले। चण्डीगढ़-काल्का से होते हुए सुबह पांच बजे हम शिमला पहुंचे। आगे का सफर भाई के साथ गाड़ी में पूरा किया। शिमला की सुनसान सड़कें अपना पुराना परिचय दे रही थीं। जाखू की सबसे ऊँची चोटी पर बजरंगबली सफर का आशीर्वाद दे रहे थे। शिमला पार करते ही रास्ते में ग्रीन वेली से गुजरना हमेशा ही बहुत सकूनदायी रहता है। एशिया का यह सबसे घना देवदार का जंगल है। इसके बाद लोकप्रिय पर्यटन स्थल कुफरी आता है। इस सीजन में दशक की सबसे कम बर्फवारी हुई है। (हालाँकि बाद में फरवरी माह में इस क्षेत्र में जमकर बर्फवारी हुई है) इसके बावजूद सड़क के किनारे छायादार कौनजमी र्फ की सफेद चादर ओढ़े हुए थे। इसके आगे ठियोग से होते हुए कुछ ही घंटों में हम कोटखाई घाटी में प्रवेश कर चुके थे।

कोटखाई, शिमला में सेब का एक प्रमुख गढ़ है। यहां के प्रगतिशील बागवानों का सेब उत्पादन को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने में उल्लेखनीय योगदान रहा है। पिछले ही वर्ष हम यहां रामलाल चौहान से मिल चुके थे। इस बार दूसरे युवा प्रगतिशील बागवान संजीव चौहान से मिलने का मौका मिला। मुख्य मार्ग से छोटी संकरी सड़क के साथ चढ़ाईदार रास्ते से हम ऊपर बढ़ रहे थे। दोनों ओर बहुत ही खुबसूरती से तराशे गए सेब के बगीचे दिखे। बगीचों के बीच में सुंदर, भव्य भवन। लाल व हरी छत्तों से ढकी कई आलीशान कोठियों के दर्शन यहां की समृद्धता को दर्शा रहे थे।

ऊपर मुख्य मार्ग तक पहुंचने के बाद फिर एक तंग किंतु पक्की सड़क के साथ आगे बढ़ते रहे। देवदार के घने जंगल को पार करते हुए अंततः हम बकोल गांव में पहुंच चुके थे। यहां हर घर गांव तक सड़कों का जाल बिछा दिखा। बागों से सेब की ढुलाई की दृष्टि से यह सही भी है और जरुरी भी। राहगिरों से रास्ता पूछते हुए थोड़ी ही देर में हम चौहान परिवार के आंगन में खड़ थे


अपने बगीचे में कार्य के लिए तैयार ट्रेक सूट पहने युवा बागवान संजीव चौहान के सरल, सहज आत्मीय व्यवहार से लगा कि जमीं से जुड़े एक प्रबुद्ध, प्रखर और संवेदनशील किसान से मिल रहे हैं। बातचीत से पता चला कि संजीव शिमला विवि से लॉ, राजनीति शास्त्र व पत्रकारिता की स्नात्कोत्तर पढ़ाई किए हुए हैं। नौकरी की बजाए विरासत में मिली बागवानी को ही अपन कैरियर बनाना बागवानी के प्रति इनके गहरे लगाब को दर्शाता है। बागवानी के प्रति इनका जनून बातों से स्पष्ट झलक रहा था। इसी लग्न और जनून का परिणाम रहा कि संजीव चौहान सेब की नवीनतम जानकारी के साथ सपरिवार अपनी बागवानी की प्रयोगशाला में पिछले दशक से लगे हैं। इसी प्रयोगधर्मिता का परिणाम है कि इनके बगीचे में 25 किस्मों की उन्नत विदेशी सेब लगे हैं। आश्चर्य नहीं कि इनके नाम 52 मीट्रिक टन प्रति हैक्टेयर सेब उत्पादन का रिकॉर्ड दर्ज है, जो अमेरिका और चीन के 30 से 40 मीट्रिक टन उत्पादन से आगे है। संजीव चौहान को राष्ट्रीय स्तर पर 2015 का ेस्ट प्लांट प्रोटेक्शन फार्मर अवार्ड मिल चुका है, जो फल उत्पादन में माटी व पौधों के साथ इनकी गहन संवेदनशील प्रयोगधर्मिता के आधार पर संभव हुआ है।


चौहान परिवार के आत्मीय अतिथि सत्कार के साथ लगा हम अपने ही घर पहुंच गए हैं। गर्म जल में स्नान के साथ सफर की थकान और ठंड से जकड़ी नसें खुल चुकी थी। चाय-नाश्ता के साथ हम तरोताजा होकर अगले सफर की ओऱ चल पड़े।


बकोल गांव को विदाई देते हुए हम आगे सामने की घाटी को पार करते हुए बाघी की ओर बढ़े। रास्ते में रत्नारी गांव के पास से गुजरे, जिसे हाल ही में सबसे स्वच्छ गांव का दर्जा दिया गया है। इसके आगे देवदार के घने जंगलों को पार करते हुए हम बाघी गांव पहुंचे, जिसे हिमाचल का सबसे अधिक सेब उत्पादक क्षेत्र माना जाता है। यहां के आलीशान भवनों, मंहगी गाड़ियों के साथ यहां फल उत्पादन के बलबूते लिख जा रहआर्थिक समृद्धि एक रोमाँचक अध्याय के दर्शन किए जा सकते हैं। 

बाघी से बापसी में नारकण्डा से होकर आगे बढ़े। रास्ते में देवदार के घने जंगलों के बीच बर्फ मिली। सड़के पर मिट्टी बिछाकर गाड़ियों के चलने लायक मार्ग तैयार था। लेकिन ड्राइविंग खतरे से खाली नहीं थी। नए व अनाढ़ी ड्राइवर के बूते यहां का सफर संभव न था। लेकिन हमारे मंझे हुए पहाड़ी सारथी पवन, वायु वेग के साथ बड़ी कुशलतापूर्वक गाढी आगे बढ़ा रहे थे। रास्ते के मनोहारी दृश्यों को हम यथासंभव अपने कैमरे में कैद करते रहे। गंगनचूंबी देवदार के वृक्षों और बर्फ के बीच हम कुछ ही मिनटों में नारकंडा पहुंचे।


नारकंडा, शिमला से 75 किमी दूरी पर 8599 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। शिवालिक पहाडियों से घिरा यह हिल स्टेशन स्कीइंग के लिए प्रख्यात है। रामपुर के लिए यहीं से आगे रास्ता जाता है। देवदार के घने जंगलों के बीच इसका प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है। यहां से पहाड़ी के हाटू पीक पर काली माता का प्राचीन मंदिर दर्शनीय है।

नारकंडा से नीचे उतरते हुए हम कुमारसेन से होते हुए आगे बढ़े। यह क्षेत्र भी फल व सब्जी उत्पादन के लिए प्रख्यात है। घाटी के पार सामने की पहाड़ी पर कोटगढ़ के दूरदर्शन हो रहे थे और नीचे वाईं ओर सतलुज नदी। कुमारसेन से वाएं मुडते हुए सतलुज नदी के समानान्तर कुछ किमी के बाद पुल पार किए। अब हम शिमला से कुल्लू जिला में प्रवेश कर चुके थे। एक छोटी नदी की धारा के किनारे संकरी घाटी के बीच आगे बढ़ते गए। रास्ते में आनी पड़ा। यहां से पर चढ़ते हुए, चीड़ के घने जंगलों के बीच हम एकदम किसी दूसरे लोक में खुद को पार रहे थे। ऊंचाई बढ़ने के साथ देवदार के सघन वन आने शुरु हो गए। सही मायने में हम यहां हिमालयन टच को अनुभव कर रहे थे और आगे नई घाटी में प्रवेश कर चुके थे। यहां सेब के गान मिले। कई किमी तक देवदार के जंगलों के बीच बसे यहां के गांव, कस्बों को पार करते हुए यहां के सुंदर एवं रोमांचक घाटी के बीच सफर करते रहे। 


शाम के ढलते ढलते मानवीय बस्ती के पार घने जंगल में प्रवेश कर चुके थे। आगे जलोड़ी पास आने वाला था। चढाईदार घने जंगल को पार करते हुए हम आखिर शाम छः बजे के आस-पास जलोड़ी जोत पर पहुंचे। सामने बर्फीले टीले पर मां काली का मंदिर औऱ दायीं और चाय की दुकान। बायीं और नीचे घाटी में शोजा कस्वा और आगे बंजार, कुल्लू घाटी। यहां मंदिर में माथा नबाते हुए कुछ यहां के सूर्यास्त के दिलकश नजारों को कैद किए। क्षितिज पर सूर्यास्त की लालिमा और क्षितिज का अनन्त विस्तार एक दिव्य अनुभूति दे रहा था। र्फीली ठंडी हवा जमाने वाली थी। इसका उपचार ढाबे में गर्मागर्म चाय के साथ करते हुए हम बर्फीले दर्रे के पार शोजा की ओर बढ़ चले। रास्ते में बर्फ के एक बढ़े से ढेले को गाढ़ी पर लाद कर, घर के बच्चों व बढ़ों के लिए इस दर्रे का एक प्राकृतिक उपहार-प्रसाद के रुप में साथ ले जाना न भूले। 


बचपन से जलोड़ी पास के बारे में पिताजी से सुनते आए थे। निरमंड में होर्टिक्लचर विभाग में सर्विस करते हुए वे यहीं से होकर पैदल पार होते थे औऱ फिर घर पहुंचते थे। आज बचपन की किवदंतियों के हिम-नायक के दर्शन के साथ एक चिर आकांक्षित इच्छा पूरी हो रही थी।
 
आगे अंधेरे में बर्फ से ढकी सड़क को पार करते हुए शोजा पहुंचे। आगे संकरी घाटी के बीच सेंज नदी के किनारे आगे बढ़ते गए। पता चला की गलेशियरों से निकली नदी ट्राउट मछलियों का पसंदीदा आशियाना है। और क्षेत्रीय लोगों के लिए एक प्रचलित आहार भी। इसी तरह अंधेरे में घाटी को पार करते हुए जिभ्भी को पार किए। आगे घाटी के पहाड़ी गांव की ात की टिमटिमाती रोशनी के बीच बंजार पहुंचे। इसके बाद नदी पार करते हुए बाली चौकी से होते हुए सैंज नदी के किनारे लारजी पहुंचे। यहां सैंज और व्यास नदी के संगम पर बांध बनाया गया है, जिससे बिजली उत्पादन किया जाता है। 

यहां मुख्य मार्ग में सुरंग को पार करते हुऑउट पहुंचे और बजौरा-भुंतर से होते हुए व्यास व पार्वती नदी के संगम पर पहुंचे। पृष्ठभूमि में पर्वत शिखर पर विराजमान बिजली महादेव के चरणों में स्थित जिया पुल को पार करते कुछ ही मिनट में हम अपने गांव में प्रवेश कर चुके थे। मुख्य मार्ग से कच्ची सड़क से होते हुए घर पहुंचे। सफर कुल मिलाकर बहुत रोमांचक व सुखद रहा। यात्रा की थकान अवश्य हावी हो चुकी थी, लेकिन सफर की रोमांचक स्मृतियां इन पर भारी थी, जिनकी याद आज भी ताजगी भरा रोमांचक अहसास देती हैं।
  

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