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मेरा गाँव मेरा देश - हिमालय की गोद में बचपन की यादों को कुरेदती एक यात्रा

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कुल्लू से रायसन वाया व्यासर-माछिंग बादलों के संग कुल्लू-मानाली घाटी का मनोरम दृश्य 2011 के नवम्बर माह में सर्दी का दौर शुरु हो चुका था। कितने वसन्त विताए होंगे , सामने पश्चिम की ओर की घाटी को घर से निहारते हुए। पर्वत शिखरों पर सुबह का स्वर्णिम सूर्योदय, फिर धीरे-धीरे धूप का पहाड़ की चोटी से घाटी में नीचे उतरना , घरों में लगे सीसों से टकराकर झिलमिलाना। फिर नीचे ब्यास नदी को छूकर हमारी घाटी में प्रवेश और धीरे-धीरे खेत-खलियान , बगीचों से होते हुए सूर्योदय का आलौकिक नजारा। पूर्व की ओर से पहाड़ियों के शिखर पर आसमान को छूते देवदार के वृक्षों के पीछे से सूर्य भगवान का प्रकट होकर पूरी घाटी को अपने आगोश में लेना। सामने पहाड़ की गोद में बसी घाटी को बचपन से निहारते आए थे , हर मौसम में इसके अलग-अलग रुप-रंग , मिजाज व स्वरुप को देख चुके थे , लेकिन सब दूर से , घाटी के इस ओर से। चाहते हुए भी संयोग नहीं बन पाया था उस पार जाने का। मन था कि कभी उस पार गाँवों को पार करते हुए उस पहाड़ी के शिखर तक जाएंगे , वहाँ से चारों ओर क्या नजारा रहता है , इस रहस्य को निहारेंगे। लेकिन यह सब खुआब ही बना रहा। तब उस पार

पुस्तक सार, समीक्षा - वाल्डेन

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प्रकृति की गोद में जीवन का अभूतपूर्व दर्शन वाल्डेन, अमेरिकी दार्शनिक , विचारक एवं आदर्श पुरुष हेनरी डेविड़ थोरो की कालजयी रचना है। मेसाच्यूटस नगर के समीप काँकार्ड पहाड़ियों की गोद में स्थित वाल्डेन झील के किनारे रची गयी यह कालजयी रचना अपने आप में अनुपम है, बैजोड़ है। प्रकृति की गोद में रचा गया यह सृजन देश, काल, भाषा और युग की सीमाओं के पार एक ऐसा शाश्वत संदेश   लिए है, जो आज भी उतना ही ताजा और प्रासांगिक है। ज्ञात हो कि थोरो दार्शनिक के साथ राजनैतिक विचारक, प्रकृतिविद और गुह्यवादी समाजसुधारक भी थे। महात्मा गाँधी ने इनके सिविल डिसओविडियेंस (असहयोग आंदोलन) के सिद्धान्त को स्वतंत्रता संघर्ष का अस्त्र बनाया था। यह थोरो का विद्रोही स्वभाव और प्रकृति प्रेम ही था कि वे जीवन का अर्थ खोजते-खोजते एक कुटिया बनाकर वाल्डेन सरोवर के किनारे वस गए।   थोरो के शब्दों में, मैने वन-प्रवास आरम्भ किया , क्योंकि मैं विमर्शपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता था , जीवन के सारभूत तथ्यों का ही सामना करना चाहता था , क्योंकि मैं देखना चाहता था कि जीवन जो कुछ सिखाता है , उसे सीख सकता हूँ या नहीं।

मेरा गाँव, मेरा देश – मौसम सर्दी का और यादें बचपन की

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तैयारी पूरी हो तो सर्दी से अधिक रोमाँचक कुछ नहीं सर्दी का मौसम आ चला। जैसे ही पहाड़ों में बारिश क्या हुई, पर्वत शिखरों ने बर्फ की हल्की सी चादर ओढ़ ली और सर्दी ने दरबाजे पर दस्तक दे दी। जीवन के असली आनन्द का मौसम आ गया। हालाँकि शीत लहर के चलते देश-दुनियाँ में होने वाले नुक्सान के साथ पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए कहना चाहूँगा कि यदि सर्दी का इंतजाम पूरा हो तो इससे अधिक रोमाँचक और सुखद शायद ही कोई दूसरा मौसम हो। पतझड़ के साथ आते शिशिर ऋतु के अपने ही रंग हैं, ढंग हैं, मजे हैं और अपने ही आनन्द हैं, जिनको अपने बचपन की यादों के समृद्ध स्मृति कोश से बाहर निकालकर गुदगुदाने की अपनी ही मौज है। अपने बचपन के घर से दूर, बहुत दूर, फुर्सत के पलों में हम इतना तो कर ही सकते हैं। दशहरा आते ही हमारे गाँव में सर्दी की शुरुआत हो जाती थी, क्योंकि हम ऊनी कोट पहनकर दशहरे के कलाकेंद्र में रात्रिकालीन प्रोग्राम देखने जाया करते थे। दशहरे के ठीक 20 दिन बाद दिवाली तक ठंड़ की मार ठीक ठाक अनुभव होती थी, जिसका स्वागत हम खेतों में तिल के सुखे गट्ठों को जलाकर किया करते थे। सर्दी की तैयारियाँ समय स