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जीवन दर्शन - मन की ये विचित्र माया

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  बन द्रष्टा, योगी, वीर साधक                                      मन की ये माया गहन इसका साया चुंगल में जो फंस गया इसके तो उसको फिर रव ने ही बचाया ।1।   खेल सारा अपने ही कर्मों का इसी का भूत बने मन का साया आँखों में तनिक झाँक-देख लो इसको फिर देख, ये कैसे पीछ हट जाए ।2।   मन का बैसे कोई वजूद नहीं अपना अपने ही विचार कल्पनाओं की ये माया जिसने सीख लिया थामना इसको उसी ने जीवन का आनन्द-भेद पाया ।3।   वरना ये मन की विचित्र माया, गहन अकाटय इसका आभासी साया नहीं लगाम दी इसको अगर, तो उंगलियों पर फिर इसने नचाया ।4।   बन योगी, बन ध्यानी, बन वीर साधक, देख खेल इस मन का बन द्रष्टा जी हर पल, हर दिन इसी रोमाँच में देख फिर इस जगत का खेल-तमाशा ।5।

मृत्यु का अटल सत्य और उभरता जीवन दर्शन

जीवन की महायात्रा और ये धरती एक सराय मृत्यु इस जीवन की सबसे बड़ी पहेली है और साथ ही सबसे बड़ा भय भी, चाहे वह अपनी हो या अपने किसी नजदीकी रिश्ते, सम्बन्धी या आत्मीय परिजन की। ऐसा क्यों है, इसके कई कारण हैं। जिसमें प्रमुख है स्वयं को देह तक सीमित मानना, जिस कारण अपनी देह के नाश व इससे जुड़ी पीड़ा की कल्पना से व्यक्ति भयाक्रांत रहता है। फिर अपने निकट सम्बन्धियों, रिश्तों-नातों, मित्रों के बिछुड़ने व खोने की वेदना-पीड़ा, जिनको हम अपने जीवन का आधार बनाए होते हैं व जिनके बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते। और तीसरा सांसारिक इच्छाएं-कामनाएं-वासनाएं-महत्वाकांक्षाएं, जिनके लिए हम दिन-रात को एक कर अपने ख्वावों का महल खड़ा कर रहे होते हैं, जैसे कि हमें इसी धरती पर हर-हमेशा के लिए रहना है और यही हमारा स्थायी घर है। लेकिन मृत्यु का नाम सुनते ही, इसकी आहट मिलते ही, इसका साक्षात्कार होते हैं, ये तीनों तार, बुने हुए सपने, अरमानों के महल ताश के पत्तों की ढेरी की भाँति पल भर में धड़ाशयी होते दिखते हैं, एक ही झटके में इन पर बिजली गिरने की दुर्घटना का विल्पवी मंजर सामने आ खडा होता है। एक ही पल मे

पुस्तक समीक्षा, हिमालय की वादियों में

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  यायावरी का तिलिस्म प्रो. शंकर शरण, राष्ट्रीय अध्येता, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (IIAS), शिमला, हिं.प्र.   मात्र पचास - साठ वर्ष पहले तक यात्रा और भ्रमण साहित्य अच्छे प्रकाशन संस्थानों का एक विशिष्ट भाग होता था। न केवल बनारसी दास चतुर्वेदी , राहुल सांकृत्यायन , और कवि अज्ञेय जैसे ख्यातनाम , अपितु सामान्य व्यक्तियों द्वारा लिखे यात्रा - वृत्तांत भी प्रकाशक सहर्ष छापते थे । यहाँ तक कि बड़े लोग उस की भूमिकाएँ तक लिखते थे। कदाचित कारण यही रहा हो कि तब यात्राएँ उतनी सुलभ और प्रचलित नहीं थीं। इसलिए जो लोग यात्राएँ और भ्रमण करते थे , उनके विवरणों से सहृदय पाठक उसका घर बैठे आनंद , कल्पना और जानकारी प्राप्त कर लियाकरते थे। अब यातायात, संचार और पर्यटन उद्योग का ही भारी विस्तार हो चुका है। संभवतः इसीलिए अब इस विधा का महत्त्व कम हो गया   इसीलिए प्रो . सुखनन्दन सिंह जैसे जन्मजात घुमक्कड के प्रथम यात्रा वृत्तांत को जितना महत्त्व मिलना चाहिए था , वह नहीं मिला है। वह देव