गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

यात्रा वृतांत – पराशर झील, मण्डी,हि.प्र. की हमारी पहली यात्रा, भाग-2


पराशर झील की ओर बढ़ता सफर

पिछली ब्लॉग पोस्ट में हम कुल्लू से पराशर के पहले चरण में वाया बजौरा यात्रा का वर्णन कर चुके हैं, जहाँ दायीं ओर एक नई घाटी में प्रवेश तथा फिर आगे पहाड़ी के टॉप से नीचे मण्डी शहर की ओर की घाटी का अवरोहण होता है। अब हम अगले डायवर्जन बिंदु पर वायीं ओर मुड़ चुके थे, जहाँ से पराशर झील 23 किमी थी। अगले 10 मिनट में हम बाघी कस्वे में पहुँच चुके थे, जहाँ नाला पार कर आगे बढ़ना होता है। इसमें भरपूर पानी भरा था, लेकिन पक्का पुल भी निर्माणाधीन था, शायद अगले कुछ महीनों में तैयार हो जाए।

बाघी से सड़क रोड़ तो घुमावदार सड़कों से होकर ऊपर चढता है, जो लगभग 18 किमी पड़ता हो, लेकिन सीधे गाँव व जंगलों से होकर ट्रेकिंग मार्ग महज 8 किमी पड़ता है। हम पानी से भरे नाले को पार कर सड़क मार्ग से पराशर झील की ओर बढ़ रहे थे।
बंजर भूमि एवं वीहड़ वन से होता हुआ रास्ता क्रमशः ऊँचाई पकड़ रहा था, रास्ते में सड़क के किनारे इक्का-दुक्का घर ही दिखते हैं। इस रास्ते की खासियत पानी से लबालब भरे नाले हैं, जिनमें पाईप से होकर लोग पानी अपने सुदूर गाँव व खेतों की ओर ले जा रहे थे।
रास्ते में हम जैसे-जैसे ऊपर चढ़ रहे थे, नीचे घाटी का नजारा और स्पष्ट होता जा रहा था। पीछे छूटते पहाड़, घाटियां, नदी-नाले व सड़कों का ऊपर से विहंगाबलोकन एक भयमिश्रित रोमाँच का अनुभव दे रहा था। साथ ही सीढ़ीनुमा खेतों के बीच बसे पहाड़ी घर एवं गाँव हमेशा की तरह विसमित कर रहे थे।



रास्ते में कुछ ही ढाबे, काफी हाऊस, होटल व टी-स्टाल दिख, जो यात्रियों के लिए रिफ्रेश होने, चाय-नाश्ता करने व ठहरने का आमन्त्रण दे रहे थे।

आधे घण्टे बाद हम देवदार के घने जंगल में प्रवेश कर चुके थे। ऐसा नजारा किसी भी हिल स्टेशन के जंगली इलाकों से मेल खाता है। ठीक ऐसा ही रास्ता हमारे गाँव के ऊपर बचपन की रोमाँचभूमि रेऊँश, बिजली महादेव रास्ते के ऊपर-नीचे है। ऐसी ही झलक हम उत्तराखण्ड में तुंगनाथ जाते हुए चोपता के रास्ते में पा चुके हैं। ऐसे ही दृश्य मसूरी-धनोल्टी-सुरकुण्डा-चम्बा मार्ग पर बीच-बीच में मिलते हैं। ऐसे ही अनुभव शिमला की पहाड़ियों में पा चुके हैं। ये सारे अनुभव जैसे स्मृतिकोश से ऊभर कर घनीभूत रुप में चिदाकाश पर छा रहे थे। 



घने देवदार, रई-तौस, दियार, बुराँश के जंगलों के बीच बने सड़क मार्ग से सफर हमेशा ही एक विरल रोमाँच का अनुभव रहता है, जहाँ गंगमचु्म्बी वृक्षों और प्रकृति की नीरव शांति की विराटता के बीच व्यक्ति अपनी लघुता का गाढ़ा अहसास पाता है।
बीच-बीच में वृक्षों से विरल स्थलों से दूर पहाड़ियों की गोद में बसे गाँव के नजारे अद्भुत दृश्य पेश कर रहे थे। 

रास्ते में झरते पानी के झरने, नाले व जल स्रोत्र अपनी अद्वितीय निर्मलता के साथ प्राकृतिक सौंदर्य में चार चाँद लगा रहे थे। पेड़ों में उछल-कूद करते बंदर-लंगूरों को देखकर लगता कि इस प्राकृतिक साम्राज्य के असली मालिक तो येही हैं, हम तो यहाँ महज चंद घंटों के मुसाफिर हैं। सतत परिवर्तनशील प्रकृति के मध्य महाकाली के मौन ताण्डव नर्तन की झलक मिल रही थी, लेकिन इसके साथ ही एक दिव्य आनन्द, उल्लास, शांति एवं विरक्ति का भाव भी साथ में था।

बीच में कुछ आबादी भी दिखी, जो सेब के बगीचों को यहाँ तैयार कर रही थी। यहाँ सेब सड़क के किनारे टोकरियों में बिक्री के लिए दिखे, हालाँकि यह बहुत ही सादे व सरल रुप में थी, बिना किसी दुकान या ढाबे के। शायद इस रुट पर उतनी आबाजाही नहीं रहती। कम से कम आज तो इस पूरे रुट में हमें चार-छह गाडियों में ही क्रोस किया होगा। ऐसा ही अनुभव बापसी का रहा। शायद लोग पराशर झील के लिए ट्रेकिंग मार्ग अधिक प्रेफर करते होंगे।
चढाई के साथ धुंध भी गहरा रही थी। जिससे कुछ मीटर से आगे देख पाना सम्भव नहीं हो रहा था।



अब अचानक पेड़ कम हो गए थे, लग रहा था कि हम टॉप पर पहुँच रहे हैं। यहीं भैंसों के काफिले भी मिलने शुरु हो गए थे, रास्ते में जगह-जगह भेड़-बकरियों के झुंडों से हमारा सामना कई जगहों पर हो चुका था, जो इसका सूचक था कि यहाँ के लोग अभी भी पारम्परिक भेड़-बकरी पालन को निभा रहे हैं। खेती-बागवानी के आधुनिक तौर-तरीकों व पर्यटन उद्योग से अभी इनका अधिक वास्ता नहीं दिखा। 

कुछ ही मिनटों में हम ऐसी ऊँचाई पर थे, जहाँ पेड़ नीचे छूट रहे थे। देवदार के जंगल विरल हो चुके थे। घुमन्तु यायावरों के कच्चे मकान सड़क के साथ बने दिख रहे थे, जहाँ वे गर्मियों में भैंस, गाय व बकरी पालन करते हैं। यहाँ के बुग्याल हरी, घनी व मखमली घास के साथ इनके चरने के लिए बहुत उपयुक्त रहते हैं।
ऊपर नीचे बुग्यालों का विस्तार दिख रहा था। यह इलाका ठीक हमें अपने सेऊबाग-काईस, कुल्लू के ऊपर के जंगलों में ऊबलदा के बाद पटोऊल क्षेत्र का नजारा पेश कर रहा था, जो हमारे बचपन की ट्रेकिंग एवं एडवेंचर भूमि रही है। अंत में हम ट्री लाईन से ऊपर थे, जिसे स्नोलाइन भी कहा जाता है, जहाँ पेड़-पौधे न के बरावर होते हैं। होते हैं तो बस जंगली घास-फूस, जिनमें अधिकाँश जड़ी-बूटियाँ होती हैं तथा कुछ विशेष किस्म की झाड़ियां। 

लो हम यहाँ के बस स्टैंड पर पहुँच चुके थे। कुछ बसें, कार व अन्य वाहन यहाँ खड़े थे। यहीं पर एक स्थान पर गाड़ी खड़ी कर हम पराशर झील की ओर ब़ढ़ते हैं। आगे एक किमी पैदल चलना था। रास्ता सीधा आगे थे, पक्का किंतु संकरा। धुंध के बीच हम गुजर रहे थे। आगे 50-100 मीटर तक ही नजारा स्पष्ट था।  रास्ते में ऊपर नीचे सारे में गहरा कोहरा छाया हुआ था।

आगे फाटक को पार कर अब रास्ता ढलानदार था। धुंध में हमें कुछ दिख नहीं आ रहा था कि झील कहाँ है व मंदिर कहाँ। लोग नीचे कई रास्तों से ऊपर आ रहे थे, कुछ पक्की सड़क से, तो कुछ कच्ची पगडंडी से, तो कुछ घास के मैदानों से। वास्तव में हम पराशर झील के ऊपर के शिखर बिंदु पर थे व नीचे झील की ओर उतर रहे थे।


हम पक्के पैदल रास्ते के सहारे नीचे उतरते रहे। कुछ ही मिनटों में धुंध के बीच ढावे के दर्शन हुए। इससे नीचे ऊतर कर आगे मंदिर परिसर की दिवारें दिख रही थी। नीचे फूलदार घास के साथ जंगली पालक बहुतायत में लगा था। हम झील के किनारे मंदिर की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन हमें धुंध में कुछ समझ नहीं आर हा था। रंग-विरंगे झंडे झील की सीमा को इंगित कर रहे थे। जब सामने वाईँ और पैगोड़ानुमा भवन दिखा, जो समझ आया की हम मंदिर पहुँच चुके हैं, जिसके बारे में हम पढ़कर भिज्ञ हो चुके थे।(जारी....)
यात्रा का अगला व अंतिम भाग, आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - भाग-3, धुँध के बीच लुकाछिपी करती पराशर झील। 
 
यात्रा का पहला भाग नीचे दिए लिंक पर पढ सकते हैं -

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