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जानता हूँ अँधेरा बहुत

मिल कर रहेगा समाधान जानता हूँ अंधेरा बहुत, लेकिन अंधेरा पीटने के मिटने वाला कहाँ, जानता हूँ कीचड़-गंदगी बहुत, लेकिन उछालने से यह हटने वाली कहाँ।। अच्छा हो एक दिए का करलें इंतजाम, या खुद ही बन जाएं प्रकाश की जलती मशाल, अच्छा हो कर लें निर्मल जल-साबुन की व्यवस्था, या एक बहते नद या सरोवर का इंतजाम।। लेकिन यदि नहीं तो, फिर छोड़ दें कुछ काल पर, करें कुछ इंतजार, शाश्वत बक्रता संग विचित्र सा है यह मानव प्रकृति का मायाजाल, नहीं समाधान जब हाथ में, तो बेहतर मौन रह करें उपाय-उपचार, समस्या को उलझाकर, क्यों करें इसे और विकराल।। इसका मतलब नहीं कि हार गए हम, या, मन की शातिर चाल या इसकी मनमानी से अनजान, आजादी के हैं शाश्वत चितेरे, मानते हैं अपना जन्मसिद्ध अधिकार।। लेकिन क्या करेँ जब पूर्व कर्मों से आबद्ध, अभी, गुलामी को मान बैठे हैं श्रृँगार, लेकिन नहीं सो रहे, न ही पूरी बेहोशी में, चिंगारी धधक रही, चल रहे तिमिर के उस पार।। कड़ियाँ जुड़ी हैं कई जन्मों की, नहीं एक झटके में कोई समाधान, धीरे-धीरे कट रहे कर्म-बन्धन, मुक्त गगन में गूँजेगा

यात्रा वृतांत – पराशर झील, मण्डी,हि.प्र. की हमारी पहली यात्रा, भाग-1

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नई घाटी में प्रवेश का रोमाँच      आज हमारे पराशर झील की यात्रा का संयोग बन रहा था। कितनी वार इस सरोवर की छवि निहार चुका था, पैगोड़ानुमा आकार के मंदिर के किनारे झील में तैरते टापू के साथ, वह भी हिमालय के वृक्षहीन शिखरों के बीच। जाने से पूर्व यहाँ के मार्ग, समय व विशेषताओं का अवलोकन कर रास्ते का मोटा-मोटा अंदाजा हो चुका था कि सफर रोमाँचक होने वाला है। फिर सितम्बर माह में जब बुग्याल (घास के पहाड़ी मैदान) हरियाली का गलीचा ओढ़ चुके होते हैं व फूलों से लदे होते हैं, तो ऐसे में यहाँ की खूबसूरती के चित्र भी चिदाकाश में तैर रहे थे। लेकिन सारा खेल मौसम का था और मौसम विभाग पराशर क्षेत्र में 90 फीसदी बारिश की चेतावनी दे रहा था। खेर यहाँ कोई गुंजाइश नहीं थी, दिन के चयन की। संडे के छुट्टी के दिन छोटे भाई संग पारिवारिक ट्रिप बन चुका था। अब सारा दारोमदार ऋषि पराशर एवं प्रकृति माता पर था, कि कैसी परिस्थितियों के बीच वह हमें अपने पास बुलाते हैं। चलते-चलते सुबह के 8,30 बज चुके थे, व्यास नदी पर बने रामशीला पुल को पार करते ही हम कुल्लू शहर में प्रवेश कर रहे थे।      आगे कुल्लू, ढालप

यात्रा वृतांत – मेरी दूसरी झारखण्ड यात्रा

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सब दिन होत न एक समान दिसम्बर 2014 के पहले सप्ताह में सम्पन्न मेरी पहली झारखण्ड यात्रा कई मायनों में यादगार रही, ऐतिहासिक रही। सहज स्फुर्त रुप में उमड़े भावों को अभिव्यक्ति करता मेरी पहली झारखण्ड यात्रा की ब्लॉग पोस्ट हिमवीरु ब्लॉग की सबसे लोकप्रिय पोस्ट निकली, जिसे आज भी यात्रा वृतांत सर्च करने पर गूगल सर्च इंजन के पहले पृष्ठ में देखा जा सकता है। लगभग 5 वर्ष बाद पिछले दिनों (16-20जुलाई2018) सम्पन्न हमारी दूसरी यात्रा पहली यात्रा का एक तरह से फोलो अप था। लेकिन समय की धारा कहाँ कब एक समान रहती है, इस बार के अनुभव एकदम अलग रहे। अकादमिक उद्देश्य से सम्पन्न यह यात्रा थर्ड ऐसी में रिजर्वेशन का संयोग न होने के कारण स्लीपर क्लास में रही, जो तप एवं योगमयी अनुभवों के साथ फलित हुई, लगा हमारे किन्हीं प्रारब्धों के काटने की व्यवस्था इसमें थी। काफी समय बाद रेल में सफर का संयोग बन रहा था, जो हमें हमेशा की तरह रोमाँचित कर रहा था। इस बार हमारे साथ Where is my train ऐप्प की अतिरिक्त सुबिधा थी, जिसमें हमें ट्रेन का स्टैंडर्ड समय, उसका हर स्टेशन व उसकी लेट-लतीफी की सटीक जानकारी उपलब्ध