जानता हूँ अँधेरा बहुत
मिल कर रहेगा समाधान जानता हूँ अंधेरा बहुत, लेकिन अंधेरा पीटने के मिटने वाला कहाँ, जानता हूँ कीचड़-गंदगी बहुत, लेकिन उछालने से यह हटने वाली कहाँ।। अच्छा हो एक दिए का करलें इंतजाम, या खुद ही बन जाएं प्रकाश की जलती मशाल, अच्छा हो कर लें निर्मल जल-साबुन की व्यवस्था, या एक बहते नद या सरोवर का इंतजाम।। लेकिन यदि नहीं तो, फिर छोड़ दें कुछ काल पर, करें कुछ इंतजार, शाश्वत बक्रता संग विचित्र सा है यह मानव प्रकृति का मायाजाल, नहीं समाधान जब हाथ में, तो बेहतर मौन रह करें उपाय-उपचार, समस्या को उलझाकर, क्यों करें इसे और विकराल।। इसका मतलब नहीं कि हार गए हम, या, मन की शातिर चाल या इसकी मनमानी से अनजान, आजादी के हैं शाश्वत चितेरे, मानते हैं अपना जन्मसिद्ध अधिकार।। लेकिन क्या करेँ जब पूर्व कर्मों से आबद्ध, अभी, गुलामी को मान बैठे हैं श्रृँगार, लेकिन नहीं सो रहे, न ही पूरी बेहोशी में, चिंगारी धधक रही, चल रहे तिमिर के उस पार।। कड़ियाँ जुड़ी हैं कई जन्मों की, नहीं एक झटके में कोई समाधान, धीरे-धीरे कट रहे कर्म-बन्धन, मुक्त गगन में गूँजेगा