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शनिवार, 29 नवंबर 2025

हिमालय कुछ कह रहा है...

 

2025 मौनसून के प्रकृति ताँडव में छिपे संकेत-संदेश


हिमालय विश्व की सबसे युवा पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है और अपनी विशिष्टताओं के कारण सभी का ध्यान आकर्षित करता है। इसका प्राकृतिक सौंदर्य, गगनचुम्बी हिमशिखर, ताल-सरोवर और हिमनदियाँ, सब इसे विशिष्ट बनाते हैं और सबसे अधिक महत्वपूर्ण है इनसे जुड़ा आध्यात्मिक भाव। जहाँ गंगाजी का पतितपावनी स्वरुप सभी हिमनदियों में पावनता का संचार करता है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं, हिमालय के रुप में अपने स्वरुप की व्याख्या करते हैं। शिव-शक्ति से जुड़े तमाम शक्तिपीठ, सिद्धपीठ एवं तीर्थस्थल इसमें बसे हैं और सर्वोपर स्वयं शिव-शक्ति का निवास स्थान भी तो हिमालय ही है, तमाम ऋषि आज भी इसके दुर्गम क्षेत्रों में तप साधना कर रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केंद्र है, जिसे देवात्मा हिमालय की संज्ञा दी गई है।

लेकिन हिमालय आज रुष्ट दिख रहा है, अपनी विप्लवी हलचलों के माध्यम से कुछ कह रहा है। पावनता के प्रतीक हिमालय के साथ अल्पबुद्धि नादान इंसान ने जो खिलवाड़ किया है व कर रहा है, वह दारुण है, क्षोभ उत्पन्न करता है, चिंता का विषय है। जिस तरह से इसकी तलहटियों, शिखरों, गर्भ व गोद में विकास के नाम पर बेतरतीव अनियोजित योजनाएं क्रियान्वित हुई हैं और हो रही हैं, उनमें से अधिकाँश किसी भी रुप में हिमालय की प्रकृति से मेल नहीं खाती, इसके प्रति न्यूनतम संवेदना से हीन कृत्य प्रतीत होती हैं, जिनमें व्यक्ति की अदूरदर्शिता, क्षुद्र लोभ, अहंकार एवं महत्वाकाँक्षाएं ही अधिक झलकती हैं।

वर्ष 2025 में जिस प्रकार का ताँड्व प्रकृति ने हिमालय के हिमाचल, उत्तराखण्ड और जम्मु-काश्मीर प्रांतों में किया है और इसके भयावह दुष्परिणाम इसकी तलहटी में बसे पंजाब, दिल्ली तक देखने को मिले हैं और जिसका विस्तार प्रयागराज से लेकर बनारस तक हुआ है, वह उपरोक्त धारणा को पुष्ट करता है और समय रहते हिमालय के संकेत को ह्दयंगम करने व आवश्यक सवक सीखने का संदेश दे रहा है। हिमालय अब तक पर्याप्त वार्निंग दे चुका है और ऐसा प्रतीत होता है कि अब सीधे कार्यवाही पर उतर गया है और यदि नहीं सुधरे तो इसके ओर विकराल लोमहर्षक दृश्यों को हम किश्तों में आगे भी देखने व झेलने के साक्षी व भुगतभोगी होंगे।

माना कि इन घटनाओं में ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक मौसम परिवर्तन आदि के कारण भी सक्रिय हैं, जिनमें प्रभावित लोगों का सीधा हाथ नहीं रहता, लेकिन इनके नाम पर हम अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकते, अपनी बेवकुफ़ियों को नहीं ढक सकते, अपनी अदूरदर्शिता को बेदस्तूर जारी नहीं रख सकते, अपनी प्रकृति विरोधी योजनाओं को विकास का जामा नहीं पहना सकते। समय गहन आत्मचिंतन, समीक्षा और ठोस सुधार का है। प्रकृति व हिमालय के प्रति न्यूतम संवेदना के साथ व्यवहार समय की माँग है। नहीं तो भविष्य में ट्रेलर के आगे की विध्वंसक पिक्चर के लिए सभी को मिलजुलकर तैयार रहना होगा। कुपित प्रकृति के सामूहिक दण्ड विधान से कोई बच नहीं सकता।

इस प्राकृतिक आपदा में हताहत हुई सभी दिवंगत आत्माओं के प्रति पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए, इनसे जुड़े परिजनों के प्रति हार्दिक सांत्वना का भाव रखते हुए, सभी निवासियों एवं परिजनों से भाव भरा निवेदन एक ही है कि प्रकृति के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलें। भारतीय चिंतन में प्रकृति को माँ का दर्जा दिया गया है, जो अपनी संतानों का आवश्यक पौषण, संवर्धन और संरक्षण करती है। इस माँ के प्रति अगाध कृतज्ञता का भाव रखते हुए तालमेल के साथ काम करें, उसकी कृपा पग-पग पर अनुभव होगी। और यदि हम इसे भोग्या मानकर उसका दोहन-शौषण करेंगे, उस पर अत्याचार जारी रखेंगे, अपने लोभ व मूढ़ता की अंधी दौड़ में मनमाना आचरण करते रहेंगे, तो फिर इसका खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।

गौर करें, वर्ष 2025 में हिमालय क्षेत्र में शिव-शक्ति से जुड़े तीर्थस्थलों के आसपास ही प्राकृतिक आपदाएं अधिक आई हैं। स्पष्ट संकेत है कि प्रकृति रुष्ट है, प्रकृति की अधिष्ठात्री माँ जगदम्बा रुष्ट हैं, प्रकृति के अधिपति भगवान शिव रुष्ट हैं और महाकाल-महाकाली अपना ताण्डव नर्तन करने के लिए विवश हैं। वे सृष्टि का संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक विध्वंस करने के लिए वाध्य हैं।

जिस तरह से तीर्थ स्थलों को भोगलिप्त इंसान ने पिकनिक स्पॉट बना रखा है, तीर्थयात्रियों को लूटने का व्यापार केंद्र बना दिया है, वह किसी भी रुप में तीर्थ की गरिमा के अनुरुप नहीं है। और फिर बिना जीवन तो तपाए, सुधार किए, पात्रता का विकास किए, सस्ते में, मुफ्त में भगवान की कृपा के लिए भीड़ का हिस्सा बनकर तीर्थस्थलों में जमघट लगाना, सारा कचरा, गंदगी वहीं तीर्थ क्षेत्र में फैंकना समझदारी के कदम नहीं हैं। ऐसे तीर्थाटन की चिन्हपूजा के साथ भगवान की कृपा की आशा लगाना नादानी है, नासमझी है, जो जीवन के सुत्रों के प्रति न्यूनतम समझ का भी अभाव दर्शाती है। ईश्वर कृपा के लिए न्यूनतम पात्रता का अर्जन करना होता है, जो अंतर की ईमानदारी, जिम्मेदारी और समझदारी के अनुपात में होता है। गैरजिम्मेदार आचरण, बेईमानी, धूर्तता, चालाकी, होशियारी, अदूरदर्शिता, निष्ठुरता, निपट स्वार्थता, दर्प-दंभ-अहंकार से इसका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं।

फिर सीधे इन तीर्थ स्थलों के ह्दयक्षेत्र तक राह की प्रकृति को तहस-नहस करते हुए सड़क से लेकर रोपवे व रिजोर्टों का निर्माण कितना उचित है। प्रकृति की गोद में सुरम्य स्थल पर एकांतिक वातावरण में तीर्थस्थल की पावन स्थिति ही आदर्श रही है। वहाँ तक पहुँचने के लिए थोड़ा श्रम तो तप का हिस्सा माना जाता रहा है और जो अशक्त हैं, उनके लिए कंडी से लेकर तमाम सेवाएं उपलब्ध रहती हैं, जो स्थानीय लोगों के रोजगार का भी माध्यम बनते हैं।

वर्ष 2025 के प्रकृति ताँडव ने एक बात ओर स्पष्ट कर दी है कि नदियों व जल स्रोत्रों के साथ खिलवाड़ न किया जाए व इनको हल्के से लेने की भूल न की जाए। इनकी राह में वसावट बसाने, मकान-दुकान, होटल व रिजॉर्ट सजाने की कुचेष्टा न करें। यहाँ अंग्रेजों की तारीफ करनी पडेगी, जो अपने समय में जिस भी हिल स्टेशन में रहे, उनके द्वारा प्रकृति के साथ संयोजन में खड़ी की गई रचनाएं आज भी सुरक्षित-संरक्षित हैं, जबकि उनके जाने के बाद जिस तरह से हमने पहाड़ों की ढलानों पर जंगल का सफाया करते हुए वेतरतीव बहुमंजिला भवनों की कतार, कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए हैं, वे हमारी सोच के दिवालिएपन को ही दर्शाते हैं, जिसके साथ हम जैसे अपने ही विनाश की पटकथा लिख बैठे हैं। यदि किसी भी मौनसून के सीजन में बारिश कुछ दिन ओर रहती है, तो होने वाले नुकसान का अनुमान लगाया जा सकता है। और भूकंप जोन में तो यह खामियाजा अकल्पनीय हो सकता है।

सार रुप में हिमालयी प्राँतों में विकास के कर्णधार नेताओं, अधिकारियों, इँजीनियरों और बुद्धिजीविओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अब सजग सचेत हो जाएं और आम इंसान भी जागरुक हो जाएं और विकास के नाम पर अपने अस्तित्व के लिए खतरा बनने वाली योजनाओं में समय रहते परिमार्जन करें, सुधार करें। नहीं तो आने वाला समय बहुत विकट, विप्लवी एवं विध्वंसक होने वाला है। थोड़ी सी समझदारी, थोड़ी सी ईमानदारी व प्रकृति के प्रति न्यूनतम संवेदनशीलता के आधार पर हम इस तरह की त्रास्दी के दुष्प्रभावों को एक सीमा तक नियंत्रित करते हुए अपने भविष्य को संरक्षित कर सकते हैं।

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

2023 का सावन और प्रकृति का रौद्र रुप

                                      प्रकृति की करारी मार में निहित संकेत-संदेश

इस वार मई-जून के माह से प्रकृति की विचित्र लीला के दर्शन हो रहे थे, जिसमें गर्मी की वजाए, लगातार वारिश होती रही, विशेषकार पहाड़ों व इनके तलहटी क्षेत्रों में। परिणामस्वरुप गर्मी की झुलसन बैसी तल्ख नहीं रही, जो हर वर्ष मई-जून माह में प्रायः कई सप्ताह तक रहती थी। हिमालयन घाटियों-वादियों में सघन हरियाली छाई रही। मौसम खुशनुमा बना रहा। गर्मी के महीनों में इतनी हरियाली के दर्शन कई दशकों बाद हो रहे थे। इसके साथ भूमि के अंदर जल स्रोत पर्याप्त रुप से समृद्ध हो चुके थे। भूमि में जल जैसे रच-बस चुका था, जगह-जगह से जल स्रोत फूट रहे थे और कभी इस मौसम में सुखे रहने वाले नाले दनदनाते हुए नदी तक प्रवाहित हो रहे थे। आश्चर्य नहीं कि इस वर्ष मैदानों व शहरों में गर्मी व घिचपिच आवादी के तनाव-अवसाद से राहत पाने, कुछ दिन शांति-सूकून व शीतल आवोहवा का आनन्द लेने वाले पर्यटकों की संख्या हिल स्टेशनों में बढ़ी-चढ़ी रही।

गर्मी के मौसम में प्रकृति का यह अप्रत्याशित व्यवहार एक ओर जहाँ गर्मी से राहत देता विशिष्ट उपहार लग रहा था, वहीं इसके साथ जलवायु परिवर्तन की आहट भी सुनाई दे रही थी, जिसके कुछ दुष्परिणाम भी प्रत्यक्ष दिख रहे थे। इस बार प्लम से लेकर सेब की फ्लावरिंग ठंड के कारण दो सप्ताह पीछे चली गई थी औऱ फल उत्पादन का भी इसी हिसाब से प्रभावित होना तय था। लेकिन जुलाई के आते-आते मानसून के साथ पश्चिमी विक्षोभ का संगम-संयोग पहाड़ों में कहर बनकर बरसा, जिससे मैदानी इलाकों तक जनजीवन त्राहि-त्राहि कर उठा।

हालात कुछ ऐसे बन गए थे, जो 2015 की केदारनाथ त्रास्दी के दौरान रहे। खण्ड जलप्रलय के परिदृश्य दो-चार दिन में स्थान-स्थान पर प्रत्यक्ष हो उठे थे। दिल्ली में चालीस वर्षों का वारिश का रिकॉर्ड ध्वस्त हो रहा था, तो हिमाचल में कुल्लू से मंडी इलाके में पिछले 50 से सौ वर्षों तक शान के साथ ब्यास नदी के किनारे खड़े पुल व भवन ताश के पत्तों की भांति धड़ाशयी हो रहे थे। पंजाव के चंडीगढ़-मोहाली शहरों के बीच नदी से लेकर झीलों के दर्शन हो रहे थे, तो प्राकृतिक प्रहार ने कुल्लू से मानाली के बीच के राइट बैंक नेशनल हाइवे को पूरी तरह से ध्वस्थ कर दिया। रासयन से आगे मानाली के बीच जगह-जगह पर सड़क के नामो-निशान मिट गए हैं। घाटी में जगह-जगह बादलों का फटना, गाँवों-घरों, कस्वों व शहरों का उजड़ना, जनजीवन का दहशत में जीने के लिए विवश-वाध्य होना आम परिदृश्य रहा और इस सबके बीच प्रकृति की अपराजय सत्ता के सामने मनुष्य अपने असहायपन व बौनेपन का तीखा अहसास, आए दिन करता रहा।

प्रकृति की गोद में बसी देवभूमि जैसे कह रही थी कि बहुत हो गया पर्यटन व्यसाय, एक तरफा बिजनस-धंधा, आधुनिकता के नाम पर पिकनिक, भोग-विलास, राग-रंग से भरा शौर-गुल, दोहन-शौषण व दूषित आचरण। अब मुझे कुछ दिन एकांत में छोड़ दो, अपने हालात में, अपने प्राकृतिक-आदिम स्वरुप में, एकांत-शांत-नीरव-आनन्दमय व ध्यानस्थ अवस्था में। मेरी शांति अब कुछ दिन भंग मत करो।

दिल्ली में राजधानी के ह्दय क्षेत्र क्नॉट प्लेस तक इस बीच झील बन गई थी, आगरा में ताजमहल के आंगन तक यमुना नदी का स्तर पहुँच गया था। वृंदावन में तो जैसे यमुना शहर में प्रवेश कर गई थी, अपनी पुरानी राहों को तलाशते हुए, अपने ईष्ट से मिलने के लिए आकुल। इस प्राकृतिक आपदा में प्रकृति के चमत्कार, दैवीय संकेत एवं दिव्य संयोग भी स्पष्ट रुप में प्रत्यक्ष होते गए, जो ईश्वरीय अस्तित्व में विश्वास रखने वालों की आस्था को ओर मजबूत करते गए।

इस पूरे खंड जल-प्रलय के विप्लवी दृश्य के बीच छोटी काशी के नाम से प्रख्यात हि.प्र. के शहर मण्डी में व्यास नदी के किनारे चार सौ वर्ष पुराना पंचवक्त्र शिवमंदिर शांत-स्थिर-अविचल अवस्था में खड़ा रहा। ऐसा प्रतीत होता रहा, कि जैसे सावन स्वयं भगवान शिव को अभिषेक करने के लिए उमड़ पड़ा हो। यह कुछ ऐसा ही दृश्य था, जैसे केदार त्रास्दी के दौरान बाबा केदार भीम शीला की आढ़ में अविचल खड़े रहे। फिर हनोगी माता के आगे जहाँ ब्यास नदी हर वर्ष सड़क को छुकर जाती थी, वह इस वर्ष पूरी तरह से ध्वस्थ हुई। इससे पूर्व कभी यह सड़क ध्वस्त नहीं हुई थी। इसी वर्ष इसके समानान्तर पहाड़ों के अंदर सुरंग तैयार हो चुकी है, जहाँ से यातायात सुचारु हो चुका है। ऐसे लगता है कि प्रकृति ने इसका इंतजार किया, हनोगी माता ने इस राह पर अब तक कृपा बनाए रखी। ऐसे लगता है कि जैसे अब भगवती भी शांति चाहती हैं, एकांत चाहती हैं, अपने ईष्ट महाकाल के साथ अपने मूल स्वरुप में कुछ काल विताना चाहती हैं। हनोगी माता के आगे का पुराना सड़क मार्ग इस वर्ष पूरी तरह से ध्वस्त हुआ है।

दिल्ली में जमुना नदी तो वर्ष के अधिकाँश समय गंदे नाले के रुप में सड़ांध से अभिशप्त रहती हैं, जिस पर उद्योगों का अवशिष्ट कचरा निरंतर प्रवाहित होता रहता है, जिस कारण इसका जल गंदे नाले से भी अधिक दूषित एवं वदरंग रहता है और इस पर इतनी झाग छायी रहती है कि इसका स्वरुप तक समझ नहीं आता। इस बाढ़-विप्लव में पहली बार यमुना नदी को जीवित-जीवंत प्रवाहित देखा। यह अलग बात है कि दिल्ली से लेकर मथुरा-वृंदावन को इस प्रवाह ने कुछ दिन जल-मग्न रखा और कुछ सोचने विचारने, चिंतन-मनन व आत्म मंथन करने के लिए विवश दिया।

और यह जुलाई माह में, सावन माह में, भोले नाथ के पावन काल में, कुपित प्रकृति के प्रहार के बीच हर क्षेत्र के मानुष समुदायों के लिए सोचने, विचारने, सुधरने के लिए प्रखर संदेश, स्पष्ट संकेत मिलते रहे हैं। और इंसान इनको कितना इनको समझ पाया है, कितना गुन पाया है, समझकर, गुनकर आगे कितना अमल करता है, यह देखना शेष है। आशा है कि वह लम्बे समय तक इस बार मिले सबकों को याद रखेगा और प्रकृति से मिले संकेतों व संदेशों के अनुरुप व्यैक्तिक एवं सामूहिक स्तर पर अपने आचरण में आवश्यक सुधार लाने की भरपूर चेष्टा करेगा और अपने तथा भावी पीढ़ी के भविष्य को बेहतरीन बनाने की दिशा में कदम उठाएगा।   

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