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अथ योगानुशासन

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शाश्वत स्रोत से जोड़ता राज मार्ग 21 जून को योग अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रुप में योग को वैश्विक स्वीकृति मिल चुकी है। जीवन शैली, मानसिक स्वास्थ्य और वैश्विक अशांति के संकट से गुजर रही इंसानियत ने समाधान की उज्जली किरण के रुप में इसे एक मत से स्वीकारा है। यह इसके सार्वभौमिक, व्यवहारिक और वैज्ञानिक स्वरुप के कारण ही सम्भव हो पाया है। इसे किसी भी धर्म, जाति या सम्प्रदाय का व्यक्ति कर सकता है, अपना सकता है। यह किसी भी धार्मिक कर्मकाण्ड या आस्था से मुक्त एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। इसका सारोकार अपने ही तन-मन से है, इसके केंद्र में अपना ही बजूद है, अपनी ही सत्ता का यह अन्वेषण है, अपनी ही आत्म चेतना के केंद्र कहें या शिखर की यह यात्रा है, निताँत व्यैक्तिक, नितांत एकाकी। हालाँकि समाज, परिवेश भी इस यात्रा में समाहित हैं, जिसके साथ न्यूनतम किंतु स्वस्थ-सार्थक सामंजस्य का इसमें प्रावधान है। योग अपने शब्द के अनुरुप जुड़ने की प्रक्रिया है, अपनी अंतरात्मा से, अपने परिवेश से और फिर परमात्मा से। योग एक संतुलन है, जो खुद के साथ एवं परिवेश-समाज के साथ एक सामंजस्य को लेकर चल

वो पल दो-चार

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मई माह में बाद दोपहरी की शीतल वयार , सूरज अस्ताचल की ओर बढ़ रहा , झुरमुट के आंचल में बैठा चाय का कर रहा था इंतजार , गगनचुम्बी देवतरु के सान्निध्य में बैठा विचारमग्न , घाटी की गहराईयों से चल रहा था कुछ मूक संवाद , बाँज-बुराँश के हिलते पत्ते झूम रहे थे अपनी मस्ती में , आकाश में घाटी के विस्तार को नापती बाज़ पक्षियों की उड़ान , वृक्षों पर वानरसेना की उछलकूद , घाटी से गूंजता पक्षियों का कलरव गान , मन में उमड़-घुमड़ रही थी संकल्प-विकल्प की बदलियाँ , चिदाकाश पर मंडरा रहे थे अवसाद के अवारा बादल दो-चार , विदाई के नजदीक आते दिनों के लिए , कर रहा था मन को तैयार। लो आ गई प्रतीक्षित प्याली गर्म चाय की , चुस्की के साथ छंटने लगी आकाश में छाई काली बदलियाँ , अड़िग हिमालय सा ध्यानस्थ हो चला गहन अंतराल , थमने लगी चित्त की चंचल लहरें , शांत हो चली प्राणों की हलचल , मन का ज्वार , भूत भविष्य के पार स्मृति कौंध उठी अंतर में कुछ ऐसे , वर्तमान में चैतन्य हो चला अंतस तब जैसे , नई ताज़गी , नई स्फुर्ति का हो चला संचार , बढ़ चले कदम